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Thursday 30 August 2018

तुम मुझे यूँ समझ ना पाओगे



जाने वालों ज़रा, मुड़ के देखो मुझे
एक इन्सान हूँ मैं तुम्हारी तरह
जिसने सबको रचा, अपने ही रूप से
उसकी पहचान हूँ मैं तुम्हारी तरह ...

       कभी आपने अपनी गलियों में या फिर सड़कों पर बिखरे कूड़ों के ढ़ेर में से कबाड़ बटोरती महिलाओं को देखा है , नहीं देखा , तो दरबे से बाहर निकलिए। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों की तस्वीर जरा करीब से देखिये न मित्रों ! कल्पनाओं में इन पर रचनाएं न लिखें । पहले इनसे जुड़े जो कबाड़ी को बेचने योग्य कुछ वस्तुओं को अपनी बड़ी सी झोली में घंटों इधर- उधर घुम टहल कर समेटती रहती हैं। उनके बच्चे भी कुछ ऐसा ही करते हैं। यह हमारी शाइनिंग इंडिया की एक अलग तस्वीर है।इनकी भी अपनी दुनिया है। ये कोई भिक्षुक नहीं हैं और न ही मैं इनकी गरीबी को यहां फोकस करना चाहता हूँ। मैं तो इनके स्वाभिमान का कायल हूँ । मौसम चाहे जो भी हो,जिस तरह से मैं अपनी ड्यूटी का पक्का हूँ , उसी तरह से ये भी पौ फटने से काफी पूर्व ही अपने कार्य में तल्लीन मुझे दिखती हैं। बस हमारे उनमें अंतर इतना ही रहता है कि मुझे गलियों में अवारा कुत्ते तंग नहीं करते और उन्हें वे अंधकार में संदिग्ध समझ दौड़ा लेते हैं, उनकी झोली को देख कर । ये कुत्ते भी कितने पाजी होते हैं आज कल के, चोर इनके सामने से ही तर माल गटक कर चला जाता है, फिर भी वे तनिक ना गुर्राते हैं। याचकों की टोली देख कर भी वे मौनव्रत तोड़ते नहीं, लेकिन जैसे ही कूड़ा बिनने वाले किसी बच्चे को अकेले देख लेते हैं, बस फिर क्या मोर्चाबंदी कर लेते हैं, वैसे ही जैसे ईमान के पक्के किसी व्यक्ति की घेराबंदी इस जुगाड़ तंत्र में होती है। इसके बावजूद ये बहादुर बच्चे अपनी बोरी को इस तरह से चहुंओर घुमा कर उन्हें पास नहीं आने देते , मानो वह उनका सुदर्शन चक्र हो। मैं भी कभी-कभी ठिठक कर कुत्तों और इन बच्चों का संघर्ष देखता हूं। हालांकि मेरे आने पर अकसर ही कुत्ते भाग खड़े होते हैं। भोर में हम दोनों का अपना मौज है,  इन खाली पड़ी अंधकार भरी सड़कों पे। सो, थोड़ा मुस्कुरा उठता हूं, जब कानों में लगा ईयरफोन कुछ यूं सुनाता है-

ये ना सोचो इसमें अपनी
हार है कि जीत है
उसे अपना लो जो भी
जीवन की रीत है
ये जीवन है
इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है, यही है छाँव धूप...

  हाँ, प्रातः भ्रमण करने वालों की दखलअंदाजी होती रहती है। सच कहूं, तो सड़कों पर कबाड़ बिनने वालों के प्रति मेरा अपना नजरिया है। मुझे इन्हें देख गर्व महसूस होता है कि हम दोनों ने ही किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया है। बस फर्क इतना हैं कि मैं जब अखबार बांट रहा होता हूं, तो ये फटे- चिथड़े अखबार सड़कों पर से बिन-बटोर रहे होते हैं। कितने निश्छल हैं ये बच्चे , इस बनावटी- दिखावटी दुनिया से बिल्कुल अलग। क्या आपने कभी इनके चेहरे पर उदासी देखी है। इन्हें बीमार पड़ता भी मैंने नहीं देखा है ।  अपने देश में इन दिनों  स्वच्छता अभियान को लेकर क्या-क्या नहीं हो रहा है। बड़े राजनेता और अधिकारी तक झाड़ू थामे फोटो शूट करवा रहे हैं। मानों फैशन शो के माडल हो एवं रैम्प पर अपना जलवा बिखेर रहे हों। फिर भी वे जब तब अस्वस्थ हो ही जाते हैं। लेकिन, गंदगी के ढ़ेरों में पलने- बढ़ने वाले इन बच्चों को देखिये तो जरा , प्रकृति ने किस तरह से इनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति मजबूत कर रखी है। यदि स्वाभिमान की बात करूं तो हम ढ़ूढ़ते रह जाएंगे फिर भी इनमें से किसी बच्चे को किसी गैर के समक्ष हाथ फैलाते कभी नहीं देखेंगे। ये तो स्वयं ही अपने अभिभावकों को सहारा देते हैं। ये निठल्ले नहीं हैं ,उन पढ़े लिखे बेरोजगार युवकों की तरह जो अपने खून पसीने की  कमाई खाने की जगह जरायम की दुनिया में पांव रख देते हैं। ये लोग उन सफेदपोशों की तरह भी नहीं है, जो गरीबी हटाओ या फिर अच्छे दिन लाने का बस वादा ही करते रहते हैं, ना ही  समाज सेवा के नाम पर जनता का पैसा डकारने वाले जनसेवक हैं वे। ये ना ही सफेद खादी के पोशाक में लकदक हैं । वे तो मैले-कुचैले वस्त्र पहने मिलते हैं , अपने नगर की गलियों में, फिर भी वह दागदार नहीं है । ऐसी ही महिलाएं और उनके बच्चों की टोली को मैं अकसर ही अपने मुसाफिरखाने के सामने सड़क उस पार हंसी ठिठोली करते देखता हूं। सभी सामने की दुकान से चाय संग बिस्कुट खाते दिखते हैं, क्यों कि सुबह के सात बजते- बजते इनकी झोली में जो कुछ आया ,वहीं इस दिन की उनकी कमाई है। दिन में वे इसे किसी कबाड़ी को बेच देंगे। वैसे, इन दिनों इनके हाथ कुछ तंग हैं, कारण यह है कि  प्लास्टिक की थैलियों सहित बहुत सी अन्य सामग्री पर सरकार ने प्रतिबंध जो लगा दिया है। बस दुख मुझे इस बात का है कि ये बच्चे पढ़े लिखे नहीं हैं । ये बेईमानों को भी साहब कह कर बुलाएंगे। वैसे तो कोई बड़ी डिग्री मेरे पास भी नहीं है। लेकिन, मैंने अपने परिश्रम से इसकी कमी पूरी की है। सो, आज अनेक लोग मेरे लिये  सम्मान सूचक सम्बोधित का प्रयोग करते हैं । वे मुझसे चाहते हैं कि समाज की सही तस्वीर हम प्रस्तुत करें। अतः ऐसे लोगोंं के और कुछ न कर सकते हो यदि हम , तो इतना तो दुआ कर ही सकते हैं इनके लिये कि

मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे...

         हम एक पत्रकार हैंं  , इसीलिये हमारा लेखन कार्य चुनौतियों से भरा होता है। हमें कल्पनाओं की उड़ान भरने की अन्य रचनाकारों की तरह अनुमति नहीं है। हमें तो धरातल पर पांव टिका कर अपनी बातों को पूरे प्रमाण एवं तार्किक ढ़ंग से  पाठकों के समक्ष रखना होता है।  सत्य को सामने लाने की हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। ऐसे में हम अच्छे रचनाकार किस तरह से बन सकते हैं। पत्रकारिता में हमें तो भूत और वर्तमान को ध्यान में रख कर ही भविष्य पर अपने विचार रखने की शिक्षा दी गयी है। हां, अब पेड न्यूज का जमाना है। सो, हमारी लेखनी भी जब तब फिसलती रहती है। कभी संस्थान के लिये, तो कभी अपने लिये , हमलोग अनाड़ी को खिलाड़ी बना कर अखबारों के कालम रंगा करते हैं। लेकिन, यह ब्लॉग एक दर्पण है मेरे लिये, अतः मेरी जो सम्वेदनाएँ हैं, भावनाएं हैं वे जज़्बाती न हो, इस पर सदैव ही मैं अंकुश लगाते रहने का प्रयास करता हूं। अपने अंधकारमय जीवन में प्रकाश के लिये एक दीपक की तलाश में हूं, जो कभी मेरे बिल्कुल करीब होता है , तो कभी दूर जाता दिखता है। मानो लुकाछिपी खेल रहा हो मुझसे ,कुछ इस तरह से यह भी ...

 ये पल पल उजाले, ये पल पल अंधेरे -
 बहुत ठंडे ठंडे, हैं राहों के साये
 यहाँ से वहाँ तक, हैं चाहों के साये -
 ये दिल और उनकी, निगाहों के साये -
 मुझे घेर लेते, हैं बाहों के साये...

यह लेख मेरा उन जेंटलमैनों (भद्र पुरुष)के लिये है , जो ऐसे स्वाभिमानी बच्चों को देख न जाने क्यों नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। मैं जानता हूं आप उनमें से नहीं हैं। एक सच्चे रचनाकार का सम्वेदनशील हृदय सदैव जो भावनाओं से भरा होता है।


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Monday 27 August 2018

अपने पे हँस के जग को हँसाना, ग़म जब सताये सीटी बजाना

     
परिश्रम यदि हमने निष्ठा के साथ किया है, तो वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही कम्पनी की नजरों में हम बेगाने हो, तब भी समाज हमारे श्रम का मूल्यांकन करेगा। किसी को धन , तो किसी को यश मिलेगा ।

****************

      मिसाइल मैन डा0 एपीजे अब्दुल कलाम का एक सदुपदेश पिछले दिनों सोशल मीडिया पर पढ़ा था। जैसा की मेरी आदत है कि मैं हर नसीहत को अपनी कसौटी पर कसता, तौलता और परखता  हूं , तब उस चिन्तन को आगे बढ़ाता हूं।  यहां मुझे अपनी गलतियों का एहसास  हुआ है , लेकिन देर हो गयी है मुझसे । लिहाजा, कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ! फिर भी पथिक को सम्हलना, चलना एवं मंजिल तक पहुंचना ही है । सो,

ग़म जब सताये, सीटी बजाना
पर मसखरे से दिल न लगाना
कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीकत आधा फ़साना
चश्मा उतारो फिर  देखो यारों
दुनिया नयी है चेहरा पुराना

