Followers

Wednesday 23 May 2018

आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे ओ मेरे मितवा



       इंसान को उसके बुरे दिन काफी कुछ सीखा जाता है। यदि मैं अपनी बात करूं, तो उस दौर मैंने जो चिन्तन- मंथन किया हूं, वह " अमृत कलश " के रुप में मेरे समक्ष आज प्रस्तुत है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि विगत 25 वर्षों से इस छोटे से शहर की सड़कों पर अखबार बांटने वाले एक दुर्बल काया वाले व्यक्ति को लोग इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं। किसी बड़े अखबार का पत्रकार भी तो नहीं हूं ,जो पैरवी आदि करने में उनके काम आता। फिर भी आम और खास दोनों ही तरह के लोग मेरी इज्ज़त करते हैं और स्नेह भी। पुलिस विभाग के लोग जो सबसे अकड़ कर बात करते हैं, वे  भी कब मुझे शशि भैया कहने लगे ,ठीक से याद नहीं। वैभव सम्पन्न राजनेता, माननीय और व्यापारी वर्ग कुछ इसी तरह का मधुर सम्बंध मुझसे रखते हैं। कुछ तो जबर्दस्ती भी करने लगते हैं कि शशि जी अब बहुत चल लिये साइकिल से बस एक छोटी सी स्कूटी स्वीकार कर लें। बटम ही तो दबाना है, भारी भी वजन में नहीं है यह। बाइक वे इसलिए नहीं कहते हैं कि खराब स्वास्थ्य के कारण ,उसे चलाना मेरे लिये तनिक कठिन होगा। खैर, अभी तक तो यह पुरानी साइकिल ही मेरी पहचान है! सच कहूं तो मैं इसे खोना नहीं चाहता ! 
       आज के ब्लॉग लेखन में मैं अपने बुरे वक्त के इकलौते मित्र "कम्पनी गार्डन"की याद में डूब जाना चाहता हूं। बनारस के मैदागिन क्षेत्र में स्थित यह पार्क मेरे लिये एक निर्जीव बगीचा तब भी नहीं था, जब मैं यहां किसी वृक्ष के नीचे बैठ पढ़ा करता था। ननीहाल में जो अत्यधिक प्यार दुलार मिला था। मां के गुजरने के बाद दुबारा अपने घर वाराणसी लौटने पर इन सभी से वंचित सा हो गया था। कक्षा 11-12 में मेरी मुलाकात इस अजीज दोस्त से तब हुई थी, जब बिल्कुल अकेला पड़ता जा रहा था। कोशिश यह थी कि ऐसा कोई शरणस्थल मिले, जहां घर के बोझिल वातावरण से दूर गणिक के सवालों को सुलझाने में खोया रहूं । ठीक से याद नहीं, शायद दादी ही मुझे यहां लेकर आई थी या मैं स्वयं ही खींचा चला आया । कभी यूकेलिप्टस के पेड़ के नीचे, तो कभी शीतला मंदिर के चबूतरे पर या फिर उस रैन बसेरे में जहां सुबह बुजुर्ग रामायण पाठ करते थें, पढ़ा करता था। टूटते पारिवारिक संबंधों के कारण मैं व्याकुल था। पढ़ने के लिये पुस्तक की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। जवां हो रहा था। सो, घर से मिलने वाली दो जून की सूखी रोटी और थोड़ी सी सब्जी मेरे पेट की आग बुझाने में असमर्थ थी। खैर , वह दादी ही थी, जिन्होंने अपने हिस्से का भोजन मुझे कराया था और यह कम्पनी गार्डन मेरा साथी ठंडा पानी पिलाया करता था। कोई डेढ़ वर्ष का साथ रहा, इसका और मेरा।  फिर  परीक्षा दे कलिंपोंग चला गया। जब वहां से वापस मम्मी पापा संग घर लौटा, तो सब कुछ ठीक ही था। किन्तु दुर्भाग्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सो, एक बेरोजगार युवक के रुप में फिर से अपने इस दोस्त की छत्रछाया में मैंने वर्षों गुजारे यहां । यूं कहें कि घर से नाता सिर्फ रात्रि शयन तक सीमित रह गया था। तब मैं निठल्ला क्या करता। न तन पर बढ़िया कपड़े थें, न जेब में पैसा ऊपर से सिर पर तमगा यह लगा था कि मास्टर साहब का लड़का हूं ! सुबह घर से जो निकलता तो देर दोपहर ही इस बाग से लौटता था और शाम चार बजने से पहले ही फिर से बंधु मैं आ गया कि पुकार लगाते यहां पहुंच जाता था । उसी अवसाद भरे दौर में इस बाग में बड़े बुजुर्गों का संग मिला। उनका ज्ञान मिला,स्नेह मिला और सतसंग भी।  मेरे मित्र बड़े भाई प्रभात मिश्र, जो भी पत्रकार हैं, कहते हैं कि एक बात बताओं  कि इतनी जानकारी कहां से पाये तुम, ढ़ाई दशक से तो सुबह से रात तक यहां हाय! पेपर , हाय! समाचार , बस यही रट लगाये हुये हो.. यह तो यदि ब्लॉग लेखन नहीं करते, तो हमलोग जानते भी नहीं कि तुम्हें पत्रकारिता के अतिरिक्त भी कुछ आता है। खैर, यह सब उसी कम्पनी गार्डन में मिले बड़ों का ही आशीर्वाद है। उसी दौर में मैं वाराणसी के कितने ही मठ- मंदिरों और मजार पर शांति की खोज में गया, कितने ही संतों का प्रवचन ध्यान लगा कर सुना था। सो, आज भी जब बनारस जाता हूं, किसी से मिलूं या न मिलूं अपने इस साथी का सानिध्य जरुर पाना चाहता हूं, जिसके बड़े हिस्से की हरियाली भवन बना कर छीन ली गयी है।
   और क्या कहूं अपने इस दोस्त से अपनी मोहब्बत के बारे में, यही कि
   हम तुमसे जुदा हो के मर जाएंगे रो रो के..

    सचमुच इस दोस्त की कम्पनी छोड़ने के बाद फिर कभी मुझे वैसी सुकून भरी जिंदगी नहीं मिली, जो लोग अपने लगे भी, तो वे मुझे रास्ते का पत्थर समझ ठोकर मार आगे बढ़ गये और मैं वहीं पड़ा रह गया... काश ! ऐसा हो पाता कि जीवन की वह आखिरी शाम अपने इस बिछुड़े मितवा के आगोश में होता..
(शशि)