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Wednesday 15 July 2020

अवलंबन

जीवन के रंग
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     चितरंजन काका की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है। कभी कमरे में तो कभी बारजे पर ,यही नहीं पड़ोस के दीना साहू की दुकान तक भी निकल पड़ते हैं। पर उम्र का यह कैसा विचित्र पड़ाव है कि उनके मन को कहीं शांति नहीं मिल पा रही है।वे स्थिर हो कर तनिक भी बैठ नहीं पाते हैं। उनके हाथ-पाँव तो पहले से ही काँप रहे थे, अब तो जुबां भी लड़खड़ाने लगी है, इसलिए वे क्या कहना चाहते हैं, इसे समझना किसी पहेली से कम नहीं है। फ़िर किसे इतनी फुर्सत है कि बूढ़े काका के समीप बैठ कर उनके मन को खंगालने की कोशिश करे। और तो और उनके संदर्भ यहाँ तक कहा जा है कि काका को 'मतिभ्रम' की शिकायत है। उन्हें किसी मनोचिकित्सक की सेवा लेनी चाहिए। अपने संदर्भ में शुभचिंतकों द्वारा ऐसी कानाफूसी से आहत काका ने कुछ इसतरह से मौन धारण कर लिया है,मानो संबंधों के दरकते अपने ही महल में उनके हृदय की आवाज़ गुम हो गयी हो। ठहाकों से गुलज़ार रहने वाले उनके बैठक में अब मरघट सा सन्नाटा है।

      वैसे, बेटे-बहू दोनों ही उनके भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं,किन्तु इससे अधिक इस हवेली में उनके लिए कुछ नहीं है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में उनका हस्तक्षेप  नहीं है। वे कागज़ पर ही इस हवेली के मुखिया मात्र हैं । और परिजनों द्वारा अपनी यही उपेक्षा उनके लिए असहनीय है।सो, जीवन के संध्याकाल में एक ऐसा अवलंबन जो उन्हें मानसिक शांति प्रदान करे, उनके खालीपन को समेट ले, इसी के अभाव में वे असामान्य व्यवहार कर रहे हैं।और स्वयं से यह सवाल भी - "क्या अब मेरी किसी को ज़रूरत नहीं रही ?" 


        अन्यथा काका अपने नाम के अनुरूप प्रौढावस्था तक बेहद खुशमिज़ाज थे। अरे भाई ! नाम ही जो उनका चितरंजन है । और हाँ,एक दौर वह भी था कि जब उनकी दुनिया भी रंगीन थी। उनके अतिथिकक्ष की रौनक देखते ही बनती थी। जहाँ सभ्रांतजनों की उपस्थिति देख ,  ऐसा लगता था कि मानो किसी छोटे-मोटे ज़मींदार का दरबार हो। इन्हीं की तरह  काका अपनी अचल सम्पत्ति की बोली लगाते गये और उनके मेहमानखाने में ठंडा-गर्म होता रहा। बड़े होकर बच्चों ने घर को संभाल लिया,अन्यथा उनका बंगला भी हाथ से निकल जाता और सभी सड़क पर होते। लेकिन काका अकेले पड़ गये हैं , क्योंकि दरबारी तो कब का साथ छोड़ चले थे। घर पर मनबहलाव के लिए उनके पास कोई साधन शेष नहीं है, ईश भक्ति में उन्हें विशेष रूचि नहीं है और जीवन की यह साँझ उनपर भारी पड़ती जा रही है..।


  और उधर...


       मंदिर के समीप चबूतरे पर बैठीं वृद्ध महिलाएँ  "हरि-चर्चा" में मग्न थीं। इन सभी के मुख पर प्रसन्नता थी। इनमें निर्धन-धनी का कोई भेद नहीं था। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि किसी की कलाई में सोने का कड़ा था,तो किसी ने साधारण काँच की एक-दो चूड़ियाँ पहन रखी थीं। किसी की मेवा-मिष्ठान से भरी प्रसाद की टोकरी वज़नी होती तो किसी की इलाइची दाना वाली टोकरी हल्की। यहाँ वे नित्य अपना दुःख-सुख बाँटने जुटती हैं। मंदिरों में धूप-दीपादि के पश्चात इसी चबूतरे पर सुबह-शाम बैठ कर भजन गाया करती हैं। 