    इस मन को बहलाने का यह मेरा अपना अंदाज है, आप सभी का कुछ न कुछ होगा , पर मेरा एक ही तो है, इस जहां में  मित यह जोकर। कुछ साथी कहते हैं कि तुम कुछ अच्छा लिख सकते हो, कोशिश तो करो ?  लेकिन मैं ऐसा नहीं  सोचता। यह सांप- सीढ़ी का खेल मुझे नहीं खेलना। जिन गीतों के सहारे मैंने कितनी ही तन्हाई भरी रातें गुजारी हैं। लेखन कार्य के दबाव में मैं उस वफादार दोस्त को क्यों छोड़ दूं। परखे हुये हमदर्द की उपेक्षा कर किसी नये व्यक्ति/ वस्तु की चाहत कभी नहीं करनी चाहिए हमें। यह कटु अनुभव है मेरा। अतः ब्लॉग पर जो कच्चा - पक्का ( अपनी बात ) लिखता भी हूं , तो यह सोच कर नहीं कि वह किसी को पसंद आया, नहीं आया, कमेंट बाक्स में प्रतिक्रिया आई की नहीं आई । बस मन की भावनाओं को व्यक्त कर देता हूं। रेणु दी का यह सुझाव मुझे अच्छा लगा कि सप्ताह में दो- तीन पोस्ट बहुत है, मेरे स्वास्थ्य एवं कार्य के लिहाज से । ब्लॉग की दुनिया में उन्हीं की प्रेरणा से मैं चंद कदम चल पाया हूं एवं यहां स्नेह भी आप सभी का मिला है, नहीं तो यह सफर अधूरा रह जाता।अखबार के लिये रोजाना पांच-सात घंटा समाचार संकलन एवं लेखन के लिए चाहिए। सच कहूँ तो भागदौड़ भरी दुनिया का यह मेला कितना अजीब है मुझ अकेले इंसान के लिये यहां तो, -

धक्के पे धक्का, रेले पे रेला
है भीड़ इतनी पर दिल अकेला
अपने पे हँस कर जग को हँसाया
बनके तमाशा मेले में आया

मेरे भाई !  इस दुनिया में इन सभी गम से एक साथ मुस्कुरा कर संघर्ष करना पड़ता है। अन्यथा हमारा मुहर्रमी चेहरा भला किसे पसंद आएगा। लोग मनहूस पत्रकार जो कहेंगे। फिर भी जब हम एकाकी हैं ,  स्मृतियां अठखेलियाँ करेंगी ही। मैं अपनी बात कहूं, कोई तीन दशकों से भटकती आत्मा ही तो हूं, वहां से यहां तक घुमता फिर रहा हूं। मैं सब कुछ देख रहा हूं। भले ही मुझे बहुत कम लोग देखे-समझ पाते हो । हां, इस दौरान कभी- कभी थोड़ी खुशियाँ आ भी गयी थीं इस जीवन में,जो दर्द एवं तन्हाई दे गयीं , ऐसे में  इन्हीं गीतों के गुलदस्ते ने अनेकों बार मेरे हृदय के जख्म को भरा है। अत्यधिक काम के बोझ तले मैंने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है । जो मुझे स्नेह करते थें , उनके लिये मेरे पास समय जो नहीं था। सदैव अपनी कक्षा  में अव्वल रहा , परिश्रमी रहा, कभी घबड़ाया नहीं , उसी शख्स को निठल्ला कहलाने के भय, काम के प्रति मोह , अति उत्साह और भूख ने कितना निष्ठुर बना दिया था । अपनो के यहां शहनाई बजी या अर्थी सजी, ऐसे हर्ष एवं विषाद के अवसर पर उसमें शामिल होने के लिये  क्यों तनिक भी वक्त नहीं रहा मेरे पास ? फिर क्यों न तब मैंने अपने ललाट पर गुलाम होने का ठप्पा ही लगवाया था या छोड़ा क्यों नहीं यह काम । आत्मग्लानि तो नहीं महसूस करता न अपने देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के इस सदुपदेश को पढ़ कर । पिछले कुछ दिनों से मेरा ही मन मुझे ही धिक्कार रहा है। मैं उसे किस तरह से समझाऊँ कि ढ़ाई दशक के मेरे इतने कठोर संघर्ष पर यूं उपहास तो न करों। काम की आपाधापी में कभी इस विषय पर मैं गंभीर हुआ ही नहीं।
          आप भी यदि नौकरी पेशे में हैं तो ठहर कर  डा0 कलाम के इस संदेश पर गौर करें, उन्होंने कितनी साफगोई से  लिखा है कि आप अपने कार्य से प्यार करें, कम्पनी से नहीं, क्यों कि आपको नहीं मालूम कि कम्पनी कब आपको प्यार करना छोड़ देगी। आगे यह भी लिखा है कि समय से कार्यालय छोड़े, क्यों कि कार्य एक कभी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने कहा है कि जब कभी आप जीवन में निराश होंगे तो आपका बॉस नहीं , बल्कि आपका परिवार और मित्रगण आपकी सहायता के लिये आगे आएंगे।कहा है कि जीवन निरर्थक न बनाएं, समाजिकता, मनोरंजन, आराम एवं  अभ्यास के लिये भी समय हो। उन्होंने कहा है कि जीवन को यंत्र / मशीन  बनाने के लिये कठिन अध्ययन एवं कड़ा संघर्ष नहीं किया है हमने। मिसाइल मैन ने जो चेतावनी दी है , अपने जीवन संघर्ष की कसौटी पर मैंने उसे अक्षरशः सही पाया। इसीलिये जीवन में पथ प्रदर्शक का होना आवश्यक है।  मैंने उस रंग मंच का चयन किया था। जहां सप्ताह में एक भी दिन अपने लिये नहीं मिलता था। यह तो अब दो- ढ़ाई वर्षों से रविवार का अवकाश मिल रहा है। नहीं तो सुबह से दोपहर तक समाचार संकलन और लेखन, फिर बंडल लेने जिले से बाहर पहले वाराणसी फिर औराई जाना , चौराहे पर डेढ़-दो घंटे खड़ा रहना , देर शाम सवारी वाहन की तलाश , पुनः मीरजापुर आ कर रात्रि  में अखबार का वितरण करना एवं करवाना । पूरे 6 बजे सुबह से रात्रि 10 बजे की ड्यूटी रही मेरी। आप ऐसे समझ लें कि जिस दिन सायं मेरे मौसा जी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई। मुजफ्फरपुर से बहन का फोन आने के बावजूद बस से अखबार का बंडल उतारने के लिये औराई चौराहे पर इस तरह से  डटा खड़ा था, मानों सीमा पर मोर्चा सम्हाले खड़ा हूं। इसके पहले उसकी शादी में भी नहीं गया था मुजफ्फरपुर। यह तो एक बानगी है, मैंने जीवन में अपनी खुशियों के सारे अवसर अखबार के कार्य में गंवा दिये। फिर भी यह दर्द बना रहेगा मुझे कि जब मेरे ऊपर संकट आया तो कितनी मदद मिली संस्थान से ? हालांकि कलाम साहब के इस चिन्तन में मैं एक छोटा संशोधन करना चाहूँगा कि परिश्रम यदि हमने निष्ठा के साथ किया हो, वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही कम्पनी की नजरों में हम बेगाने हो, तब भी समाज हमारे श्रम का मूल्यांकन करेगा। आज इस शहर में कितने ही आम और खास लोग , जिन्होंने सड़कों पर मेरे श्रम को देखा है, वे मुझे स्नेह देते है, सम्मान देते हैं और पहचान भी देते हैं। मेरा एक पैगाम  सदैव उनके लिये रहा है-

हिन्दू न मुस्लिम, पूरब ना पश्चिम
मज़हब है अपना, हँसना हँसाना
कहता है जोकर सारा ज़माना …

 इसलिये न मुझे फासिस्ट पसंद हैं , न सेकुलर ठेकेदार। ये राजनीति के शब्द हैं, आम आदमी के नहीं। सत्ता पाने के लिये  कोई कट्टरपंथी तो कोई उदारवादी मुखौटा पहन लेता है। जिस दिन आप भी इसे समझ लेंगे, दूरियां मिट जाएंगी इस समाज में।  मैंने समझा है, इन पच्चीस सालों में इसीलिये किसी भी धर्म एवं जाति के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है मेरे हृदय में ।  एक रचनाकार, एक पत्रकार, एक सच्चा  जनसेवक बनने लिये यह प्रथम सीढ़ी है हमारी कि हम सबके हैं और सभी हमारे हैं । आम चुनाव सामने हैं, जिसमें सदैव हम प्रबुद्धजनों की अहम भूमिका रहती है साथ ही जुगाड़ तंत्र के विरुद्ध शंखनाद का अवसर भी।

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद
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Friday 24 August 2018

ज़िंदा हैं जो इज़्ज़त से वो, इज़्ज़त से मरेगा

सुबह सड़कों पर जीवन संघर्ष दिखता है

 इबादत, समर्पण और कर्मयोग दिखता है
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दुनियाँ में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा
जीवन हैं अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा
गिर गिर के मुसीबत में संभलते ही रहेंगे
जल जाये मगर आग प़े चलते ही रहेंगे....

  मदर इंडिया फिल्म का यह गीत जीवन का संघर्ष, नियति के समक्ष पराजय न स्वीकार करने की जंग है।  जब  सुबह सूर्योदय से पूर्व हममें से अनेक लोग मीठी नींद में सोये होते हैं। तब हमारे घर के बाहर सड़कों पर एक कठिन जीवन संघर्ष दिखता है। बूढ़े बाबा नूर मोहम्मद गरीबी की मार से जिनका कमर टूट चुका है। वे लाठी के सहारे आगे की ओर झुके- झुके ही सही धीरे- धीरे पैरों को खिसकाते हुये खुदा की इबादत में मस्जिद को ओर बढ़ते दिखते हैं ।  पक्के नमाजी हैं वे । नमाज़ पढ़के वापसी के समय मेरी उनकी मुलाकात अकसर ही संदीप भैया की दुकान के बाहर सवा पांच बजे के आसपास हो जाती है।  उनकी बूढ़़ी आंखों में अब वह नूर नहीं है। वक्त की मार जो उनपर ऐसी पड़ी है कि कालीन , दरी और बीड़ी बनाने में हाड़तोड़ परिश्रम के बावजूद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है। स्वास्थ्य साथ छोड़ रहा है। लेकिन, वे अपने कर्म पथ से तनिक भी डिगें नहीं हैं। मैं उन पर एक लेख भी लिखा था। ऐसे शख्स मुझे बहुत पसंद है। जो जीवन के कठिन दौर में भी अपने पथ डटे रहते हैं । पुत्र की वर्षों पूर्व मौत हो गई तो क्या हुआ, उस दर्द को सीने में दबाये अपनी विधवा पुत्रवधू सहित पूरे परिवार का खर्च अपने इन्हीं बूढ़े कंधों पर उठाया है उन्होंने, बिना टूटे हुये । मौसम कोई भी , स्वास्थ्य जैसा भी हो और हालत घर का कैसा भी हो, फिर भी भोर में अपने घर से निकल पड़ते हैं इबादत खाने की ओर। मानो हम सभी को यह पैगाम दे रहे हो कि

  मालिक हैं तेरे साथ ना ड़र, गम से तू ऐ दिल
   गम जिस ने दिये हैं वो ही गम दूर करेगा

