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Monday 30 April 2018

व्याकुल पथिक

ये कहांँ आ गये हम...

व्याकुल पथिक
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ये कहाँँ आ गये हम...

  यह कैसी पत्रकारिता होती जा रही है, न कोई मिशन ना ही कोई सम्मान ही अब शेष बचा है। जिले की पत्रकारिता में स्वयं को तोप समझने वाले ऐसे उन कुछ मित्रों पर मुझे खासा तरस आ रहा है, जिनके सामने ही अफसरों की जूठी तश्तरी पड़ी हुई थी और हममें से अनेक उनका दिया दोना चाटते रहें ! कहीं आप को यह तो नहीं लग रहा है न कि मैं अपनी पत्रकार बिरादरी का उपहास कर रहा हूँँ। हम पत्रकार तो बड़े ही ज्ञानी, ध्यानी और स्वाभिमानी होते हैं ! फिर ऐसी अपमानजनक स्थिति कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।
    परंतु भाई साहब , क्या करूंँ यह कलम है कि मानती ही नहीं। अपनों पर भी चल ही जाती है। हाँँ , फिर कोई डंक न मार बैठै,  इसलिये अखबार की जगह अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँँ। स्वयं को वरिष्ठ कह 56 इंच का सीना दिखलाने वाले  पत्रकारों को उनका ही दिया आईना दिखलाने की धृष्टता कर रहा हूँँ। आगे -आगे जब लपक के कुर्सी ताने बैठे थें, तो अपनी बिरादरी की नाक का तनिक ख्याल कर लिया होता भैया जी...।
  या तो अफसरों की उन जूठी थालियों को हटवा दिया होता अपने सामने से या फिर उनका दिया दोना न चाटा होता।   बात यहाँ सूबे के एक बड़े नौकरशाह की पत्रकारवार्ता की कर रहा हूँँ। जहाँ मातहत अफसरों संग मीटिंग के तत्काल बाद पत्रकार वार्ता शुरू हो गयी थी ।
   पर इस दौरान हर पत्रकार की कुर्सी के सामने मेज पर एक जूठा प्लेट रखा पड़ा था  साथ ही छाछ और पानी के डिब्बे- बोतल भी, तरह-तरह के तरमाल को समीक्षा बैठक के दौरान अफसरों की जमात ने गटका था । उन्हीं की जूठन पत्रकारों के सामने मेज पर पड़ी थी। कुछ देर बाद पत्रकारों के लिये भी सिल्वर कलर के बंद छोटे से दोने में कुछ जलपान सामग्री आ गई। लेकिन, जूठा प्लेट किसी ने नहीं हटाया। मैंने ढ़ाई दशक की अपनी पत्रकारिता में किसी भी ऐसे महत्वपूर्ण प्रेसवार्ता के दौरान इसतरह का उपहास मीडियाकर्मियों संग होते पहले कभी नहीं देखा था।  खैर , शुक्र है कि पत्रकारों की इस भीड़ से मैं अलग हूँँ। मेरा मानना है कि भोजन हो या जलपान किसी ऐसे स्थान पर नहीं ग्रहण करना चाहिए, जहाँँ दोयम दर्जे का व्यवहार हो। स्व० रामचंद्र तिवारी जी , जिनसे पत्रकारिता का नैतिक ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है, वे इसीलिये अफसरों के कार्यक्रम में जलपान से परहेज करते थें। अच्छा हुआ कि देर से ही सही मुझे भी यह सबक अब भलीभांति याद है। सो, हम पत्रकारों का यह हाल-खबर आपको बतला रहा हूँँ।
  मैं पत्रकारिता में आया भले ही रोटी की तलाश में था। परंतु प्रयास मेरा यही था कि बड़ों ने जो राह दिखलाई है। उसी कर्मपथ पर बढ़ता रहूँँ। अब अपने कर्मक्षेत्र की स्थिति जो हैं, वह हमारे जैसे पत्रकारों को इस अखबारी दुनिया से अलविदा कहने को कह रहा है।
   मित्रों, मैं स्वयं भी इस घुटन से मुक्त होना चाहता हूँँ। सोशल मीडिया हमें पुकार रहा है। आजाद पँछी की तरह उसके विशाल नेटवर्क रुपी खूले आसमान में मैं विचरण करना चाहता हूँँ।जहांँ न उम्र की सीमा है , न काम का कोई बंधन है।

शशि 30/4/ 18
क्रमशः

Saturday 28 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
आत्मकथा

               एक थें बाबा, एक थी मां !

    गर्मी के बावजूद अधिक श्रम और अखबार से जुड़े ढेरों कार्य के मध्य जबर्दस्त संघर्ष जारी है, इन दिनों मेरे जीवन में। यदि आज  " बाबूवार " न होता तो,सुबह उठ कर समाचार लेखन शायद ही कर पाता, क्यों कल रात ही पेपर बांटते समय पांव कदम बढ़ाने से इंकार कर रहे थें। मेरी हालत देख संकटमोचन मंदिर के पास न्यू मेन्स ट्रेलर के स्वामी जफर भाई ने टोका भी कि शशि भाई ठंडा पानी पिलाऊं क्या ..परंतु मित्रों जीवन के इस सफर में विश्राम इतनी आसानी से मिलती कहां है। सो, मैंने बनावटी मुस्कान के साथ शुक्रिया कहा और आगे अस्पताल रोड की ओर बढ़ चला। होमवर्क अधूरा छोड़ने की  जो मुझे आदत नहीं है।  तेज बुखार में भी शाल लपेट पेपर औराई लेने जाया करता था। हां, तब अखबार बांटने वाले चार व्यक्ति थें, हम सब। अब मैं अकेला ही बचा। संस्थान की स्थिति पहले जैसी नहीं रही । जब पेपर रात्रि नौ -दस बजे आएंगा, तो बांटने वाला कौन मिलेगा। और अब तो पेपर का मूल्य भी इतना महंगा कर दिया गया है कि मैं सिर्फ खरीद दाम में ही इसे अपने ग्राहकों को दे रहा हूं। ऐसा भी श्रमिक आपने कभी देखा है क्या कि जो सायं साढ़े 6 बजे से ही शास्त्रीपुल पर साइकिल दौड़ाते चला जाता है और रात्रि 11 बजे जब पेपर बांट कर मुसाफिरखाने पर लौटता है,  तो इस थका देने वाले परिश्रम की कुछ भी मजदूरी उसे नहीं मिलती हो...

अब मैं जिस स्थिति में हूं वहां पैसे की मुझे बिल्कुल भी चाहत नहीं है। इसलिये तो मित्र कहते भी है कि छोड़ क्यों नहीं देते यह काम ...बिल्कुल गांडीव के लिये पागल हो गये हो क्या ? जो रात्रि में सड़क के आवारा कुत्तों से दोस्ती कर ली है...

   अब क्या जवाब दूं ऐसे शुभचिंतकों को , यह कहूं कि विगत तीन दशक से मैं सचमुच बिल्कुल इन्हीं छुट्टा पशुओं की तरह ही तो हूं। क्या पहचान है मेरी  घर , परिवार और समाज में !  यही न कि एक पत्रकार हूं, ऐसा रिपोर्टर जिसकी कलम को पैसे और ताकत से कोई भी नहीं खरीद सकता...
फिलहाल तो  " बाबूबार " यह प्यारा सा शब्द , मुझे अपने बचपन की सुखद स्मृतियों में ले जारा है। शरीर के सारे थकान भूल कर मेरा मन कोलकाता के उस अति व्यस्त बड़ा बाजार इलाके  मे जा पहुंचा है। जहां एक मकान की चौथी मंजिल पर मेरा ननिहाल था। जीवन के सबसे सुखद दिन मैंने यही बिताए हैं। मेरे नाना जिन्हें हम सभी बाबा कहते थें, वे आज के दिन शाम होते ही पुकार लगाने लगते थें कि प्यारे( मेरे लिये सम्बोधन)  कहां हो,  बाबूबार है ,लूडो होगा क्या ?  बाबा की आवाज सुनते ही मैं चहक उठता था। अलमारी से झट लूडो निकालता था और सीढ़ियों से लगभग दौड़ लगाते हुये नीचे दूसरी मंजिल की ओर भाग पड़ता था। मां (नानी) हिदायत देती रह जाती थीं कि सम्हल कर जाओ, नहीं तो गिर जाओगे। उस जमाने का महंगा से महंगा लूडो वे मुझे दिलवाया करते थें। बताते चलूं कि बंगाली लोग रविवार को बाबूबार ही कहते हैं। मैं गर्भ के साथ कह सकता हूं कि ऐसे नाना-नानी जिन्हें मैं मां-बाबा कहता था, हर किसी को नहीं  मिलतें। नानी मां तो मेरे आंखों के सामने ही तब गुजरीं , जब मैं  12 वर्ष का रहा हूंगा। लेकिन, बाबा जिन्होंने मेरी हर इच्छा पूरी की , मैं उनका अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका। बाबा जो मुझे खुश रखने के लिये एक- दो नहीं, बल्कि एक टोकरी भर खिलौने दिलवाया करते थें। जगरनाथ जी रथ पूजा पर्व पर मेरे लिये नया रथ , टोकरियों में भर कर तरह तरह के पुष्प, बिजली के झालर सभी कुछ वे मंगाते थें और सरस्वती पूजा पर भी यही होता था। मैं कमरे के बाहर आंगन में स्वयं ही सारी सजावट उस 12 वर्ष की अवस्था में भी किया करता था और बाबा सहयोग करते थें, नीचे कारखाने से आने के बाद। नानी मां सांस की बीमारी से पीड़ित थीं, पैर भी एक खराब हो गया था उनका। अतः वे बिस्तरे पर बैठे-बैठे ही हम दादू-नाती के खिलवाड़ को देखा करती थीं। हां , रात होने पर डांट जरुर पड़ती थी कि मुनिया ( बड़ा प्यारा सम्बोधन था मेरे लिये ) सोना नहीं है, सुबह स्कूल कब जाएगा। प्रातः जैसे ही ट्राजिस्टर पर विविध भारती रेडियो स्टेशन वंदेमातरम... गीत गाने को होता था, मुझे उठा कर आंगन के बाहर ऊपर वाली सीढ़ियों पर बैठा देती थी मां। ताकि अपना पाठ ठीक से याद कर सकूं। बाबा देर से उठते थें। मैं उन्हीं के बगल में सोया करता था। ....

(शशि) 29/4/18

क्रमशः

Friday 27 April 2018

आनंद की खोज

व्याकुल पथिक

    बचपन में गुरुजनों को कहते सुना था कि हमारा जीवन जितना ही सरल होगा, उतना ही सहज होगा। जिससे हमें अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने में आसानी होगी। इसकी अनुभूति भी मुझे यहां पत्रकारिता के दौरान ही हुई है। अब मैं जब रात साढ़े 10- 11 बजे अखबार बांट कर मुसाफिरखाने पर लौटता हूं ,तो रात्रि भोजन में रोटी की व्यवस्था नहीं रहती, तो भी कोई गम नहीं। पाउडर वाला गाय का दूध को गरम पानी में घोलता हूं और  दो -तीन मुट्ठी कॉर्न फ्लेक्स साथ में चीनी डाला बस हो गया मेरा भोजन तैयार। इसी दौरान मोबाइल पर ही पुराने फिल्म अथवा गाना देखने सुनने का भी लुफ्त उठा ही लेता हूं। देर क्यों हुई, समय से आया करो, यह सब बंदिशें लगाने वाला अपना पराया कोई नहीं रहा अब। समाज में रह कर भी उसके बंधन से मुक्त हूं। इस अवस्था में और क्या चाहिए इस मुसाफिर को... हां ,कभी कभी अतीत  में जब डूबने लगता हूं, तब व्याकुलता निश्चित ही बढ़ने लगती है। लेकिन, अगले दिन  सुबह सवा पांच बजे जब मोबाइल फोन के अलार्म के शोर के साथ ही सब कुछ फिर से सामान्य हो जाता है। रात्रि पांच घंटे की निंद्रा में थके शरीर को कुछ तो उर्जा मिल जाती है और फिर से अपने काम में व्यस्त हो जाता हूं। राही इन होटल में जब कभी कमरा नंबर 33 में रात्रि गुजारने का अवसर मिलता है। जानते हैं सुबह होने पर मैं किससे सबक लेता हूं , खुशहाल जीवन का...तो मित्रों वे हैं होटल के सामने सड़क किनारे बैठीं रद्दी सामग्री बटोरने वाली औरतें और लड़कियां ... आश्चर्य न करें आप सचमुच इन हंसती खिलखिलाती युवतियों को देख मुझे काफी उर्जा मिलती है। जिसकी अनुभूति  किसी उपदेशक के सानिध्य में बैठ कर भी शायद ही कर पाता। दरअसल, ये जो महिलाएं और लड़कियां हैं न , भोर में नगर की सड़कों पर निकल पड़ती हैं। जो हमारे आपके द्वारा फेंके गये निरर्थक सामानों को अपनी झोली में भरती हैं और सुबह के सात बजते बजते यहां आ जुटती हैं, ये सब। फिर किस तरह से वे सामूहिक रुप से चाय-बिस्किट  खाते हुये कितने प्रफुल्लित मन से आपस में वार्तालाप करती रहती हैं,कभी आपने गौर फरमाया है ... इन्हें कभी आपस में यह कहते नहीं सून पाइएगा कि आज बोहनी खराब हो गई या फिर उनके बोरे का वजन हल्का रह गया। किसी भी तरह की चिन्ता का भाव इनके चेहरे पर मैंने तो नहीं देखा ! एक दिन की बात बताता हूं । लालडिग्गी स्थिति संदीप गुप्ता जी की दुकान पर बैठा था। संदीप भैया व्यापारी होकर भी सच्चे समाजसेवी हैं। जो बहुतों की मदद करते रहते हैं , परंतु श्रेय लेने के लिये किसी आयोजन में मंच पर आगे नहीं आते । उस दिन दुकान पर साइकिल से एक युवा ग्रामीण दम्पति आया। जिसने एक लकड़ी का दरवाजा खरीदा। पति पत्नी दोनों ने उस दरवाजे को साइकिल की सीट पर रखा। पति ने हैंडिल सम्हाली और पत्नी ने पीछे से दरवाजे को सहारा दिया । हम दोनों ही समझ गये कि वे काफी गरीब हैं, इसके बावजूद उसी साइकिल के दो पहिये कि तरह वह युवा जोड़ी खुशी खुशी हर संघर्ष का मुकाबला मिल कर करने के लिये कमर कसे हुये था। सो, यह देख गंभीर स्वभाव के संदीप भैया ने भी उस युगल ग्राहक के संघर्ष को सलाम  किया और मुझसे कहा कि ऐसा दुर्लभ दृश्य आपने शायद ही देखा हो। ट्राली करने का पैसा नहीं, तो क्या हुआ, पति को पत्नी का साथ जो है...ऐसी सुखद अनुभूति , ऐसा आनंद मठ और महल में बैठने से नहीं प्राप्त होगा मित्रों ! अभी तो संत कबीर को कहना पड़ा है -मोको कहां ढूंढे रे बंदे , मैं तो तेरे पास में...
शशि
28/4/14
क्रमशः

