Followers

Tuesday 24 December 2019

माँ ! एक सवाल मैं करूँ ? ( जीवन की पाठशाला )

***************************
   इस सामाजिक व्यवस्था के उन ठेकेदारों से यह पूछो न माँ - "  बेटा-बेटी एक समान हैं , तो दो- दो बेटियों के रहते बाबा की मौत किसी भिक्षुक जैसी स्थिति में क्यों हुई.. क्रिसमस की उस भयावह रात के पश्चात हमदोनों के जीवन में उजाला क्यों नहीं आया.. ?
****************************
(एक मार्मिक सत्यकथा)
--------------

माँ - ओ माँ !

 सुन रही हैं न !!
  " आज मटर-आलू की पूड़ी बनाएँ न ?  और हाँ, साथ में कलाकंद भरकर मीठा परांठा भी चाहिए.. चटनी किस चीज की बनाएँगी .. मेरे लिए तो टमाटर की मीठी और खट्टी दोनों ही चटनी बना दें आप । "
  अपनी डिमांड को लेकर मुनिया शोर मचाए ही जा रहा था -  " अच्छा माँ, ठीक है मैं ठाकुरबाड़ी की साफ-सफाई कर सभी भगवान जी का पुष्प- श्रृंगार कर देता हूँ .. लाल-सफेद चंदन पीसकर उन्हें लगा देता हूँ और बेलपत्र पर चंदन से राम-राम भी लिख दे रहा हूँ.. बस आप आरती करने आ जाना..। "
    वह जानता था कि माँ को पूजा की तैयारी करने में दो घंटे का समय लगता है। अतः उनके स्वास्थ्य को देखते हुये बारह वर्ष की अवस्था में ही यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी।
   और मुनिया की ऐसी रोज-रोज की फरमाइश कोई नयी बात तो थी नहीं कि माँ उसपर झल्लाती। वे जानती थीं दादू-नाती दोनों को मटर-आलू के परांठे पसंद हैं। वे साथ में मेवे और केसर डाल खीर भी बना दिया करती थीं ।
   सच तो यही है कि मुनिया केलिए माँ से ही उसका घर-संसार था। माँ उसे अपनी अभिलाषाओं के उड़नखटोले में बैठा तरह-तरह की बातों से कुछ इसतरह सैर कराती थीं कि मानों समय को पंख लग गये हो।
   वे जब भी खुश दिखती , उसे दुलारते हुये कहती- "  मुनिया! तू जल्दी बड़ा हो जा न, तेरा विवाह कर यह धरोहर ..नाक में पड़े खानदानी हीरे के चमकीले काँटे और चाँदी के चाभी गुच्छे की ओर संकेत करते हुये, अपनी बहू को सौंप मैं भी अपने दायित्व से मुक्त हो जाऊँ..पता नहीं कब..? "
     उनकी बात अभी पूरे ही नहीं होती कि मुनिया उनके मुख पर हाथ रख झगड़ने लगता था.. और फिर माँ को उसे मनाने केलिए उसका   मनपसंदीदा कोई व्यंजन बनाना पड़ता था।
  माँ-बेटे ( नानी और नाती) की सारी खुशियाँ मानों एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं।

 मजरूह सुलतानपुरी का वह गीत है न -


  अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी

    तुमपे  मरना है  ज़िंदगी अपनी ..

  लेकिन, वह मनहूस दिसंबर महीने की पच्चीस तारीख, जिसे  बड़ा दिन कहते हैं ..उस क्रिसमस डे पर उसके घर के बाहर बड़ा बाजार में जहाँ क्रिसमस ट्री सजाये लोग जहाँ जश्न मना रहे थें..वहीं माँ बिस्तर पर कुछ इसतरह से निढाल पड़ी हुई थी कि बाहर निकलने को आतुर उभरी हुई उनकी दोनों आँखों को देख बाबा और लिलुआ वाली बड़ी माँ अनिष्ट की आशंका से भयभीत थें.. ऐसा लग रहा था कि उस शाम माँ मृत्युशैया पर अपनी दोनों बेटियों ( मुनिया की मम्मी और मौसी ) को ही इसतरह ढ़ूंढ रही थीं..।