   फिर मैं जब कुछ आगे बढ़ता हूं, तो बूढ़ेनाथ मंदिर के सामने एक ऐसे वृद्ध व्यक्ति को देखता हूं , जो अपने पैरों के बल पर खड़े होने की स्थिति में अब नहीं है। सो, वे वाकर के सहारे मंदिर से लेकर कुछ दूर सड़क तक का सफर तय करते हैं । घर के बाहर चबूतरे पर बैठे-बैठे ही करीब एक घंटे तक हाथ- पांव हिलाते रहते हैं। उन्हें कभी परिवार के सदस्य को पुकारते मैंने नहीं देखा, ना मदद मांगते ही । शारीरिक लाचारी  को अपनी कमजोरी मानो उन्होंने कभी समझा ही नहीं, एक बहादुर योद्धा की तरह वे इस अपंगता जैसी कठिन परिस्थिति का सामना कर रहे हैं।  मैंने मंदिर के आगे शीश झुकाया हो या नहीं यहां, फिर भी इस संघर्ष पुरुष के समक्ष नतमस्तक हूं। किस तरह से धीरे- धीरे वे स्वतः ही अपने शरीर की मालिश करते हैं। अपने हर अंग को धीरे - धीरे हाथों से करीब घंटे भर मलते ही हैं। मैं तो अपलक उन्हें निहारता रह जाता हूं। बिल्कुल दुर्बल शरीर है, फिर भी स्वस्थ रहने की इच्छाशक्ति दृढ़ है। वैसे, मार्ग में मुझे बहुत से ऐसे बुजुर्ग और प्रौढ़ दम्पति भी दिखते हैं, जो टनाटन हैं , हंसी- ठिठोली आपस में किये रहते हैं। खुदा उनपर मेहरबान है। वजन घटाने के लिये कम अवस्था की एक लड़की अकसर ही पुरानी अंजही मुहल्ले की दिख जाती है, मेरी राह मैं। मुझे कुछ हंसी सी आ जाती है, इतनी कम आयु में ऐसे भारी भरकम लोगों को देख कर । यह लड़की भी आमलेट, मोमो, मैगी, चाट और गोलगप्पे खूब खाती थी। पर अब निश्चित ही पछतावा हो रहा होगा उसे। सो, सुंदर काया पाने के लिये उसका भी संघर्ष मैं सुबह देखता हूं। लेकिन, मुझे तकलीफ दो तरह के लोगों को देखकर होता है। पहला कोई ऐसा वृद्ध जो शारीरिक रुप से कमजोर है, फिर भी रिक्शा खींचे जा रहा होता है और दूसरा वे कुछ लड़के- लड़कियां जो घर से निकलते तो हैं कोचिंग पढ़ने जाने के लिये, परंतु कान से उनका सेलफोन सटा होता है। यह कैसा प्रेमपाश है इनका , जो एक दूसरे के भविष्य को अंधकारमय किये हुये हैं। वो बैराग फिल्म का गीत है न कि

" छोटी सी उमर में लग गया रोग , कहते हैं लोग मैं मर जाऊंगी "

    गर्दन से ऊपर के हिस्से कपड़े से लपेटे और उसी के अंदर मोबाइल दबाये ये लड़कियां आखिर क्या संस्कार लेकर बाबुल के घर विदा लेंगी ? किसी भी नारी संगठन ने इस पर तनिक भी विचार नहीं किया है और इससे अधिक हम कुछ कह भी नहीं सकते हैं। लड़के तो पहले ही इस खेल में बर्बाद हैं । सो, एक उम्मीद रहती थी कि शादी के बाद उसका घर संवर जाएगा, पर अब तो दोनों के अपने- अपने यार हैं  ! हां, कुछ ऐसे भी बदनसीब नजर आते हैं, जो आंखें खुलते ही मदिरालय का द्वार खटखटाने पहुंच जाते हैं।पता नहीं कहां से पैसा जुटा लाते हैं या बीवी- बच्चों का पेट काट लाते हैं।

     हां, एक संघर्ष मेरा भी तो सुबह रहता  है अब , चाहे शरीर हां कहे अथवा ना , फिर भी सप्ताह में छह दिन ठीक चार बजे उठना है। शौच- स्नान करके पांच बजे मुकेरी बाजार चौराहे पर खड़ा हो जाता हूं, इस प्रतीक्षा में कि जीप अखबार का बंडल लेकर आती ही होगी। अभी तीन दिनों पहले जब मलेरिया वाली वहीं पुरानी शारिरिक तकलीफ फिर से सर्दी-जुखाम एवं बुखार के बाद उभर आई,  मांसपेशियों और सिर में दर्द से बेचैन हो उठा, तो कुछ चिन्तित हो गया था कि किसी तरह से तो चिरायता मिश्रित काढ़ा पीकर मैंने इसपर कुछ नियंत्रण पाया था, अब फिर से कौन सी दवा तलाशी जाएं। सो, ऐसा लगा कि वर्ष 1999 से जिस असाध्य मलेरिया से पीड़ित हूं , कहीं उसकी दोस्ती अबकि और महंगी तो नहीं पड़ेगी। खैर काढ़ा एक बार की जगह तीन बार ले रहा हूं और स्वयं को कुछ ठीक महसूस कर रहा हूं। यह मेरा संघर्ष ही कि इस स्थिति में भी सुबह ढ़ाई घंटे मुझे आप मीरजापुर की सड़कों और गलियों को साइकिल से नापते हुये भी देखिएगा। ज्वर और दर्द चाहे कैसा भी क्यों न रहा हो , इन ढ़ाई दशकों में अपने इस होमवर्क से पीछे नहीं हटा। अब तो ऐसे कर्मयोगी बुजुर्गों को देख मेरे आत्मबल में कहीं अधिक वृद्धि हुई है। पर अभी थोड़ा ऊपरवाले से खटपट चल रहा है मेरा, सो मैं उसे अजमा रहा हूं और वह मुझे। इसीलिये तो मैं उसके चौखट पर दस्तक नहीं दे रहा हूं। उसे पुकार भी नहीं लगा रहा हूं। मेरे ढ़ेरों सवाल है बचपन से लकर युवाकाल के, मैं जवाब चाहता हूं उससे, पर वह भी तो कुछ पूछना चाहता हो मुझसे ? सो, पता नहीं मैं उसके कटघरे में खड़ा हूं, या वह मेरे। यह तो आमना-सामना होने पर ही पता चलेगा। फिर भी मुझे किसी की गुलामी कुबूल नहीं। चाहे वह खुदा हो या इस धरती का बादशाह । मैं बराबरी चाहता हूं किसी का दरबार नहीं। उसे याद होगा कि बचपन में मैंने उसकी किस तरह से सेवा किया करता था। पर मां(नानी) सहित उसने मुझसे  हर वह चीज छीनी है, जो मुझे प्रिय थी। अतः

 मैं तो वह मुसाफिर हूं, जो रस्ते में लुटा हूं ।
 ऐसे न दीप कभी किसी दिल का बुझा हो...

    अब इस बीमार शरीर पर क्या जोर लगाओगे ?  खुद्दारी मेरी फिर भी नहीं खरीद पाओगे। मैं नहीं जानता कि यह कैसा मेरा पागलपन है, परंतु ओ मुझे अजमाने वाले,  तुम भी कभी फुर्सत में  यह सोचोगे कि किस माटी के पुतले को गढ़ा है। हां , एक एहसान तुम मुझ पर करना कि मेरे इस स्वाभिमान को बनाये रखना।  न धन मिला, ना ही रोटी, कपड़ा और मकान ठीक से। जवानी यूं ही गुजर गई, न बीवी- बच्चे मिलें। एक स्वास्थ्य बचा था, तो उसे भी 19 वर्ष पूर्व छीन लिया। फिर भी शिकवा नहीं तुमसे, न कोई शिकायत है। जो संघर्ष करता हूं , यह तुमसे छिपा नहीं है। फिर तुम्हारे दरवाजे पर जा क्यों दूं दस्तक। सो, दोस्ती फिल्म का यह गाना मैं तुम्हें सुनाता हूं-

चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे
फिर भी कभी अब नाम को तेरे
आवाज़ मैं न दूंगा.. आवाज़ मैं न दूंगा
मितवा मेरे यार तुझको बार बार
आवाज़ मैं न दूंगा..

   वैसे,चाहूं तो मैं भी बैठ के भोजन कर सकता हूं। लेकिन, जिस निठल्ले होने का कलंक मुझ पर लगा था और मैं सब कुछ छोड़ घर से निकाल था। फिर से वह न कहलाऊँ, इतना मेरा ख्याल रखना। राह अभी लंबी है, मंजिल भी दूर है। इस पथिक की व्याकुलता पर दुनिया हंसे चाहे जितनी , पर तुम न उपहास करना।  प्यारे ! बस इस संघर्ष पथ पर इतना ही तुमसे चाहता हूं-

 " ज़िंदा हैं जो इज़्ज़त से वो, इज़्ज़त से मरेगा "

Tuesday 21 August 2018

साथी हाथ बढ़ाना ... एक अकेला थक जाएगा , मिलकर बोझ उठाना



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (साथी हाथ बढ़ाना ... ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
संवेदनाएं समाज की मरी नहीं हैं, वह गुमराह है क्यों कि नाविक सही नहीं है

 पत्रकारिता में अपनों द्वारा उपेक्षा दर्द देती है, लेकिन गैरों से मिला स्नेह तब मरहम बन जाता है
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आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे
तीर-ए-नज़र देखेंगे
ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे
     
    विषय गंभीर है। हम पत्रकारों से जुड़ा है।यह जख्म भी हमारा है और यह दुआ भी हमारी है। पत्रकारिता में कभी- कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि हम  चाहे कितने भी कर्मठ पत्रकार हो, स्वाभिमानी हो, ईमानदारी से और पवित्रता के साथ अपनी लेखनी का  प्रयोग किये हो , फिर भी किसी ऐसे मोड़ पर जब हम टूट जाते, बिखरने लगते हैं, स्वयं को प्रभावशाली पत्रकार समझने का हमारा दर्प भी जाता रहता है और यह मन हाहाकार कर उठता है कि दशकों के परिश्रम का क्या यही परिणाम कि जिस संस्थान के लिये हमने अपना घर- परिवार , अपना यौवन और अपना जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया। उसी की नजरों में हम बेगाने से हैं। ऐसे संकटकाल में  जब हम बिस्तरे पर पड़ जाते हैं, तो अखबारों के पन्ने पर तब हमारी कोई खोज- खबर नहीं होती , जबकि हम हर एक की खबर खोज - खोज कर लिखते रहें । वहीं  जब हम जीवन- मृत्यु से संघर्ष करते हैं,  तो सबकुछ दांव पर लगाने के बावजूद बड़े अखबारों को  हमारे फोटो , हमारे नाम तक से परहेज रहता है।  हमें एक पत्रकार ( न हमारा नाम नहीं , ना ही उस समाचार पत्र का जिसके लिये हम काम करते हैं) लिखते , क्या इन समाचार पत्रों के स्वामी यह जतलाना चाहते हैं कि तुम हमारे कोई भी नहीं। आखिर क्यों वह संवेदना हमारे प्रेस के मालिकानों में तनिक भी नहीं होती है, जैसा हम अपने संस्थान के लिये सदैव करते रहे हैं । जबकि अस्पताल में  हमें देखने कितने ही विशिष्ट जन आते हैं । वे सिर्फ सम्वेदना जताने ही नहीं आते हैं ,वे समारा सहयोग भी करते हैं। पर जिनका बस्ता हमने वर्षों ढ़ोया , वे कहां गये ? ऐसे में हृदय का ताप और भी बढ़ जाता है। वह मौन रुदन बन जाता है।  नम आंखें जो दास्तां बयां करती हैं, खामोश जुबां पर जो शब्द होते हैं , उस पत्रकार के ...

