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Monday 14 January 2019

चली-चली रे पतंग मेरी चली रे ..


चली-चली रे पतंग मेरी चली रे ...
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चली-चली रे पतंग मेरी चली रे
चली बादलों के पार हो के डोर पे सवार
सारी दुनिया ये देख-देख जली रे...

   मकर संक्रांति पर्व है आज । मैं कब से नीले आसमान में रंगबिरंगी बड़ी -छोटी पतंगों को इठलाते देख रहा था। उस अनंत की ऊँचाई नापने की एक मासूम सी कोशिश में जब वे मचलती ,उछलती और फड़फड़ाती हैं , तो पतंगबाज मुस्कुराते हैं।यही नहीं इन्हें आपस में लड़ाते भी है और जब कोई पतंग कट जाती है , असहाय सा नीचे की ओर गिरने लगती है । उसी दौरान विजेता के ' वह काटा- वह काटा ' के अट्टहास से आकाश गूंज उठता है।
       .दो पतंगों के पेंच की लड़ाई में एक दूसरे की डोर काटने का यह जो जुनून पतंगबाजों की होती है। जिसके लिये वह अपने सारे अनुभवों का उपयोग करता है। वह यह व्यवस्था करता है कि डोर( मांजा) मजबूत रहे और पतंग भी अच्छी रहे। तब जाकर उसका मनोरंजन पूर्ण होता है।
         कटी हुई पतंग जो नीले अंबर से अगले पल धरती की ओर गिरने लगती है , सोचे जरा उसका अस्तित्व क्या होता है । उसे तो लूटने के लिये लोग दौड़ते हैं। उस पर भी यदि किसी एक का अधिकारी नहीं हुआ , तो सब मिल कर उसे लूटते हैं और वह फट जाती है, मिट जाती है, किसी को याद नहीं रहता कि कुछ क्षण पूर्व यह खूबसूरत पतंग इस आसमान की ऊँचाई छू रही थी। पतंगबाजों का मनोरंजन कर रही थी।  जमीन पर पड़ी इस फटी हुई कटी पतंग को पांव तले मत कुचलो मित्र , इससे कुछ सबक लो।
    कैसी विचित्र विडंबना है कि ये पतंग आपस में कभी नहीं लड़ती - झगड़ती हैं , पर यह डोर इनकी दुर्गति का कारण बनती है। जब तक डोर नहीं बंधी रहती है , पतंग बेखौफ पतंग विक्रेता के यहाँ पड़ी रहती है , पर जैसी ही "धागा" के बंधन में आयी , वह पतंगबाज के अधीन हो गयी जो फिर अपना मनोरंजन उससे करेगा। निर्माता ने धन की चाह में उसे बेच दिया। पतंगबाज ने अपने मनोरंजन के लिये उसे कटी पतंग बना दिया और लुटेरों ने उसका छीना झपटी कर उसका अस्तित्व मिटा दिया।
    इसी को आधार बना मैं अपने चिन्तन को शीर्ष पर ले जाने का प्रयत्न जब भी करता हूँ ,तो जीव(पतंग) , माया(डोर) और ब्रह्म (मनुष्य) , मेरा दृष्टिकोण कुछ ऐसा हो जाता है । फिर मुझे लगता है कि इस पतंग की तरह हम भी तो किसी के मनोरंजन की सामग्री तो नहीं है। इस तरह के चिन्तन से मन आहत होता है , वह प्रश्न  करता है -

 दुनियाँ बनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी
काहे को दुनियाँ बनायी, तूने काहे को दुनियाँ बनायी
काहे बनाये तू ने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी, मुखड़े ये उजले…

   इस सवाल का सही जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर यह दुनिया किसके मनोरंजन के लिये बनायी गयी है।  हम सब तो बस पतंग हैं,माया-मोह रूपी यह डोर जीतनी मजबूत होगी, हम उतना अधिक आसमान में फड़फड़ाते हैं, फिर भी जमीन पर गिरना ही नियति है हमारी।
    अतः यह तो तय है कि हम कर्ता नहीं है, नियति के अधीन हैं, बात यदि कर्मफल की करूँ, तो यहाँ भी मेरा चिन्तन इस चिन्ता में बदल जाता है कि कर्मफल से नहीं जुगाड़ तंत्र(छल प्रपंच) से यह दुनिया चल रही है। अन्यथा स्नेह का ,श्रम का, कर्त्तव्य निष्ठा का प्रतिफल हमें उस अनुपात में न सही तो भी कम से कम संतोष जनक निश्चित मिलता। पत्रकारिता में हूँ, यदि थोड़ा सा अपने पथ से हट जाता तो आज मेरे पास भी वह तमाम भौतिक सुविधाएँ निश्चित होतीं। बंगले, मोटर और रूतबे से ही अब तो हम लोगों को भी सम्मान मिलता है । जिनके पास धन है ,जुगाड़ है , वे सब लोकतंत्र के प्रहरी "माननीय" बन जा रहे हैं। अपराधियों को भी दागी जनप्रतिनिधि कोई कहाँ कहता है , बल्कि उनके दरबार में कहीं अधिक रौनक रहती है।

           खैर ,विषय मेरा यहाँ पतंग , डोर और पतंगबाज है यहाँ , तो क्या हमें भी किसी ने  अपने आनंद के लिये पतंग का रुप दे रखा है। सच तो यह है कि हम इंसान आपस में कभी नहीं झगड़ते है। हम जिस डोर रूपी भावनाओं से बंधे हैं, वे भड़कती हैं,भभकती हैं और फिर बुझ जाती हैं ,हमें कटी पतंग बना कर।
    अन्यथा तो हमारा मन सदैव विश्राम की स्थिति में रहता है , जगतगुरु शंकराचार्य की तरह यह उद्घोष करते हुये-

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ...

