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Sunday 27 May 2018

"सतनाम" और "राम" में भेद से बढ़ा मेरे अंतर्मन का द्वंद



      हममें से अधिकांश यह मानते हैं कि सबका मालिक एक है, तो आपस में धर्म और जाति के नाम पर यह द्वंद क्यों है। चाहे मंदिर हो या मस्जिद सिर झुकाते हुये ना सही, तो कम से कम एक मानव धर्म जो हम सभी के लिये है, " सबका सम्मान और एक समान अधिकार " उसका तो अनुसरण हमें करना ही चाहिए। अब देखें न नानी मां की मृत्यु के बाद से मंदिरों में जाकर ईश्वर के प्रतिबिंब के समक्ष शीश झुकाने की मेरी बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती है, फिर भी तिरस्कार किसी का नहीं करता। आज भी याद है कि कोलकाता में मां के  अस्वस्थ होने पर मेरा एक होमवर्क यह भी था कि कोई दो दर्जन तस्वीर और मूर्तियों की सफाई और श्रृंगार करूं।
       उन पर लाल- सफेद चंदन लेप लगाना, जिस देवी- देवता को जो भी अलग- अलग  प्रकार के पुष्प चढ़ते हो,जैसा देवी पुष्प (गुलहड़), गुलाब ,गेंदा और तुलसी पत्र, दुर्वा, चंदन से राम नाम लिखा सफेद चक्र रहित विल्वपत्र और फिर बंगाल के पुष्प से श्रृंगार यह सारी तैयारियां उस 12 वर्ष की अवस्था में ही मैं करता था। लेकिन, अब इन ढ़ाई- तीन दशकों में मैं किसी भी मंदिर में माला- फूल और प्रसाद लेकर या बिना कुछ लिये ही बहुत कम ही गया हूं। परंतु इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं इन उपासना स्थलों के प्रति अनादर का भाव रखता हूं। मंदिरों में बजने वाले घंटा- घड़ियाल की आवाज मुझे बहुत कर्णप्रिय है। मैं तो उन सभी धार्मिक उर्जा केंद्रों का एक जैसा सम्मान करता हूं, जहां से मनुष्य को बिना जाति -मजहब का भेदभाव किये मानव बनने का संदेश मिलता हो..
                  आश्रम भी यही सोच लेकर गया था। परंतु वैचारिक संकीर्णता कहां नहीं है। सतनाम यानी एक अकाल पुरुष , इतना तो बिल्कुल उचित ही बताया गया था यहां, (आज भी व्याकुलता बढ़ने पर सतनाम का ही जाप मैं करता हूं) परंतु साथ में यह जोड़ा गया कि मन ही राम (वह राम जिसे परम्ब्रह्म कहते हैं सनातन धर्म में)  है। यह मन यानि की राम ही इस संसार की लीला करते हैं। लेकिन, वे अकाल पुरुष नहीं हैं। सो, उनकी(राम)  इस लीला से मुक्त होने के लिये हमें सतनाम का निरंतर जाप कर उस अकाल पुरुष को प्राप्त करना है। दूसरी बात गायत्री को अबला बताया गया था, जो स्वयं अपना ही कल्याण न कर सके, उसके मंत्र जाप से क्या लाभ !  कुछ ऐसा ही कहा गया। यही भेदभाव वाला धर्म ज्ञान मुझे यहां आश्रम पर समझ में नहीं आ रहा था, वरना करुणा, परोपकार, सहृदयता, वैराग्य सभी कुछ तो था  आश्रम पर ...
      हां, अब मेरी समझ में कुछ कुछ बातें आ रही हैं। असल में जो श्रेष्ठ जाति के लोग थें ,उन्होंने हिन्दू धर्म पर अपना वर्चस्व कायम रखा था और इसी की उपज है निम्न जाति के महापुरुषों और संतों का यह अलग अलग पंथ .. जिसमें एक समानता की बात तो होती है। परंतु जिसकी उपासना करनी होती है, उसे लेकर श्रेष्ठता का वही झमेला कायम है...
   और यही वैचारिक मतभेद मुझे आश्रम के आनंदानुभूति से दूर किये जा रहा था। मैं बार बार यही सवाल पूछता था कि सतनाम बड़े और राम छोटे क्यों ...
   आज भी मैं सबका बराबर सम्मान करता हूं , फिर भी ना जाने क्यों मेरा शीश किसी देवालय में झुकता नहीं .. हां, किसी का मन रखने के लिये यदि देवालय में सिर झुका कर प्रसाद ग्रहण करना पड़े, तो इसमें भी तनिक संकोच नहीं करता। कारण किसी की भी आस्था को ठेस पहुंचाना बिल्कुल नहीं चाहता मैं । धर्म तो मेरा एक ही है ..."इंसानियत"। इसलिए तो न्यूज से जुड़े मेरे जितने भी व्हाट्सएप ग्रुप हैं, उनमें स्पष्ट निर्देश है कि जाति- धर्म विवाद से जुड़ी कोई सामग्री न भेजी जाए ।
      वैसे , आश्रम छोड़ने का " सतनाम " और  " राम " को लेकर मेरे अंतर्मन का अंतर्द्वंद ही एकमात्र कारण नहीं था। सम्भवतः आश्रम  के समीप स्थित अखाड़े के कुछ पहलवान भी मुझे निठल्ला ही समझने लगे थें। कुछ तो व्यंग्य भी  करते थें कि देखों इस चेले को मुफ्त का भोजन कर बिल्कुल पहलवान होता जा रहा है। सो,  एक सम्मानजनक जीवन की चाहत फिर से जग गयी।सो,  मन पुनः व्याकुल हो उठा और आश्रम के आनंद से वंचित भी।

(शशि)