Thursday 26 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक

    हम सभी ने अपना एक कर्मपथ चयन कर रखा है। जिसे मैं रंगमंच कहता हूं। इस पर हमारा अभिनय जितना उम्दा रहेगा,वहीं हमारी निशानी बचेगी। अन्यथा तो एक दिन मिट जाएंगे माटी के मोल...  मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, सलीम भाई ने दबे कुचले वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के लिये संघर्ष किया। अरुण दादा ने छात्र जीवन में रिक्शा- एक्का वालों और मजदूरों की लड़ाई लड़ी, शिवशंकर यादव ने समाजवादी झंडे की पहचान के लिये इस जनपद में बोल मुलाकात हल्ला बोल का शंखनाद किया, अफसरों में डा0 विश्राम की अलग पहचान है । और भी तमाम लोग हैं, जिनकी अलग पहचान रही है यहां । पर सवाल इस पहचान को बनाये रखने का है, जिसके लिये हमने वर्षों संघर्ष किया है। क्योंकि ऐसी स्थिति में हमारे कर्मपथ पर कदम कदम पर प्रलोभन है। परंतु हमारा दायित्व है कि समाज हित में जो संकल्प हम सभी ने कर्मपथ पर पहला कदम बढ़ाते समय बिल्कुल ही निर्मल मन से लिया था, उसकी पवित्रता  तब भी बनी रहे , जब हमारे पास अपनी पहचान हो और जिसकी बोली लगाने वाले तैयार हों। मैं जब वर्ष 1994 में यहां आया। राजनेताओं में सबसे अधिक प्रभावित अरुण कुमार दूबे दादा से हुआ। तब मैं युवा था और मुद्दों पर संघर्ष करने वाला कोई भी  मध्यमवर्ग  का नौजवान उस शख्स से प्रभावित क्यों न हो ,जो अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के हक अधिकार की बात करता हो ! उसी दौर में कामरेड सलीम भाई का उत्साह भी चरम पर रहा। पर इन दोनों नेताओं में अब एक बड़ा फासला है। दादा ने अपनी खाटी समाजवादी पहचान को कायम नहीं रखा। उन्होंने अगले नगरपालिका चुनाव में समाजवादी पार्टी का दामन थाम यहां तक तो कुछ ठीक था, लेकिन  विचारधारा के बिल्कुल विपरीत जाकर एक भव्य होटल में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी राजेशपति त्रिपाठी को समर्थन देकर तमाम समाजवादियों को चौका दिया। हालांकि उनके ही करीबी दादा के इस फैसले को उनकी पहचान के अनुकूल नहीं मान रहे थें। एक ने तो मुझसे भी कहा कि दादा से आप कुछ कहें। दरअसल शुरू से ही मैं बिना किसी संकोच अपनों से अपनी राय व्यक्त करने में परहेज नहीं करता था। खैर, दादा को अपनी गलती का एहसास हुआ। परंतु समाजवादी पार्टी में पुनः वापसी पर वह पहचान वापस तो नहीं आ सकी न... फिर भी दादा आज के राजनेताओं से बेहतर हैं। सलीम भाई पर कहने के लिये मेरे पास बहुत कुछ है। क्यों कि उन्होंने भी मेरी तरह अपनी पहचान नहीं बदली है। हां, अवस्था के लिहाज से हम दोनों की ही संघर्ष क्षमता में कुछ कमी आ गयी है, एक तकलीफ का विषय यह भी है कि अपने जैसे तेज तर्रार और अपने क्षेत्र की जानकारी रखने वाले किसी युवा को न तो वे इस मीरजापुर में आगे ला सकें और न ही मैं पत्रकारिता में...
  कारण इस अर्थयुग में हर कोई अपने श्रम का मोल चाहता है। थोड़ी भी पहचान बनी नहीं कि बिक गया। हानि-लाभ के पचड़े में गुमराह हो जा रही है , हमारी यह नयी पीढ़ी। अतः उन्हें राह दिखलाने के लिये किसी को तो दीपक बनना ही होगा। खतरा मोल लेना होगा, अपने हितों की अनदेखी करनी ही होगी। यह सोच कर यदि सलीम भाई हताश हो जाए कि चुनाव में उस वर्ग ने उनका साथ नहीं दिया, जिसके लिये उन्होंने लम्बा संघर्ष किया, तो आज उनके उस मिशन का क्या होता। उनका वहीं पहचान कैसे कायम रहता इन बहुरुपियों के मध्य...
(शशि) 26/4/18

क्रमशः

Wednesday 25 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक

     यदि हम निजी लाभ, संबंध बिगड़ने के भय अथवा दबाव में जनहित से जुड़ी समस्याओं को लिखना बंद कर देंगे , तो फिर पत्रकार तो दूर एक रिपोर्टर कहलाने की पात्रता भी नहीं रखते हैं हम । जबकि समस्यात्मक समाचारों से संस्थान को भी कोई आपत्ति नहीं होती है। हां, संस्थान से मधुर संबंध रखने वाले किसी खास व्यक्ति  के हितों के विरूद्ध हम पत्र प्रतिनिधियों की  कलम कभी चल गयी हो, तो बात दूसरी है। दूसरे के अखबार में आप नौकरी करेंगे, तो इतना तो सहना ही होगा।  जैसा कि मैंने पहले बताया भी था कि मेरे साथ सिर्फ एक बार ही ऐसा हुआ है, फिर भी आपत्ति तो नहीं ही हमारे प्रेस के मालिकान ने जताई थी। समाजसेवा के क्षेत्र में बस उनके द्वारा किये गये एक उपकार की बात बताई गई थी, जिन माननीय पर मैंने तब खबर लिखी थी।  लेकिन, संस्थान को यह भली भांति पता था कि  मैंने जो कुछ लिखा , उसे पूरी ईमानदारी से लिखा था। मिसाल के तौर पर जनपद में ट्रैफिक जाम की समस्या भयावह होती जा रही है। मैं स्वयं भी इसका भुक्तभोगी हूं और शास्त्रीपुल पर खड़ा तमाम लोगों को परेशान देख रहा हूं। मेरा मत है कि वर्तमान सरकार में जिस तरह से यातायात व्यवस्था बेपटरी हुई है, ऐसा बुरा हाल पिछली सरकारों में  नहीं ही हुआ करता था। इसका जो प्रमुख कारण मुझे जो लगता है , वह है अफसरों की नेतागिरी । सबसे अधिक जाम टेढ़वा और औराई मार्ग पर लग रहा है। दोनों जनपदों का सीमा क्षेत्र होने के कारण चील्ह और औराई पुलिस एक दूसरे को इसके लिये जिम्मेदार मानती है। जबकि कड़ुवा सत्य यही है कि औराई पुलिस चतुराई का परिचय दे रही है। वह अपना चौराहा जाम मुक्त बतलाती है। लेकिन, जरा वह यह तो बताये कि माधोसिंह रेलवे स्टेशन के आसपास का क्षेत्र क्यों जाम रहता है। वहीं , जनता समझ नहीं पा रही है कि टेढ़वा जैसी पुलिस चौकी पर बुजुर्ग दरोगा क्यों पोस्ट है। यहां सड़क भी अर्द्ध निर्मित है, हालांकि मैं यह जानता हूं कि जब भी जाम की खबर छापता हूं, वर्दी वालों की नाराजगी बढ़ने लगती है। परंतु यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं इसपर कलम चलाता रहूं। बतौर पत्र प्रतिनिधि यह मेरा कर्तव्य है। सो, मुझे जनता की पीड़ा लिखनी ही है। वैसे भी,अब ढ़ाई दशक की पत्रकारिता में मैं उस स्थान पर पहुंच गया हूं कि अपने मिशन के लिये जेल भी मेरे लिये एक आश्रम होगा , क्योंकि मुझे तो अब दो जून की रोटी की भी आवश्यकता नहीं रहती, बस एक बार ही  यह  मिल जाए , उतने से ही पेट की ज्वाला शांत हो जाएगी।  जिस भी दिन मैं अखबारी रिपोर्टिंग से मुक्त हो जाऊंगा, उसी क्षण से सोशल मीडिया पर मेरी असली पत्रकारिता शुरू हो जाएगी। आज का हर नौजवान सोशल मीडिया पर पत्रकार ही तो है। बस उनका उचित मार्गदर्शन होना चाहिए। अर्थ युग की चकाचौंध में उनके समक्ष हम बड़ों को एक आदर्श प्रस्तुत करना ही होगा। आज मैं जहां हूं, उससे संतुष्ट इसलिये हूं , क्यों हर क्षेत्र के अच्छे और बुरे भी लोग इतना तो जरुर कहते हैं कि शशि भैया ने अपने संघर्ष से एक अलग पहचान कायम किया है। यह पहचान पैसे और ताकत से नहीं खरीद सकते हैं। कुछ तथाकथित बड़े पत्रकार कहते हैं कि मैंने तहलका मचाने वाली खोजी पत्रकारिता नहीं की है। ऐसे मित्रों से मैं बस इतना ही कहना ,चाहता हूं कि मेरी पत्रकारिता आमजन के लिये है,उनकी समस्याओं से  जुड़ी है। साथ ही जनपद की राजनीति पर भी मेरी कलम खूब चली है। अखबार का बंडल लाने, उसे  बांटने के बाद जो कुछ भी समय मेरे पास शेष होता है। वह में अखबर के लिये समाचार लेखन में लगाता जरूर हूं। फिर भी जो पत्रकार मित्र मुझे नसीहत दे रहे है , उनसे विन्रम शब्दों में पूछना चाहता हूं कि क्या उन्होंने एक सच्चे पत्रकार के रुप में जनता में अपनी कुछ भी पहचान बनाई है ? जबकि मैं किसी भी मंच से पूरे आत्मविश्वास के साथ यह उद्घोष करने को तैयार खड़ा हूं कि मैंने प्रलोभन मुक्त पत्रकारिता की है और इसके अतिरिक्त अन्य कोई व्यवसाय नहीं किया हूं। हां ,अखबार बांटना और संस्थान के लिये थोड़ा बहुत विज्ञापन कोटा पूर्ति के लिये जरुर किया हूं।

शशि(25/4/18)

 क्रमशः

Sunday 22 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
 
22/4/18

      हम सभी के पास हर परिस्थितियों में खुश रहने का विकल्प है। अब मुझे ही लें, अवस्था के साथ थकान और काम दोनों ही बढ़ता जा रहा है। सो, रात्रि में अखबार बांटते हुये, जब कभी पांव डगमगाने लगते हैं और साइकिल अनियंत्रित सी होती प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति में विचलित मन को समझने के लिये मैंने एक आसान सा सही तरीका ढ़ूंढ़ निकाला है। इस परिस्थिति में मैं जब भी अपनी तूलना एक वृद्ध रिक्शा अथवा सगड़ी चालक से करने की कोशिश करता हूं, तो पलड़ा उसका ही वजनी होता है।
    क्या कभी आपने महसूस किया है कि पापी पेट के लिये वह कितना संघर्ष करता है। सड़क पर जब भी चढ़ाई की स्थिति होती है, तो रिक्शे के पैडल पर किस तरह से उसके पांव जमे होते है, फिर भी बात नहीं बनी तब नीचे उतर वह धीरे धीरे धैर्य से अपने पूरे सामर्थ्य को एकत्र कर चढ़ान पार करता है। ऐसे में मेरी स्थिति अब भी उस बूढ़े रिक्शेवाले से बेहतर है न!  फिर मैंने अपनी शर्तों पर जीवन जीना पसंद किया हूं। पत्रकारिता में भले ही भोजन की तलाश में आया, लेकिन इस पेशे में आकर कभी भी इतना ग्रहण नहीं किया कि अपच हो जाए। तो फिर आप सोच रहे होंगे न कि इस पथिक की व्याकुलता क्या है। मेरे ब्लॉग में मेरी लेखनी से ऐसा आपकों लग रहा होगा कि मैं अत्यधिक कष्ट में हूं, एकाकी हूं और परिस्थितियों का सताया हुआ हूं। मैं इसे छिपाने की कोशिश भी नहीं करता। फिर भी बड़ा सच यह है कि मैं स्वाभिमानी हूं, असत्य लेखन नहीं करता और किसी का चरण चुम्बन पत्रकारिता में पसंद नहीं करता हूं। इसलिए अपने मजबूती के साथ अपने कर्मपथ पर डटा हुआ हूं। मुझे यह जो पीड़ा है, वह अपने ही पेशे से जुड़े उन लोगों से है, जो स्वयं को चौथा स्तम्भ कहते हैं , पर जब कोई सच्चा पहरुआ सामने आता है, तो एकजुट होकर कौओं की भाषा बोलने लगते हैं ! आज शाम की ही बात बताऊं, आंख की जांच करवाने एक  नेत्र चिकित्सक के यहां गया था। वार्तालाप के क्रम में उनके जुबां से भी यही निकल पड़ा कि आप पत्रकारों की स्थिति भी अब ना ...  दरअसल धनलोलुपता पत्रकारिता पर भारी पड़ती जा रही है। अनाड़ी रिपोर्टर ही पत्रकार बन बैठा है। जिसकी निगाहें सदैव जुगाड़ की तलाश में व्याकुल रहती है। यही मेरी पीड़ा का विषय है कि इस भीड़ से बचने के लिये हमारे जैसे पत्रकार कहां जाए। उनका और हमारा रंगमंच तो एक ही है न ...
    अभी पिछले ही दिनों एक युवा प्रतिभावान पत्रकार ने मुझे काफी  निराशा किया है। कहां तो वे कह रहें थें कि शशि भैया मैं आपकी तरह पत्रकारिता करना चाहता हूं और एक छोटा सा ऑफर आया नहीं कि पत्रकारिता का सारा नैतिक ज्ञान ताक पर धरा रह गया। अब उनकी पहचान एक जनप्रतिनिधि के मीडिया कर्मी के रुप में हो गई है। यदि पत्रकारिता पर राजनीति का ठप्पा एक बार लग गया, तो फिर लाख कोशिश कर लें आपको अपनी वह पुरानी पहचान नहीं मिल सकती है और निष्पक्ष पत्रकार तो बिल्कुल ही नहीं कहलाएंगे। इसलिए मैंने ऐसे कितने ही प्रलोभन ठुकरा दिये, ढाई दशक के इस सफर में, नहीं तो यह लक्ष्मिनिया मुझ पर भी प्रसन्न रहती। हो सकता था तब गृह लक्ष्मी की प्राप्ति भी हो जाती और घर गृहस्थी बस जाती। लेकिन मैंने बड़े बड़े पत्रकारों की स्थिति देखी है कि उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा घड़ियाल की तरह उनकी कलम को किस तरह से निगल गई। इसीलिए मैं सदैव ही एक पहचान की बात करता रहा हूं। (शशि)

