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Monday 7 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
आत्मकथा

भटकती राहों में  स्मृतियों का संबल
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     मैं यह जानता हूं की जीवन के अनमोल उन पच्चीस वर्षों को मीरजापुर की सड़कों पर अखबार बांट कर बरबाद किया हूं। कहीं नौकरी न करने की यह चाहत ने मुझसे मेरे सारे सुनहरे स्वप्नों को छीन लिया है। परंतु इस संघर्ष का भी अपना मजा है। जीवन के जिस कड़ुवे सत्य के करीब मैं हूं, यह अवसर हर किसी को नहीं मिलता है। बहुत सारे बंधन मेरे इसी के कारण टूटे हैं और मेरा विश्वास है कि मृत्यु से पूर्व मन के अन्य विकारों का त्याग भी कर ही लूंगा। इसमें मुझे कोई संदेह तो बिल्कुल भी नहीं है।
       बात जब भी संघर्ष की करता हूं, तो मुझे गर्व होता है स्वयं पर कि न तो कभी टूटा हूं और न ही झूका हूं। स्मृतियों का अनमोल खजाना मेरे पास है, जो मुझे विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी बचपन की पहचान से दूर नहीं होने देता है।
     हमारे मित्र कामरेड मोहम्मद सलीम कहते हैं कि शशि भाई प्यारी स्मृतियों को संजोए रखिए, ये आज आपका संबल है। मेरा भी मानना है कि वे बिल्कुल ठीक कहते हैं। हर व्यक्ति के जीवन में ये स्मृतियों  ही हैं,जो उसका मार्गदर्शन किया करती हैं। मैं जनपद स्तरीय पत्रकारिता जगत  ,जो एक तरह से काजल की कोठरी ही है, में रह कर भी बदनाम आप लोगों के बीच नहीं हूं, क्यों कि बचपन की ही स्मृतियों के कारण  लोभ मुक्त हूं। नहीं तो अपने पेशे में ऐसा लगता है मुझे की पढ़े लिखे भिखमंगों की टीली में शामिल हूं। चौथे पायदान   पर खड़े हमलोगों की पहचान इतनी है कि अफसरों के सामने  काजू- पिस्ते की सामग्री प्लेट में सजी होगीं और आपको घटिया बर्फी समोसा दिया जाएगा। इसलिये मैं अधिकारियों के प्रेसवार्ता में कुछ भी जलपान पसंद नहीं करता हूं। अभी पिछले ही माह तो सूबे के सबसे बड़े नौकरशाह के पत्रकार वार्ता में कुछ ऐसा ही अपमान यहां की मीडिया का हुआ था। जब अफसरों के झूठे प्लेट के सामने ही पत्रकारों के लिये एक  दोने में बर्फी-पकौड़ी रख दी गयी थी। फिर भी अनेक लोग उसी पर टूट पड़े थें । ऐसा अपमान भरा जलपान मैं इसलिए स्वीकार नहीं कर पाता, क्योंकि मुझे आज भी याद है कोलकाता में जब शिशु कक्षा में पढ़ता था, तो मौसी जी मेरा टिफिन बाक्स किसी तरह से सजाती थीं। इस सुखद स्मृति के साथ ही उस बुरी स्मृति को भी मैं भला कैसे भूल सकता हूं , जब मेरे इसी लंच बाक्स के कारण मेरे पिता जी जबर्दस्ती मुझे कोलकाता से खींच कर वाराणसी ले गये और मैं बर्बाद हो गया, उनके इस अहम् के कारण। बिलकुल छोटा बालक था तब , लेकिन वह धुंधली स्मृति आज भी मुझे याद है। जब मैं अपने ननिहाल में रहता था। सम्भवतः चार - पांच वर्ष ही मेरी अवस्था होगी। कितना दौड़ धूप कर मेरा नाम वहां के बड़े इंग्लिश स्कूल में लिखाया गया था। मेरे लिये चमड़े की एक खुबसूरत अटैची स्कूल जाने के लिये आयी थी। जिस पर  सफेद पेंट से मेरा नाम अंग्रेजी में शशि कुमार गुप्ता लिखा गया था। शायद बाबा ने  लिखा था, यह ठीक से याद नहीं है , पर मौसी जी एक अंग्रेजी की कविता मुझे पकड़ कर जबरन रटाया करती थीं, उस पोयम की पहली लाइन अभी भी याद है। मेरे लंच बाक्स में काजू बर्फी और अंगूर तो निश्चित ही होते थें। मैं जैसे ही नीचे दुकान पर कोई नया पानी का बोतल देखता था, पुराने बोतल का ढक्कन, पाइप कुछ न कुछ गायब कर देता था। बाबा फिर नयी बोतल दिलवाने मुझे साथ लेकर जाते थें। मुझे जब एक नौकर गोद में लेकर नीचे स्कूल बस तक पहुंचाने जाता था। मां(नानी) खिड़की में जाकर खड़ी हो जाती थीं, अन्यथा मैं सीढ़ी उतरने वाला नहीं था। हम सभी लोगों को जाते समय जय गणेश जी बोलना सिखाया जाता था। परंतु वह मनहूस दिन भी आया जब पापी- मम्मी मेरे छोटे भाई को लेकर कोलकाता आये। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बगल के कमरे में उन्हें ठहराया गया था। उनकी खिदमत में किसी तरह की कमी यहां नहीं की गई थी। वे क्रोधित अधिक होते थें, यह यहां सभी को पता था। पर यह मेरा दुर्भाग्य ही समझे की एक दिन उन्होंने मेरा टिफिन बाक्स देख  लिया। जिसमें महंगे फलों को देख उन्होंने बेहद नाराजगी व्यक्त करते हुये कहां कि एक भाई को इतना सब कुछ और दूसरे को ... मां और मौसी जी ने तब पापा को कितना ही मनाने का प्रयास किया था। मां बार- बार कह रही थीं कि मुनिया ( मेरा नाम) को यदि यह सब टिफिन में न दिया जाए, तो वह भूखे ही रह जाता है। परंतु पापा जबरन मुझे कोलकाता से बनारस ले गये और यहीं से मेरी बरबादी का पटकथा लिखनी शुरू हो गयी। बताया गया मेरे जाने के बाद मां बीमार पड़ गयी। जिगर का टुकड़ा खो गया,इसीलिये हृदय रोगी हो गयीं वो..

(शशि) 8/5/ 18

 क्रमशः

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