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Friday 8 November 2019

आनंद तुम छुपे हो कहाँ ?

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग-7)
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   इस दीपावली पर्व पर भी स्नेहीजनों ने उपहार स्वरूप मेवा -मिष्ठान दिया है, परंतु वो एक रुपये का खिलौना , पचास पैसे का खाजा और नरसिंह मंदिर का प्रसाद कहाँ मिलेगा , वह आनंद कहाँ मिलेगा ?
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    पूज्य संत मुरारीबापू कहते हैं - " ज्ञान के लिये कथा मत सुनना, आनंद के लिये कथा सुना करो।"
     क्या है यह आनंद , कैसा है इसका रंग-रूप,कहाँ होती है इसकी प्राप्ति ? इस अर्थयुग में हम पैसे से इसे खरीदने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु यह तो लुकाछिपी कर रहा है, अनेक वैभव और प्रयत्न के उपरांत भी पकड़ में नहीं आता है। इसकी खोज में अंततः सम्पूर्ण जीवन फिसल जाता है।
  अरे हाँ ! याद आया संत कबीर ने यही तो कहा था न कि -

   मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,
     मैं तो तेरे पास में
  खोजी होए तुरत मिल जाऊं
 एक पल की ही तलाश में...

      वस्तुतः हमारी छोटी-छोटी खुशियों में आंनद का निवास है , परंतु हमारी अभिलाषा इतनी प्रबल एवं तीक्ष्ण है कि इन खुशियों का आनंद हम नहीं उठा पाते हैं।
   पिछले दिनों मैं अपने  एक शुभचिंतक गुप्ता जी के फर्नीचर की दुकान पर बैठा हुआ था। तभी दो महिलाएँ वहाँ आयीं। वे एक छोटे से फोल्डिंग पलंग का मूल्य पूछती हैंं। भाई साहब ने साढ़े पाँच सौ रुपया बता दिया। यह सुनकर श्रमिक वर्ग की ये महिलाएँ जो वार्तालाप से आपस में सास- बहू लग रही थीं ,वे अपनी-अपनी साड़ी के एक छोर में बंधे रुपये को टटोलने लगीं । कुल पौने पाँच सौ रुपया ही उनके पास था। इस दुकान पर मोलभाव होता नहीं ,  यह जानकारी ऐसे ग्राहकों को पहले ही दे दी जाती है। वैसे तो , गुप्ता जी हैं बड़े ही समाजसेवी और उतना ही मुनाफा लेते हैं, जितना उचित हो।
     पलंग का मूल्य सुनकर इन दोनों महिलाओं के माथे पर चिन्ता की लकीरें बढ़ने लगीं, चेहरे का रंग उतर गया। हमदोनों ही बड़े ही गौर से उन्हें देख रहे थें। उन्होंने आपस में कुछ कानाफूसी की और फिर वे थके पांव वापस घर की ओर मुड़ने को हुई ही थीं कि दुकान वाले भैया ने उनसे पूछा- आखिर बात क्या है , कुछ तो बताओ ?
  भाईसाहब के अपनत्व भरे स्वर पर वे दोनों पिघल उठीं । उन्होंने बताया कि वे समीप के गांव से आयी हैं। मेहनत-मजदूरी करती हैं।  ठंड का मौसम आ गया है। चिन्ता बस इतनी है कि उनका लल्ला भी उनके साथ जमीन पर सोया करता है। उन्होंने किसी तरह ये कुछ पैसे एकत्र किये हैं। यह सोचकर वे कई कोस पैदल चलकर  शहर आयी हैं कि आज अपने लाडले के लिये यह रंगबिरंगा फोल्डिंग पलंग लेकर जाएँगी, तो उसे कितनी खुशी होगी, किन्तु विधाता को यह मंजूर नहीं है। अच्छा, फिर कभी आऊँगी बाबूजी, यह कह वे आगे बढ़ने को हुई ।
   भाई साहब ने कहा कि बात क्या है, यह तो बताओ न तुम दोनों। वे स्वाभिमानी महिलाएँ थीं। अतः मूल्य कम कराने के लिये अपनी गरीबी का हवाला देना नहींं चाहती थीं। लेकिन , पूछने पर उन्होंने बता दिया कि उनके पास कुल पौने पाँच सौ रुपये ही हैं। यहाँ तक कि गांव जाने का किराया-भाड़ा भी नहीं है। हाँ, यदि पलंग मिल जाता, तो वापस पैदल घर जाना अखरता नहीं ।