क्रमशः

Saturday 21 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 
22/4/18

        कल दोपहर काफी दिनों बाद घर का बना भोजन करने को मिला, नहीं तो अपना मुसाफिरखाना ही जिंदाबाद है ...   
 कामरेड मो0 सलीम भाई की इच्छा थी कि कुछ वक्त साथ गुजर लिया जाए। अन्यथा सुबह होते ही मेरा जो होमवर्क शुरू हो जाता है, वह रात्रि 12 बजे तक समाप्त नहीं हो पाता ।यह मेरे लिये कुछ-कुछ ठीक ही है, व्यस्त रहना मैं स्वयं भी तो चाहता हूं। उधर, सलीम भाई भी अपनी पार्टी के बड़े नेता होने के कारण अकसर गैर प्रांत दौरे पर रहते हैं। दरअसल, हम दोनों में जो एक समानता है, वह यह कि हमने अपनी पहचान नहीं बदली है । मेरी समझ से राजनीति के क्षेत्र में सलीम भाई के पास अपना मौलिक चिन्तन है। वे अच्छे वक्ता  हैं और अपनी पार्टी भाकपा माले के स्टार प्रचारक भी। हालांकि मीरजापुर में उनके राजनैतिक कद के लिहाज से उनका रंगमंच काफी छोटा है...
       पर अपनी झोपड़ी भी गैरों के महल से बेहतर है साहब। अन्यथा मैं भी ढ़ाई  दशक तक एक छोटे से अखबार से यूं ना बंधा रहता। यहां  कलम की आजादी ही मेरी पहचान रही।समाचार संग जब तक उस पर अपना विचार न लिखूं , फिर कैसी पत्रकारिता । हंसी आती है इन तमाम खबरची लोगों को स्वयं को पत्रकार कहता देख कर...
               वैसे इस बार कुछ खास वजह भी थी, सलीम भाई द्वारा मुझे बुलाने का, क्योंकि वे जिन लोगों से स्नेह करते हैं, उनमें एक मैं भी हूं !  हालांकि मैं एक राजनेता नहीं हूं, न ही आज के जमाने का एक पेशेवर मीडिया कर्मी ही हूं। सियासत का " सेकुलर " शब्द मुझे पसंद नहीं है और  "साम्प्रदायिक " मैं हो ही नहीं सकता। भले ही दंगा ग्रस्त इलाके में पला बढ़ा हूं। बचपन में दंगा होने की स्थिति में कितनी ही रात साम्प्रदायिक धार्मिक नारे कानों में गूंजते रहें। अभिभावक भय से कांपते बंद दरवाजे के पीछे रात आंखों में ही गुजारते दिखें। कुछ दिनों तक हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उन इलाके में चला जाऊं , जहां उपद्रव हुये थें। कर्फ्यू की स्थिति में यह जिम्मेदारी मुझे ही अमूमन सौंपी जाती थी कि जैसे ही अवसर मिले, सब्जी मंडी जाकर सामान लेता आऊं। हम लड़कों तब पुलिस वाले अंकल कर्फ्यू के बावजूद भी छूट दे ही दिया करते थें। पर मछोदरी कोयलमंडी की तरफ जाने की अनुमति घर से नहीं मिली थी। वाराणसी में ही नहीं, मैंने तो कालिंगपोंग जैसे पहाड़ी इलाके में भी गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर हिंसा का खौफनाक चेहरा देखा है। कोलकाता ननिहाल में था, तो लाल परचम  और बैनर लिये श्रमिक संगठन नारेबाजी करते हुये आये दिन बड़ाबजार की सड़कों से गुजरते थें। चौथी मंजिल से यह दृश्य अपनी नानी मां के साथ बारजे से देखा करता था। मुजफ्फरपुर में था, तो वहां भी बिहारी दादागिरी थी ही। सम्भवतः इसी लिये मुझे सेकुलर और साम्प्रदायिक राजनीति के ये दोनों ही शब्द नापसंद हैं। खैर, मेरी इस सोच की परख तो यहां मीरजापुर के कर्मक्षेत्र पर होनी थी। सो, यह आप जाने कि मैं पास हुआ कि फेल। हां,  मेरे हिसाब से तो मैंने अपना होमवर्क ठीक ही किया हूं। अन्यथा हर राजनैतिक दल में मेरे मित्र जन हैं, वे जरूर टोकते कि शशि भाई आप में भी उसी गंदगी की बू आ रही हैं। एक बात फिर से बता दूं कि यहां की मीडिया से मैं बहुत उम्मीद नहीं करता कि वह मुझे पसंद ही करे, हां नये लड़कों को मेरी आत्मकथा जम रही है !
  हमारे मित्रों का मानना है कि आत्मकथा में सकारात्मक पन  होना चाहिए। ताकि हमारे संघर्ष से युवा पत्रकार प्रेरणा ले सकें। माना कि उनकी यह सोच भी सही है। पर साथियों अखबारी दुनिया में अब पत्रकारिता बची कितनी है। शुद्ध रुप से व्यापार है यह। वे जो खबरची सीना फुलाए यह कहते हैं कि वे पत्रकार हैं, फलां संगठन के पदाधिकारी रहें या हैं। मैं दांवे के साथ कहता हूं कि अधिकांश ऐसे तथाकथित पत्रकारों के चेहरे से नकाब हटा सकता हूं, आगे तो आये जनाब । फिर दिल पर हाथ रख कर बताये कि विज्ञापन का पैसा जेब में रखकर उसकी जगह समाचार छाप लेना, गोपनीय तरह से निविदाओं के प्रकाशन में सहयोगी बन उस दिन का अखबार का बंडल गायब कर देना , क्या यही पत्रकारिता है। पत्रकारिता जीवन का लम्बा समय पुलिस आफिस में  अफसरों को किसी दरोगा सिपाही को मनचाहा स्थान पर तैनाती दिलवाने के लिये कागज का चुटका थमाने में गुजार देने वालों को यदि आप पत्रकार संगठनों का अगुआ कह दंडवत करते हैं, तो तौबा-तौबा इस पत्रकार जगत से मैं तो हॉकर ही सही। यह बड़ा ही कष्टकारी विषय है कि एक दो खबर लिख लोग पत्रकार बन बैठते हैं। कहां लिखें हैं , वह भी क्षेत्र की जनता नहीं देख पाती है। मित्रों , इससे बेहतर माध्यम अब सोशल मीडिया है। आप पढ़े लिखे नौजवान हो , कम से कम अभिव्यक्ति की जो आजादी सोशल मीडिया के माध्यम से मिली है, उसे तो बर्बाद ना करों। झूठी, भ्रामक, जातीय और मजहबी बातें इस सोशल मीडिया पर मत पोस्ट करों साथियों । बस इतनी सी अपील है आज मेरी।(शशि)

क्रमशः

Tuesday 17 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
 17/4/ 18
आत्मकथा

     विचित्र विडंबना है कि यदि हम ईमान पर चलते हैं, तो  हमारे पास न धनबल होता है, न ही जातिबल और बाहुबल। जो वर्तमान समाज का स्टेटस सिम्बल है। फिर संकट काल में कौन बनेगा हमारा सुराक्षा कवच। पत्रकारिता ही नहीं हर क्षेत्र में कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति की घेराबंदी निश्चित ही होती है। तब यह समाज भी जिसके हितों के लिये हमने संघर्ष किया है।  वह अफसोस व्यक्त कर खामोश हो जाता है। ऐसे में एक आत्मबल ही तो है, जिसके भरोसे हमें अपनी लड़ाई लड़नी है। हम जैसे पत्रकारों के पास  धन, जाति और बाहुबल तो बिल्कुल ही नहीं है। यह सब हो भी कैसे, हमने जब इनकी चाहत की ही नहीं, क्यों कि हमारी साधना का क्षेत्र कुछ और रहा । हमें यह बताया गया था कि हम समाज का आईना हैं  और जाहिर है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। तब हम अपनी लेखनी को चाटूकारिता का हिस्सा कैसे बना देतें। ऐसे में जब हम साजिश के शिकार हो जाएं , तो हतोत्साहित होने से काम चलेगा नहीं। ऐसे में तो हमारे पत्रकार साथी ही हमारा उपहास उड़ाने लगते हैं। मैं इस पीड़ा से गुजर चुका हूं एवं अब भी गुजर ही रहा हूं...

   फिर भी ऊपर वाले की सत्ता में विगत कुछ दिनों में मेरा विश्वास बढ़ा है। वर्षों बाद मुझमें यह परिवर्तन आया है, जब मेरे हृदय में उसके प्रति अनुराग जगा है। अन्यथा परिजनों के बिछुड़ने और निरंतर कष्ट सहते रहने के कारण , मैं बिल्कुल ही नास्तिक सा हो गया है। परंतु अब लगने लगा है कि यदि आपका मार्ग सही है,तो जो लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से आपकों परेशान कर रहे हैं।  ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के तहत उन्हें भी दंड मिलना शुरु हो गया है। जो यह समझ रहे थें कि इस जनपद में पत्रकार जगत के वे बेताज बादशाह हैं। जिनकी मैंने कभी किसी न किसी तरह से मदद ही की थी। फिर भी मेरे विरुद्ध षड़यंत्र में शामिल लोगों की टीम में उन्हें देख अत्यधिक कष्ट की अनुभूति होती रही मुझे। मैंने ऐसा कोई बड़ा अपराध नहीं किया था कि इतनी बड़ी साजिश रच मेरी कलम की स्वतंत्रता को बंधक बनवा दिया इन्हीं लोगों ने।  आज सामने से तमाम खबरें गुजरती रहती हैं। लोग कहते भी हैं कि शशि भाई आपके लायक यह अच्छी खबर है, फिर भी कलम नहीं उठा सकता। जिस स्वतंत्रता के लिये बड़े समाचार पत्रों की गुलामी इन ढ़ाई दशकों में करना पसंद नहीं किया। और एक सांध्यकालीन अखबार को कुछ वर्षों पूर्व तक मीरजापुर शहर की धड़कन बना रखा था। कम से कम चार लोग मीरजापुर से लेकर विंध्याचल तक गांडीव वितरण करते थें। वर्षों का वह सारा संघर्ष बिखर गया, इन्हीं तीन- चार पत्रकार बंधुओं के कारण। खैर ! हाल के एक बड़े घटनाक्रम के बाद मेरे वे मित्र जिन्होंने मुझे इस अपमानजनक पीड़ा को सहते देखा है, वे मुस्कुराते हुये अब मुझे यह कह सांत्वना दे रहे हैं कि शशि भाई, देखा न ऊपर वाले की लाठी की मार  ...

   वैसे, सच कहूं, तो मुझे फिर से ईश्वर की न्याय व्यवस्था में विश्वास होने लगा है। मुझे भरोसा होने लगा है कि पत्रकारिता को यदि मैंने गलत माध्यम से धन अर्जित करने का साधन नहीं बनाया है, तो कम से कम ऊपर वाले की अदालत में इंसाफ जरूर मिलेगा। और मिलता दिख भी रहा है। फिर भी जिनकी पत्रकारिता का साम्राज्य एक झटके में ही डगमगा गया है, उनके प्रति मुझे सहानुभूति है। पुराने परिचितों में से जो हैं। हां, पेशे से मित्र मैं उन्हें नहीं कह सकता। क्यों कि मित्र षड़यंत्र का हिस्सा तो नहीं होता है न...

                खैर ! मैं तो यहां बाहर से आया हुआ हूं । अतः अपनी वर्षों की तपस्या भरी पत्रकारिता पर सवाल उठने पर ,
 ऐसी स्थिति में कुछ विचलित होना स्वभाविक है । पर मैं शुक्रगुजार हूं अपने  मित्रों और शुभचिंतकों का , जिनका भरपूर सहयोग मिला।  मुझसे, मेरी लेखनी से और मेरे परिश्रम से स्नेह करने वाले अनेक लोग  इस संकट से मुझे बाहर निकालने के लिये जिस तरह से सामने आये, यह मेरी ईमानदारी से काम करने का ही प्रभाव रहा । मैं इसके लिये उन्हें बार बार धन्यवाद देना चाहता हूं। जिन्होंने मेरा सहयोग करते समय तनिक भी इस बात का एहसास मुझे नहीं होने दिया कि वे एहसान कर रहे हैं मुझपर...

(शशि)
क्रमशः

Monday 16 April 2018

व्याकुल पथिक 16/ 4/ 18
 आत्मकथा

     एक ईमानदार पत्रकार की जो सबसे बड़ी कमजोरी  है, वह यह कि अपनी लेखनी से चहुंओर मोर्चा खोल देना। जिन विषयों और जिनके संदर्भ में उसकी कलम स्वतःही चल गयी। स्वयं को चौथा स्तंभ समझ, ऐसा कर उसे लगता है कि उसने अपने पत्रकारिता धर्म का पालन ही किया है। परन्तु कभी कभी पर्दे के पीछे के खिलाड़ी को वह पहचान नहीं पाता अथवा उसे नजरअंदाज कर देता है। जानते हैं वे कौन लोग होते हैं ? वे हैं हमारे कतिपय मित्र पत्रकार बंधु ही। जिनका जुगाड़ वहां रहता है, जिन पर हम जैसे पत्रकार प्रहार कर देते हैं । जो इस अर्थयुग  का हवाला दें,हमारी लेखनी पर शिकंजा कसना चाहते हैं। उनके  प्रलोभन के बावजूद भी यदि हमने समझौते वाले मार्ग का चयन कर एक चतुर सौदागर सा व्यवहार नहीं किया, तो मुसीबत में फंस सकते हैं।  मित्रों , मैं जो भी आपके लिये लिख रहा हूं न, उसका भुक्तभोगी हूं, तभी आप युवाओं को उन खतरे से अवगत करवा रहा हूं, जिनसे मैं गुजरा हूं। मैं  कोई वैसा पत्रकार हूं नहीं ,जो बड़े बड़े संगठनों का मुखिया बन जाते हैं , जिन्हें न तो समाचार लिखना है , न ही कोई लेख । ऐसे बड़े पत्रकार कहलाने वाले भाई साहब लोग हमारे जैसे श्रमिक ईमानदार पत्रकारों से उम्मीद करते हैं कि हम उनकी अधिनता स्वीकार कर लें। परंतु  यदि पत्रकारों का मंच सजाने वाले ऐसे  लोगों से आप पत्रकारिता जीवन में उनके संघर्ष के संदर्भ में कभी  विचार गोष्ठी अथवा अब तो "  सीधी बहस " जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर खूब होती है, वह करवा कर देख लें, ऐसे लोग आपने समक्ष कुछ भी संघर्ष व आदर्श प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे, अफसरों, राजनेताओं और धन सम्पन्न लोगों संग  हंसी ठिठोली और हमारे जैसे लिखने पढ़ने वाले पत्रकारों के हक अधिकारी को हजम करने और मानसिक उत्पीड़न देने के अलावा कुछ किया हो, तब न। अरे मेरे भाई  ! इतना तो आप सभी जानते हैं कि थोड़ी बहुत गलतियां सही राह पर चलने वालों से भी होती ही रहती हैं। मैं भी इससे अलग नहीं हूं। परंतु यह भी तो बताया गया है, न कि निकम्मे लोग ही गलतियां नहीं करते हैं, क्यों कि उन्हें कुछ करना ही नहीं है। इंसान गलतियां न करे, तो फिर भगवान न बन जाए।  यदि कोई पत्रकार अपने कर्मपथ पर चलते हुये, कोई गलती कर भी देता है, तो उसकी मंशा समाज में किसी को ब्लैकमेल करने की तो नहीं होती है न। आप उसे उसकी भूल बता भी सकते हैं। क्षमा भी कर सकते हैं। परंतु होता यह नहीं हैं ,ऐसी स्थिति में आपके ही पत्रकार मित्र सबसे आगे आ कर मोर्चा खोल आपकों फंसाने में जुट जाते हैं। एक पत्र प्रतिनिधि की एक और बड़ी कमजोरी यह होती है कि यदि उसके सम्पादक को नोटिस जाती है या फिर मुकदमा आदि आपके किसी समाचार लेखन पर दर्ज हो जाता है, तो फिर सारी जिम्मेदारी हम पर ही थोपी जाएगी। पहले जैसे सम्पादक अब नहीं रहें। अब तो इस कुर्सी पर जो बैठें है, वे भी व्यापारी ही है। और भला एक व्यवसायी कैसे अपना नुकसान चाहेगा। सो, मित्रों आपका यह पत्रकारिता धर्म ऐसे  संकट काल में आपको अवसाद की ओर ले जा सकता है।मैं अपनी ही बात कहूं, तो विगत कुछ वर्षों से जबसे हमारे प्रेस के सम्पादक बदले हैं, कोई भी खतरा उठाने की स्थिति में नहीं हूं। दो मुकदमे अपने बल पर ही झेल रहा हूं। संस्थान से साफ साफ हिदायत मिली है कि कोई भी विवादित समाचार बिल्कुल भी न लिखा करें। सो, पत्रकारिता में अब मेरी कोई रुचि नहीं है। बस इसमें इसलिये सड़ रहा हूं, क्योंकि मुकदमे का सामना जो कर रहा हूं। वैसे, दो दशक पूर्व ही मैं जब चाहता, तब किसी बड़े बैनर का गुलाम बन सकता था। लेकिन,  मुझे कलम की स्वतंत्रता पंसद है, इसीलिये भी इन करीब ढ़ाई दशक से गांडीव से ही जुड़ा रह गया। बड़े अखबारों का पोस्टमैन जो मैं नहीं कहलाना चाहता था।  मेरा यही हठ मुझ पर बहुत भारी पड़ा। पहचान बनी , पर जीवन की हर खुशियां और ख्वाहिश दूर चली गई। अब तो बस मुसाफिर बन गुनगुना रहा हूं, न घर है, न कोई ठिकाना...

