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Wednesday 17 June 2020

अभिभावक-धर्म

 ( जीवन की पाठशाला से )
  
   मैं प्रातः भ्रमण पर था,तभी देखा कि एक युवती संभवतः किसी कॉलेज की छात्रा होगी, अपनी पीठ पर बड़ा सा बैग लटकाए तेज़ क़दमों से स्टेशन रोड की तरफ़ बढ़ रही थी। मार्ग में उसे कोई सवारी वाहन भी नहीं मिला था। वह परेशान थी ।
       इतने में स्कूटर पर सवार अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति वहाँ आकर बड़ी आत्मीयता से उसे पिछली सीट पर बैठने को कहता है। उसने जिस अधिकार के साथ युवती को स्कूटर पर बैठने को कहा,उससे प्रतीत हो रहा था कि वह उसके परिवार का ही सदस्य है, परंतु यह क्या ? वह लड़की तो गुस्से से आगबबूला हो उठी थी ।अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुये उसने कहा- " आप पास ही टहल रहे थे,फ़िर भी मुझे स्टेशन छोड़ने के लिए ज़ब स्कूटर नहीं निकाला था ,तो अब बीच रास्ते दुलार दिखलाने क्यों आ गये हैं?"
      उसे यह भ्रम था कि अधेड़ व्यक्ति ने जानबूझ कर उसकी उपेक्षा की है। जिस पर अधेड़ व्यक्ति ने अत्यंत संयम का परिचय देते हुये उसे समझाते हुये कहा -"  बेटा, विश्वास करो ,सच में मैंने नहीं देखा था कि तुम घर से कब निकली हो। "
 फ़िर भी उसके क्रोध का शमन नहीं हुआ। स्कूटर पर बैठने से पुनः इंकार कर वह पैदल ही आगे बढ़े जा रही थी। उधर बिना धैर्य खोये उस व्यक्ति ने मार्ग में तीन स्थान पर उसे रोककर स्नेहपूर्ण उसका संदेह दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार वह उस युवती को अपने स्कूटर पर बैठा कर समय से स्टेशन छोड़ आया। तब तक उस नासमझ लड़की को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था। उसका अशांत मन हल्का हो गया होगा। आशा करता हूँ कि उसकी यात्रा मंगलमय रही होगी। उस " सच्चे अभिभावक "को देख मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई।   
     आज का मेरा विषय इसी से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः 15 से 22 वर्ष के आसपास की यह जो अवस्था है,  किशोर और युवावस्था का वह पवित्र संगम है जिसमें यदि विवेकपूर्वक डुबकी लगा ली तो जीवन में अर्थ,धर्म, काम और मोक्ष सभी सुलभ है,किन्तु संयम खोया नहीं कि यह अवस्था वैतरणी बन निगलने को आतुर मिलेगी।
         यौवन की दहलीज़ पर खड़े बच्चों को इस आधुनिक समाज ने दो नाव पर पाँव रखने को विवश कर दिया है। टेलीविज़न पर  धारावाहिक और विज्ञापनों के माध्यम से युवावर्ग जो कुछ देख रहा है, ऐसी चकाचौंध भरी दुनिया में उसे स्वयं के लिए स्थान बना पाना आसान नहीं है। यह चंद्र खिलौने जैसा है, फ़िर भी वह उसी के पीछे भाग रहा है। वह देख रहा है कि नैतिकता की बातें सिर्फ़ पुस्तकीय ज्ञान है। भ्रष्ट आचरण से पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वालों का यहाँ जयगान  है।
       अर्थयुग के इस मकड़जाल से किशोर और युवाओं की सुरक्षा का दायित्व अभिभावकों का है,किन्तु जब कभी अपने बच्चों की ऊर्जा की क्षमता को बिना परखे माता-पिता उससे अपने सपनों के बुझे दीप जलाने का प्रयत्न करते हैं,तो यही विभाजित ऊर्जा उनके कुलदीपक पर भारी पड़ती है।
      ऐसे में बच्चे के समक्ष दो विकल्प शेष होता है,पहला अपने अभिभावक की खुशी अथवा उनके भय से उस निर्णय को स्वीकार करना,जिसका अनुसरण उसके लिए अत्यंत कठिन और अरूचिकर हो और दूसरा विवेक रहित विद्रोह , जिस मार्ग पर चल कर वह स्वयं को ही नष्ट कर बैठता है।
  जबकि अभिभावकों का यह प्रयास  होना चाहिए कि बच्चे को स्वयं उसके उत्तरदायित्व का ज्ञान हो, जो उसका पथ प्रदर्शन कर सके।  जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, मानसिक तेज,नैतिक बल और शौर्य को सही दिशा मिल सके।
    पिछले सप्ताह अरुण जायसवाल भैया ने मुझे भोजन पर आमंत्रित किया था। उनका छोटा पुत्र वैज्ञानिक है। वह चेन्नई में रह कर भारत सरकार अर्थात देश की सेवा कर रहा है और बड़ा पुत्र दिल्ली में इंजीनियर है। करोड़ों की चल-अचल सम्पत्ति है। पति-पत्नी और ये दो बच्चे,छोटा सा उनका खुशहाल परिवार है। इन दोनों संतान के उज्जवल भविष्य के पीछे उनका कठोर तप है। दिल्ली में बच्चों को उच्च शिक्षा मिले, जिसके लिए उन्होंने अपनी राजनीति और पत्रकारिता दोनों छोड़ दी। उन्होंने आभूषण निर्माण कराने का व्यापार शुरू किया। इन आभूषणों को लेकर वे स्वयं मोटरसाइकिल से पड़ोसी जनपदों में जाया करते थे। उनका यह व्यवसाय अच्छा चल निकला। 
