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Sunday 24 May 2020

कोरोना काल की त्रासदी

कोरोना काल की त्रासदी

   पिछले कई दिनों से यहाँ मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर विशेष श्रमिक ट्रेनों का आगमन होता रहा है। घंटों विलंब से पहुँची इन रेलगाड़ियों ने एक बार फ़िर साबित कर दिया कि संकटकाल में भी देश का यह प्रमुख मंत्रालय "इंडियन टाइम" का कितना बड़ा अनुयायी है।  रेलवे स्टेशन  के प्लेटफार्म पर उतरते ही इन प्रवासी श्रमिकों का जिले के वरिष्ठ अधिकारियों ने ताली बजा कर स्वागत किया, किन्तु कैसा करुण दृश्य रहा, जब कोई मासूम बच्चा अपने पिता की उँगली थामे उसे लगभग बाहर की ओर खींचते हुये कह रहा था -" पापा ! अब घर आ गया है ,जल्दी चलो न ?  " और माताएँ अपने ज़िगर के टुकड़े को अपने आँचल में छुपाएँ बाहर खड़ी बस की ओर टकटकी लगाए हुये थीं। रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही इन सभी प्रवासियों के मलिन मुख पर  चमक सी आ गयी थी । किस तरह से उन्होंने लॉकडाउन के 50-55 दिन महानगरों में एक कैदी की तरह अल्प भोजन करके गुजारे थे, इसे क्या वे आजीवन भूल पाएँगे ? फ़िर भी ये भाग्यवान हैं, जिनके लिए सरकार ने ट्रेन और बसों की व्यवस्था कर दी ,अन्यथा अनगिनत श्रमिक मुम्बई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद जैसे महानगरों से ट्रक, आटो और साइकिल से अथवा पैदल ही आये हैं , जिनके स्वागत के लिए मार्ग में अफ़सर नहीं मौत खड़ी थी। इनमें भी कई ऐसे अभागे बीमार लोग थे, जिन्होंने अपने घर के चौखट पर दम तोड़ दिया है। जिनके प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने की जगह गाँव वाले उन्हें कोरोना वाहक बता भाग खड़े हुये। अपने जिले का लक्ष्मण माझी भी इनमें से एक था। वह हरियाणा से पहले किसी वाहन और फ़िर पैदल सफ़र तय कर अपने गांव आया था। उसका शरीर ज्वर से तप रहा था। वाहन से गिरने के कारण सिर पर चोट लगी हुई थी। फ़िर भी पूरे धैर्य के साथ  लड़खड़ाती हुई साँसों को संभाले प्रयागराज से विंध्यक्षेत्र की दूरी पैदल ही तय कर उस शाम वह अपने गाँव पहुँचा था । उसने घर के चौखट को चूमा,चार दिन पूर्व दाम्पत्य सूत्र में बंधे अपने पुत्र-पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और कुछ ही घंटों पश्चात लॉकडाउन से ही नहीं जीवन से भी सदैव के लिए मुक्त हो गया। 