(शशि)
 क्रमशः

Saturday 14 April 2018

व्याकुल पथिक 15/4/ 18
आत्मकथा

   पत्रकारिता में चाटूकारिता नहीं होनी चाहिए , क्या ऐसे अब सम्भव है। कतिपय बड़े अखबार और मीडिया चैनल इस लिये ही कुख्यात है कि फलां राजनैतिक दल का वह समर्थक है। कुछ के तो मालिकान भी किसी न किसी दल से जुड़े है। वर्तमान दौर में पत्रकारिता में हम जितनी ही ऊंचाई पर बढ़ेंगे , यह पाएंगे कि हम तो आदर्श पत्रकारिता के लड़ रहे हैं और वहीं अनेक मीडिया समूह के स्वामी किसी आलीशान होटल या बंगले में किसी प्रमुख राजनेता संग डीनर कर रहे हैं। उनके बीच की डीलिंग पर हम पत्रकार नौकरों को बोलने का कोई अधिकार नहीं है। बस दिशा निर्देश आता है कि हमें किस तरह की खबरें लिखनी है । जिनता बड़ा अखबार रहेगा, दबाव भी उतना ही अधिक। हालांकि मैं एक मझोले समाचार पत्र से जुड़ा रहा हूं और हमारे सम्पादक जी का बेहद स्नेह मुझ पर रहा, इसी कारण समाचार लेखन की स्वतंत्रता थी। सिर्फ एक बार उन्होंने व्यक्तिगत रुप से मुझे टोका था। मामला नरायनपुर और पड़ोसी जनपद के मध्य जिला पंचायत परिषद के बैरियरों पर धन उगाही से जुड़ा रहा। उस खबर को मुझे जनहित में प्रकाशित करना पड़ा। ये बैरियर तब सत्ता पक्ष के एक धनाढ्य माननीय के लोगों द्वारा संचालित हो रहा था। जो माननीय थें, उन्होंने हमारे संस्थान से सम्बंध रखने वाले एक चिकित्सक का जनहित में काफी सहयोग किया था। सो, उस खबर पर मेरी शिकायत की गई थी।
        जब युवा था, संघर्ष करने की भरपूर क्षमता थी और एक विश्वास था कि संकटकाल में संस्थान मेरा साथ देगा। उस समय हमारे प्रेस में जो पत्रकार थें, उनकी हनक चहुंओर थी। सबसे अधिक विश्वास मैं इस मामले में डा0 राधारमण  चित्रांशी जी पर करता था। पुलिस महकमा हो या फिर प्रशासनिक उनकी तूती तब बोलती थी। सो, खबर लिखने से पीछे नहीं हटा, तब तक जब तक मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि संकट काल में मैं बिल्कुल अकेला हूं। संस्थान जिस पर मुझे गर्व था कि वह मेरा सुरक्षा कचव है, यह भ्रम तब टूटा जब मुझपर यहां समाचार लेखन को लेकर मुकदमा दर्ज हुआ। इस संघर्ष में मैं  बिल्कुल अकेला हूं। हां , हमारे साथी पत्रकारों और शुभचिंतकों ने मिल कर जमानत करवाया और मामला न्यायालय में चल रहा है। हां, संस्थान की इतनी कृपा रही कि उसने मुझे बाहर का रास्ता नहीं दिखलाया। परंतु आप यह नहीं समझ सकते कि जब कोई पत्रकार ईमान की राह पर हो और किसी अपने के ही साजिश का शिकार हो गया हो, तो उसपर क्या गुजराती है। तब किस तरह से ऐसे ही लोगों ने हमदर्द बन मेरा उपहास अपने महफिल में उड़ाया, उस अवसाद के दौर से भी मैं गुजरा हूं। जेब खाली था। ऐसे में जहां संस्थान से आर्थिक सहयोग की उम्मीद थी, वहां इस जरुरत को हमारे सहयोगी जनों ने कुछ तो पूरा किया ही।  पुलिस और राजनेताओं की चाटूकारिता न करने की यह बड़ी  कीमत मुझे चुकानी पड़ रही है। हम लम्बे समय से एक ही जिले में रहकर यदि ईमान पर रह कर पत्रकारिता करेंगे, तो विरोधियों से घिरते चले जाएंगे। हां, यदि चाटूकारिता को पत्रकारिता का अंग बना लेंगे, तो सम्पन्न और खुशहाल जीवन व्यतित कर सकते हैं। प्रशंसा कौन नहीं सुनना चाहता। शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अप्रिय सत्य मत बोलों । सो,  मैं अब समझता हूं कि पत्रकारिता ही नहीं चाटूकारिता का हर क्षेत्र में विशेष स्थान है। हां मेरे तरह घर फूंक कर तमाशा देखना हो, तो फिर आये इस राह पर...  सब कुछ बर्बाद हो सकता है। फिर भी इसका अपना आनंद है। आज भी जब मैं सड़कों पर निकलता हूं, तो मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक संघर्ष के प्रतीक के रुप में मुझसे स्नेह रखने वाले लोग देखते हैं। अनजाने शहर में यह पहचान मेरी बड़ी उपलब्धि है। पर आपको लिखने की उतनी स्वतंत्रता भी दे, आपका सम्पादक तब न !  इस जनपद में भी क्षेत्र में कितने ही अच्छे पत्रकार हैं, परंतु उनकी खबरें ब्यूरोचीफ के डेक्स पर पहुंच बेदम हो जाती हैं। क्यों वहां जो शख्स बैठा है, जिसे संस्थान से कुछ अच्छा वेतन मिलता है। खबर लिखने की कला तो उसकों भी आती है। परंतु उसकों यह जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है कि प्रेस के व्यवसाय को बढ़ाया जाय। बिना चाटूकारिता के क्या यह सम्भव है ...। (शशि)

क्रमशः
व्याकुल पथिक 14/4/ 18



समाज सुधारक पर हो रही सियासत का यह कैसा हाल

आज बाबा साहब अम्बेडकर की जयंती है।सो, विभिन्न राजनैतिक दलों, सरकारी संस्थाओं और जातीय संगठनों द्वारा तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं। और करना भी चाहिए जिन भी महापुरुषों ने हमें , हमारे समाज और देश को अपनी तपस्या साधना से विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं विष ग्रहण कर औरों को अमृतपान करवाया है। उन्हें हम भुला भी कैसे सकते हैं। लेकिन, विडंबना देखें कि जो  समाज सुधार हैं, उनकों भी जाति धर्म की राजनीतिक के विषाक्त वातावरण ने सीमित दायरे में ला खड़ा किया है। सो, सबसे अधिक सियासत किसी के नाम पर हो रही है, तो वे हैं डा० भीमराव अम्बेडकर। दलित राजनैतिक संगठनों ने बाबा साहेब के नाम पर अपना अधिकार जमा लिया है।  वहीं अन्य सियासी पार्टियां  डा० अम्बेडकर के नाम  को अपना बताने के लिये आपस में लड़ रही हैं। दरअसल, यह सियासी जंग जो उन( बाबा साहेब) पर अधिकार जमाने के लिये हो रह है, वह दलित जातियों के वोटबैंक के लिये हो रहा है।  परंतु बाबा साहेब ने जो स्वप्न दलितों की हित रक्षा का संजोया था, वह देश की आजादी के बाद कितना पूरा हुआ। दलित समाज के क्रीमी लेयर लोगों को छोड़ दे तो, आम दलितों को कितना लाभ  मिला । उन्हें  संविधान  द्वारा दिए गए  विशेष  अधिकारों का किसी राजनैतिक दल  जो  उनके सबसे करीब  रहा है, ने  उन्हें  सामाजिक बुराइयों से मुक्त कर विकासशील समाज की ओर अग्रसर किया क्या। बड़ा सवाल  यह है कि   समाज का बड़ा तबका  किसी न किसी मादक द्रव्य के नशे का शिकार  हो जाता रहा है। सत्ता में आने पर इस दलित वर्ग के शुभचिंतक कहे जाने वाले राजनैतिक दलों ने ऐसा क्या किया कि यह एक नशामुक्त समाज बन पाता। खैर , दलितों संग सहभोज अब उनके उत्थान, विकास, सामाजिक समरसता का बड़ा पहचान बन गया है। वहीं, समाज में द्वेष भाव इस कदर बढ़ गया है कि  अम्बेडकर जयंती जैसे पर्व पर अब उनकी ही प्रतिमा की सुरक्षा अपने ही देश, प्रदेश  के गांव- जनपद में करनी पड़ रही है। हैं न बड़ी ही विचित्र स्थिति। जहां हर दल के नेता अंबेडकर जयंती मना रहे हो, वहीं पुलिस उनकी प्रतिमा की डंडा लिये पहरेदारी कर रही है। एक ही समूदाय के लोग अगड़े, पिछड़े और दलित में बंट कर यह किस तरह की जंग एक समाज सुधारक की प्रतिमा पर लेकर लड़ रहे हैं। जिस तरह की जयंती बाबा साहब की मनी उसके समक्ष तो बापू की जयंती पर होने वाले समारोह यदि सरकारी आयोजन को छोड़ दें, तो कहीं से टिक नहीं सकते। जिसने अहिंसा की राह पर चलना सिखाया और कमजोर वर्ग के लिये सार्थक संघर्ष किया। उस राष्ट्रपति की जयंती पर क्या विभिन्न राजनैतिक दलों की इस तरह की सक्रियता आपने बीते वर्ष 2 अक्टूबर की देखी थी ! (शशि)

Friday 13 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक 12 -13 /4/18

  पत्रकारिता में जो मुझे उचित लगा,सो किया। ठीक है कि इन ढ़ाई दशक के सफर में बंसत कभी नहीं आया , पतझड़ ही मेरे श्रम की पहचान है इस रंगमंच पर। फिर भी है तो कोई पहचान यहां ? सो, इसे अपनी बर्बादी कैसे मान लूं। यदि हम  ईमानदारी से जहां तक सम्भव है पत्रकारिता कर रहे हैं, तो इतना सुकून तो है  कि चाहे  कितने भी शत्रु हो, फिर भी वे हानि नहीं पहुंचा सकतें, क्यों कि हमने कर्मपथ ही ऐसा चयन कर रखा है कि उंगली उठाने वाला, स्वयं ही एक दिन अपने ही किसी कुकर्म के कारण अवसादग्रस्त हो जाता है।  ढाई दशक तक एक ही समाचार पत्र का जिला प्रतिनिधि बन कर रहना ही  स्वयं में एक बड़ी चुनौती भरा कार्य है।  वह भी इस अर्थ युग में। जहां सारे संबंध के मूल में व्यापार है। जबकि मैं ठहरा  पत्रकारिता के क्षेत्र में बिल्कुल फकीर। बड़े समाचार पत्रों के बीच अपनी इसी पहचान से इतना विज्ञापन तो प्राप्त कर ही लेता हूं कि संस्थान यह नहीं कह पाता कि यह " बेजान " हो गया है। हां, बात जब पहचान पर हो रही है तो 12 अप्रैल को देर शाम जिलाधिकारी मीरजापुर रहें विमल कुमार दूबे के स्थानांतरण को ही लें । वे करीब एक वर्ष यहां रहें। पहली बार वे डीएम की कुर्सी पर बैठें थें। सो, इस शांतिप्रिय जनपद में यदि वे चाहते तो यादगार पाली खेल जातें। परंतु दुआ सलाम में ही 358 दिन गुजर गयें। एक भी बड़ी धमाकेदार कार्रवाई उनकी कलम से  होते नहीं दिखी।  अब मेरे जैसे पत्रकारों को यह सोचना पड़ रहा है कि उनके कार्यकाल पर कलम से क्या बड़ाई लिखूं। तो मैंने अपने समाचार के कालम में लिखा कि श्री दूबे मृदुभाषी, सरल स्वभाव के और सामाजिक कार्यक्रमों में रुचि लेने वाले अधिकारी रहें... एक और कनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की पहचान बताऊं आपको ! जिनका नाम आज भी जनपद में अनेकों की जुबां पर है। वे हैं यहां कुछ वर्ष पूर्व एसडीएम की छोटी कुर्सी को सम्हालने वाले युवा प्रशासनिक अधिकारी डा० विश्राम । सामाजिक कार्यकर्मों  में तो जब वे यहां थें, तब डीएम -एसपी से कहीं अधिक पूछ एसडीएम (उनकी) की रही। परंतु जब वे अपने कार्यालय कक्ष में कुर्सी पर बैठते थें, जम कर होमवर्क भी करते दिखें । खनन माफियाओं के विरुद्ध उनकी धमाकेदार पाली, आज भी अनेकों की जुबां पर हैंं। यह उनके एक योग्य अधिकारी होने की पहचान रही !  (शशि)

