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Thursday 22 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/18


वर्तमान में पत्रकारिता की स्थिति पर जब चिंतन करता हूं, तो मन की व्याकुलता और भी बढ़ती जा रही, क्यों कि अपने जनपद के मीडिया जगत में बहस इन दिनों  इस बात की हो रही है कि शराब की दुकानों की नीलामी में किस किस पत्रकार की लाटरी निकली। जिसकी गोटी लाल हुई, वह 56 इंच तक सीना फुलाए है। ताल ठोंक कहता फिर रहा है कि अब आया साहब असली पत्रकारिता का मजा। पायो जी मैंने राम ना भाई "जाम" रतन धन पायों। इस सोमरस की प्राप्ति ही पत्रकारिता का सबसे बड़ा अमृत रहा उनके जीवनकाल का है । पर जो पत्रकार इस नीलामी में खाली हाथ लौटा ,वह मुहर्रमी सूरत बनाये हुये है। पत्रकारों के इस विवशता भरे पतन को अफसर यह कह महिमामंडित कर रहे हैं कि उनका भी तो घर संसार है। फिर धंधा शराब का हो या और कोई बुराई ही क्या है, उसे करने में। हमारे वरिष्ठ साथी प्रभात मिश्र जी से भी एक आलाअधिकारी ने गत दिनों यही बात कह दी कि आपकी बिरादरी वाले भी तो तगड़ी कसरत कर रहे थें, मदिरालय पाने के लिये। अब जिस शख्स ने पत्रकारिता और खेती किसानी में अपना पूरा जीवन बिताया है।उसके सामने अधिकारी यह चुटकी ले, तो अफसरों का यह उपहास हम जैसों के लिये कितना पीड़ादायी  है, इसके लिये शब्द नहीं है। वैसे प्रभात भैया ने उक्त अफसर को अपनी भाषा में समझा दिया था कि ये साहब ,रंगा सियार पत्रकार हर किसी को न समझ लें। परंतु यह कह हम पत्रकार मुक्त नहीं हो सकते हैं, अपने दायित्व से । सोचता हूं कि हम क्यों राह भटक रहे हैं। कल तक जो कलम नशा मुक्त समाज के लिये चलती थी। वह स्वयं उसमें डूब गयी ? इसके लिये जिम्मेदार सिर्फ पत्रकार ही है या फिर हमारा समाज और उसकी व्यवस्था भी। यदि पत्रकारिता में पूरा यौवन नष्ट करने के बाद हमें शराब बेचना पड़े , तो चेहरे पर भले ही मुस्कान क्यों न हो, पर अन्तर्रात्मा जरुर कराह रही होगी !
            खैर वर्ष 94- 95 में मैं उस स्थिति में नहीं था कि खुद के पत्रकार होने पर गर्व कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे एक कुशल समाचार पत्र विक्रेता बनना था। जिस लड़के ने हाई स्कूल की परीक्षा में गणीत विषय के दोनों पेपर में 49-49 फीसदी अंक पाया हो। जिसने कभी अपने सुनहरे भविष्य का खूब ताना बाना बुना हो। वह अब पैदल ही अनजाने शहर की गलियों में गांडीव ले लो की पुकार लगाये, तो उस समय मुझ पर क्या गुजराती होगी, शब्दों में बयां नहीं कर सकता था। उन दिनों को याद कर आज भी आंखें नम हो आती है। तब न कोई साथी था, न कोई सहारा था। यहां शहर में जिस शख्स ने मुझे सबसे पहले गांडीव बेचने का हुनर सिखाया था। वे हैं, प्रदेश सरकार के पूर्व कैबिनेट मंत्री डा० सरजीत सिंह डंग के अनुज भूपेंद्र सिंह डंग साहब। नगर के मुकेरी बाजार में उनकी दुकान है। आधा शहर पेपर बांटते हुये जब मैं उनकी दुकान पर पहुंच अभिवादन कर यह पूछता कि साहब गांडीव लेंगे। तो थोड़ा कड़क आवाज में प्यार भरी झिड़की देते हुये वे कहते कि जरुर लूंगा। परंतु एक शर्त है, मैं जो बता रहा हूं , उसे बोल कर पेपर बेचो। सरदार जी मेरा पेपर लेते कोई अच्छा सा हेड लाइन मुझे रटाते। जिसे ऊंची आवाज में बोलता हुआ मैं  अन्य क्षेत्रों से होते हुये  स्टेशन रोड की ओर बढ़ता था। मेरी झिझक मिटाने के लिये ही वे ऐसा करते थें, इसे मैं बखूबी जानता था। बाद में जब मुकेरी बाजार वाली दादी जी के घर पर रहने लगा, तब भी मेरे अंदर छुपे पत्रकारिता के गुण को विकसित करने में वे सहायक बनें। वे जनसत्ता पढ़ने को मुझे दिया करते थें। राजनीतिक से जुड़ी खबरें मैं अब इतनी आसानी से लिख पाता हूं। इसके पीछे "जनसत्ता" और  "इंडिया"  टूडे की अहम भूमिका है। यह दोनों पत्र -पत्रिका मेरे गुरु हैं।(शशि)

क्रमशः