नादान ……नासमझ …….पागल  दीवाना
सबको  अपना  माना  तूने  मगर  ये  न  जाना …
मतलबी  हैं  लोग  यहाँ  पैर  मतलबी  ज़माना
सोचा  साया  साथ  देगा  निकला  वो  बेगाना
बेगाना …….बेगाना ….
अपनों  में  मैं  बेगाना  बेगाना

         कुछ ऐसा ही तो होता है न ?  यहां मैं कि किसी एक पत्रकार की बात नहीं कर रहा हूं। हममें से बहुतों के साथ ऐसा होता ही रहा है। श्रमिक पत्रकार जो ठहरे हम , यूं भी कह लें कि हर क्षेत्र में कुछ ऐसा ही होता है। वफादारी की इतनी कीमत इस जुगाड़ तंत्र में चुकानी ही पड़ती है।  ऐसे में तब बस एक ही भरोसा होता है, वह है हमारी दुआ। हमारे शुभचिंतकों का स्नेह एवं हमारे मित्रों का कर्तव्य हमें नवजीवन  देता है । यदि हम किसी कारण पहले की तरह स्वस्थ्य नहीं भी हुये, तो भी हममें इतना आत्मबल तो निश्चित ही विकसित हो जाता है कि हम मृत्यु को एक बार पुनः ललकार सकते हैं और अपनी लेखनी को पहले से कहींं अधिक समाज को समर्पित कर सकते हैं। ठोकर खाने के बाद हमारे पांव अब धरातल पर होता है, ऐसे में हम दिवास्वप्नों में ही उलझे नहीं रह जाते हैं। जिन्होंने हमें स्नेह दिया , नवजीवन दिया,  उनकी छवि हमें प्राणी मात्र में दिखने लगती है। यही तो जीवन का लक्ष्य होता है न मित्रों ? अपने पत्रकारिता समाज पर एक बार फिर बहुत कुछ लिखना चाहता हूं, मन का वर्षों पुराना दर्द विस्फोट करने को है, पर क्या मिलेगा इससे। हमारे एक बड़े भाई जो ढ़ाई- तीन दशक से पत्रकारिता के प्रति समर्पित रहे हैं, करीब 18-20 दिनों से अस्पताल के बेड पर पड़े रहें । पुलिस एवं अपराध से जुड़ी खबर की जानकारी उनसे बेहतर तो इस जनपद में किसी के पास नहीं रहती। सो, उनकी तूती बोलती थी। लेकिन, जब वे बिस्तर पर गिरे , तो  उन्हें उठाने कौन आगे आया , जानते हैं  आप ? हमारे जैसे साथी पत्रकार  के अनुरोध पर यह समाज ही आगे आया। यह वही समाज है जिसे हम अकसर बेगाना कहते रहते हैं, लेकिन वह तो अपना निकला। सच तो यह है कि संवेदनाएं हमारी मरी नहीं है, बस वह इस जुगाड़ तंत्र की शिकार हो गई है, कुंठित हो गई है और राह भटक गई है।
      सोशल मीडिया पर उनके लिये सहयोग की अपील करने में ही हाथ कांप उठा था मेरा उस दिन , क्यों कि अस्पताल के वार्ड में बेड पर पड़े वरिष्ठ पत्रकार मित्र की आंखों में एक दर्द निश्चित ही रहा, कितनों का उन्होंने इसी अस्पताल में इलाज करवाया था और आज वे असहाय से निढ़ाल पड़े थें। फिर ठान लिया हम साथियों ने कि अब कुछ करना है और सोशल मीडिया पर मैंने यह पोस्ट किया कि
  " साथी हाथ बढ़ाना ... एक अकेला थक जाएगा , मिलकर बोझ उठाना "
   फिर क्या था  दुआओं का असर दिखा । जनप्रतिनिधियों , समाजसेवी जनों एवं आम आदमी  तक ने हम पत्रकारों के लिये संकटमोचन की भूमिका निभाई। सो, पर्याप्त धनराशि और चिकित्सकीय व्यवस्था हो गई। यही हमारी कमाई है कि यदि सहयोग के लिये  पुकार लगते ही समाज आगे आता है। भले ही संस्थान आये ना आये। पर यह याद हम पत्रकारों को भी सदैव रखना चाहिए कि हमारी लेखनी संस्थान की ही गुलामी न करती रहे , उसे जनहित में चलनी चाहिए। अपनी बात कहूं, तो जब अपनो ने निठल्ला सम़झ कर बेगाना बना दिया था, कोई तीन दशक पहले। जब अपना स्वयं का घर होने के बावजूद रेलवे स्टेशन की कुर्सियों पर रातें गुजारीं , तब भी अपना यही समाज ही तो आगे आया मेरे लिये भी । था क्या मैं इस अनजाने शहर में, एक बंजारा ही न ? पर किसी ने भोजन दिया, तो किसी ने रहने का ठिकाना, मान मिला , पहचान मिला । आज भी इन्हीं स्नेही जनों के कारण  ही रोटी और मकान की मेरी व्यवस्था है। वे जानते हैं कि मैं समाज की सम्पत्ति हूं, उनका धन हूं।  उनका मेरी प्रति यह जो विश्वास है न , वह किसी खजाने से कम नहीं है मेरे लिये ।अन्यथा वर्ष 1999 में जब मामूली सा सर्दी-जुखाम  मेरे लिये घातक मलेरिया रोग में बदल गया। जो आज तक इस दुर्बल शरीर को पीड़ा दिये ही जा रहा है  आज तो काफी तकलीफ में रहा ।  सो, अकसर ही मन को समझता हूं कि देखो साथी हो सकता है कि हमने जाने- अंजाने में हमने कोई बड़ा पाप किया हो, किसी की बद्दुआ ली हो, तभी यह मामूली सा रोग नासूर बन बैठा है। फिर भी इतना तो तय है कि कुछ अच्छे कार्य मैंने भी निश्चित ही किये हैं  कि मेरा जीवन, मेरी लेखनी एवं मेरा चिंतन उचित मार्ग पर है। अपनी चदरिया में जो दाग लगा है, उसे यहीं प्रायश्चित से पवित्र करना है। सत्य के मार्ग पर चलना है। कोई न कोई मददगार आएगा, इतना विश्वास रखना होगा हमें। इसलिये जो कष्ट आया है, हे मन ! उसे सहर्ष स्वीकार कर लो , मेरा अब लगातार यही एक प्रयास चल रहा है। माना कि मैं अब कभी स्वस्थ नहीं हो सकता , फिर भी औरों के लिये कुछ कर तो सकता हूं । ऊपरवाले का यह रहम क्या कम है ? यह भी तो हमें स्मरण रहना चाहिए कि...
      मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है।
      जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है।

    इसलिये बिना किसी शिकायत के हमें अपना सामाजिक उत्तरदायित्व पूरा करना चाहिए , ताकि यह कहते हुये इस खुबसूरत जहां से विदा ले सकें...

     रहें ना रहें हम, महका करेंगे ,
     बन के कली, बन के सबा, बाग़े वफ़ा में ।

Friday 17 August 2018

बाधाएं आती हैं आएं, कदम मिलाकर चलना है



अटल जी ऐसे राजनेता रहें , जिनका कर्मपथ अनुकरणीय है। उनके सम्वाद में कभी भी उन्माद की झलक नहीं दिखी
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राजनीति की यह दुनिया जहां मित्र कम शत्रु अधिक हैं । उसमें ऐसा भी एक मानव जन्म लेगा, जिसके निधन पर हर कोई नतमस्तक है। यह भी एक आश्चर्य से कम नहीं है । क्यों कि उसने इंसान को इंसान बनना सिखलाया है-

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी
ऊंचा दिखाई देता है।
जड़ में खड़ा आदमी
नीचा दिखाई देता है।
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।

     यह उस शख्स की कविता की पंक्तियां हैं ,जो अब हमारे बीच  नहीं रहा। लेकिन, इस जहां से कूच करने से पहले उसने उसने अपने - पराये सभी का दिल जीता था। वह एक आदमी से ऊपर उठ कर महामानव बना था। जब वह भारत का प्रधानमंत्री बना था। देश की जनता को उस पर विश्वास था कि उसकी नाव (राष्ट्र) कुशल खेवनहार के हाथों सुरक्षित है। जिसके हृदय एवं वाणी में जाति- धर्म की बू नहीं हैं। वह नाविक जो  निःसंकोच यह उद्घोष करता हो -

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

     अतः यह सत्य है कि राजनीति के पटल पर अजातशत्रु कहलाने वाले भारत रत्न  पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा व्यक्तित्व विरले ही किसी को प्राप्त होता है इस जगत में। मेरे पिताजी जिन्हें राजनीति में कोई रुचि नहीं थी, यदि बनारस में अटल जी की जनसभा होती थी, तो उनका प्रयास रहता था कि वे भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएं। यहां बात उस समय की है , जब जनसामान्य के घरों में टेलीविजन नहीं हुआ करता था। मुझे स्वयं अटल जी के बाद किसी अन्य राजनेता का भाषण  सुनने में कोई रुचि नहीं है।  लेकिन पत्रकार जो हूं, इसलिये बड़े राजनेताओं की जनसभा में समाचार संकलन के लिये तो जाना ही पड़ेगा। यदि कथनी एवं करनी में फर्क हो तो फिर भला ऐसे राजनेताओं की बातों को सुनने में क्यों अपना समय व्यर्थ किया जाए। टेलीविजन पर ऐसे डिबेट कार्यक्रम मुझे तनिक भी पसंद नहीं है। यहां मछली बाजार जैसा दृश्य और शोर है।  सो, टेलीविजन नहीं देखने के कारण भले ही देश - दुनिया के समाचार मेरे पास विलंब से पहुंचते हो। फिर भी  झूठ की इस सियासी दुनिया से बच के निकल ले रहा हूं, यह क्या कम है।
           जहां तक मेरा मानना है कि यह ठीक है कि हर कोई महान नहीं बन सकता है,पर वह इंसान निश्चित ही बन सकता है। अपने मोहल्ले एवं गली का लाल तो कहला ही सकता है। हां,  इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी  एक आदर्श ( पुरुष / स्त्री )  को दर्पण की तरह अपने सामने रखना होगा। ताकि जब भी हमारा अहंकार जागृत हो, किसी उलझन का सामना करना पड़े, चकाचौंध भरे इस जगत और जुगाड़ तंत्र के प्रति आसक्ति का भाव उत्पन्न हो, तब हम अपने विचलित मन को सावधान कर सके। जैसे मैं करता हूं , जब कभी मेरे मन में यह भाव आता है कि क्यों यह सादगी भरा जीवन व्यतीत कर रहा हूं। पहचान वाला पत्रकार हूं , इसीलिये सामने इस कलयुग का स्वर्ण कलश है। जुगाड़ मेरा भी कोई कम नहीं है,  फिर भी सादगी की प्रतिमूर्ति बनने में जुटा हूं ?  इस समाज के उपहास से , या फिर षड़यंत्र के मकड़जाल जाल से जब मन अत्यधिक वेदना से भर उठता है। तो पांव स्वतः ही उसी दलदल के समीप जाने को मचलते हैं। जिसमें ढ़ेरों लोग पहले से ही फंसे हैं। ऐसे में किसी महामानव की वाणी गूंजती है कानों में-

जन्म-मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा,
आज यहां, कल कहां कूच है,
कौन जानता, किधर सवेरा,

      हर एक शब्द का अपना अर्थ है। सो, पथिक चौक उठता है, जीवन के सत्य का उसे अहसास होता है  और व्याकुलता का हरण होता है। मैं ईश्वर को नमन करूँ ना करूँ ? पर  गांधी और शास्त्री जी की सादगी के समक्ष अपने इस अभिमानी शीश को  निश्चित ही झुकाता हूं। उसे बताता हूं कि तुम्हारा हर त्याग इनके समक्ष तुक्ष्य है।  इसलिए कहना चाहता हूं मित्रों , भाइयों और बहनों कि यदि आप राजनीति के गलियारों से निकल कर सत्ता के चौखट पर पहुंच गये हो। तो " अटल " बनो। एक कुशल बाजीगर भी मजमा जरूर लगा सकता है। वह जनता को भरमा कर सत्ता का ताज  पहन सकता है।  पर पर्दे का राज बाहर आने  का भय उसे सदैव ही बना रहता है। इसलिये वह जुमलेबाजी करता है , मनमानी करता है और जनता से ताली बजवाते रहता है।  लेकिन जब भी एक सच्ची और अच्छी कविता के इन शब्दों-

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है

  से उसका जुमला टकराता है। तो फिर सारा स्वांग वहीं स्वाहा हो जाता है।
                   एक बाजीगर एक तानाशाह चाहे,जितनी भी ऊंचाई पर पहुंच जाएं , फिर भी मृत्यु के पश्चात वह अटल तो नहीं ही हो सकता है। तब उसका कूटजाल  टूट चुका होता है, फिर कब्र में अकेले वह पड़ा होता है। वहीं , राजनीति के काजल की कोठरी में भी जो बेदाग ही रहता है, वहीं तो  "अटल " होता  है।  उसमें ही मृत्यु को ललकारने का सामर्थ्य है-

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
और
ठन गई !
मौत से ठन गई है...