क्रमशः

Wednesday 11 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक 11/4/18

आत्मकथा

   एक कड़ुवा सच आज मैं कहना चाहता हूं, वह यह है कि  पत्रकारिता धर्म के मार्ग पर चलने वाले किसी भी पत्र प्रतिनिधि को जो सबसे बड़ा खतरा है , वह किससे  है !  जानते हैं आप ? यही सोच रहे होंगे न कि गुंडे -माफियाओं से या फिर पुलिस और बाहुबली सफेदपोश भी ऐसा हो सकता है। क्यों कि उत्साह से लबरेज एक युवा पत्रकार की कलम सबसे पहले इन पर ही खुलती है। मैं भी इसी दौर से गुजरा हूं। परंतु विश्वास करें , इनसे कभी खतरा नहीं हुआ मुझे । चंबल से आईं पूर्व दस्यु सुंदरी स्व० फूलन देवी, वाराणसी से आये विनीत सिंह , ददुआ के अनुज बाल कुमार पटेल और सपा के तोप समझे जाने वाले राजनेता शिवशंकर यादव पर भी खूब कलम चली थी मेरी। साथ ही वर्दी वालों से भी पंगा लेता ही रहा। यहां तक कि हमारे अखबार के संपादक जी तब चिंतित रहते थें कि यह लड़का कहीं संकट में फंस न जाए।  इन सभी पर चर्चा कभी विस्तार से करूंगा। पर यहां इतना बता दूं कि ऐसे सभी पावरफुल लोगों ने  कुछ नाराजगी के बावजूद भी मेरी लेखनी का  सम्मान ही किया। मेरे उनके मध्य संवादहीनता नहीं आने पाई। फिर खतरा किससे है मुझ जैसे पत्रकारों को !  तो वे हैं अपने ही भाई बिरादरी के लोग । जो हमकों पता भी नहीं चलने देंगे कि कब डंसने वाले हैं वे । एक पत्रकार को किस तरह से फंसाया जा सकता है। यह कमजोरी उन्हें पता जो है। सो, इन्हें पत्रकारिता जगत का जयचंद कह सकते हैं । परंतु इनका साम्राज्य भी स्थाई नहीं होता। अब मेरे ही मामले में ले न , मुझ पर पर्दे के पीछे से मुकदमा दर्ज करवाने वाला एक पत्रकार जिले से ही लापता है, दूसरा घर पर पड़ा है, तीसरे की हाल यह है की अपने ब्यूरोचीफ के पांव तले दबा कराह रहा है और अब चौथे का बड़ा साम्राज्य भी डगमगा रहा है। ऐसे पत्रकार तनिक आत्मचिंतन कर लें। मित्रों, गरीब  ईमानदार व्यक्ति को पीड़ा पहुंचा कर आप उसका और कितना नुकसान करेंगे, वह तो पहले से ही तप रहा है। मुझे ही लें , सारे संबंध, स्वास्थ्य और  हर सूख सुविधा को पत्रकारिता की  बलिवेदी पर अर्पित कर चुका हूं। यह बात किसी से छिपी नहीं है। बचपन से जिद्दी था ना , सो अवसर मिलने पर भी कलम का मोल नहीं मांगा , न ही ठेकेदार, कोटेदार ,दुकानदार बना। फिर भी भाई बिरादरी वाले मुझसे इसलिये नाराज रहते है, क्यों कि उनका जुगाड़ तंत्र  मुझे पसंद नहीं है। यदि किसी गलत व्यक्ति से उनकी मित्रता है, तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं भी ऐसे लोगों को मौसेरा भाई लूं। सो मैंने जहां तक सम्भव हुआ  लिखा। पर जाहिर है कि जल में रह कर मगर से यदि वैर करुंगा ,  तो परिणाम मेरे जैसे गैर जनपद से आये पत्रकारों के लिये हानिकारक  होना तय है। परंतु जनाब आप भी षड़यंत्र सफल होने पर यूं न मुस्कुराते फिरें।

  महान समाज सुधारक संत कबीर की इस चेतावनी से जरा भय खायें। क्या सबक था उनका याद करें....

       दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय।
       बिन सांस की चाम से, लोह भसम होई जाय।

मैं तो गरीब और ईमानदार दोनों ही हूं, अतः  मुझ जैसों को सताने का दंड स्वतः ही मिलेगा ! यह प्रत्यक्ष मैं देख रहा हूं।
    दरअसल, ऐसे लोग जो पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी हाथ पांव मार कर भी नंबर वन नहीं बन पाते, उन्हें सदैव दूसरे चमकते सितारों से ईर्ष्या होती रहती है। अतः आपने किसी प्रभावशाली व्यक्ति के विरुद्ध कुछ लिखा नहीं कि चहकते हुये ये लोग घेरों पकड़ों, अबकि बचने ना पाये, बड़ा तेज बनता है का शोर मचाते हुये ,कान भरने पहुंच जाते है उनके दरबार में,  जिसके विरुद्ध आपकी लेखनी चली हो । ऐसे ही पत्रकार अपने बड़े बैनर का भरपूर दुरुपयोग करते हैं। वे धन की चाहत में  एक कॉकस बना लेते है।   फिर तो ऐसे कौओं के बाजार में बेचारी कोयल कहां तक अपनी प्राणरक्षा करें , या तो रण छोड़ कर भागे या फिर लड़ मरे।  मित्रों पत्रकारिता बड़ी गंदी हो गयी है, जनपद स्तर पर। सो, बड़े बैनरों से जुड़े कतिपय स्थानीय पत्रकारों की क्रास चेकिंग उस संस्थान के बड़े अधिकारियों को करवाते रहना चाहिए। हालांकि ब्यूरोचीफ बदलते रहते हैं। परंतु  दफ्तर में खिलाड़ी और भी तो होते हैं। ( शशि)

क्रमशः

Tuesday 10 April 2018

व्याकुल पथिक पत्रकारिता में मेरा अनुभव

व्याकुल पथिक 10/4/18
आत्मकथा

    नियति के उपहास पर कभी कभी मुझे भी हंसी आती है। समझ में ही नहीं आता कि मैं पत्रकार कैसे बन गया। शहर भी अनजान ,डगर भी और कलम भी...
    रही बात पत्रकारिता लेखन की तो छात्र जीवन में कक्षा में गणित के जटिल सवालों को हल करने में मेरी अधिक रुचि रहती थी। भले ही कोई मार्गदर्शक न रहा हो तब भी मैं अकले ही घंटों जूझता रहता था कागज के पन्नों पर। अंततः विजय तो मेरी ही होती थी। हां ,बचपन में चित्रकला में भी खूब रुचि लेता था। परंतु हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही बिल्कुल पढ़ना नहीं चाहता था। हालांकि ऐसा भी नहीं था कि फेल हुआ हूं, कभी इन दोनों विषयों में । खींचतान कर 60 फीसदी अंक तो पा ही लेता था इनमें भी। फिर भी मैं तब सहपाठियों से यही कहता फिरता था कि हिन्दी भी कोई विषय है, जो व्यर्थ में समय बर्बाद करुं। और अब ढा़ई दशक पीछे की जब सोचता हूं, तो छात्र जीवन की अपनी भूल याद हो आती है। लेकिन, बीता समय फिर कहां आने वाला कि हिन्दी का एक कुशल विद्यार्थी बन जाऊं। आज सफल अथवा असफल पत्रकार जो भी बना, उसी हिन्दी के कारण,वर्तमान में भी जो यह ब्लॉग लिख कर अपनी व्याकुलता कम कर रहा हूं, वह भी तो हिन्दी लेखन से ही सम्भव है। चित्रकला और गणित  मेरे विरान जीवन में रंग भरने तो आया नहीं न। इसलिये वाराणसी में कालेज द्वार से जब प्रवेश करता था ,तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविता मातृभाषा का यह दोहा ..

निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल।
 बिन निज भाषा - ज्ञान के , मिटत न हिय को सूल।।

जो उनके स्मारक पर लिखा था, अब याद हो आता है। साथ ही तकलीफ भी होती है कि काश ! कुछ हिन्दी का ज्ञान होता, तो मैं अपनी बात प्रभावशाली तरीके से रख पाता। पर आप सभी तो युवा पत्रकार हैं, बड़ी बड़ी डिग्रियां भी हैं आपके पास। फिर समाचार लेखन आप में से बहुतों का प्राइमरी स्कूल के बच्चों की तरह क्यों है। आज कल पोर्टल वाले ब्यूरोचीफ हो गये हैं। पर उनका भाषा ज्ञान देखें साहब !  जब कुछ बताओं या सुधार करने को कहो, तब भी बड़ी बेशर्मी से वे कहते मिलते हैं कि ऐसा तो जानबूझ कर इसलिये करता हूं , ताकि खबर की कापी पेस्ट न हो।
       पर मैं भी बड़ा ही विचित्र तरीके का पत्रकार बना हूं। दोपहर तीन बजे तक खबर लिखना फिर अखबार का बंडल लेने जाना और रात्रि साढ़े 10 - 11 बजे तक पेपर बांटना। मजे की बात तो यह भी है कि जिसे कभी  पत्रकारिता का ककहरा तक नहीं आता था, कुछ वर्षों बाद पहचान.बनने पर उसकी उसी कलम की बोली लगाने वाले भी हो गये। जैसा कि बता ही चुका हूं कि पत्रकारिता धर्म के पालन में यदि आपकी पहचान बन गई है, तो जगह जगह प्रलोभन भी है। जबकि आर्थिक तंगी एक सच्चे व अच्छे पत्रकार की सबसे बड़ी कमजोरी है। सामने लक्ष्मी हो, तो मन को बहुत समझाना पड़ता है। तोहफा और पैसा देने वाले की मंशा को समझना जरुरी है। एक बार इस लोभ रुपी दलदल में गिरे नहीं की आप पत्रकार की जगह एक अच्छे सौदागर बन जाएंगे भाई । ऐसे पत्रकार किसी की कमजोरी पकड़े नहीं कि उसका मोल चाहेंगे।  इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को इसलिये मैं कम ही देखता हूं। हां , रवीश कुमार जैसे पत्रकार उसके पास होते, तो जरूर देखता। वहां तो डिबेट के नाम पर मछली बाजार जैसा शोर है। चैनल वाले पत्रकार खबरों को प्रायोजित करते है। एक बार की बात बताऊं किसी समस्या को लेकर एक पीड़ित व्यक्ति को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कतिपय पत्रकारों ने यह कह कर तैयार किया कि कलेक्ट्रेट में पहुंच कर बस तेल डालों और माचिस जलाने का प्रयास भर करों, देखों फिर  तुम्हारा काम कैसे नहीं हो पाता है। जब यह सब कुछ टेलीविजन के स्क्रीन पर दिखेगा, तो देखना साहब को पसीना आ जाएगा। लेकिन हुआ उलटा , वहां मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उस व्यक्ति को दबोच लिया , चूंकि तब के हाकिम बड़े कड़क थें। सो , उस पीड़ित शख्स को बरगलाने वाले तथाकथित पत्रकारों की तलाश शुरू हो गयी थी। मामला कुछ वर्ष पुराना है।   ऐसे प्रायोजित समाचार से एक अच्छे पत्रकार को बचना  चाहिए।( शशि)

क्रमशः

Sunday 8 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 9/ 4/18
 आत्मकथा
       
      हम सभी प्रबुद्धजनों का यह कर्तव्य है कि अपने उत्तराधिकारी का उचित मार्ग  दर्शन करें । कोई ऐसा आदर्श उनके समक्ष प्रस्तुत कर जाये, जिससे कर्मपथ पर चलते समय व्याकुलता की स्थिति में यह उनके आत्मबल को बढ़ा सके। क्यों कि जिनसे हमने कुछ पाया और कुछ सीखा , उनका स्मरण सदैव मन को आनंदित करता है। इस दृष्टि से पत्रकारिता के क्षेत्र में मैं सौभाग्यशाली हूं। हमारे गांडीव समाचार पत्र के संस्थापक सम्पादक स्वर्गीय भगवानदास अरोड़ा जी का जो आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ। वे मेरे सामने एक बड़ा आदर्श हैं। लगभग दशक भर पूर्व जब मैं यहां अखबार बांटता था, तो कितने ही ऐसे वरिष्ठ नागरिक मिलें, जो यह बताया करते थें कि उनके सम्पादकीय लेखन का इस तरह नशा उनपर था कि बीएचयू में जब वे पढ़ते थें, तो जेबखर्च से इतना पैसा जरुर बचा लिया करते थें कि शाम को गांडीव खरीद सकें। वहां प्रेस में जिनसे कुछ सीखा उनकों मैं भला कैसे भूला सकता हूं। डा० राधारमण चित्रांशी जी , अत्रि भारद्वाज जी, कमलनयन मधुकर जी, सत्येंद्र श्रीवास्तव जी इन सभी वरिष्ठ पत्रकारों ने एक अभिभावक की तरह मुझे कलम पकड़ना सिखाया है। साथ ही एक और चेहरा मुझे सदैव स्मरण रहेगा। वे रहें मित्र अरशद भाई के पिता स्वर्गीय अख्तर आलम शास्त्री जी। गांडीव कार्यालय में समाचार डेक्स पर किनारे से पहली कुर्सी उनकी ही होती थी। खबरों से भरे कागजों के पुलिंदे के अतिरिक्त एक ट्रांजिस्टर भी उनके बगल में रखा रहता था। सो, उनका पूरा प्रयास होता था कि दोपहर तक की कोई राष्ट्रीय और प्रादेशिक खबर गांडीव से छुटने नहीं पाये। एक बार मैं जब अपने समाचार डेक्स प्रभारी मधुकर जी को मीरजापुर का समाचार सुधारने के लिये दे रहा था ,तो उन्होंने बड़े ही अपनत्व के साथ मुझे बुलाया और क्या कहा जानते हैं ? यह गुरु मंत्र था मेरे लिये मीरजापुर की पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाने से कहीं अधिक यहां के लोगों के दिल में जगह बनाने का।  तो, सूने मित्रों उन्होंने मुझे नसीहत दी थी कि मैं यदि गांडीव को एक अनजान शहर में जनप्रिय बनाना चाहता हूं, तो स्थानीय जन समस्याओं पर ध्यान दूं। लोगों से मिलूं और उनके वार्ड, गली- मुहल्ले की समस्या लिखूं। साथ ही पाठक मंच के लिये भी उनकी खबरें लाता रहूं। उनका यही सबक मेरी यहां पहचान बन गयी। आज के पत्रकारों की तरह कलम पकड़ते ही यदि विभागीय घोटाला खोजने निकल पड़ता, तो शायद आज यहां के गली मुहल्ले में " क्या शशि भाई " कह के लोग मुझे ना बुलाते। शास्त्री जी ने मुझे तब और चकित किया था, जब विंध्याचल नवरात्र मेले की रिपोर्ट तैयार कर एक बार प्रेस में ले गया था। पहले पेज पर खबर लगनी थी। सो, वह समाचार उनके पास गया। संयोग से मैं उस दिन वहीं था। उन्होंने मुझे बुलाया और मेरे उस रिपोर्ट में काफी कुछ संशोधन कर , यह भी बताया कि किस तरह से शब्द चित्र खींचा जा सकता है। ताकि उस खबर को पढ़ते समय पाठक को लगे कि वह स्वयं विंध्यवासिनी धाम में उपस्थित है। तब मैं अचम्भित भी रह गया कि एक मुस्लिम होकर भी उन्होंने विंध्याचल मेले की मेरे समाचार को एक बोलती हुई तस्वीर के रुप में प्रस्तुत कर दिया। जिसका परिणाम जानते हैं क्या रहा मेरी पत्रकारिता पर , तो आज मुझे यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं है कि जातीय-मजहबी भावना से बिल्कुल ही ऊपर उठकर मैंने पत्रकारिता की है। इसीलिए बड़ों का आदर्श और मार्गदर्शन जरूरी है। जब हमने किसी से कुछ पाया है, तो यह हमारा भी कर्तव्य है कि अगली पीढ़ी को भी कुछ दिया जाए।  यह आत्मकथा मैं उन्हीं पत्रकारों के लिये लिख रहा हूं, जो आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं। आपकी कलम सबसे पहले आसपास की जनसमस्याओं पर चलनी चाहिए। पत्रकारिता में आते ही घोटाला खोंजने लगेंगे, तो आपके ईमान की सौदेबाजी शुरू हो जाएगी। फिर जब आप पक्के हुये नहीं हैं, तो पांव डगमगाने लगेगा। परंतु हमारे जैसे पत्रकार सीना ताने यह कह सकते हैं , माया महा ठगनी हम जानी...
(शशि)
क्रमशः