   दुकानवाले भैया ने उनकी परिस्थितियों को देखा और कहा कि अच्छा दे जितना पैसा है और ले जा ,यह पलंग तेरा हुआ।  उनके इतना कहते ही पूछे नहीं मित्रों कि इन दोनों महिलाओं का चेहरा प्रसन्नता से किस तरह से खिल उठा। फिर क्या था बहू ने  फोल्डिंग पलंग अपने सिर पर उठाया और सास आगे- आगे चलने लगी। मानो पलंग नहीं उन्हें कुबेर का खजाना मिल गया हो। उन्हें खुशी इस बात की थी कि उनका बालक ठंड में आज से भूमि पर शयन नहीं करेगा। उधर , मैं और दुकानवाले भैया भी यह दृश्य देख कर प्रफुल्लित हो रहे थें। उन्होंने मुझसे कहा कि उनके लिये यह घाटे का सौदा नहीं रहा, क्योंकि ये सास-बहू उन्हें भी यह पाठ पढ़ा गयी हैं कि असली खुशी कहाँ छिपी है । खुशी हमारे वातानुकूलित शयनकक्ष में नहीं है, वरन् यह तो उनके पुत्र के लिये खरीदे गये इस मामूली से फोल्डिंग पलंग में है। इनकी मनोस्थिति को देख हम दोनों ही हर्षित हो रहे थें। बंधुओं, यही तो है आनंद ,उनके लिये भी और हमारे लिये भी, आपस में बांट लो ,चाहे जितना ..।
     धन के अभाव में भी हम खुशियों को समेट सकते हैं। मैंने इसी दुकान पर हृदय को आनंदित करने वाला एक और दृश्य देखा । उसदिन एक युवा दम्पति साइकिल से आया था। पति- पत्नी दोनों पास के गांव के थें। जिन्होंने लकड़ी का एक दरवाजा खरीदा। इनके पास इतने पैसे नहीं थें कि ठेले से उसे घर ले जा सके। अतः उसे साइकिल पर रखा,पति ने हैंडिल संभाला और पत्नी पीछे से दरवाजे को भरपूर सहारा दिये जा रही थी । वे दोनों पैदल ही हँसते- मुस्कुराते वार्तालाप करते हुये गाँव की ओर बढ़ चले। मैंने देखा इस दरवाजे का बोझ उन्हें भारी नहीं लग रहा था। वे अत्यधिक प्रसन्न इसलिए दिख रहे थें , क्योंकि अब दरवाजा लगने से उनका घर सुरक्षित हो जाएगा।
              अपने बचपन की बात कहूँ ,तो वाराणसी में उनदिनों हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। दीपावली के दिन बाजार में मैंने अनेक खिलौने देखे थें। उनमें से मिट्टी का दो बैलों के साथ हल जोतने वाला किसान मुझे बहुत पसंद आया । जिसकी कीमत एक रुपया थी।
वैसे ,तो कोलकाता में बाबा टोकरी भर खिलौने दिलाया करते थें, किन्तु यहाँ घर पर एक रुपया किसी खजाने से कम नहीं था, हम भाई-बहनों के लिये। खैर ,घर से जैसे ही पैसा मिला , मैं दौड़ पड़ा विशेश्वरगंज बाजार की ओर ,उस खिलौने को पाकर मुझे कितनी खुशी मिली, उसे आज भी कहाँ भुला पाया हूँ। दीपावली की उस शाम मैं दौड़ते हुये घर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा , ताकि माताजी को अपना वह प्रिय खिलौना दिखलाने के बाद उसे पूजाघर में बने रंगोली के समक्ष रख सकूँ। इसी हड़बड़ी में मैं सीढ़ियों पर से फिसल गया और मेरे अँगूठे का नाखून टूट गया। जिससे रक्तस्राव होने लगा। मैं दर्द से तड़प रहा था, फिर भी उस मिट्टी के खिलौने को दोनों हाथों से हृदय से लगाये रखा,ताकि उसे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचे । चोट लगने की मेरी पीड़ा पर  पसंदीदा खिलौना लाने की खुशी भारी थी , तो क्या यह आनंद नहीं है, जिसका स्मरण कर आज भी मैं स्वयं को बुद्धू कहीं का ,कह मुस्कुरा उठता हूँ। टोकरी भर खिलौने पर भारी था, यह मिट्टी का मामूली- सा हल जोतता किसान ।