    जब तीसरी बार गठबंधन वाली उनकी सरकार बनी, तो प्रतिपक्ष ने पुनःउपहास किया था। लेकिन उस बार कुछ ऐसे डटे रहे " अटल " कि फिर कोई यह नहीं  कहता है तभी से  किसी से कि गठबंधन की सरकार टिकाऊ नहीं होती  है।  उनकी यह गर्जना-

अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

आखिरकार सार्थक हुई। उनके कार्यालय की स्वर्णिम चतुर्भुज  सड़क परियोजना एक मिसाल है। लेकिन दुर्भाग्य देखें की  कि अब तो चहुंओर नई सड़क गड्ढ़े वाली का शोर है। भ्रष्ट तंत्र की भुलभुलैया में ईमान राह भटक रहा है। स्थिति कुछ ऐसी हो गयी है अब  -
 
बिना कृष्ण के,
आज महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
 
     स्थिति चाहे जैसी भी हो, पर याद रखें कि हैं तो हम माटी के पुतले ही। एक समय ऐसा भी आता है, जब शरीर साथ छोड़ने को होता है, हम अपनी ही पहचान भूलने लगते हैं। तब हमारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमारी पहचान कराता है। हमारे क्षणभंगुर जीवन को चिरंजीवी बनाता है।


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (बाधाएं आती हैं आएं, कदम मिला कर चलना है ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
बहुत बहुत धन्यवाद, इस उत्साहवर्धन के लिये । शब्द नगरी परिवार को
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Wednesday 15 August 2018

यादों के झरोखे में तुझको बैठा रखूंगा अपने पास

नाग पंचमीः अपना भी बचपन था कभी !

        सुबह जैसे ही मुसाफिरखाने से बाहर निकला ,  "ले नाग  ले लावा " बच्चों की यह हांक चहुंओर सुनाई पड़ी। मीरजापुर में इसी तरह की तेज आवाज लगाते गरीब बच्चे एक झोले में लावा और नागदेवता के रंगबिरंगे फोटो लिये दरवाजे- दरवाजे दस्तक देते आ रहे हैं, कितने ही वर्षों से , हालांकि इस तरह से गला फाड़ कर हांक लगाना मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। इन बच्चों की आवाज में वह मासूमियत नहीं रहती है , जो मेरे बनारस की गलियों में बचपन में सुनाई पड़ती थी  कि " छोटे गुरु क बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो "। एक मिठास थी उन बच्चों की आवाज मेंं। तब सामान्य परिवार के बच्चे भी निकला करते थें।
   बचपन की उन मीठी स्मृतियों में कुछ देर और खोना चाह रहा था कि तभी तेज बारिश शुरू हो गयी। साइकिल किनारे की और रेनकोट पहनने से पूर्व मोबाइल के स्क्रीन पर नजर डाली , देखा कि सुबह के पांच बच चुके थें। फिर भी अखबार का बंडल लेकर जीप नहीं आयी थी अभी तक। करीब पौन घंटे विलंब से वह आयी और फिर शुरू हुआ ढ़ाई घंटे का मेरा साइकिल से वही रोजाना की तरह सड़क तथा गलियों को नापने का सफर । इस दौरान बारिश में कुछ भींग भी गया था और पिछले सप्ताह भर से सर्दी-जुखाम के कारण बुखार भी चढ़ उतर रहा है। तभी, बारजे पर खड़े मेरे प्रति स्नेह रखने वाले अग्रज तुल्य अजय शंकर भैया ने आवाज लगाई कि शशि चाय पीकर जाओ। सो, साइकिल खड़ी की कदम कुछ लड़खड़ा रहे थें कमजोरी से , लिहाजा कोई आधे घंटे वहीं ठहर गया। वे भी पुराने पत्रकार हैं। सो, पत्रकारिता जगत में जनपद स्तर पर क्या स्थिति है उसपर चर्चा शुरू हो गयी। जिसके केंद्र में वरिष्ठ पत्रकार दिनेश उपाध्याय रहें। जो पखवारे भर से जिला अस्पताल में भर्ती हैं। दरअसल, पचास वर्ष की अवस्था के बाद यदि हम वास्तव में श्रमिक पत्रकार हैं, तो फिर शरीर साथ छोड़ने लगता है। अभी दो दिन पूर्व ही मेरे प्रति अत्यधिक स्नेह रखने वाले राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भैया प्रभात मिश्र भी अचानक गंभीर रुप से अस्वस्थ हो गये थें।  बाइक खड़ी कर जैसे ही मंडलीय चिकित्सक पहुंचे हिम्मत जवाब देने लगी उनकी। किसी तरह से एक संदेश उन्होंने दिया कि शशि जल्दी आ जाओ। यह जो तरह- तरह का दबाव हमलोगों पर प्रेस की  तरफ से रहता है न, वह मीठे जहर की हमारे स्वास्थ्य को लगातार क्षति पहुंचाता रहता है। यही नहीं परिवार के सदस्य विशेष कर श्रीमती जी आगबबूला हुये रहती हैं कि दिन भर घर से गायब रहते हो फिर भी जेब खाली, भाड़ में जाये तुम्हारी पत्रकारिता।  फिर भी पत्रकारिता के प्रति हमारा मोह हमें तब तक अपने से दूर नहीं जाने देता , जब तक बिस्तरे पर ना गिर जाऊं । ऐसे में मुझे अपने अपना पसंदीदा गाना याद आ गया...

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ
जी चाहे जब हमको आवाज़ दो
हम हैं वहीँ हम थे जहां
अपने यहीं दोनों जहाँ

खैरे,  मैं अपने एक और मित्र डा0 योगेश सर्राफा के प्रतिष्ठान पर गया। उसके बाद बारिश में ही प्रमुख फर्नीचर व्यवसायी संदीप भैया के प्रतिष्ठान पर , जहां राष्ट्रीय पर्व पर ध्वजारोहण की विशेषता यह है कि मुहल्ले भर से अमीर- गरीब  सभी एकत्र होते हैं। संदीप भैया स्वयं भारी मात्रा में हलवा बनाते हैं। सभी प्रसाद के रुप में उसे ग्रहण करते हैं साथ ही जो भी श्रमिक, याजक , वृद्धजन एवं बच्चे उधर से गुजरते रहते हैं, घंटों उन्हें दोने में भर-भर के हलवा दिया जाता है। एक धन सम्पन्न व्यक्ति जब बिना किसी स्वार्थ भाव के इस तरह का सामाजिक कार्य करता है, तो ऐसे महायज्ञ के हवनकुंड से निकलने वाली सुंगध मुझे सदैव आह्लादित करती रही है। नहीं तो एक पत्रकार होने के कारण अनेक जगह आमंत्रित मुझे भी किया गया था। पर , सच बताऊं मैं कहीं भी जाता नहीं, बहाना बना टाल देता हूं । कलेक्ट्रेट और पुलिस लाइन में आयोजित कार्यक्रम में भी नहीं। किसी क्लब के समारोह में तो बिल्कुल भी नहीं। ये बड़े लोग (धनिक जन ) अपने फंक्शन में कभी - कभी जो दानदाता होने का दिखावा करते हैं। वह मुझे पसंद नहीं है। किस तरह से किसी महिला को सिलाई मशीन देने के लिये या फिर किसी वृद्ध को कंबल देने के लिये अपने दानवीर होने और उस निर्धन जन की गरीबी की नुमाइश लगाते हैं वे वहां । उसकी फोटोग्राफी भी करवाते हैं। फिर अपने दानदाता होने के प्रमाण पत्र के रुप में उसे हम पत्रकारों से प्रकाशित करवाते हैं। अतः जहां अमीर- गरीब का भेदभाव हो,वहां जाकर ताली बजाना मुझे पसंद नहीं है।
     अतः अखबार से खाली हो कर दलिया बनाया  फिर महसूस हुआ कि बुखार और दर्द कुछ अधिक ही है। लिहाजा कमरे पर जा कर सो गया। दोपहर बाद उठा तो साल के प्रथम पर्व पर जब अकेलेपन का फिर से एहसास होने लगा। व्याकुल मन यह कहने लगा -

     एक वो भी दिवाली थी, एक ये भी दिवाली है
       उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है ...

फिर तभी अचानक नागपंचम की बचपन की अनेक यादों स्मृतियों में आती चली जा ही रही रही हैं। जब बनारस में था,  तो किस तरह से घर के सभी दरवाजे पर नागदेवता का फोटो लगा कर पूजा होती थी । जिसे हम तीनों ही बच्चे निहार करते थें। अपने पसंद के नाग देवता के फोटो खरीद कर लाते थें। वैसे, हम भाई -बहन को घर से बाहर जाने की इजाजत तो नहीं थी। सो, गलियों से गुजरते अन्य बच्चों की टोलियों को बस देखा करते थें हम। पूड़ी- कचौड़ी साथ में खीर भी भोजन में मिलता था। वह गरीबी के दिन थें, फिर भी हम बच्चों की खुशी के लिये क्या क्या- नहीं होता था। वहीं कोलकाता में था, तो वहां सादे कागज पर बड़े गुरु और छोटे गुरु  दोनों नागदेवता को मैं स्वयं बनाता था, क्यों वहां इनका फोटो तब नहीं मिलता था, न ही यह पर्व वहां प्रसिद्ध है। किशोर हुआ तो बनारस में घर के सामने अखाड़े में ताल ठोंकते पहलवानों को देखने पहुंचे जाता था। फुलाया हुआ चना और बताशा हम सभी को मिलता था। लेकिन, मां (नानी) की मृत्यु के बाद न तो कोलकाता को कभी भूल पाया, न ही उस नटखट पन को। पता नहीं मेरी शरारत पर एक दिन मां ने ऐसा क्यों कह दिया कि मुनिया सता ले , पर जब नहीं रहूंगी, तो दुख सहेगा तब समझेगा। मां की उस झिड़क पर मैंने उनकी गोद में सिर रख दिया। पता नहीं लाड प्यार में मैं इतना शैतान कैसे हो गया था।  वह चेतावनी आखिर सच हो गयी है। फिर भी इस एकांत में ऐसा क्यों लग रहा है कि मां सामने ही खुले उसी सोफे पर बैठी हुई है। जिस पर एक तरह से उनकी आधी गृहस्थी सजी रहती थी। हो, सकता है कि उन्हें भी मेरी प्रतीक्षा हो। परंतु अभी तो मेरा मन इस गीत को सुनना चाह रहा है-

मगर रोते-रोते हंसी आ गई है
ख़यालों में आके वो जब मुस्कुराए
वो जब याद आए बहुत याद आए...