Saturday 7 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 8/ 4/18

आत्मकथा

     कर्मपथ पर आगे बढ़ने के लिये किया गया संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसका एहसास अब मुझे होने लगा है। अचनाक यह परिवर्तन क्यों कि एक व्याकुल पथिक को गणतव्य तक पहुंचने का मार्ग दिखने लगा...
    मित्रों ,  जब से मैं अपने पत्रकारिता जीवन के संघर्ष काल के संस्मरणों को , व्यथा कथा को लिखने लगा। व्याकुलता बढ़ने लगी । अपनों के वियोग और एकाकीपन का एहसास होने लगा। वैराग्य की तलाश में मन भटकने लगा। कोई ऐसा साधक तो हूं नहीं कि पद्मासन या सिद्धासन में आंखें बंद कर बैठ जाऊं और मस्तिष्क को संज्ञा शून्य कर दूं। अभी इस वैराग्य भाव के अभ्यास में वर्षों लगेंगे। तो फिर पत्रकारिता जीवन के संघर्ष भरे इस पच्चीसवें वर्ष में आखिर कौन सा अमृत कलश मुझे मिल गया कि अशांत मन को कुछ तसल्ली हुई है। धन का लोभ तो मुझे है नहीं । सो, कुछ मित्रों की तरह कोई मदिरालय की लाटरी भी नहीं निकली है ,मेरे नाम । मैं तो पूरा खाटी पत्रकार ठहरा । फिर मदिरा की दुकान खोल कर नये लड़कों को यह पत्रकार धर्म बताना तौबा-तौबा। हां, यदि ऐसा कोई धंधा घर गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिये कर भी लेता, तो उसी दिन से पत्रकारिता छोड़ देता। ताकि युवा पीढ़ी की पत्रकारिता दिशाविहीन तो न होने पाये। अरे भाई !  पत्रकारिता के क्षेत्र में अमृत रुपी मदिरा कलश जब पा ही गये हो, तो धन की समस्या अब रही नहीं, मिशन तुम्हारा समाज के प्रति कोई है नहीं, फिर क्यों पत्रकारिता को बदनाम कर रहे हो। जो लोग हमारे पेशे को पवित्र समझते हैं, उसे अपावन करने की अब ऐसी क्या जरूरत।  हर उन लोगों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि यदि पत्रकारिता में आकर अपना मनचाहा अमृत कलश पा गये हों , तो कृपया प्रस्थान करें, इस रंगमंच से । अब देखें न जब से राजनीति में बाहुबलियों, धनबलियों , माफियाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया है, हमारे जिले के जुझारू कामरेड सलीम भाई जैसे तेजतर्रार पुराने नेताओं को  माननीय कहलाने जैसे अमृत फल की प्राप्ति हो ही नहीं  सकी । वे छोटे बैनर तले अपने सिद्धांतों की लड़ाई लड़ जरुर रहे हैं। परंतु जब कोई पावर हाथ में होगा , तब न विचारों को कार्य में परिणित करने का अवसर मिलेगा। तभी उनकी परख होगी कि कितना अच्छा दिन ला पाते हैं , वे भी। पर यहां तो अनाड़ी को खिलाड़ी बनाया जा रहा है। यही स्थिति पत्रकारिता की भी है। राजनीति का ककहरा नहीं जानने वाले धन सम्पन्न दागदार लोगों की इंट्री होते ही, उनसे विज्ञापन और धन प्राप्ति के लोभ में हम उनका बस्ता ढोने लगते हैं। सो, यह कहां तब याद कि सलीम भाई भी मैदान में खड़े हैं। विचार करें कि आज की पत्रकारिता कहां जा रही है ? आंखें शर्म से नीचे क्यों नहीं झुकती हमारी , जब हम हत्या अपहरण, रंगदारी वसूली जैसे मामलों में शामिल सफेदपोश माफियाओं के यहां दरबारी बने खड़े रहते हैं। आज कल एक नया शब्द पत्रकार प्रयोग करने लगे हैं , वह यह कि संस्थान को व्यवसाय चाहिए, इसलिए " चमेली का तेल " लेकर निकला हूं...
   खैर , आज के लेखन का मेरा मूल विषय यह रहा कि ढ़ाई दशक के पत्रकारिता जीवन के संघर्ष में मुझे कौन सा अमृत कलश मिल गया ! तो वह है, यह " व्याकुल पथिक ब्लाग "।  इस ब्लाग पर मैं अपना हर अनुभव, पीड़ा और संघर्ष आसानी से व्यक्त कर पा रहा हूं। कुछ मित्रों ने कहा कि यह सब लिख कर समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो। इस अर्थ युग में किसे फुर्सत है कि तुम्हारी व्यथा कथा में वह रुचि ले। परंतु मेरा नजरिया  उन प्रसिद्ध कथावाचक संत की तरह है, जिन्होंने टाउनहाल, वाराणसी के एक रामकथा में कहा था कि मान लो कि दिन रात मैं राम नाम का माला फेर रहा हूं। और यदि ईश्वर का अस्तित्व नहीं हो, तो क्या मेरा यह मंत्रजाप व्यर्थ हो गया ? जानते हैं कथावाचक संत जी का अगला वाक्य क्या था । उन्होंने कहा था कि ऐसी परिस्थिति में भी मंत्र जाप  का फल व्यर्थ नहीं है। मंत्र जाप से तुम्हारा मन एकाग्र होगा। मस्तिष्क में अनावश्यक विचार नहीं आएगा । तब मैं इंटर की कक्षा में था। बाद में जब कुछ माह एक आश्रम में रहा, तो वहां " सतनाम " जपते रहने को कहा गया। आज भी जब व्याकुलता बढ़ती है, तो मैं तेजी से इस नाम का जाप करता हूं। जबकि कुछ वर्षों से मैं नास्तिक जैसा हूं।
    तो भाई  यह जो मैं लिख रहा हूं न , वह भी इसी मंत्र जाप की तरह ही है, क्या फर्क पड़ता है यह औरों के लिये उपयोगी नहीं हो। अब किसी पुस्तक पर आप ढेरों राम - राम लिखते जा रहे हैं, तो उसे ही कौन पढ़ता है। परंतु उससे आपके मन को शांति मिलती है कि नहीं ? इसी तरह से इस ब्लाग पर यह लेखन मेरे लिये अच्छा टाइम पास होगा, जब मैं पत्रकारिता छोड़ दूंगा। (शशि)

क्रमशः
व्याकुल पथिक 7/4/18

आत्मकथा

    पत्रकारिता में विद्वत्ता ही प्रमुख पहचान नहीं होती है। सवाल यह बना रहता है कि हम किसके लिये लिखते हैं, क्या लिखते हैं और कितना लिखते हैं। यदि हम लोभ में आकर चाटूकारिता भरी पत्रकारिता करेंगे, तो भले ही कितनी भी बड़ी बड़ी डिग्री क्यों न लिये हो, पोल खुलना तय है। यह पब्लिक है न जो, वह सब जानती है। अब देखें न तमाम इलेक्ट्रॉनिक चैनल हैं  और उसके पत्रकार भी। लेकिन आम आदमी का सुपरस्टार कौन हैं, इस क्षेत्र में, तो नाम रवीश कुमार का स्वतः ही जुबां पर आ जाएगा। समयाभाव के कारण मैं टेलीविजन तो नहीं देख पाता। फिर भी स्क्रीन पर पांच -सात बार रवीश कुमार को खास अंदाज में जनहित के मुद्दे उठाते देखा हूं। बढ़िया लगा। नहीं तो सलमान-सलमान के शोर में पूरे दिन टीवी बुक ही रहा। लेकिन समाज को क्या संदेश मिला। मेरे एक अनुज जो विंध्याचल क्षेत्र के हैं, को मेरी सादगी भरी पत्रकारिता पसंद है। उनका कहना रहा कि आपके ही तरह  बनना चाहता हूं। तो मेरा उनसे यही कहना है कि लेखनी का उपयोग उन लोगों के लिये न करें, जिन्होंने समाज की व्यवस्था को चोट पहुंचाई हो। भले ही वे अपने बाहुबल, जातिबल और धनबल से स्टार बन गये हो। लगदक खादी पहन कर लग्जरी गाड़ियों के काफिले से निकल रहे हों। माननीय भी बन गये हो। फिर भी पहचान उनकी नहीं बदल सकती, न ही सोच ही । भले ही भय और स्वार्थ से लोग उनके सामने नतमस्तक होते हैं। इस जनपद में ऐसे अनेक बाहुबलि सफेदपोश बन कर आयें। परन्तु मैंने अपनी कलम से उनका महिमामंडन नहीं किया। यदि किसी को विज्ञापन देना था, तो उसका पेज अलग था। उसके साथ वह अपनी सामग्री भले ही प्रकाशित करवा ले। परंतु मैं अपनी कलम से तभी कुछ लिखूंगा, जब आप कुछ अच्छा करें। और जो लिखूंगा वह भी ऐसे लोगों के पुराने इतिहास को ध्यान में रखकर। इसी कारण तो समाज में मेरी पहचान पत्रकारिता जगत में अलग रही। आखिर हम पत्रकार क्या संदेश देना चाहते हैं , अपनी लेखनी से ऐसे दागदार राजनेताओं को जन नायक बना कर। बड़ा कठिन डगर है एक खाटी पत्रकार की , मेरे भाई। तमाम अपराधों में लिप्त गुंडों, अवैध कारोबार से जुड़े लोगों को यदि आप समाजसेवी बता देंगे, अखबार के अपने कालम में, तो फिर क्या खाक पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाएंगे। सो, जब तक अखबार है, चैनल है तभी तक जनता में आपकी पहचान रहेगी। उसके बाद आपका पर्दे के पीछे वाला पत्रकार धर्म लोगों को याद रहेगा। इसीलिए मित्रों यदि  पत्रकार  बनना है, तो लोभ, चाटूकारिता और जुगाड़ वाला लेखन तो छोड़ना ही पड़ेगा । चाहे परिणाम उसका कुछ भी हो।अतः पत्रकार यह आत्मावलोकन करते रहें कि आमजन के हित में कितने कालम की खबर सप्ताह -पखवाड़े भर में लिखते हैं। और पत्रकार धर्म क्या यह कहता है कि हम अपना अधिकांंश समय किसी वरिष्ठ अधिकारी को पटा कर अधिनस्थ कर्मचारियों को मनचाहे स्थान पर तैनाती दिलवाने में जाया करें ? या जिसने हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं की हम उनकी शिकायत करते रहें। सो, मित्रों पत्रकारों का मंच सजाना और बात है, लेकिन एक पत्रकार के रुप में पहचान बनाना हंसी खेल नहीं है। किसी वरिष्ठ अधिकारी को खुश करने के लिये हम कलम तोड़ लेखनी चलाएंगे, तो यह जनता बेवकूफ तो है नहीं। मैं किसी को कठघरे में खड़ा करने के लिये यह सब नहीं लिख रहा हूं । हां यदि पत्रकार कहलाना है, तो इन सभी लोभ से ऊपर उठना ही होगा । ऐसा मैंने करने का प्रयास किया, तभी आज अखबार बांटने के बावजूद भी अपने क्षेत्र में  कुछ तो अलग पहचान रखता ही हूं। सो, कुछ पाया है, तो बहुत कुछ खोया भी। लक्ष्य हासिल करने के लिये त्यग करना ही पड़ता है। अब आप ठेकेदार, कोटेदार ,सरकारी मास्टर, राजनेता, व्यापारी भी हैं और पत्रकार भी हो जाना चाहते हैं , तो दो नाव की सवारी भला कैसे करोंगे... (शशि)

क्रमशः

Friday 6 April 2018

व्याकुल पथिक 6/4/18
   आत्मकथा

     संघर्ष से ही व्यक्ति शुद्ध होता है और बुद्ध बनता है। संघर्ष की राह में सहयोग भी है, तो प्रलोभन भी। सो,पत्रकारिता के संघर्ष में प्रलोभन , उत्पीड़न और सहयोग एक प्रमुख विषय है। अब तो अपने मालिकान के लिये भरपूर विज्ञापन संकलन की जिम्मेदारी भी हम जिला प्रतिनिधियों की होती है। हां, बड़े अखबारों में ब्यूरोचीफ प्रेस की तरफ से आता जाता है। सो, उसका वेतन पक्का है। लेकिन, स्थानीय पत्रकारों को काफी कम पैसा उसका प्रेस देता है। फिर भी हमें अपने ईमान पर चलना है । बनारस से यहां आया तो चालीस रुपया रोज मुझे मिलता था। बाद में दो हजार रुपया महीने में मिलने लगा। स्थिति तब वर्ष 1995 में मेरी यह रही नहीं कि स्कूटर- बाइक रख लूं। उस समय के एक उदार दिल वाले जिले के वरिष्ठ युवा अधिकारी जिनके आवास पर मैं साइकिल से ही जाया करता था। वे मेरे परिश्रम , समाचार संकलन की ललक और उसे सत्य के करीब रख कर प्रकाशन से काफी प्रभावित थें। रात्रि में उन्हें गांडीव का इंतजार रहता था। संवेदनशील अधिकारी थें, तो स्वभाविक है कि उन्हें यह लगा हो कि पत्रकारिता जगत में बनारस से अखबार लाकर और फिर उसे यहां वितरण करना काफी कठिन काम है। खैर, एक दिन उनके एक कनिष्ठ राजपत्रित पुलिस अधिकारी ने मुझे बुलाया। उनसे भी मेरी खूब बनती थी। उन्होंने धीरे से मुझे बताया कि साहब की इच्छा है कि आप भी बाइक से हो जाएं। इससे पत्रकारिता करने में आपको सहूलियत मिलेगी। यह कोई प्रलोभन नहीं बल्कि सहयोग भाव रहा साहब (आला अफसरों  को हम पत्रकार तब साहब ही कहते थें) का। दरअसल इस विभाग में गाड़ियां अकसर ही समय समय पर निलाम हुआ करती हैं। सो, मेरी व्यवस्था भी हो रही थी । यह मेरे पत्रकारिता जीवन का पहला बड़ा तोहफा था और जो साहब इसकी व्यवस्था करवाना चाहते थें, उनकी छवि भी उस समय ईमानदार अफसर की थी। मेरा युवा मन मचल रहा था। मानो चंद्र खिलौना मेरे पास आने वाला हो...