   जीवन के अंतिम समय संभवतः मनुष्य अपने समक्ष प्रियजनों की उपस्थिति चाहता है। गंभीर रुप से अस्वस्थ बाबा ने भी अपने आखिरी दिनों में बनारस से कोलकाता वापस लौटते समय बेहद दर्द भरे स्वर में कहा था - " देखा हो गया ( बंगाल की भाषा), अच्छा अब चलता हूँ ! "
    परंतु दोनों पुत्रियों से यह कह अनजान डगर ( तब उनका कोई घर नहीं था , कोई सम्पत्ति नहीं थी ) की ओर बढ़ रहे दोनों पांवों से अपाहिज हो चुके बाबा के हृदय की भाषा किसी ने नहीं पढ़ी..।
  हाँ, बड़ी पुत्री के घर से जाने के पूर्व इनसभी प्रियजनों के तिरस्कार एवं उपहास से उपजी वेदना एवं ग्लानि से उनके जीवन की झोली भर चुकी थी ..इनके कड़वे बोल साक्षात मृत्यु बन उन्हें निगलने को आतुर था.. बाबा बुरी तरह से टूट  चुके थें ..उनकी आँखें बरबस बरसने लगी थीं .. फिर भी उनका धैर्य देखते ही बना..।
 मानों वे स्वयं को यह समझा रहे हो - " दोष बस अपना और अपने प्रारब्ध का है।"
  मुनिया जो अब समझदार हो चुका था , वह बाबा के अश्रु बुंदों का संदेश समझ  कांप उठा था .. ।
   उस दिन तो उसकी दादी से भी न रहा गया और उन्होंने भी स्वजनों से अनुरोध किया था - " अरे ! किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दो समधी जी को..घर में न रखना चाहते हो ना सही .. इस हाल में बाबा को ट्रेन पकड़ा आओगे .. तनिक भी लज्जा नहीं आती .. ! "
 फिर वे धीरे से बुदबुदाई थीं -  " जल्लाद हैं ये सब ! "
 इससे अधिक प्रतिरोध दादी-पोता और क्या करते भी..।  मुनिया और उसकी दादी की घर में हैसियत सिर्फ दो जून के भोजन तक सीमित थी।

  हाँ, आखिरी विदाई के वक्त बाबा अपने प्यारे (मुनिया) पर अपार स्नेह लुटाते गये ..क्यों कि उसने उनके मलिन वस्त्रों को न सिर्फ स्वच्छ किया था , वरन् अपनी नयी लुंगी भी उन्हें पहनाई थी..उसने बाबा के वदन पर जमे मैल को रगड़-रगड़ खूब साफ किया था .. तेल मालिश से उनकी दुर्बल काया में कुछ निखार आ गया था..।

 काश ! उन्हें किसी भी सगे- संबंधी के यहाँ शरण मिल गया होता..।
   लेकिन, दोनों पुत्रियों ने अपनी विवशता पहले ही प्रगट कर दी।
  बाबा चले गये, फिर कभी नहीं लौट के आने केलिए.. उनकी मृत्यु कोलकाता में कहाँ हुई.. कैसे हुई..किस दिन हुई और किसने उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी .. उनकी दोनों ही लाडली बेटियों को इसकी जानकारी नहीं है !
        ....आज माँ मैं इसी संदर्भ में आपको खत लिख रहा हूँ।

  पूज्य माँ,

  सादर प्रणाम ।

      माँ ! आज के जेंटलमैनों का जुमला हैं कि लड़का-लड़की एक समान.. उचित है, भारतीय संस्कृति ने सदैव इसका समर्थन किया  कि इनके लालन-पालन में भेदभाव नहीं होना चाहिए, परंतु क्या आपको पता है माँ कि जब आपके हृदय का स्पंदन मंद पड़ता जा रहा था और खामोश होने से पहले आपनी तरसती निगाहें अपनी पुत्रियों को ढ़ूंढ रही थीं, तो वे कहाँ थीं..? अंततः डाक्टर ने आँखें खराब न हो जाए ,इस आशंकावश उसपर रूई का फाहा रख दिया था ..।