     किन्तु इनमें से कुछ की बहुओं को संदेह है कि कीर्तन-भजन के नाम पर ,उनकी सासु माँ मुहल्ले की अन्य वृद्ध महिलाओं से अपने बहू-बेटे  की शिकायत करती हैं । इसीलिए इनके इस धार्मिक ,सामाजिक और पारिवारिक संवाद को उन्होंने  "गृह फोड़-चर्चा" का नाम दे रखा है।  ख़ैर ,नाम में क्या रखा है। प्रश्न यह है कि आपकी सोच कैसी है। जब जीवन के संध्याकाल में अपने ही घर में वृद्ध सदस्यों की जाने-अनजाने में उपेक्षा होने लगे, तो इस अवसाद से मुक्त होने के लिए किसी न किसी आश्रय की आवश्यकता  होती ही है। और इससे अच्छा और क्या है कि इन वृद्ध महिलाओं ने समय गुजारने के लिए इस चबूतरे का चयन किया है। क्योंकि घर के टेलीविज़न पर बहुओं का कब्जा है,उन्हें अपने पसंद की धारावाहिक जो देखनी होती है और फ़िर स्कूल-कोचिंग से छूटते ही बच्चे कार्टून लगा वहाँ अपना आसान जमा लेते हैं।


   दादी माँ की परियों वाली कहानी अब कौन सुनता है।! यदि बच्चे कभी अपनी दादी के साथ कहीं जाना चाहते भी हैं तो उनकी मम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती है-" गोलू , इधर आओ.. स्कूल का होमवर्क पूरा करना है कि नहीं ? "

  और ऊपर कमरे में जाते ही गोलू की तो क्लास ही लग जाती है। बेचारा  कुछ यूँ सहम जाता है कि दादी माँ की परछाई से भी दूर भागने लगता है। अपने ही संतान के बच्चे के सानिध्य से वंचित होना यशोदा के लिए भी सहज नहीं था। किन्तु
आधुनिकता की अंधीदौड़ में सारे संबंध तेजी से परिवर्तित होते जा रहे हैं।पति की मृत्यु के पश्चात यशोदा ने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने ही घर में वह परायी जैसी हो जाएगी। बहू के पश्चात अब उसका बेटा कुंदन भी उसकी उपेक्षा करने लगा था। बेटे को अफ़सर बनाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया था। किन्तु आज उसका पुत्र ' कुंदन ' और वह स्वयं ' पाषाण' बन गयी है।
वह अपने ही सभ्य परिवार में बैकवर्ड समझी जाती है।

    इसी घुटन से बाहर निकलने के लिए वह छटपटा रही थी कि एक दिन पड़ोस में रहने वाली   गायत्री ने उसे रास्ता सुझा दिया। अब यशोदा उसके साथ मंदिर के समीप के उसी चबूतरे पर नियमित पहुँच जाती है। वह धर्मनिष्ठ  महिला है। और भजन -हरि बिन तेरो कौन सहाई ... भी अच्छा गा लेती है, इसलिए यहाँ उसे ख़ूब सम्मान मिल रहा है। उसे ऐसा अवलंबन मिल गया है, जिससे बिछुड़ने का भय नहीं है।वह प्रभु -भक्ति में लीन रहने लगी है । उसे नयी पहचान मिल गयी है । वह मुहल्लेवासियों की 'यशोदा माई' बन गयी है ।  सभी लौकिक आकर्षक, लिप्सा, मोह और अनुराग से ऊपर उठ चुकी है।


   

    यह वृद्धावस्था मनुष्य के धैर्य की परीक्षा लेती है। घर में न सही तो बाहर ही किसी ऐसे आश्रय की तलाश करें, जहाँ कुछ देर के लिए सुकून मिल सके। कोई साथी मिल सके, जिसके संग वार्तालाप कर, मन का बोझ हल्का कर सके।
भले ही जीवनपर्यन्त हमने कर्म की उपासना की हो,फ़िर भी सच्चाई और ईमानदारी के अवलंबन से कहीं अधिक ममत्व भाव की आवश्यकता इस अवस्था में होती है। आश्रय कहीं भी मिले, पर ऐसा मिले कि मुख पर वहीं मुस्कान पुनः थिरकने लगे, ताकि वह जीवन की शून्यता और दर्द से उभर सके। 

   इकलौते पुत्र की मृत्यु के पश्चात डगमगाते पाँवों को छड़ी के सहारे मस्जिद की राह दिखलाते जुम्मन चाचा, जीवन के संध्याकाल में अर्धांगिनी से वियोग के पश्चात शहर के बगीचे में हम-उम्र लोगों संग प्रातःभ्रमण और आध्यात्मिक चर्चा करते पांडेय जी एवं अपनों से मिले तिरस्कार से उत्पन एकांत को ध्यान में परिवर्तित के लिए मंयक भी कुछ इसीप्रकार से प्रयत्न कर रहा है। उपासना स्थल, आध्यात्मिक चर्चा और ध्यान ये तीनों ही इनका अवलंबन है।


   व्याकुल पथिक