   यहीं मेरे पत्रकारिता धर्म की बड़ी परीक्षा थी। मन कह रहा था कि अन्य पत्रकारों की तरह तुम भी बाइक से चलोगे, तो बड़ी इज्ज़त मिलेगी, पर अन्तर्रात्मा की आवाज थी कि जब तुमने लाखों की अपनी अचल सम्पत्ति (घर) यूं ही छोड़ दी है, तो इतना बड़ा कोई गिफ्ट ना लो कि फिर उसी की खुशी में तिरोहित हो जाओ। वैसे भी बचपन से लेकर अब तक मेरा जीवन कटी पतंग की तरह ही है... कहीं से तनिक भी खुशी मिली, यह मेरी नियति को स्वीकार नहीं है।  फिर से मुझे उसी निराशा हताश भरे दलदल में खींच लाती है वह । सो,  मन को मुंशी प्रेमचंद की बाल मन से जुड़ी हृदयस्पर्शी कहानी ईदगाह के पात्र हामिद की तरह समझाता रहा कि मोटर साइकिल लेकर क्या करोंगे भाई ,कहां से लाओगे तेल। इसमें क्या जनहित है और यह साइकिल तुम्हारी असली पहचान है, आदि आदि...
   खूब समझाया था तब मैंने , उससे कहा था कि जानते हो न कि यह सहयोग तुम्हें कितना महंगा पड़ेगा।दो हजार की नौकरी में अपने साथ अब बाइक का भी पेट कैसे भरोगे भाई । लेकिन, इसका भी एक विकल्प था , क्यों कि कतिपय पत्रकारों को एक पर्ची जब तब किसी पेट्रोल पम्प की मिल जाया करती थी। जाहिर है कि यह पर्ची थामना एक पत्रकार के नैतिक धर्म के विपरीत था। इतना तो घर से संस्कार लेकर निकला ही था। सो, उस ब्रेक के बादलों आज तक साइकिल से ही चल रहा हूं। क्योंकि बात गाड़ी के उसी तेल खर्च की आकर फंस जाती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में हूं धन सम्पन्न लोगों, व्यापारियों और राजनेताओं से भी अच्छा परिचय हैं। तमाम लोग अपनत्व का भाव भी रखते हैं। उन्होंने मेरा भी निःस्वार्थ भाव से सहयोग किया है। आज भी मैं जो राही लाज में शरण ले रखा हूं। वह क्या है , सहयोग ही तो है। कहां सहयोग है और कहां आपकी कलम को बंधक बनाया जा रहा है, इस पर भी विचार करना पड़ता है एक पत्रकार को। मेरी लेखनी अच्छी थी, तो स्वहित में उसका उपयोग भी लोग उठाना चाहते थें। तब अखबार भी खूब मार्केट में था। लेकिन, मैंने किसी की पार्टी और लंच-डिनर अनावश्यक स्वीकार नहीं किया । इसकी प्रेरणा मुझे अपने गुरु जी स्व० पं0 रामचंद्र तिवारी जी से मिली थी। वे गांडीव के विशेष सम्वाददाता थें। परंतु अपने से स्वयं कुछ भेजते नहीं थें। जो खबर होती थी, वह मुझे बताया सिखाया करते थें। शाम को अखबार बांटते हुये मैं उनकी स्टेशनरी की दुकान पर शहर कोतवाली के सामने जा खड़ा होता था। इससे पहले एनआईपी के वरिष्ठ पत्रकार लल्लू चाचा को भी लालडिग्गी में उनकी दुकान पर अखबार देता था। जैसा कि बता ही चूका हूं कि सुबह यहीं उनके आवास पर बैठ कर समाचार लिखता था। मेरी पत्रकारिता पर इन दोनों ही विपरीत स्वभाव के वरिष्ठ गुरुजनों का काफी प्रभाव पड़ा है। सो, मैंने बेधड़क प्रलोभन रहित समाचार लेखन किया। साथ ही निश्चित भी रहता था कि यदि कहीं फंसा, तो लल्लू चाचा तो हैं ही। रही बात दबाव की तो मुझसे बलपूर्वक आज तक कोई भी कुछ लिखवा छपवा नहीं सका है।(शशि)

क्रमशः

Thursday 5 April 2018

व्याकुल पथिक 5/4/ 18

आत्मकथा

 मित्रों , यह न समझे कि मैं यह आत्मकथा जो लिख रहा हूं वह सिर्फ व्यथा कथा है अथवा ऐसा कर मैं इस समाज की सहानुभूति प्राप्त करना चाहता हूं, या फिर किसी से कोई मदद सहयोग चाहता हूं। मैंने अपने जीवन शैली को इतना साधारण बना लिया हूं कि आर्थिक सहयोग तो अब किसी से लेने की बिल्कुल ही जरुरत नहीं है मुझे। ढ़ाई दशक से श्रमिकों से भी कहीं अधिक पसीना बहा रहा हूं, तो दो जून की रोटी ईमानदारी से संचित धन से मिलना तय है। फिर क्यों लिख रहा हूं, यही सवाल हो सकता है न आपका। तो सुनें मेरे भाई , मैं यह आत्मकथा अपने उन साथी मित्र पत्रकारों के लिये लिख रहा हूं , जो ईमानदारी की राह पर चल कर एक अच्छा पत्रकार बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। उन्हें बताना चाहता हूं कि जिले में रह कर पेशे के प्रति सिर्फ ईमानदार होने से ही सफलता नहीं मिलती है, इस अर्थ युग में। बड़ा सवाल है कि आपके प्रेस का मालिक क्या चाहता है। जाहिर है कि आपकी ईमानदारी में उस समाज की कोई भूमिका तो शामिल रहेगी नहीं। जिसके लिये आप यह जहर निगल रहे हैं। यदि आप किसी मामले में फंसे, तो यही समाज आपको बेचारा कह किनारे हो लेगा। वह आपके लिये आगे नहीं आएगा, क्योंकि आप कोई स्टार राजनेता  अभिनेता अथवा प्लेयर तो है नहीं। जो की लोग आपके लिये सड़कों पर उतर आयें। फिर आपको जो बड़ी उम्मीद रहती है, इस संकट काल में कि प्रेस के मालिकान अपकी मदद करें। परंतु मेरा विश्वास करें मित्रों कि यदि आप यह सोचते है कि आपका सम्पादक आपकी मदद करेगा, आर्थिक सहयोग करेगा, वह यह समझेगा कि आपको साजिश के तहत विरोधियों ने फंसाया है, क्योंकि आप एक ईमानदार , कर्मठ और स्वाभिमानी सम्वाददाता रहे हैं। आपने किसी प्रलोभन के सामने घुटना अपने लम्बे पत्रकारिता जीवन में नहीं टेका है। आपने धन की चाहत में अखबार नहीं बदला है । आपकी खबरें वर्षों से पाठकों में पसंद की जा रही है। आपने कलम के अतिरिक्त जीवनयापन के लिये और किसी धंधे का सहार  भी नहीं लिया है। और सबसे बड़ी बात की आपने खबर गलत नहीं लिखी है। मीडिया का यह जो व्यवसायीकरण है, इस दौर में आपका सम्पादक कुछ भी दलील आपकी सूनने को तैयार नहीं होगा साथियों। उलटे वहां भी आपकों तिरस्कार मिलेगा, अपमान मिलेगा, चेतावनी मिलेगी कि मामला जल्दी सुलटा लो। क्यों बवाल पालते हो बेजा। परंतु आपकों जिले स्तर की इस पत्रकारिता में आपके प्रेस मालिक की तरफ से मुकदमा लड़ने के लिये धन छोटे अखबारों  से फिर भी नहीं मिलेगा। फिर क्या करोंगे आप , कैसे लड़ोगे केस ? पहले से ही आप व्यथित हैं कि साजिशन फंसाये जो गये हैं। और अब पैसे की तंगी। मैं इसलिये आपकों सचेत कर रहा हूं। फिर फलां अखबार या चैनल के पत्रकार का तमगा आपका कितना सहयोग करेगा। इन ढ़ाई दशक में मेरे ही आंखों के सामने से कितने ही तपे तपाये पत्रकार गुमनाम से हो गये हैं। कुछ कब चले गये इस दुनिया से ,पता भी नहीं चला। तो मित्रों सोच लो फिर से कि ईमानदार पत्रकार बनना चाहते हो  या फिर जुगाड़ू । इन दिनों जिला प्रतिनिधि भी अपने को ब्यूरोचीफ ही कहने लगे हैं। इस शब्द में कहीं अधिक हनक है। पर कोई ब्योरा कर रहा है, तो वह भी जगजाहिर है। छुपा कुछ भी नहीं है मेरे भाई। मैं भी चाहता तो जुगाड़ू पत्रकार बन सकता था। युवाकाल में पुलिस महकमे से जुड़ी मेरी खबरों की हनक वाराणसी आईजी दफ्तर तक होती थी। इसी कारण कितने ही एसपी रात में होमगार्ड थाने पर भेज कर गांडीव मंगाना नहीं भुलते थें। हां मैंने अच्छे अफसरों की मदद भी की है। परंतु काम किसी से कोई नहीं करवाया। यदि उस तपे हुये बाजार में मैं चाहता तो दलाली न सही बीमा का काम तो कम से कम आसानी से कर ही लेता। कई साथी पत्रकार इस धंधे से मालामाल हुये भी हैं। परंतु ऐसे ऑफर मुझे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं थें। मैं सिर्फ पत्रकार ही बने रहना चाहता था, ताकि कोई यह न कहे कि यह तो पत्रकारिता का नकाब पहने बीमा कर्मी है। यह अपने पहचान और पावर का दुरुपयोग कर रहा है। एक आईएएस बहुत उदार थें पत्रकारों के प्रति , सो उन्होंने मेरा परिश्रम देख स्नेह से बड़े भाई की तरह समझाया भी कि कुछ अपने लिये भी सोचा है। तब पत्रकार कम हुआ करते थें। ऐसे आला अधिकारी उनकी हर सम्भव मदद को भी तैयार रहते थें। पर मेरा एक ही जवाब रहता था कि साहब हॉकर और पत्रकार के अतिरिक्त और कोई पहचान नहीं चाहता....
(शशि)
क्रमशः

Wednesday 4 April 2018

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक 4/4/18

(आत्मकथा)

   एक बात तो मैं साफ साफ बता देना चाहता हूं कि जिस संघर्ष भरी पत्रकारिता को मैंने झेला है। अब उससे मुक्ति चाहता हूं। एकांत चाहता हूं। वैराग्य चाहता हूं। इसीलिये किसी भी विवाद में खुद को उलझाने में तनिक भी रुचि नहीं है। न ही समाजसेवी कहलाने जैसे तमगे की ख्वाहिश है। अतः आरक्षण  आदि समसामायिक विषयों पर खामोश हूं। हां एक अखबार का प्रतिनिधि हूं, तो आधा पेज खबर भेजनी पड़ती है। सो , बच बचा कर भेज देता हूं। यह पत्रकारिता धर्म के प्रति ईमानदारी नहीं है, जैसा मैं था। परंतु मैं जब तक हूं , मेरा प्रयास रहेगा कि जनहित में जितना भी हो सके, लिखता रहूंगा।  ऐसी पत्राकारिता नहीं करनी है, तो आप इस मीरजापुर में भूल से भी न ठहरें । यहां सड़ जाएंगे, अवसाद ग्रस्त हो जाएंगे। आज जो मुकदमें समाचार लेखन में मैं झेल रहा हूं न , यह बिरादर भाइयों की ही बड़ी साजिश रही, मुझे उस अखबार से बाहर निकलवाने की। मैं ईमान पर था, सो निकला तो नहीं, परंतु मुकदमे का फंदा अभी भी गले में पड़ा है। जिस कारण मैं इस पत्रकारिता को त्याग भी नहीं पा रहा हूं । जिसकों अब मैं करना ही नहीं चाह रहा हूं। यहां एक बात यह भी बतला दें कि दो नहीं मैं एक साथ तीन नाव की सवारी इस पत्रकारिता जगत में विगत ढ़ाई दशक से कर रहा हूं। समाचार लिखना,  फिर बंडल लाना और रात्रि में साढ़े 10 से 11 बजे तक पेपर का वितरण। 12 बजे के बाद बिस्तर पर जाना और सुबह 5 बजे उसे त्याग देना।  दिन भर परिश्रम का परिणाम क्या मेरा यही है कि सिर्फ पांच घंटे ही सोने को मिले। सिर में दर्द होता है, तो सांईं मेडिकल जिन्दाबाद है। सनी भाई कोई टिकिया दे ही देते हैं। सो ,मेरा मत है कि एक अच्छे खिलाड़ी के लिये खेल जगत से सबसे अच्छा सन्यास लेने का समय वही है, जब उसका प्रदर्शन उम्दा रहे , लेकिन उसे यह आभास होने लगे कि इस जज्बे को और बहुत दिनों तक वह कायम नहीं रख सकता। मेरी सोच तो कुछ यही ही है। क्योंकि मैं व्यापारी नहीं हूं, बल्कि एक पत्रकार हूं। अखबार बांट सकता हूं, बंडल ढो सकता हूं। परंतु विज्ञापन के लिये हर किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता हूं। न ही इसके लिये खबरों से समझौता ही कर सकता हूं। थोड़ा बहुत चलेगा, लेकिन बहुत नहीं। एक विधान सभा चुनाव की बात बताऊं । तब पेड न्यूज का युग था। नगर विधान सभा का चुनाव था।  एक राष्ट्रीय दल के प्रत्याशी की चुनावी फिजा बनाने पड़ोसी जिले से कई धुरंधर पत्रकार आये हुये थें। यहां के एक भव्य होटल में पनीर पकौड़ा कट रहा था। स्थानीय पत्रकारों के ईमान धर्म की डीलिंग हो रही थी। मुझे भी बुलाया गया। यहां से अच्छा विज्ञापन मिलता था। उस पार्टी के प्रत्याशी और अन्य स्थानीय नेता मुझसे स्नेह भी करते थें। सो, बुलावे पर मैं गया। साहब फिर क्या हुआ जानते हैं। पड़ोसी जनपद से आये एक युवा पत्रकार ने मुझसे भी कहा कि देखो भाई, मैटर मैं दूंगा। तुम्हारा चार- पांच सौ अखबार भी शाम को लूंगा। शर्त यही है, जो दूं उसे ही छपवाना है।बोलों सौदा पक्का की नहीं। सभी परिचित थें। कुछ बड़े अखबार मोटे हेडिंग में यह छाप भी रहे थें कि इस पार्टी के उम्मीदवार से अन्य सब प्रत्याशी लड़ रहे हैं। सो, दबाव मेरे ऊपर भी बहुत था। जबकि मैं साफ साफ देख रहा था कि इस पार्टी का उम्मीदवार पहले दूसरे स्थान की लड़ाई में है ही नहीं। फिर कलम कैसे बेच देता। तो मैंने विनम्र निवेदन किया कि भाई साहब मेरा पत्रकार धर्म यह  इजाजत नहीं दे रहा है। आप मुझे विज्ञापन देते आये हैं। सो, मैं इतना लिख सकता हूं कि आपके उम्मीदवार का व्यक्तित्व उमदा है। और उनकी चुनावी फिजा बनाने का जोरदार प्रयास शुरु है। तो कार से चलने वाले एक पत्रकार थोड़े नाराज भी हुयें। और कहा कि और बड़े अखबार वाले और हमलोग क्या बेवकूफ हैं। तूम तो अभी बच्चे ठहरे। अखबार बांटने वाला एक मामूली व्यक्ति भला मैं बड़े पत्रकारों से कहां पंगा ले सकता था। सो, सिर झुकाये चला आया। लेकिन, पेड न्यूज नहीं ही लिखा। चुनाव परिणाम आया, तो जाहिर था कि उन्हें पराजय हाथ लगी । चौथे नंबर पर जो प्रत्याशी था, उससे कुछ ही वोट उन्हें अधिक मिला।उन  बड़े समाचार पत्रों की जनता ने तब खूब हंसी उड़ाई और मैं साइकिल से देर रात तक अखबार बांटने वाला पत्रकार सीना ताने चल रहा था। मुंह छिपाने की जरुर नहीं पड़ी , उस पेड न्यूज युग वाले आम चुनाव में भी।(शशि)