   और फिर बेटियों से मिलन की उम्मीद के टूटते ही आँखों के सामने छायी कालिमा ने अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में आपको हम सबसे दूर कर दिया।
  बताएँ माँ, यदि पुत्रवधू होती तो क्या यूँ ही आप तड़पती..  कोई तो आसपास होता न ..।
    क्यों इन बेटियों केलिए अपना घर ( ससुराल ) ही प्राथमिकता हो जाती है..?
 और फिर मृत्यु के पश्चात आपकी गृहस्थी का क्या हुआ..।
   मुझे भलीभांति याद है - एक चम्मच तक आप जीवित रहते इधर से उधर होते नहीं देख सकती थीं।
 और उसदिन जब मैं , बाबा और अन्य संबंधी आपके साथ महाश्मशान पर गया था , तब आपकी चचिया सास ( बड़ी दादी) , जिन्हें मैंने प्रथम बार अपने घर पर देखा था.. उन्हें आपके समानों से छूत की बीमारी का कुछ ऐसा भय हुआ कि आपका बेड, रजाई, तकिया और बिछावन सभी बड़ाबाजार के रोड पर फेंकवा दिया गया.. क्या आपकी पुत्रवधू होती ,तो उन्हें इसतरह का मनमाना आचरण करने देती .. ?
  और माँ, अगले दिन रोती बिलखती आपकी बेटियाँ आयीं .. वे भी मायके की गृहस्थी को सहेज नहीं सकीं..। हाँ , वापस जाते समय ठाकुरबाड़ी में रखी भगवान जी कि पीतल की दर्जन भर से अधिक बड़ी- छोटी मूर्तियों और भोग लगाने की सामग्रियों को न सिर्फ उन्होंने आपस में बांट लिया, वरन् आपकी गृहस्थी की अनेक सामग्री भी लेती गयीं, क्यों कि ये सब बाबा के किस काम की थीं..।
   बड़ी दादी ने यह फैसला  सुनाया था कि मुनिया को उसके मम्मी-पाप वापस अपने घर ले जाए और बाबा के लिए टिफिन उनके घर से आ जाएगा। दोपहर यह टिफिन आता और उसी में दिन और रात दोनों वक्त का भोजन ..!
 जिस बाबा को आप तरह- तरह के व्यंजन परोसा करती थीं.. जो बाबा अपनी पुत्रियों के ससुराल जाने पर मलाई, रबड़ी , दही और दूध सहित विविध प्रकार के भोज्यपदार्थों से हम सबका हिक भर देते थें.. उन्हीं बाबा को एक वक्त   के टिफिन से गुजारा करना पड़ेगा.. !
    यह जानकर भी आपकी पुत्रियाँ बड़ी दादीजी के स्वार्थपूर्ण निर्णय पर मौन क्यों रह गयी.. उन्हें प्रतिकार करना चाहिए कि नहीं..।
  क्या आपकी मृत्यु के पश्चात दोनों पुत्रियाँ बारी- बारी से बाबा के पास नहीं रह सकती थीं.. ?
   आपकी पुत्रियाँ मुझसे पूछ सकती है कि यह भी मेरा कैसा अजीब सवाल है ..।
  ससुराल में अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ वे बाबा के पास कैसे रह सकती थीं..।
    और फिर सुने माँ , आगे क्या हुआ.. हम सबसे दूर अकेले पड़ गये बाबा टूटते गये.. स्नेह के दो बोल केलिए..किसी अपने संग दुःख-दर्द बांटने केलिए..किसी के हाथ के बने भोजन की थाल केलिए.. बुढ़ापे की जंग लड़ने की बारी आयी तो कोई संग न था..।
 यदि किसी आश्रयदाता की तलाश में , उनके पांव डगमगा गये , तो भी क्या कसूर था बाबा का बोलो माँ..?
   वाह रे ! स्वार्थी सभ्य समाज के भद्रलोग हालात से मजबूर एक टूटे हुये इंसान को दिया तो कुछ भी नहीं और अपने मान- सम्मान की बलिवेदी पर बाबा की आहुति दे डाली..।
    माँ, मैंने देखा था , बाबा आपके प्रति कितने समर्पित थें और घर को ही अस्पताल बना कर रख दिया था.. क्यों कि हॉस्पिटल आप जाना नहीं चाहती थीं ,फिर बाबा को एक जीवित पुत्र आपने क्यों नहीं दिया और उस आखिरी पुत्र के भी जन्म लेते संग हुई मृत्यु के पश्चात जब आपने अपनी बड़ी पुत्री के प्रथम संतान यानीकि मुझे अपना मुनिया समझा , तो फिर क्यों नहीं अपनी मृत्यु से यह कहा -  "  हे मौत की देवी  ! तू थोड़ा और ठहर क्यों नहीं जाती। इस घर की गृहलक्ष्मी को आ तो जाने दे। "
   मेरा छोड़ों माँ, मैं तो आवारा हूँ , दुत्कार सहने का आदती हो चुका हूँ.. पर स्वाभिमानी बाबा केलिए आपने एक बैसाखी तक न छोड़ी..ताकि जब वे अपने पांवों पर न खड़े हो सकें , तो उसका सहारा मिलता  ..।
    माँ, बाबा ने तो आपके पार्थिव शरीर का लाल चुंदरी , सोने के नथ और नाना प्रकार से श्रृंगार करवा कर अंतिम संस्कार किया था। जब हम आपको लेकर  राजाकटरा से " हरि बोल " कहते हुये महाश्मशान की ओर निकले थें , तो मार्ग में जिसकी भी दृष्टि आपके मुखमंडल पर पड़ती थी.. वह साक्षात देवी समझ आपको नमन करता गया..किन्तु आपने बाबा संग क्या यही न्याय किया .. ?
    उन्हें दो वक्त की रोटी मिले ,इसके लिए एक पुत्रवधू की व्यवस्था क्यों नहीं की.. ?
  मैं कोई मनगढ़ंत कथा नहीं गढ़ रहा हूँ , आईना झूठ नहीं बोलता ..।
  आपही इस सामाजिक व्यवस्था के उन ठेकेदारों से यह पूछो न माँ - "  बेटा-बेटी एक समान हैं , तो दो- दो बेटियों के रहते बाबा की मौत किसी भिक्षुक जैसी स्थिति में क्यों हुई.. ? जीवन का वह अंतिम क्षण उन्होंने किस तरह से गुजारा होगा.. !
   क्रिसमस की उस भयावह रात के पश्चात हमदोनों के जीवन में उजाला क्यों नहीं आया.. ? एक विकलांग की मौत की कथा यहाँ तुम्हें सुनाई है और दूसरा भी इसी राह पर बढ़ रहा है ..।
    माँ, आज तुम्हारा यह मौन मेरे सब्र की परीक्षा न ले.. अभी बहुत कुछ बातें और कहनी है..।
               आपका मुनिया
                 ********
  -व्याकुल पथिक