  माताजी प्रतिदिन देर शाम रामचरितमानस का पाठ करती थीं। राम जन्म, सीता संग विवाह , लंकाविजय आदि प्रसंग आने पर वे पचास पैसे दे मुझसे खोवे की दो बर्फी लाने को कहती थीं। जिसे मैं विश्वनाथ साव की मिठाई की दुकान से लेकर आता था। पिताजी को आधी बर्फी छोड़ शेष डेढ़ बर्फी में चार भाग होता था, उस प्रसाद को ग्रहण करने का आनंद ही कुछ और था। मम्मी के समक्ष बैठ मैं रामायण सुना करता था ,साथ ही  प्रतीक्षा करता था ऐसे विशेष प्रसंग का, बरफी लाने के लिये।
    चलें एक और मिसाल देता हूँ , जब घरपर मेरा दाना-पानी बंद हो गया था। मैं निठल्ला और बेरोजगार , दो दिनों से भूखा अपने दोस्त कम्पनी गार्डन की कुर्सी पर एकांत में बैठा , कभी अपनी माँ को उस नीलगगन में ढ़ूँढ़ता , तो कभी नल का ठंडा जल पी अपनी भूख पर नियंत्रण पाने का प्रयत्न करता । वैसे, पैसेवाले तो मेरे कई रिश्तेदार वहाँ वाराणसी में थें, किन्तु भोजन के लिये किसी के समक्ष हाथ फैलाना मुझे स्वीकार नहीं था। मेरा स्वाभिमान इससे आहत होता,तभी देखा कि एक वृद्ध बाबा मेरे समीप आये। वार्तालाप के दौरान उन्होंने कहा कि एक कार्य मेरा करोगे ? मैंने कहा कि जी चाचा बताएँ , आपके लिये क्या कर सकता हूँ। उन्होंने कहा कि फलां दरगाह पर उर्स है, क्या तुम वहाँ खाजा चढ़ा सकते हो ? इसके लिये उन्होंने पचास पैसा मुझे दिया था और कहा कि चढ़ाने के बाद प्रसाद ग्रहण कर लेना, बाबा तेरा भला करेंगे ।
    उस दिन मैं भूखे ही लगभग पाँच-छह किलोमीटर चल कर उस मजार पर गया था। पांव भर गये थें , लेकिन  पचास पैसे के खाजा ने जो मैंने वृद्ध बाबा के नाम पर चढ़ाया था, उसने मेरी क्षुधा को इस तरह से तृप्त किया कि उस आनंद को आज तक मैं नहीं भुला हूँ। यह मेरी उन छोटो-छोटी खुशियों में से एक है।
   दादी जब मुझे कम्पनी गार्डन के एक साहब के बाग से मूली तोड़ कर नमक- रोटी के साथ देती थी, तो उसके समक्ष कोलकाता की काजू बर्फी का स्वाद भी फीका था।
    नरसिंह भगवान मंदिर में जहाँ बैठकर मैं पढ़ा करता था, जब पंडित जी फल के कुछ टुकड़े और खोवा की बर्फी तोड़ कर दिया करते थें और दादी अपना प्रसाद भी मुझे दे देती थी, ऐसा प्रतीत होता था कि मानों वे मेरे लिये छप्पनभोग हो ।
   इस दीपावली पर्व पर भी कुछ स्नेहीजनों ने उपहार स्वरूप मेवा -मिष्ठान दिया है , परंतु वो एक रुपये का खिलौना , पचास पैसे का खाजा और नरसिंह मंदिर का स्वादिष्ट प्रसाद कहाँ मिलेगा , वह आनंद कहाँ मिलेगा ? हाँ ,मान-सम्मान अवश्य मुझे इस पत्रकारिता से मिला है।
   जब बेरोजगार था, तब आनंदित होने का एक और अवसर मुझे काशी में मिला , वह था सत्संग। मैं संतों का प्रवचन सुनने दूर-दूर तक पैदल ही जाया करता था। संत मुरारी बापू की संगीतमय रामकथा ने मुझे  कुछ इस तरह से आनंदविभोर किया था कि धार्मिक प्रवचनों के श्रवण की क्षुधा मेरी बढ़ती चली गयी और फिर गुरुदेव के साधारण से टीनशेड वाले आश्रम में आनंद ही आनंद था।
     हाँ, यह सत्य है कि अभी मेरा हृदय उस आनंद को ग्रहण में असमर्थ-सा है। यूँ समझे कि चिंतनशक्ति के माध्यम से मैं लौहरूपी अपने मन पर आनंदरूपी स्वर्ण का मुलम्मा चढ़ा रहा हूँ, परंतु मुझे विश्वास है कि उस पारसमणि (गुरुकृपा) का स्पर्श अवश्य प्राप्त होगा, जब मैं खरा सोना कहा जाऊँगा।
   सच तो यह है कि आनंद परिस्थितियों के अधीन नहीं है। स्वयं में ही आनंदस्वरूप ज्योति को हमें खोजना है।
     क्रमशः
  व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला)