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Monday 4 June 2018

निकम्मा नहीं साहब स्टोर बाबू कहो..



     जब तक आश्रम में था या उससे पूर्व कलिंपोंग में भोजन और वस्त्र की व्यवस्था हो जाती थी, सो चिंता काहे की.. तब भी मेरी यही दो जरुरतें थीं  और आज फिर से उसी राह पर  हूं । यूं समझ लें कि इस महंगाई के हिसाब से बेरोजगार ही हूं। संस्थान ने बीते होली पर जब मुझे विज्ञापन मिला , तो उसमें से अपना हिसाब रख लेने को कहा गया था । पर भूख तो हर रोज लगती है न साहब , पैसे की जरूरत भी हर माह होती है ! मैं तो किसी विभाग से पत्रकार के नाम पर धन उगाही भी नहीं करता हूं। फिर भी बंधुओं मैं खुशकिस्मत हूं कि इन 24-25 वर्षों में अपनी सारी भौतिक इच्छाओं को दबा कुछ पैसे इसी संकट काल के लिये एकत्र किये हैं, ताकि किसी के सामने हाथ फैलाना न पड़े। और ऐसा मुझे विश्वास है कि अपने स्वाभिमान की बलि मैं कतई नहीं चढ़ने दूंगा..
     बात यदि अपनी पहली नौकरी की करूं, तो आश्रम छोड़ने के बाद सीधे मुजफ्फरपुर मौसी जी के घर एक बार फिर जा पहुंचा। वह मेरा तीसरी बार मुजफ्फरपुर जाना हुआ था। पहली बार मां - बाबा संग कोलकाता से कुछ दिनों के लिये गया था। दूसरी बार हाईस्कूल करने के बाद घर से संबंध बिगड़ने पर चला गया। तब मौसा जी का मोटर पार्ट्स और मैकेनिक की दुकान थी। लेकिन, तीसरी बार जब गया तब परिस्थितियां विपरीत थी। मौसा जी अपने पिता जी के सर्राफा दुकान में ड्यूटी देते थें। हालांकि मौसी जी मेरा बहुत ख्याल रखती थी। जब छोटा था, तभी से ही वे मुझे अपना ही पुत्र समझती है। उनकी पुत्री यानी मेरी बहन स्वीट तो मुझसे साढ़े बारह वर्ष छोटी है। इसीलिये तो कहता हूं कि नियति का यह कैसा खेल है कि तीन -तीन मां के होने के बावजूद मैं एक बंजारा हू... खैर, मुजफ्फरपुर में इस बार मैं किसी पर बोझ नहीं बनने की सोच रखी थी। युवा जो हो गया था, कहीं यहां भी लोग वही निठल्ला न कहने लगें मुझे । सवाल यह उठा कि मेरे पास कोई डिग्री तो थी नहीं कि उन दिनों बिहार जैसे पिछड़े प्रांत में मुझे अच्छी प्राइवेट नौकरी मिल जाती। बनारस में मास्टर साहब का लड़का और कोलकाता में बाबा मां के दुलारा , यही मेरी पहचान थी। एक बैंक में बड़ी मौसी जी कार्यरत थीं। बैंक प्रबंधक रहें बड़े मौसा जी के आकस्मिक निधन के बाद उन्हें नौकरी मिल गयी थी। उनका मुझपर काफी स्नेह रहा। सो, एक बड़े थ्रेसर कम्पनी में काम मिल गया। फैक्ट्री के मालिक ने मुझे स्टोर सम्हालने की जिम्मेदारी दी थी। मैं काफी सहमा हुआ था, स्वयं पर ग्लानि भी हो रही थी कि कहां तो ख्वाहिश इंजीनियर बनने की थी और अब यह स्टोर बाबू का काम.. वो गाना याद है न आपको..

जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर , कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं..

   सो ,चल पड़ा काम पर।तब मैं साइकिल तक ठीक से नहीं चला पाता था। अतः मौसा जी एक  छोटी साइकिल ले आये। यहां से बाद में मुझे दूर सुनसान इलाके में फेक्ट्री पर पोस्ट कर दिया गया। साइकिल से जाने में एक घंटा और वापसी में भी इतना ही समय लग जाता था। यूं कहें कि सुबह सात बजे निकला तो रात्रि साढ़े नौ -दस बजे वापसी होने लगी थी। थ्रेसर मशीन का सीजन जो था। मालिक समझ गये थें कि मैं अच्छे परिवार का हूं और बेहद ईमानदार भी, इसलिये स्टोर से बिना मेरी अनुमति के कोई कुछ नहीं लेता था। यहां तक कि मालिक ने स्टोर रजिस्टर भी देखना बंद कर दिया था। कोई कुछ कहता, तो सीधे कहते कि  लड़के से पूछों।  मालिक का मुझमें यह विश्वास देख वरिष्ठ कर्मचारियों का ईष्या करना स्वभाविक है।सो, एक शाम न जाने क्यों मालिक ने मुझे अपशब्द कह दिया, इसके बाद वे मुझे वापस काम पर बुलाने आये थें , बड़ी मौसी जी से अनुरोध करते रहें, पर मैं फिर नहीं गया वहां...
    बिना किसी डिग्री के कुशल स्टोर बाबू बनने की वह मेरी पहली पहचान थी , जिसे मैंने अपनी ईमानदारी, परिश्रम और काम के प्रति समर्पण से बनाई थी।
      बंधुओं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हम किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बना सकते हैं। मुजफ्फरपुर आकर मैंने यही सीखा । अपनों द्वारा निठल्ला कहलाने के कलंक से यहां मुक्त जो हो गया...
  (शशि)