   संत , दार्शनिक , वैज्ञानिक  , आस्तिक और नास्तिक  जिनमें भी थोड़ी चिन्तन शक्ति है , वह इसी खोज में है कि मृत्यु  के बाद क्या ..? सृष्टि के निर्माण का रहस्य क्या है ?? पहले बताया जाता था कि चंद्रमा पर जो काला धब्बा है, वहाँ एक बुढ़िया सूत कात रही है। धर्मशास्त्रों में तो इस पर कई कथाएँ हैं , लेकिन विज्ञान ने बताया कि ये ऊँचे पहाड़ और गहरी खाईं के निशान हैं। पर इस ब्रह्मांड का एक छोर भी विज्ञान अभी तक नहीं पकड़ पाया है,तो इसके निर्माण और निर्माता की कैसे जाने।

  अपनी बात करूं तो चिन्ता से यदि चिन्तन की ओर बढ़ता हूँ, तो वह मानसिक संतुष्टि जो उस छोटे से आश्रम जीवन में मुझे प्राप्त हुयी थी , वह मुझे पुकार रही है, विवेक की पहरेदारी  मेरे आहत हृदय पर इन दिनों बढ़ती जा रही है। वह मानो बार बार उलाहना दे रहा है कि इस वर्ष के प्रथम दिन जब तुम बिल्कुल एकाकीपन  की अनुभूति कर रहे थे, तुम्हारी भावनाएँ तुम्हारे हृदय को आहत कर रही थीं , तब कोई था तेरा, कोई स्नेहीजन , कोई प्रियजन ..?  वह मुझसे निरंतर झगड़ रहा है कि आश्रम छोड़ कर तुम्हें क्या मिला ? कोई ऐसा डोर अब भी मोह का शेष है ..? वैसे, उसका यह कड़वा सच मेरे हृदय की वेदना पर मरहम की जगह जख्म  पर नमक के छिड़काव जैसा है।  मैं शर्मिंदा हूँ ,बस एक आत्मसंतुष्टि लिये कि चलो इसी बहाने दुनिया तो देख ली । अपना- पराया, दुख- सुख, प्रेम और छल , षड़यंत्र और धोखा , धनलक्ष्मी का खेल, किसी के प्रति भी अत्यधिक कर्तव्यपरायणता का दंड जैसी अनुभूतियाँ मुझे वही संदेश एक बार फिर से दे रही हैं जिसे ग्रहण कर सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त की और गौतम बुद्ध बन गये। बड़ा सरल सा संदेश रहा उन नृत्यांगनाओं का,  वीणा के तार के संतुलन की ही तो बात उन्होंने कही थी।
     मनुहार, प्रेम , स्नेह युक्त भोजन और वह क्षुधा  जिनका उपभोग गृहस्थ प्राणी करते हैं ,उसकी आकांक्षा और कल्पना हम जैसों को नहीं करनी चाहिए, अन्यथा जिन्हें तुम अपना मित्र समझते हो, वही तुम्हारा उपहास करेंगे। यह तुम्हें ही तय करना है कि इनसे किस तरह से मुक्त हो , किस आश्रम के पथ की ओर कदम रखते हो । कटी पतंग कहलाने से पूर्व आसमान की ऊँचाई पर पहुँचना ही जीवन की सार्थकता है।
   कोलकाता में था,तो सिर्फ आज के ही दिन मुझे किसी के देखरेख में पांचवीं मंजिल के ऊपर छत पर जाने की अनुमति थी, पतंग लेकर । बनारस में था तो हम तीनों भाई-बहन गैस वाले गुब्बारे उड़ाते थें। पतंग उड़ाना नहीं सीख पाया, परंतु कटी पतंगों को    सहेज - संवार कर रखता था। ऐसी अनेक पतंग मेरे कमरे में टंगी रहती थीं। एक विशेष मोह था ,इनके प्रति मुझे। कभी - कभी तो अभिभावक नाराज भी हो जाते थें कि  मैं क्यों कमरे को कूड़ाघर बना रखा हूँ। पिता जी अध्यापक थें, अतः पतंग से उन्हें नाराजगी थी। छिपा कर मैं इन कटी पतंगों का रखा करता था। समझ में नहीं आता कि मैं किस राह पर चल पड़ा कि आसमान की ऊँचाई छूने से पूर्व ही कटी पंतग बन आ गिरा और मुझे किसी का सहारा( स्नेह)  न मिल पाया  ?

 न किसी का साथ है, न किसी का संग
 मेरी ज़िंदगी है क्या, इक कटी पतंग है ...

बस इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ,अपनी किस्मत से।