      मेरा तो यही मानना है कि इंसान ( स्त्री- पुरूष)  प्रेम में भले ही धोखा खा जाए । वह दूध पिलाने के बावजूद सर्प बन डस ले। लेकिन जो स्नेह करते हैं , वे रहें न रहें फिर भी उनका आशीर्वाद सदैव संग रहता है। मैंने इन्हीं स्मृतियों के सहारे हर वेदना, हर धोखे को सहन किया है। साथ ही इस दर्द से उभर कर एक खूबसूरत समाज हो, इसके लिये कुछ चिंतन भी कर लेता हूं।



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (यादों के झरोखे में तुझको बैठा कर रखूंगा अपने पास ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद शब्द नगरी परिवार को इस स्नेह के लिये
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Sunday 12 August 2018

ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझ पे दिल कुर्बान


सवाल यह है कि तिरंगे की आन, बान और शान के लिये हमने क्या किया
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एक बार बिदाई दे माँ घुरे आशी।
आमी हाँसी- हाँसी पोरबो फाँसी,
देखबे भारतवासी ।
          अमर क्रांति दूत खुदीराम बोस की शहादत से जुड़ा यह गीत, मैंने राष्ट्रीय पर्व पर कोलकाता में अपने विद्यालय में तब सुना था,जब मैं कक्षा 6 का छात्र था। मात्र 19 वर्ष की अवस्था में खुदीराम आजादी के दस्तावेज पर सुनहरे अक्षरों में अपना हस्ताक्षर बना बढ़ गये , उस मंजिल की ओर जिसके समक्ष यदि अमृत कलश भी मिल जाए,तो बेमानी है। बंगाल का हर शख्स इस बालक के चरणों में नतमस्तक दिखा था मुझे उस दिन।
       इस दुनिया की यही सच्चाई है कि समर्पित भाव से किया गया हमारा एक कार्य ही हमारी पहचान को बनाने अथवा  बिगड़ने के लिये पर्याप्त है। कितने ही लोग तो रोजना खुदकुशी करते हैं। इन दिनों सामूहिक आत्महत्या की खबरें भी सुर्खियों में हैं । इन कर्महीन, अवसादग्रस्त , अंधविश्वासी लोगोंं के जीने - मरने से क्या फर्क पड़ता है, समाज एवं राष्ट्र को। परिजन भी तो शोक मनाने के बाद इन्हें भुला देते हैं। सवाल बड़ा यह है कि इस धरती पर मानव तन लेकर आये तो, पर क्या छोड़ कर गये और क्या लेकर गये। इस तरह से मृत्यु को प्राप्त लोगों की तस्वीर भी उन्हीं के घरों में लगा मैं कम ही देखता हूं। शायद ऐसा करने से लोग इस लिये झिझकते हैं कि कहींं कोई टोक न दे, पूछ न ले कि भाई साहब आपके फलां...ने क्यों आत्महत्या कर ली। परंतु खुदीराम बोस की तस्वीर जहां भी दिखेगी पश्चिम बंगाल में , यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि उन्होंने फांसी के फंदे को सहर्ष क्यों अपनाया । जो लोग मानवता की रक्षा, राष्ट्र की स्वतंत्रता और समाज की समरसता के लिये तपते हैं ,लड़ते हैं और कटते हैं। उनका बलिदान कभी व्यर्थ नहीं होता। तभी मेरा वह बाल मन खुदीराम बोस एवं उस बांग्ला गीत को नहीं भूल पाया आज भी, जबकि मेरी अवस्था करीब पचास वर्ष होने को है। आज भी कोलकाता स्थित विद्यालय का प्रांगण और मंच याद है। अब की तरह ढ़ेरों रंगारंग कार्यक्रम वहां स्कूल में नहीं होते थें तब , वरन्  अमर बलिदानियों के जीवन और संघर्ष पर प्रकाश डालने के लिये नाटक मंचन होता था। दुर्भाग्य से अब ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर देश प्रेम के नाम पर नौटंकी होने लगी है। जो जितना बड़ा मक्कार और गद्दार है , वह उतना बड़ा जनसेवक बन बैठा है। हम नहीं पहचान पा रहे हैं कि इन सफेदपोश में से कौन गांधी और शास्त्री है। सत्ता पाते ही इनका चाल, चलन, चरित्र एवं चिंतन सब कुछ बदल जा रहा है। इनकी सोच , इनकी पहचान और इनकी नियत बदल जाती है। ये कृत्रित प्रकाश कर समाज को गुमराह भी कर लेते हैं। पर याद रखें कहीं किसी कोने में ईमानदारी का एक दीपक भी जल जाएगा, तो ऐसे बनावटी लोग टिक नहीं पाएंगे उसके समक्ष। क्यों कि दीपक त्याग का प्रतीक है। दीये की बाती स्वयं जलती है, तब हमें प्रकाश मिलता है। इसीलिये तो सूरज से दीपक की तुलना ही होती है। अतः मित्रों हमें अपने आसपास और जहां तक हमारी नजरें जा सके, वहां तक भी, पूरी ईमानदारी के साथ ऐसे दीपक को तलाशते रहना है। और यह जिम्मेदारी सबसे अधिक हम प्रबुद्धजनों की है। साहित्यकार की है, पत्रकार की है, चिन्तक की है और समाज सुधारक की है। क्यों कि हमारे पास ही वह विचार है, वह चिंतन है और वह लेखनी है, जो भटके हुये समाज को सही राह दिखला सके। उसके ईमान को जुगाड़ तंत्र के हाथों बंधक बनने से बचा सके।  देखें न क्या होता है अब ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर , जब भव्य मंच पर ऐसे माननीयों के हाथों अपने प्यारे तिरंगे की डोर  सौंप दी जाती है, जिनका जरायम की दुनिया में कभी ऊंची पहचान रही हो। वे मृत्यु को छाती से लगाये जरुर रहते थें, लेकिन धन कमाने के लिये , औरों को मौत की नींद सुलाने के लिये। अब उसी धन से और जुगाड़ तंत्र के सहयोग से माननीय बन बैठें है। धनबल, जातिबल और बाहुबल का यह मकड़जाल आम आदमी को कहां ले जा रहा है। जरा विचार करें बंधुओं। मैं एक पत्रकार हूं, इसीलिये कह रहा हूं कि हम भी इन्हीं  नकाबपोश समाजसेवियों के पीछे भाग रहे हैं। उनके चरणों में नतमस्तक है हमारी लेखनी। फिर तिरंगे की आन , बान और शान की सुरक्षा के लिये हमने क्या किया, यह कभी तो खुदीराम जैसा कोई क्रांतिवीर स्वप्न में आकर हमसे निश्चित ही पूछेगा कि उनमें से कितनों को फांसी का फंदा चूमना पड़ा और कितनों ने गोली खाई थी, देश की आजादी के लये । वहीं तुम झूठन खाने के लिये ऐसे भ्रष्ट सफेदपोश लोगों का चरण वंदन कर रहे हो, जिनके अपराध के संदर्भ में तुम्हें बखूबी जानकारी है । क्या अंतरात्मा धिक्कारेगी नहीं तुम्हें। इनका साथ पाने के लिये, इनके पापयुक्त धन में गोता लगाने के लिये । हम जैसे पत्रकारों की बात करे, जो इनसे विज्ञापन पाने के लिये इन्हें समाज सेवक बता रहे हो, लिख रहे हो , छाप रहे हो, आम आदमी के बीच अपना उपहास करवा रहे हो। धिक्कार है हमारी लेखनी पर , हमारी बौद्धिक शक्ति पर और हमारे मानव तन पर भी। सो, उचित यही है कि इसी बदबूदार नाली में पड़े रहो, सड़ते रहो और मृत्यु को प्राप्त हो जाओ। क्यों कि तुम्हें इतने बड़े समाज में वह व्यक्ति तो दिखाई ही नहीं पड़ता , जो समर्पित भाव से अपना कर्म कर रहा है। उसकी खोज में तो निकलना ही नहीं है हमें। कारण वह शख्स जो स्वयं भूखा-नंगा हो, वह हमें क्या भौतिक सुख देगा ? पर मित्रों यह न भूलें कि वह हमें पहचान देगा, सम्मान देगा और स्वाभिमान देगा। वह हमें आत्मबल देगा।  वहीं हमारी असली पाठशाला है। जिसके बारे में हमें इस गुमराह समाज को बताना है, उसे जगाना है और सत्य का मार्ग दिखलाना है। ऐसे बलिदानी लोगोंं की जीवनी जब भी हम पढ़ेंगे, हमें अपना त्याग तुक्ष्य नजर आएंगा। हताशा- निराशा का बादल छंटेगा एवं प्रकाश नजर आएगा। घर छोड़ कर जब निकला था पेट की भूख शांत करने के लिये तो यूं ही मैं पत्रकारिता में आ गया था , ढ़ाई दशक पहले। जो रंगमंच मुझे सौंपा गया। जिसके लिये मैं कहींं से योग्य नहीं था। शिक्षा की कोई बड़ी डिग्री मेरे पास नहीं थी। फिर भी मैंने ईमानदारी से अपने कर्मपथ पर चलते हुये अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। हां, यहां ठीक से दो जून की रोटी तो कभी नहीं मिली मुझे , लेकिन सम्मान मिला, पहचान मिली और जब आंखें बंद करूंगा , तो मेरे मुखमंडल पर एक मुस्कान आपकों मिलेगी , भले ही करीब दो दशक से क्यों न बीमार ही रहता हूं। यह आत्मबल है मेरा, जिसे मैंने इसी पत्रकारिता से पाया है। पर अभी बहुत कुछ लिखना है ,अपने राष्ट्र और समाज के लिये। जिसे पूर्ण करने के पश्चात ही मुझे यह कहने का अधिकार है कि

  " खुश रहना देश के प्यारो अब हम तो सफर चलते है।"


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - ( ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझ पे दिल कुर्बान ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद शब्द नगरी परिवार को और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं
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Friday 10 August 2018

जहाँ में ऐसा कौन है कि जिसको ग़म मिला नहीं



" दुख और सुख के रास्ते, बने हैं सब के वास्ते
जो ग़म से हार जाओगे, तो किस तरह निभाओगे
खुशी मिले हमें के ग़म, खुशी मिले हमे के ग़म
जो होगा बाँट लेंगे हम
जहाँ में ऐसा कौन है कि जिसको ग़म मिला नहीं "