         विपत्ति जब आती है,तो मनुष्य को चहुँओर से घेर लेती है।तनिक सोचें जरा उस माँ पर क्या गुजरी होगी, जिसने चलती ट्रेन में रेलवे स्टेशन जबलपुर से पहले बच्ची को जन्म दिया। 23 घंटे तक का माँ-बेटी का साथ रहा। तत्पश्चात इस श्रमिक ट्रेन में ही उसने आँखें बंद कर लीं। यह परिवार ट्रेन से मुम्बई से मुजफ्फरपुर जा रहा था। मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर नवजात के शव को बर्फ़ की सिल्ली पर रख उसे परिजनों को सौंप दिया गया।लॉकडाउन में मुंबई में फँसे इस श्रमिक परिवार की आँखों के आँसू भी कष्ट सहते-सहते सूख चुके थे।
       मार्ग में इन प्रवासी श्रमिकों को किस-किस ने नहीं लूटा। ट्रक चालक ने प्रत्येक यात्री से 35 सौ रुपये तक लिए। वह भी एक ट्रक में 70 से अधिक प्रवासी श्रमिक ठूँस दिये गये थे। भूख के समक्ष कैसा सोशल डिस्टेंस ? किस तरह से कर्ज़ मांग कर इन्होंने ये 35 सौ रुपये एकत्र किये, इसकी एक और करुण कथा है। विशेष ट्रेन की बात करें , तो सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी कि सभी प्रवासी श्रमिकों को मुफ़्त में ट्रेन का टिकट दिया गया है। परंतु यात्रियों ने बताया कि पुलिस की उपस्थिति में दलालों ने उनसे 6 सौ से 8 सौ रुपये लिया है। अर्थात उनके पास जो थोड़ा बहुत धन शेष था, वह भी "व्यवस्था" की भेंट चढ़ गया।  
    इधर, राजनीति के अखाड़े में क्या हो रहा है, यही न कि पक्ष-विपक्ष इन श्रमिकों की लाश पर अपनी सियासी रोटी सेक रहे हैं। जबकि इन श्रमिकों का प्रश्न यह है कि लॉकडाउन पार्ट-1 और 2 के दौरान सरकार ने उनको महानगरों से निकाल घर भेजने के संदर्भ में क्या किया ? यदि ऐसा होता तो लॉकडाउन-3 के दौरान धैर्य खो वे इस तरह से कष्ट सहते हुये पैदल ही मीलों सफ़र तय करने को बाध्य नहीं होते। आश्चर्य है कि एक साधारण मज़दूर भी इतनी समझ रखता है।अपनी जान सबको प्रिय है। न जाने क्यों हमारे रहनुमा इसे नहीं समझ सकें कि क्षुधातुर प्राणी को चंद्र खिलौना दिखला कर अधिक देर तक बहलाया नहीं जा सकता है।
  और यह कैसी विडंबना रही कि हममें से अनेक उस समय  पटाखे फोड़ दीपावली मना रहे थे ,जब ये प्रवासी श्रमिक मुंबई जैसे महानगरों में कोराना और भूख से संघर्ष कर रहे थे। वे बेरोज़गार हो गये थे। ऐसे श्रमिकों की क्षुधा तृप्ति के लिए थोड़ा सा छोला और चावल अथवा छह पूड़ी और आलू की सब्जी ,क्या इसे ही सरकारी लंच पैकेट कहते हैं? जबकि टेलीविज़न पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ सावधान कर रहे थे कि ऐसे समय में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक आहार लिया जाए।

  •    आखिर क्यों इन श्रमिकों को कोरोना का आहार बनने के लिए छोड़ दिया गया? काश ! लॉकडाउन पार्ट 1 और 2 में धीरे-धीरे इन श्रमिकों की घर वापसी का प्रयास होता। महाराष्ट्र से प्रवासी श्रमिकों की गुहार यहाँ अपने जिले के अख़बारों के दफ़्तर में पहुँच रही थी। 

