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Friday 29 June 2018

तेरे जुमले से काश ! इनका घर संवर जाता...

       तुम नेता नहीं देवता जो कहलाते

 
 अपने देश में यदि राजनैतिक जुमले की बात करें, तो उसके केंद्र में गरीबी ही रही है, जातीय - मजहब और मंडल कमंडल की सियासत से पहले भी एवं बाद में भी । "गरीबी हटाओ देश बचाओ " का नारा 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी का और " अच्छे दिन आने वाले हैं " यह जुमला 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी का रहा है। पर हम निम्न मध्यवर्गीय लोगों के जीवन स्तर में इतने वर्षों में क्या तनिक भी सुधार हुआ है ? ईमानदारी से सत्ताधारी दल के नये-पुराने नेता बस इतना बता दें!
      जहां तक मेरा अनुभव है, तो एक गरीब मजदूर से अधिक  कष्टकारी और कुंठित जीवन शिक्षित निम्न- मध्यवर्गीय लोगोंं का है। श्रमिकों को तो यह गरीबी मानसिक वेदना इसलिए उतनी नहीं देती कि उनकी सोच लगभग मेरे जैसी ही है कि चलो भाई क्या किया जाए , अपने पास कोई महाविद्यालय की डिग्री तो है नहीं कि जेंटलमैन कहला सकूं। तो फिर मेहनत मजदूरी से जो मिल गया, उसी से गुजारा कर लिया जाए । परंतु वे शिक्षित लोग , जिनकी अनेक ख्वाहिशें रहीं युवा काल में, अब साहब की जगह पांच- छह हजार पगार पाने वाले नौकर बन कर रह गये हैं । उनकी स्थिति देख कर मुझे सिहरन सी हो जाती है कि यदि मैंने विवाह किया होता कहीं, तो क्या होता ? किराये पर कमरे की व्यवस्था, बच्चों की शिक्षा,दवा - इलाज, पर्व -त्योहार, मांगलिक कार्यक्रम और फिर श्रीमती जी को खुश करने के लिये भी तो खास अवसर  पर उन्हें  कुछ तो तोहफा देना होता ही। यह तो ऊपरी खर्च है,  अभी भोजन की व्यवस्था बाकी है। जब मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव आया युवाकाल में, तो मैंने कितनी ही बार जेब टटोला था। वहां हमारे अखबार के दफ्तर में भी सम्पादक जी ने एक बार टोक ही दिया था कि शशि वैसे तो तुम्हारा निजी मामला है, पर मेरी मानों तो शादी कर लो। यहां भी मित्र गण मेरा उपहास इसीलिये किया करते थें। परंतु न कभी हमारे संपादक ने यह सोचा और न ही इन साथियों ने की  कि प्रेस से तब मुझे तीन हजार रुपया प्रति माह वेतन ही मिलता था। उसमें से आधा तब कमरे का किराया ही हो जाता न। उपदेश देना एवं उपहास उड़ाना तो बड़ा आसान सा कार्य है।
   फिर भी मुझे अपने लिये कोई दुख नहीं है, क्यों कि ईमानदार कहलाने के लिये मैं स्वयं ही घर आयी लक्ष्मी और भावी गृहलक्ष्मी को ठुकरा दिया था। यह जानते हुये कि जिले स्तर की पत्रकारिता में धन की जरुरत जुगाड़ से ही पूरी की जा सकती है। यह समाज, सरकार और संस्थान वाह ! वाह !! कहने के अतिरिक्त हम जैसों की कोई आर्थिक मदद नहीं करेगा। ये तो हमारा साथ संकटकाल में भी नहीं देते है। हां, घड़ियाली आंसू टपकाने वालों की कतारें जरुर कुछ लम्बी हो जाएंगी। .   
        खैर छोड़े बात उन गरीबों की कर रहा हूं जो शिक्षित है। तो सबसे पहले मुझे अपने ही बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं। जब घर पर अपना विद्यालय नहीं खुला था। तब पापा एक निजी स्कूल में पढ़ाते थें । बाद में वहां का प्रबंध तंत्र पर एक दबंग का कब्जा हो गया था। अध्यापकों को वेतन तक नहीं मिल पा रहा था। एक शिक्षित परिवार के लिये वह कितना कठिन दौर था। मम्मी- पापा और हम तीन भाई- बहन, पांच सदस्यों का खर्च कैसे चले ? हम सभी स्वाभिमानी भी थें। उपवास पसंद था, पर किसी को घर के अंदर की हालात की जानकारी नहीं हो पाती थी। तब 10 पैसे की बनी बनाई  सब्जी लेने के लिये मैं एक परिचय की बुआजी के पराठे की दुकान पर लुकछिप के देर शाम जाया करता था, क्यों कि रोटी के अतिरिक्त और कुछ बनना सम्भव नहीं था। मम्मी जानती थीं कि दिन भर परिश्रम करने के बावजूद यदि पापा को सब्जी- रोटी भी न मिली, तो अगले दिन वे पुनः श्रम कैसे करेंगे। एक बार तो मम्मी ने बक्से भर गुलसन नंदा के अपने तमाम  उपन्यास इसलिए बेच दिये थें, ताकि हम सभी दीपावली मना सकें  और फिर होली पर कीमती साड़ियों को भी पड़ोसियों के हवाले कर दिया , जिससे कुछ पैसे मिल जाएं और हम बच्चों के लिये नये कपड़े ना सही मिठाई बनाने की सामग्री ही आ जाये । मेरी स्मृतियों में तो मौसी जी का दर्द से भरा वह चेहरा भी सामने आ जाता है, जब यही गरीबी बार बार उनके किसी न किसी आभूषण को निगल जाया करती थी। मौसा जी दो विषयों में पोस्टग्रेजुएट थें। उनके पिता जी की सर्राफा की बड़ी सी दुकान, बड़े भाई बैंक में प्रबंधक, एक भाई होम्योपैथिक चिकित्सक, एक अन्य की मोटर साइकिल पार्ट्स की बड़ी सी दुकान, फिर भी उच्चशिक्षा प्राप्त हर संस्कारों से युक्त मेरे मौसा जी बेरोजगारी का दंश झेलते ही रहें, सड़क दुर्घटना में मृत्यु से पूर्व तक। इसके बावजूद अपनी इकलौती पुत्री का दाखिला मुजफ्फरपुर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में करवाया था। मैं जब वहां था, तो कभी उसे गोद में उठा कर , तो कभी हाथ पकड़ कर स्कूल छोड़ने जाया करता था। उस विपत्तिकाल में भी मौसी जी अपने अमीर रिश्तेदारों के यहां पड़ने वाले मांगलिक कार्यक्रमों में महंगे उपहार की व्यवस्था किसी तरह से कर ही लिया करती थीं। दरवाजे पर जो पर्दा टंगा रहता था, उसके अंदर की हलचल हम सभी के अतिरिक्त परिवार का कोई अन्य सदस्य नहीं जान पाता था। आज भी इसीलिए मौसी जी का सभी जगह बहुत सम्मान है।
        अब तो आप कुछ- कुछ समझ ही सकते हैं कि एक निम्न मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार बेरोजगारी का दंश किस तरह से झेल रहा है। और हमारे ये राजनेता सियासत की बिसात पर हमें झूठे हसीन सपने दिखला रहे हैं।

(शशि) चित्र गुगल से साभार