क्रमशः

Tuesday 3 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 3/4/18


पत्रकारिता में यदि मैं झोलाछाप  डाक्टर होकर भी आप पाठकों का स्नेह पा सकता हूं तो चिकित्सा जगत में भी ऐसे कर्मठ झोलाछाप डाक्टरों का मेरे नजरिये से गरीब वर्ग के लिये अपना अलग महत्व तो है ही।  मेरा मतलब है कि जो असली डिग्री धारी डाक्टर हैं, वे ही कहां कलयुग के भगवान रहे हैं अब। मरीज के आते ही महंगी दवा और जांच जब बाहर  से सरकारी डाक्टर लिख रहे हो, तो फिर प्राइवेट नर्सिंग होम और क्लीनिक खोल रखे डाक्टरों की तो पूछे ही मत,  फिर गरीब किसके पास जाए। हां ,झोलाछाप डाक्टरों को लोभ में आकर अपनी सीमा रेखा का उलंघन नहीं करना चाहिए। मुझे ही लें पत्रकारिता के लिये कोई खास अंग्रेजी नहीं आती, संस्कृत और उर्दू भी ज्ञान नहीं है। पर सरल हिन्दी भाषा में तो जनता के हितों की बात कर ही सकता हूं। बस काम और मिशन के प्रति ईमानदारी होनी चाहिए।  और एक बात जो मुझे समझ में आयी, वह यह है कि यह जो बुद्धिजीवी तबका है न , वह अपने हितों के लिये कुछ भी कर सकता है। चाहे समाज पर उसका प्रतिकूल प्रभाव क्यों न पड़े। आज पत्रकारिता के क्षेत्र में भी यही तो हो रहा है। वरिष्ठ कहलाने वाले तमाम पत्रकार अपने और अपने संस्थान के हित में अपने कलम को तोड़ मरोड़ ले रहे हैं। अखबारों का राजनीतिकरण भी हो गया है।  अब जनता के हितों के संरक्षण के लिये कलम कहां चल रही हैं।  हां अखबार के व्यवसायिक हितों को ध्यान में  रख कलम खूब चल रही है। मैंने ऐसा नहीं किया, भले ही सारे सम्बंधों कि बलि इस रंगमंच पर चढ़ा चुका हूं। यह इस त्यग का ही परिणाम है कि पत्रकारिता जगत में झोलाछाप हो कर भी इस रंगमंच पर अब  भी डट चमक रहा हूं।
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हमार नैतिक दायित्व ...

       क्या अब भी हम आप कोई सबक नहीं लेंगें। कुछ तो नैतिक दायित्व हमारा भी बनता है। समाज के प्रति और अपने गांव, शहर और देश के प्रति। हमारी आपकी जरा सी इसी गलती से ही एक हंसती खिलखिलाती बच्ची को इस तरह से  निर्मम मौत मिला है। जिसके लिये उस बोरवेल को खुला छोड़ने वाला शख्स ही नहीं हम सभी जागरूक वर्ग के लोग भी जिम्मेदार है। क्या गांव के लोग , प्रधान और  अन्य पहरुये इसकी शिकायत समय रहते नहीं कर सकते थें। और हम मीडिया वाले भी किसी हादसे के बाद ऐसे स्थानों पर अपने मतलब की खबर के तलाश में ही धमकते हैं। जबकि अखबार में हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के स्क्रीन पर कम से कम ऐसी जनसमस्याओं को तो प्रमुखता से उठाते ही रहना चाहिए।  कहां जर्जर तार लटक रहा है। आटो रिक्शे पर दर्जन भर से अधिक सवारी क्यों बैठे हैं। कहां गड्ढा खोद कर छोड़ दिया गया है। सरकारी बसें यात्रियों को समय से मिल रहे हैं कि नहीं।  आपूर्ति विभाग, सरकारी अस्पताल, समाज कल्याण विभाग से लेकर किसानों की समस्याओं पर अब  कितने कालम की खबरें लिखी जाती हैं, जरा पन्ना उलट कर बतायें। और जब लिखी भी जाती हैं तो यह जुगाड़ लगाया जाता है कि सम्बंधित विभागीय अधिकारी रिपोर्टर के प्रभाव में आ जाये और साहब फिर तो घोड़ा घास की आपस में दोस्ती हो जाती है।(शशि)

क्रमशः

Monday 2 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 2/4/18
 आत्मकथा

      वैसे,पत्राकारिता के क्षेत्र में मैं स्वयं को एक झोलाछाप डाक्टर से अधिक कुछ नहीं समझता हूं। एक पत्रकार कहलाने के लिये मेरे पास कुछ भी तो नहीं है। न ही कोई  डिग्री है, न ही उच्च शिक्षा प्राप्त किया हूं। इस अर्थ युग के हिसाब से कोई तामझाम भी नहीं कि देखने में मैं स्मार्ट रिपोर्टर जैसा लगूं। पहले पैदल चलता था और अब साइकिल से। फिर भी लोग मुझसे और मेरी खबर से पता नहीं क्यों प्रभावित रहें। जबकि उस समय कई वरिष्ठ पत्रकार थें, समाचार पत्र भी। सम्भवतः मेरी सारी कमजोरियों को सत्य के करीब रहकर समाचार लिखने का प्रयास ढक लेता था। क्योंकि न तो इस पत्रकारिता जगत में यहां मेरा कोई गॉड फादर रहा, न ही कोई ऐसा पत्रकार संगठन , जिसके सहारे मैं ऊंचा उठ पाता। पत्रकार जिसे चौथा स्तम्भ मुझे बताया गया था, वे भी गुटबाजी और  जातिवाद से जकड़े हुये है, इसे मैंने यहीं आ कर करीब से देखा समझा। हालांकि मुझे हर किसी का स्नेह तब मिला। शायद यह पत्रकार बिरादरी भी मेरे परिश्रम से प्रभावित रहा हो !

क्रमशः


व्याकुल पथिक

       मोह को मैं अब तक अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देना चाहता, न ही अर्थ प्राप्ति के लिये कोई नया कर्म ही। सो, मैं लोगों के बीच रहते हुये भी सबसे दूर रहने का भाव अपने हृदय में लाने का प्रयास कर रहा हूं। यहां तक कि अपने शरीर के प्रति भी मोह का त्याग करने का प्रयास कर रहा हूं। जब युवावस्था में पहुंचा था, तो इस शरीर को बनाने और सजाने के लिये क्या क्या नहीं प्रयत्न किया। भले ही अखबार बांटता था। परंतु स्वेटर मेरा वाराणसी के कंबल घर का होता था। जूता  बाटा, एक्शन अथवा किसी महंगी  कम्पनी का। कपड़े भी उसी तरह से। परन्तु वर्ष 1998 में असाध्य मलेरिया से जैसे ही पीड़ित हुआ सबसे पहले शरीर खो दिया। आज तक उसमें सुधार नहीं ला सका। फिर और कोई मोह इस माटी के पुतले के लिये क्यों करुं। हां स्वस्थ रहना चाहता हूं। तो इतना ध्यान रखना ही होगा कि आहार अनुकूल रहे। मैंने एक मोह से मुक्त आहार का चार्ट बना रखा है। जिससे शरीर का काम तो चल जाएगा पर स्वाद का लोभ भी नहीं रहेगा यहां। अपनी प्रिय वस्तुओं का लोभ भी नहीं रखना चाहता हूं। सारे पहचानों से मुक्त हो जाना चाहता हूं। इसी पहचान के मोह ने ही तो मुझे इतने लंबे समय तक एक ही रंगमंच पर कैद कर रखा है। पर अब व्याकुलता बढ़ते ही जा रही है। अपनों की हर यादों से मुक्ति चाहता हूं । सोचता हूं कि मेरा मस्तिष्क ही संज्ञा शून्य हो जाए। पर आनंन में तो दो ही लोग रहते हैं एक फकीर और दूसरा जिसे हम पगला कहते है। फर्क यह है कि फकीर को उस आनंन सुख की अनुभूति होती है, लेकिन दूसरे को नहीं। ऐसे में चैतन्य तो रहना ही होगा।  हां,  मैं जंगल में विचरण करने वाला वैरागी तो नहीं ही बनना चाहूंगा। जहां खोने के लिये.कुछ है ही नहीं, वहां त्याग फिर कैसा। अब जब ऐसे विचार मेरे मन में उठने लगे हो, तो फिर मैं अपने पत्रकारिता धर्म के प्रति ठीक से न्याय नहीं कर पा रहा हूं। मैं किसी की आलोचना करने से बचने जो लगा हूं। आप यदि एक सच्चे पत्रकार हैं, तो व्यवस्था में खामियों को आपकों उजागर करना ही होगा। यहां आपका कर्मपथ तय है। मैंने स्वयं तब तक ऐसा किया, जब तक मुझे लगा कि एक सच्चे  पत्रकार की तरह ही मुझे इस रंगमंच पर आखिरी शो करके अलविदा कहना है। परंतु  अब अंतरात्मा से यह आवाज उठ रही है कि बुरा जो देखन मैं चला, मुझसे बुरा ना ....।

Sunday 1 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक 1 / 4 / 18

आत्मकथा

    जनता से जुड़े किसी चुनाव को करीब से देखने और उससे कहीं अधिक उस पर अपनी कलम चलाने का यह मेरा पहला अवसर था। लगभग दो वर्षों की पत्रकारिता में मैं तब इतना तो अनुभवी हो गया था कि मुझे कहां,क्या और कैसे लिखना है। सो, अरूण दादा और कामरेड साथियों का भाषण कुछ अधिक गौर से सुनता था। उस समय पोस्टर वार जबर्दस्त हुआ। नागरिक संगठन की भी इसमें विशेष भूमिका थी। भाजपा को घेरने के लिये बड़े ही सटीक मुद्दे उछाले जा रहे थें। जो मुझे सही प्रतीत हो रहा था। सो, स्वतः ही मेरी लेखनी चल गई इस मीरजापुर के गांधी पर । पता नहीं  राजनीति से जुड़ी हलचलों को लिखना अचानक ही क्यों तब मुझे इतना भाने लगा कि एक समय बाद में ऐसा भी आया कि गांडीव का मीरजापुर वाला कालम पाठकों की नजर में राजनीति का अखाड़ा बन गया। तमाम राजनेताओं ने तब गांडीव लेना इसीलिए शुरु कर दिया था ।इसलिये शायद कि वे जिले की सियासत से पूरी तरह से अपडेट हो जाते थें ,गांडीव पढ़ कर । तब सोशल मीडिया का युग तो था नहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी स्थानीय समाचार इतना कहां दिखलाते थें। एक बात यह भी रही कि यहां के लोग  इतना तो कहते ही थें कि यदि शशि ने लिखा है, तो उसमें सच्चाई होगी ही। पाठकों का यही विश्वास था। जबकि मुझे राजनीति का ककहरा तक नहीं पता था, फिर भी जिज्ञासा प्रबल रही। अतः मैं तब जो वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता और बुद्धिजीवी रहें, उनसे पूछता भी था। मैं इस मामले में भाग्यशाली हूं , जिसे सर्वप्रथम यहां पं० रामचंद्र तिवारी( अब स्वर्गीय) और वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्रनाथ जायसवाल जिन्हें सभी लल्लू बाबू कहते हैं, का सानिध्य प्राप्त हुआ। बाद में आज अखबार के जिला प्रतिनिधि रहें  सलिल भैया का स्नेह भी मिला। क्राइम की खबर में तब दैनिक जागरण देख रहें सुरेश चंद्र सर्राफ  जी का भरपूर सहयोग मिलता था।  साथ ही धुंधीकटरा स्थित राजमोहन भैया के यहां भी जाता था। वहां संतोष श्रीवास्तव मास्टर साहब  ,जो कभी गांडीव भी देखते थें, वे भी मेरा उत्साहवर्धन करते ही थें। बाद में पत्रकारिता के क्षेत्र में भरपूर जानकारी रखने वाले सर्वेश जी के यहां भी गया। परंतु अखबार बांटने और प्रतिदिन बनारस आने जाने के कारण मेरे पास पढ़ने लिखने और किसी के सानिध्य में बैठ कर समाचार लिखने का समय कम ही था। हां , वरिष्ठ पत्रकार लल्लू चाचा के घर पर तब सुबह पहुंच जाया करता था। करीब एक-दो घंटे वहीं बैठ कर समाचार लिख लिया करता था। निर्भिक पत्रकारिता मैंने उन्हीं से सीखीं है और गंभीर पत्रकारिता अपने गुरु जी यानि   स्व० रामचंद्र तिवारी जी से। उत्साहवर्धन मेरा सलिल भैया ने खूब किया। सरदार भूपेंद्र सिंह डंग मुझे जनसत्ता पढ़ने को देते ही थें। इस तरह से राजनीति की खबर लिखने में मुझे रुचि बढ़ती ही गई। दरअसल  ऐसी खबरों कि चर्चा भी खूब होती थी। शाम ढलते ही लोग गांडीव तलाशने लगते थें। ऐसे में जब मैंने अपने कालम में अरुण दादा की खबरों को प्रमुखता देना शुरू कर दिया। उन्हें चेयरमैन की कुर्सी का प्रबल दावेदार बतला दिया, तो हमारे डाक इंचार्ज मधुकर जी थोड़ा चौंके, शायद सोचा हो कि इस लड़के को हो क्या गया है। वे मीरजापुर रह चुके थें। यहां तमाम उनके परिचित भी थें। सो, मेरी एक खबर पर उन्होंने टोक ही दिया कि जनसंघ के गढ़ में मुहं टेढ़े को जीता रहे हो ! मैंने भी पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया कि सर उनकी जीत कोई रोक नहीं सकता। अब आप समझ लें कि भाजपाइयों से अच्छी मित्रता के बावजूद मैंने अपने कलम के साथ यह पहला न्याय किया।  किसी प्रलोभन में फंसा नहीं। उस समय गांडीव का यहां शहर में कुछ तो प्रभाव था ही। पेपर मार्केट में थें ही कितन। दैनिक जागरण, आज, राष्ट्रीय सहारा, भारतदूत और गांडीव तथा अंग्रेजी का अखबार एनआईपी । इसके अतिरिक्त जो पेपर थें कोई खास चर्चा में नहीं थें। हां, अमृत प्रभात , स्वतंत्र भारत, जनवार्ता के पत्रकार भले ही दमदार थें। बहरहाल, मेरी समीक्षा सही निकली और दादा लगभग 6 हजार मतों से विजयी हुयें। इसके बाद से अब तक मेरी कोई समीक्षा गलत नहीं हुई है। हालांकि चुनाव आयोग की पाबंदी के कारण विगत कई चुनावों से हार जीत की समीक्षा मतदान के पूर्व मीडिया नहीं करती है। नहीं तो इसे लेकर भी कलम को धन सम्पन्न प्रत्याशी खरीद लेते थें। एक बार एक बड़ा प्रलोभन भरा प्रस्ताव मेरे समक्ष भी आया था।

क्रमशः