" मेरा परिवार  भूखा है। हमारे पास पैसे नहीं हैं।  हमें यहाँ से बाहर निकालो। हमारी जान खतरे में है । प्लीज़ , मदद करो भाई !"
  और उधर टेलीविज़न के स्क्रीन पर विभिन्न दलों के राजनेताओं का आपस में वाकयुद्ध चल रहा था। यदि इस वक़्त कोई आम चुनाव होता, तो पक्ष-विपक्ष के ये ही नेता इन प्रवासी श्रमिकों के दरवाजे पर दस्तक़ देते दिखतें। एक प्रत्याशी आम चुनाव में करोड़ों रुपया उड़ा सकता है, किन्तु ऐसी आपदाओं में वह सिर्फ़ घड़ियाली आँसुओं से काम चलाता है। दूसरी ओर करोड़ों- अरबों में खेलने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लग्ज़री ओबी वैन ने ऐसी करुण पुकार लगाते लोगों का लाइव न्यूज़ तो ख़ूब दिखाया है, परंतु काश ! ऐसी कठिन परिस्थितियों में ये धन संपन्न न्यूज़ चैनलों के स्वामी अपने इसी वैन के साथ एक और वाहन भेज देते, जिसमें पीड़ितों के बच्चों के लिए खाने का कुछ सामान होता। तब इनकी भी संवेदनाओं की परख जनता को हो जाती । अन्यथा यह उक्ति "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" सरनाम है।  स्मरण रहे कि श्रेष्ठ पुरुष वह है, जो पराई पीड़ा को जान कर चुप नहीं बैठता है, बल्कि उनका उपकार करता है।
    शासन-सत्ता में बैठे राजनेता स्वयं ईमानदारी से बताए कि उन सघन इलाके में जहाँ लॉकडाउन के कारण श्रमिक फँसे हुये थे, सोशल डिस्टेंस का ध्यान रख पाना क्या संभव था ? यही कारण है कि अपने मीरजापुर जनपद में दिल्ली से आये तबलीग़ी मरकज़ के तीन जमातियों को छोड़ कर कोरोना के शेष जितने भी मामले आ रहे हैं, सभी का संबंध मुम्बई से है। 
   विद्वानों का कथन है कि राष्ट्र, समाज और परिवार तभी सुखमय होगा, जब हम समस्याओं पर अपने ही नहीं दूसरों के भी दृष्टिकोण से विचार करते हैं। तभी वह हल जो किसी पर थोपा हुआ नहीं लगेगा, बल्कि वह सर्वसम्मति से सबका उत्तर होगा। क्या हमारी सरकार भी ऐसा करती है ?
  वैसे भी श्रमिक तो ऐसे हिम्मती लोग हैं, जो मझधार में पड़े होकर भी तूफान की ताकत को परखते हैं। इनके हौसले को सिर्फ़ भूख ही तोड़ सकती है और यही हुआ है। अतः लॉकडाउन-3 का उल्लंघन किस विवशता में उन्होंने किया, किसकी नादानी से किया, राजनेताओं को इस पर आत्मचिंतन करना होगा । यदि हम इन श्रमिकों के अश्रु को मुस्कान में नहीं बदल सकें,इनके पसीने की बूँदों का मोल नहीं समझ सके , तो यह इनके भाग्य का अभिशाप नहीं,वरन् व्यवस्था का दोष है। 
       अभी तो एक और चुनौती का सामना घर वापसी के  पश्चात प्रवासी श्रमिकों को करना पड़ सकता है। क्यों कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि वर्षों बाद महानगरों से वापस घर लौटे श्रमिकों को अपने ही गाँव की माटी का रंग बदला नज़र आए अथवा इनके ही सगे-संबंधी इन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझ लें। यह "प्रवासी " होने का तमग़ा ऐसा ही होता हैं। अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में कोई व्यक्ति आजीविका की तलाश में क्या गया कि उसकी पहचान बदल गयी। उसके प्रति अपनों का दृष्टिकोण बदल गया। न वह यहाँ का रहा,न वहाँ का । ऐसा भी होता है। अतः इन प्रवासी श्रमिकों की अगली परीक्षा आजीविका की पुनः खोज होगी। देखना है कि हमारी सरकार इन श्रमिकों को इनके गाँव के आस-पास ही रोज़गार मुहैया करवाने के लिए क्या करती है।
    पूंजीपतियों की नगरी में वापस जाने की कल्पना मात्र से ये मज़दूर काँप उठ रहे हैं। 
महानगरों में ये भोलेभाले इंसान जिस प्रकार स्वार्थ के तराजू पर तौले गये हैं। जिसकी दहशत अब भी उनकी नम आँखों में है, इससे स्पष्ट है कि उनकी वापसी शीघ्र संभव नहीं है। इन्होंने इन महानगरों में अपने जीवन को संवारने का मन में एक काल्पनिक सुंदर चित्र बनाया था, किन्तु वापसी पर मैंने देखा इनके झोले में कुछ बर्तन और वस्त्र के अतिरिक्त कुछ भी कीमती सामग्री न थी। मैंने इन प्रवासी श्रमिकों की मनोस्थिति को समझने की कोशिश की, मानो वह कह रही हो-
" ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है ?"

                        
 - व्याकुल पथिक