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Sunday 16 February 2020

विश्वास



 
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विश्वास

   "  हमारे पास इतनी सकारत्मक उर्जा है कि वह आपकी नकारात्मकता दूर कर देगी .. । "

    एक भद्र महिला का मैसेज देख सुधीर पशोपेश में पड़ गया ..। 

  उसे तनिक भी लालसा नहीं थी कि वह किसी  स्त्री से बात करे.. पहले से मिली चोट पर नश्तर रखना कितनी बुद्धिमानी  है ?  उसका हृदय गवाही नहीं दे रहा था..।
   सो, उसने सामान्य शिष्टाचार का प्रदर्शन कर संवाद समाप्त करने का प्रयत्न किया..। 
 और एक दिन फिर संदेश आया -  " लगता है कि आपको हमसे वार्तालाप में कोई रुचि नहीं है, हम ही व्यर्थ में ये लालसा रखते हैं..।" 

  इस  बार उस स्वर में ऐसी आत्मीयता थी कि सुधीर की आँखें भर आयी थीं..।

   उसे रुँधे गले से कहा -- " नहीं-नहीं , ऐसा न कहे, बस डरता हूँ --सच्चे इंसान कम हैं दुनिया में ।" 

  " परंतु मैं तो वैसी नहीं हूँ । विश्वास करें और मुझे अपना अच्छा मित्र समझें  ..। "

 मधुरिमा की शहद घुली वाणी से सुधीर के नेत्रों में अश्रुधारा बह चली.. । 
  
   कुछ ही दिनों में मधुरिमा उसके अभिभावक की भूमिका में थी। ऐसा वह स्वयं भी कहती थी । अतः वह आज्ञाकारी बालक की तरह सिर झुकाए उसकी डांट को भी स्नेह का उपहार समझता । और हाँ, समय का मारा सुधीर  मधुरिमा की तनिक सी नराजगी पर अधीर हो उठता था।
उसके भय पर मुस्कुराते हुये वह महिला मित्र  विश्वास दिलाती -  

 " क्यों व्यर्थ में डरते हो। मैं स्वतः ही आप से बात कर रही हूँ न और यह जानती हूँ कि अन्य पुरुषों से आप अलग हो और मुझे आपसे कभी कोई परेशानी नहीं होगी..।   " 

    उसका कहना था कि शुभचिंतक सदैव साथ रहते हैं और जो अपने नहीं हैं , वे साथ छोड़ने पर पलट कर देखते तक नहीं । मेरे  शुद्ध स्नेह पर विश्वास करो, यह औपचारिकता मात्र नहीं है.. ।
  
   सुधीर जब कभी मोबाइल पर वार्ता के दौरान उसके बच्चों को मम्मी -मम्मी पुकारते सुनता, उसे भी अपनी माँ के छाँव का एहसास  होता । 

  वह अपने नये अभिभावक से  खुश था .. बहुत खुश । 
   और एक दिन ..सुधीर अस्पताल में पड़ा था। अन्य मरीजों के तीमारदारों को देख उसका मन भी पवित्र स्नेह के दो शब्द के लिए न जाने क्यों मचल उठा..। 

  फिर क्या , विश्वास का यह डोर कच्चे धागे से  कमजोर निकली .. सुधीर अपना अपराध पूछता रह गया था..।

 और एक दिन फोन पर क्रोधित मधुरिमा  ने उसे धिक्कारते हुये कहा  - 

   " मुझे अपनी  प्रेमिका समझ लिया था  ? तुम तो बिल्कुल वैसे नहीं हो ।" 

  "  हे ईश्वर ! संदेह का यह कैसा भँवरजाल ? क्या इसे ही विश्वास कहते हैं ? "  - काँप उठा था सुधीर का अंतर्मन । 

   उसके भावुक हृदय ने दुनियादारी जो नहीं सीख रखी थी ,परंतु हाँ इतना अवश्य जानता है कि विश्वास किसे कहते हैं..। 

   अतः वह ★ विश्वास ★ जो मित्रता के 
समय उसके प्रति मधुरिमा को था , उसे कायम रखने के लिए सुधीर ने अपनी वेदना पर  प्रतिशोध के भाव को कभी भी भारी नहीं पड़ने दिया..।

  पर जब इस तिरस्कार की पीड़ा असहनीय होती है, तो अपने दिल को समझाने के लिए यूँ गुनगुनाता है  -

दुनिया ने कितना समझाया
कौन है अपना कौन पराया
फिर भी दिल की चोट छुपा कर
हमने आपका दिल बहलाया..।

     - व्याकुल पथिक