      भोजन करते वक़्त उन्होंने एक प्रेरक प्रसंग की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया। स्कूल में एक दिन उनके छोटे पुत्र ने बेंच पर पड़ी एक पैंसिल अपने बैग में रख ली थी। घर पर उसके पास वह पैंसिल देख उन्होंने पूछा --"बेटा,यह तो मैंने तुम्हें दी नहीं थी ?"  लड़के ने कहा --"पापा, समीप बैठी फलां दीदी (अन्य छात्रा) की छूट गयी थी,जिसे मैं उठा लाया हूँ।" उसका उत्तर सुन कर अरुण भैया ने अपने माथे को हाथ से दो बार ठोका। यह देख उस मासूम बालक ने पुनः पूछा --" क्या मुझसे कोई बड़ी गलती हो गयी?"
 जिस पर उन्होंने कहा --"हाँ बेटा, कल दीदी को उसकी पैंसिल वापस दे, सॉरी बोल कर आना।"    
     बेटे ने वैसा ही किया, पुनः ऐसी कोई भूल उससे कभी नहीं हुई और आज वह वैज्ञानिक है।
पिता का इतना आज्ञाकारी कि उसने विदेश की नौकरी ठुकरा दी। रही बात उनके बड़े बेटे की तो मैंने देखा था कि जब अपने कुछ सहपाठियों के कारण वह मार्ग भटक रहा था , तो अरुण भैया ने  उसे तत्काल यहाँ से हटा कर पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया था।
   हमें यह समझना होगा कि किशोरावस्था में बच्चों पर निगरानी रखने के लिए माता-पिता को उनका मित्र बनना होगा, न कि मुखिया ।
        पिता-पुत्र के इस मधुर संबंधों को देख मुझे जहाँ हर्ष होता है, वहीं स्वयं पर ग्लानि भी होती है,क्योंकि न मैं अपने परिवार के काम आ सका न स्वयं के, लेकिन इसके पीछे भी एक करुण कथा है। कोलकाता में जिस दिसंबर माह में नानी माँ की मृत्यु हुई थी, उसी माह वहाँ मैंने कक्षा छह की पढ़ाई पूर्ण की थी। अगले वर्ष मार्च में वाराणसी में मुझे सीधे कक्षा आठ के बोर्ड की परीक्षा में बैठा दिया गया और जुलाई में हरिश्चंद्र इंटरमीडिएट कालेज में विज्ञान वर्ग का छात्र हो गया। विद्यालय में मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बनारस हो अथवा कोलकाता सभी जगह कक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहने वाला किशोर गणित और विज्ञान की मोटी-मोटी पुस्तकें देख सहम उठा था। वह तो चित्रकार बनना चाहता था। जो अभिभावक उसकी चित्रकला के कभी प्रशंसक थे, उन्होंने ही उसके भविष्य को संवारने के लिए उसके नीचे की स्थिति सुदृढ़ करने की उपेक्षा उसे दो पावदान ऊपर चढ़ा दिया गया,फ़िर यह इच्छा जताई कि वह प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण करे, क्योंकि उसके पिता स्वयं प्रथम श्रेणी प्राप्त करने से वंचित रह गये थे। उस किशोर ने ऐसा ही किया। रात्रि 11-12 बजे तक मेज पर सिर झुकाए गणित के प्रश्नों को सुलझाता रहा, किन्तु उसका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता जा रहा था। हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा के पश्चात एक दिन अचनाक उसके सिर के दाहिने भाग में भयानक दर्द शुरू हो गया। गर्दन में अकड़न आ गयी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रयोगात्मक परीक्षा कैसे दे, फ़िर भी उसने दिया। अभिभावकों की इच्छा पूर्ण हुई । गणित के दोनों ही प्रश्नपत्रों में उसे 49-49 अंक प्राप्त हुये। परंतु वह सदैव के लिए सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस का रोगी बन गया। उस समय कोई नहीं समझ सका था कि उसके साथ क्या घटित हो रहा है। उसकी दादी उसके सिर के उस भाग में चूना लगा दिया करती थी। अभिभावकों को लगा कि वह बहाना बना रहा है। वह गृहत्याग के लिए विवश हो गया।
परिणाम यह रहा कि यौवनकाल के शक्ति, तेज और प्रफुल्लता की अनुभूति नहीं कर सका।
वह घर, परिवार और स्वास्थ्य तीनों से वंचित हो गया। भूख और बीमारी से निरंतर संघर्ष करते हुये किशोर से प्रौढ़ हो गया है। उसे नहीं पता कि यौवन किसे कहते हैं, क्योंकि अभिभावकों की महत्वाकाँक्षा की वेदी पर वर्षों पूर्व उसकी बलि दी जा चुकी है। आज़ भी वह बैठ कर कुछ भी नहीं पढ़ सकता है।
     मित्रों ! मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि आप " सच्चे अभिभावक" हैं, तो स्कूटर वाले उस अधेड़ व्यक्ति सा अभिभावक-धर्म का पालन करें।
          -- व्याकुल पथिक