     इंसान के जीवन का एक  हिस्सा वेदना से
भरा होता है। यदि एकाकी जीवन है तो इस दौरान उसकी व्याकुलता  कुछ अधिक ही बढ़ जाती है,पर यदि संग कोई साथी है, तब  फिर  " तुम्हारे प्यार की क़सम, तुम्हारा ग़म है मेरा ग़म " उसके  इस अनुगूँज में यह दर्द, यह पीड़ा, यह दुःख, यह संताप, यह शोक यह कष्ट , यह व्यथा निश्चित कम हो जाती है। लेकिन, ऐसा खुशनसीब हर कोई तो नहीं है न ? इस दुनिया में मेरे जैसे भी अनेकों लोग हैं। जिनका जीवन उस सुलगते हुये सिगरेट की तरह है , जो जितना धुआं फेंकेगा उतना शीघ्र नष्ट हो जाएगा। ऐसे में तप्त हृदय पर शीतल बौछार की आवश्यक होती है। जिसका सृजन भी स्वयं ही करना पड़ता है मुझ जैसे इंसानों को। जानते हैं वह क्या है  ? यह है रुदन बंधुओं । वैसे , तो वेदन में भी एक शक्ति है। जो यातना में है उसकी दृष्टि विकसित होती है , तब वह दृष्टा बन सकता है। सिद्धार्थ की वह वेदना ही तो थी,जिससे मुक्ति के लिये वे अपना सम्पूर्ण वैभव त्याग कर उस सुख की खोज में निकल पड़े,जिस ज्ञान को प्राप्त कर वे गौतम बुद्ध कहलाये।  वह मुक्ति पथ इसी वेदना में है।
       लेकिन, रुदन के पश्चात ही ऐसा सम्भव है। जब हृदय का भारीपन नेत्रों से नीर बह कर बहता है, तभी तन- मन दोनों ही विश्राम और नव चिन्तन की स्थिति में आता है। रुदन के बाद अपनी मन- मस्तिष्क की स्थिति पर कभी आपने विचार किया क्या ? किस तरह से यह पुनः उर्जावान हो उठता है।
      मुंशी प्रेमचंद ने " गबन " में लिखा है , " रुदन में कितना उल्लास, कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठ कर किसी की स्मृति में , किसी के वियोग में सिसक -सिसक और बिलख- बिलख कर नहीं रोया , वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हंसिया न्योछावर है। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है।  हंसी के बाद मन खिन्न हो जाता है, आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गये हों, रुदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। "
      पर हमें यह भी याद रखना है कि पृथ्वी तल सिर्फ रोने के लिये ही नहीं है। हमें अपनी आंसुओं के इस सागर में वह राह तलाशनी है,जो पथिक को मंजिल तक ले जाए । मैं स्वयं इसी  मार्ग पर आगे बढ़ चला हूं, अन्यथा लिखता नहीं यह सब , क्यों कि पहले भी बता चुका हूं कि मैं कोई उपदेश थोड़े ही हूं।  बस अपने जीवन कुछ संस्मरणों को सामने रख , स्वयं को टटोल रहा हूं कि यह जीवन सफर कहां तक पहुंचा। भले ही किसी ने कहा हो कि इसका नाम है जीवनधारा, इसका कोई नहीं है किनारा।
  मुझे भलीभांति याद है कि प्रथम वेदना का एहसास मुझे तब  हुआ था । जब दर्जा पांच में पढ़ता था और  विद्यालय में अपने कक्षा की  खिड़की से गंगा में औंधे मुंह पड़े लाल रंग का गमछा लपेटे गौरांग युवक के शव को देखा था। किसी मृत व्यक्ति को तब मैंने पहली बार देखा था। फिर मैं कितनी ही रात सो नहीं सका था , शायद रो लेता तो वह मृत्यु भय , जो अपने प्रियजनों के वियोग को लेकर अचानक प्रथम बार मेरे बाल मन में उपजा था, कम हो जाता। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और आज चार दशक बाद भी ना जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है कि में उसी खिड़की से सटे हुये बेंच पर बैठा हुआ हूं। मोटे वाले गुरु जी कुछ पढ़ा रहे हैं, परन्तु मेरी नजर उस युवक के बहते शव पर है। इसके पश्चात अब तक के जीवन में सबसे बड़ा शोक मुझे तब हुआ, जब कोलकाता में मां (नानी) गुजर गयी । तब 13 वर्ष का ही था मैं, पहली बार हरि बोल कहते हुये शव यात्रा में शामिल हुआ था। महाश्मशान पर वहां अपनी प्यारी मां का चिता सजते और जलते हुये देखा था। और उनके पार्थिव शरीर को किस तरह से सजाया गया था वह भी देखा। जिनके साथ दो महीने पहले ही तो अपनी आखिरी दीपावली मैंने मनाई थी। उन्हें कितनी ही बार बाबा मृत्यु के मुंह से खींच कर बाहर निकालते ही रहे थें। परंतु उस बार ऐसा नहीं हुआ। इस सदमे के बावजूद बाबा  नहीं रोये , तो लाल हो गई उनकी डरावनी सी आंखों को मैं आज तक नहीं भूला पाया हूं। वहीं,मैंने भी रुदन नहीं किया। बस बगल वाले कमरे में एकांत में बारजे से गुमशुम कभी सड़क को , तो कभी आसमां को निहारता रहा। परिणाम सामने है , तभी से ना तो मैं कोई पर्व मनाता हूं , न ही अपना जन्मदिन । कहां से कहां नहीं भागता फिरा , फिर भी उस एकांत कमरे को मैं अपनी स्मृति से नहीं निकाल पाया। वह घटनाक्रम मेरे लिये एक संदेश था , भविष्य में इस वेदना के चरम पर पहुंचने का  !  फिर तो कोई तीन दशक के एकाकी सफर में मैं एक- एक कर के  हर अपनों को खोता ही चला गया। किस - किस पर रुदन करूंं।
       वर्षों पूर्व इकलौते पुत्र को खोने के बाद रुदन करते मैंने ताई जी को देखा था। तीन पुत्रियों के बाद पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। आज्ञाकारी पुत्र थें विक्की बाबू। परंतु एक दुर्घटना में युवा होने से पूर्व ही साथ छोड़ गये। ताई जी रह -रह के अचेत हो जा रही थीं।  वह कोई मामूली रुदन नहीं था।
परंतु सारा दर्द आंसुओं के साथ बह जाता है। आज वे ईश्वर की आराधना में लगीं दिखती हैं । मानों कह रहींं हो कि

" क्या हुआ तूने बुझा डाला मेरे घर का चिराग
कम नहीं हैं रोशनी, हर शय में तेरा नूर है "
 ऐ खुदा, हर फ़ैसला तेरा मुझे मंजूर हैं "

अतः  अब रुदन न करने की भूल नहीं करता हूं मैं। जो गम हैं , जो अरमान थें, उनकों आंसुओं में बह जाने देता हूं। उसे दबाता छिपाता नहीं हूं। अपने में गुम होने की जगह अपना दर्द इन नगमों के साथ बांट लेता हूं-

"  मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
  हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया
  बरबादियों का सोग़ मनाना फ़िज़ूल था
  बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
  जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझलिया
  जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
  ग़म और खुशी में फ़र्क न महसूस हो जहाँ
  मैं दिल को उस मुक़ाम पे लाता चला गया"

        पर हां , एक कर्मपथ एवं लक्ष्य दोनों ही अपने लिये निश्चित कर रखा हूं, ताकि जीवन के शेष दिन सुलगते सिगरेट की तरह ही न गुजर जाये। अन्यथा तो सब धुआं- धुआं है।

Tuesday 7 August 2018

ना घर तेरा, ना घर मेरा , चिड़िया रैन बसेरा





माटी चुन चुन महल बनाया,
लोग कहें घर मेरा ।
ना घर तेरा, ना घर मेरा ,
चिड़िया रैन बसेरा ।

    बनारस में  घर के बाहर गली में वर्षों पहले यूं कहे कि कोई चार दशक पहले फकीर बाबा की यह बुलंद आवाज ना जाने कहां से मेरी स्मृति में हुबहू उसी तरह से पिछले दिनों फिर से गूंजने लगी। कैसे भागे चला जाता था खिड़की की ओर झांक कर गली में उन्हें देखने। हांलाकि घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं रही तब । अतः मुझे यह तो याद नहीं कि हमलोगों ने भी उनकी झोली में कुछ डाला हो। वैसे, वे भी कहां मांगते थें किसी से । बस अपने धुन में  यह कहते हुये कि
 " उड़ जाएगा हंस अकेला,जग दो दिन का मेला ! "

आगे बढ़ते ही जाते थें । कारण भिक्षावृत्ति संग लोभ उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। जो वे हाथ पसारे  हे मेरे माई-बाब ! इस गरीब को कुछ दे दो, भगवान भला करे तेरा, कुछ ऐसा कहते फिरते ।
     वे तो बस इतना कहते थें कि   

       " खुश रहे तेरी नगरी " ।

  जाहिर है कि व्यक्ति विशेष न, हो कर पूरे समाज के कल्याण के लिये वे दुआ करते थें। अब यदि अपनी बात करुं तो उस  बाल्यावस्था में भी फकीर बाबा की तरफ मैं खींचा चला जाता था। लेकिन एक बात तब मेरा बालमन समझ नहीं पाता था कि अन्य भिखारियों से फकीर बाबा अलग क्यों हैं। न हाथ पसारते हैं, न गिड़गिड़ाते हैं , बस जिसे कुछ देना है , उनकी झोली में डालो आशीर्वाद लो और आगे बढ़ो। यहां मीरजापुर में जहां मैं पहले बाबू अशोक सिंह के यहां रहता था। वहां भी नवरात्र में अन्य प्रांत से एक युवा साधु आते हैं। एक पात्र ही उनके पास रहता है। जो भी भोज्य पदार्थ पूड़ी-कचौड़ी, सब्जी, रायता, चटनी ,दूध, दही  और मिठाई सभी उसी में एक बार में ही ले लेते हैं। जिससे सभी आपस में मिल जाते हैं। जाहिर है कि व्यंजनों के स्वाद से स्वयं को दूर रखने के लिये वे ऐसा करते हैं,  बिल्कुल सरल स्वभाव है उनका। विंध्यवासिनी धाम वे नवरात्र में साधना के लिये आते हैं। वे बाबू साहब के ईंट भट्ठे पर ही नवरात्र में रहते हैं।  स्वस्थ शरीर ,शांत स्वभाव एवं मुखमंडल पर तेज  है उनके । जबकि काशी में ऐसे मुस्टंडा बाबा भी दिखते थें, जो सजधज कर बैठे रहते थें, कहींं न कहीं । सुबह से शाम उनका शिकार ( यजमान) तलाशने में ही गुजर जाता था।
      सच तो यह है कि एक सच्चा फकीर  लौकिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, आज के तमाम उपदेशकों की तरह। फकीर बाबा का मिसाल ब्लॉग पर मैं इसलिए दे रहा हूं कि मैं स्वयं भी उनका अनुसरण करना चाहता हूं, क्यों कि मैं इस स्थिति में हूं कि यदि कोई कार्य यहां के प्रतिष्ठित जनों या  जनप्रतिनिधि से कह दूं, तो वे इंकार तो नहीं ही करेंगे, इतना तो सम्मान मेरा करते हैं, अनेक ऐसे सामर्थ्यवान लोग । अतः  हम यदि समाजसेवा के क्षेत्र में हैं, पत्रकार हैं, चिंतक हैं, लेखक हैं , समाज सुधारक हैं, उपदेशक है और संत हैं, तो अपने त्याग को इतना बल दें कि स्वयं ही समर्थ जन कहें कि मांगों क्या चाहिए। भक्त की कठिन तपस्या पर ईश्वर भी तो यही कहते हैं न, परंतु जिसकी भक्ति सच्ची है, वह फिर भी स्वयं कुछ नहीं मांगता। यही सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। मांग ही लिया तो फिर शेष बचा क्या ?
      सभी जानते हैं यहां कि अपने लिये मुझे कुछ नहीं चाहिए। फिर भी स्नेह में कहते हैं कि शशि जी  अब तो इस अवस्था में साइकिल से न चलें, कहें तो बाइक या स्कूटी की व्यवस्था करवा दूं। पर मेरा काम जब साइकिल से हो जा रहा है, तो मैं लोभ क्यों करूँ। हां, सोशल मीडिया पर लगातार   समाचार पोस्ट करता रहता हूं। कई व्हाट्सएप्प ग्रुप हैं । मोबाइल पर ही स्नान, भोजन और शयन को छोड़ पूरा दिन गुजरता है। ऐसे में जाहिर है कि मेरे सेल फोन खराब होते ही रहते हैं। अतः किसी ने नया मोबाइल दिया तो उसे निःसंकोच स्वीकार भी कर लेता हूं। कारण मोबाइल पर तमाम खबरें जनहित में पोस्ट करता हूं। काफी संख्या में यहां गणमान्य जन इन ग्रुपों से जुड़े हैं। परंतु फिर भी मैं अपने ग्रुप में कोई विज्ञापन नहीं चलाता, क्यों कि यह मेरा व्यापार नहीं है। इस जनसेवा के लिये स्नेही जनों ने मेरी आवश्यक को देखते हुये मोबाइल दिये भी हैं। लेकिन, जिस दिन अपने मित्र मंडली को समाचार पोस्ट करना बंद कर दूंगा। फिर यह सुविधा  किसी ने देनी भी चाही, तो नहीं लूंगा। लोभ, मोह, प्रलोभन और यश की चाहत से जब- तक हम ऊपर नहीं उठेंगे, फकीर बाबा की तरह आनंदित कैसे हो सकेंगे। चाहे वह राजा ही क्यों न हो। सर्वप्रथम हमें अपने प्रति अनुशासन तय करना होगा। जैसे मैंने निश्चय किया है कि इस वर्ष से एक समय दलिया एवं दूसरे वक्त चार सादी रोटी और एक सब्जी से काम चला लूंगा। अब  मेरे सामने से ही ढ़ेरों पकवान गुजरते हैं। फिर भी एक मिठाई से अधिक कुछ नहीं उठाता। ऐसे संकल्प ही हमारे लोभ को नियंत्रित करते हैं। फिर तब जब हम कुछ लिखते हैं, कहते हैं और बोलते हैं , तो वह हमारे त्याग का दर्पण होता है। जिसमें हर कोई अस्क को निहारने एवं निखारने का प्रयत्न करता है। तब हम सच्चे फकीर , समाज सुधारक कहे जाते हैं। इसके लिये हम अपनी अंतरात्मा की पुकार सुनते रहें, मार्ग प्रशस्त होता रहता है ...

         तोरा मन दर्पण कहलाये
        भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये
        इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये।

Sunday 5 August 2018

सभी को देखो नहीं होता है नसीबा रौशन सितारों जैसा


" एक बंजारा गाए, जीवन के गीत सुनाए
हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए
ज़माने वालो किताब-ए-ग़म में
खुशी का कोई फ़साना ढूँढो
हो ओ ओ ओ ... आँखों में आँसू भी आए
 वो आकर मुस्काए "

 1969 में बनी फिल्म " जीने की राह " का गीत है यह। इसी वर्ष इस धरती पर मैंने भी आंखें खोली थीं और अब जब कभी आंखें भर आती हैं, अपने अकेलेपन का एहसास होता है, तो मैं इसे जरूर सुनता हूं, अपना उपदेशक समझ कर।  ऐसा लगता है कि इस गाने से अपना जीवन और सांसों का रिश्ता है। यूं भी कह सकता हूं कि ऐसे गीत ही मेरे लिये मंदिर हैं, जिसका मैं पुजारी हूं। मेरे लिये एक सार्थक संदेश निहित है यहां । हालांकि , फिल्म की पटकथा मेरे मतलब की नहीं है,क्यों कि अब न दौलत चाहिए , न ही वह प्रेम जो कभी तन्हाई में सताया करता था । अपने बारे में मैं वर्षों पहले ही यह कह चुका हूं कि मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं। पर हां , अपने जीवन के इस निर्णायक वर्ष में उस राह पर बढना चाहता हूं, कुछ सीखना चाहता हूं , कुछ लिखना चाहता हूं और कुछ बताना चाहता हूं, जो यह बंजारा कहता है।अपने व्याकुल मन को यही तो समझाना चाहता हूं कि सुनो बंधु रे !

" सभी को देखो नहीं होता है
नसीबा रौशन सितारों जैसा
सयाना वो है जो पतझड़ में भी
 सजा ले गुलशन बहारों जैसा "

 हम तो उनमें से हैं , जिन्हें  परीक्षा देनी है , कागज़ के फूलों को महका कर दिखलाने की । इसीलिये गीत की हर पक्ति आत्मसात कर लो। उसका अनुसरण करों । सच यही है कि हमारी विकलता दूसरों के किसी काम की नहीं होती। इसे हमारा रुदन समझ सांत्वना देने वालों, स्नेह करने वालों से कहीं अधिक उपहास करने वाले मिल जाएंगे। ब्लॉग पर मैंने अपने मन की जो पीड़ा लिखी या वह स्वतः ही प्रगट हो गयी,इससे मुझे यह सीखने को भी यहां मिला है। पर चाहे जो हो, सच यह भी है कि मन में दबा वर्षों का दर्द बाहर तो आ ही गया। फोड़ा तभी ठीक होता है, जब वह अपने चरम पर पहुंच कर फूटता है, बहता है, तब उस पर मरहम लगता है और यह घाव भरने लगता है। यदि जख्म गहरा है, तो फिर भी उसके काले निशान शेष रह जाते हैं। आखिर कब-तक उसे वस्त्र के आवरण में छिपाकर हम रखेंगे। सत्य प्रकट होकर ही रहेगा, क्यों कि सत्य वह सूर्य है जिसे बादल सदैव नहीं ढ़क कर रख सकता । जिसका कटु अनुभव मुझे भरपूर है। सो, परिस्थितियां यदि हमें असत्य बोलने पर विवश कर भी दें ,तो भी इससे हमारा भला नहीं होगा। जिस दिन पर्दा गिरेगा, ग्लानि महसूस होगी, झूठे बंधन टूटेंगे , रिश्ते कलंकित होंगे, मन अशांत होगा, राह भटक जाएगी और फिर पथिक क्यों नहीं व्याकुल होगा। अतः बनावटी संबंधों से हमें परहेज करना चाहिए। ब्लॉग पर लिखने के दौरार मैं अपनी स्मृति एवं चिन्तन शक्ति  का भरपूर सदुपयोग करने का प्रयास कर रहा हूं। बात जब सच की राह पर चलने की करता हूं, तो बचपन की एक घटना मेरे स्मृतिपटल पर अब भी मौजूद है। हुआ कुछ यूं कि मुझे एक पहचान वाली किराना दुकान से घी लाने को कहा गया था। दुकान मेरे घर से कुछ दूर था। सो,  बालमन ने कहा कि उतना दूर जाने की क्या जरूरत है, समीप में भी तो दुकानें हैं । तब मैं पड़ोस से घी लेकर आ गया। उसके स्वाद म़े अंतर रहा, या फिर कारण जो भी रहा । पिता जी ने मुझे तलब किया। पूछा गया कि कहां से लाये हो घी ? घर पर हम सभी जानते थें कि वे अनुशासन प्रिय हैं और यह भी की उनकी बात को काटना लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा दुस्साहस है। लिहाजा, मैं थोड़ा सकपकाया लेकिन फिर हिम्मत के साथ कह दिया कि आपने जहां से कहा था , वहीं से तो लाया हूं। जब कोई सवाल मुझसे और नहीं पूछा गया, तो मैंने सोचा कि चलो जान बची, आगे से ध्यान रखूंगा। वैसे, तब ग्लानि भी हो रही थी, क्यों कि मिथ्या तो हम सभी नहीं ही बोलते थें उन दिनों भी।  सोचने लगा कि थोड़ा आगे बढ़ ही जाता तो क्या हो जाता। पैर टूट थोड़े ही जाता। खैर बात आई-गई । तभी एक दिन पापा की वही कड़कदार जानी पहचानी आवाज सुनाई पड़ी कि पप्पी इधर आओ। बस मैं समझ गया था कि अब क्लास लगनी है। उन्होंने दुकानदार से जानकारी प्राप्त कर ली थी कि मैं उस दिन उसकी दुकान पर नहीं गया था। झूठ पकड़े जाने पर मैं बुरी तरह से सहम गया था। हां ,पिटाई तो नहीं हुई उस दिन पर मेरे लिये एक अनूठी सजा तय हुई । जानते हैं क्या ? एक मोटे सफेद कागज पर मुझसे सुंदर और बड़े अक्षरों में लिखवाया गया था कि अब कभी मैं झूठ नहीं बोलूंगा। फिर पापा के समक्ष मम्मी ने रामचरित मानस लाकर रखा था। मम्मी प्रतिदिन देर शाम रामायण पढ़ा करती थीं।  उस कागज को उसी में रखवा दिया गया मुझसे और कहा गया था कि अब यदि असत्य बोले, तो समझ लो कि तुम्हें कितना पाप पड़ेगा । उस समय मैं पाप लगने के भय से कितना सहम गया था आपको बता नहीं सकता। एक चिन्ता बनी रहती थी कि आज कहीं झूठ तो नहीं बोला। कोलकाता जाने के बाद यह भय मेरा समाप्त हुआ। आज सोचता हूं कि बचपन वाला वही डर कायम रहता, तो परिस्थितियां चाहे जो भी होतीं, झूठ तो नहीं न बोलता कभी। सो, अभिभावकों का जो कार्य तब मुझे बहुत बुरा लग रहा था, उसमें छिपे संदेश को अब जाकर समझ पाया हूं। दरअसल, तमाम चतुराई के बावजूद भी झूठा सिक्का पहचान लिया जाता है। सच्चे सिक्के जैसी झंकार उसकी आवाज में भला कहां से होगी ।अतः कभी न कभी उसे भट्ठी पर चढ़ना ही है। लेकिन, कड़ुवी सच्चाई यह भी है कि जो सत्य की राह पर चलते हैं, उनके लिये कोई घर , कोई शरणस्थली नहीं है। जो मित्र हैं, वे इसलिये शत्रु बन जाते है कि उनके झूठ में हम सहभागी नहीं होते हैं। पत्रकारिता के दौरार अकसर ऐसा हम सभी के साथ होता है कि जो अपने हैं, उनके भी किसी अन्यायपूर्ण कार्य की खबर हमसे छप जाती है।  जाहिर है कि फिर क्या होगा। सारी दोस्ती, सारे संबंध समाप्त। वे सबसे बड़े शत्रु हो जाते हैं हमारे।  मैं इसे झेल रहा हूं, अतः बतला रहा हूं। यह सच जो है मित्रों हमारे लिये सूली है , वहीं झूठ इस जुगाड़ तंत्र का सिंहासन। हम अपमानित होते हैं और वे सम्मान पाते हैं।  हमारी सामाजिक व्यवस्था आज की ऐसी ही है। हां आत्मसंतोष का विषय यह है कि हम जिस राह से गुजरते हैं, वह हमारी शहादत की गवाही देती है। इसीलिये आज मुझे अपने अभिभावकों का वह कार्य बुरा नहीं लगता, सम्भवतः मैं ही राह भटक गया था। पर अब इस बंजारे को यही कहना है और करना भी ...

" सूरज न बन पाए तो, बन के दीपक जलता चल
फूल मिलें या अँगारे, सच की राहों पे चलता चल "