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Tuesday 4 September 2018

एक अकेला इस शहर में,आशियाना ढूँढता है

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मैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ कि ये यादों की पोटली मुझे संबल प्रदान करती है या जंजीर बन मेरे पांवों को जकड़े हुये है
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" एक अकेला इस शहर में,रात में और दोपहर में
 आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है ।
जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूँढता है ...
 
   मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है यह। मन को बहलाने के लिये लाख प्रयत्न करूँ, फिर भी तन्हाई का भारी पड़ना तय है, ऐसे पर्व- त्योहारों पर। हाँ , यदि अध्यात्म एवं दर्शन शास्त्र में रूचि होती ,तो आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर निश्चित ही नटखट नंदकिशोर के कर्मयोग वाले पक्ष को आत्मसात करता। परंतु मैं तो उनके बालपन का अनुरागी हूं। सच कहूँ तो अपने बचपन में मैं जिस तरह से इस पर्व पर को लेकर उत्साहित रहता था और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता था, मुझे याद नहीं कि होली, दीपावली और दशहरे पर भी मुझे इतनी खुशी होती होगी।  यह मेरी ही जिद्द रही कि वहां बनारस स्थित अपने घर पर जन्माष्टमी सजने लगी। सारी जिम्मेदारी मेरी ही रहती थी, अन्यथा इससे पूर्व सिर्फ कृष्ण जन्म ही हुआ करता था। कोलकाता में जब मां के यहाँ था कृष्ण जन्माष्टमी पर कुछ खास नहीं होते देखा था। हाँ , मुजफ्फरपुर में जब मौसी जी के घर पर था, तो वहाँ जब संयुक्त परिवार रहा, तब सजावट भले ही नहीं होती थी, फिर भी प्रसाद बनते थें। मुझे तो सिंघाड़े का हलवा अतिप्रिय है , आज भी है,अन्तर सिर्फ इतना है कि मैं अपनी हर पसंदीदा सामग्रियों का त्याग करते जा रहा हूँ। जैसे, छोला- भटूरा , इटली- डोसा, आलू का पराठा एवं पूड़ी- कचौड़ी इत्यादि। यह हठ है मेरा कि जब आँखें बंद हो , उसमें खालीपन हो, कोई अभिलाषा शेष तब न हो, किसी को खोने का ग़म न हो, न ही किसी का इंतजार ही हो। पर जिसे त्याग नहीं पा रहा हूँ वह है यादों की पोटली । अटल जी की वो एक कविता है न कि
" क्या खोया, क्या पाया जग में,
 मिलते और बिछुड़ते पग में ,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में ,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!"

मैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ कि ये यादों की पोटली मुझे संबल प्रदान करती है या जंजीर बन मेरे पांवों को जकड़े हुये है यह , ताकि सामने जो मुक्ति पथ दिख रहा है, मैं उस तक पहुँच ही ना पाऊँ एवं इसी भूलभुलैया मैं उलझा रहूँ। अभी पिछले ही दिनों राष्ट्र संत जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज के 51 वर्ष की अवस्था में निधन का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। उनके कड़वे प्रवचन जीवन को दिशा देने वाले हैं। यहाँ मैं हूँ कि इंसान बनने की दिशा में पहले ही पायदान पर अटका फंसा पड़ा हूँ, जबकि अवस्था मेरी भी पचास की होने को है और शरीर भी तो रोगग्रस्त है। क्या पाया इस जीवन में व्याकुल हृदय सदैव प्रश्न करता है स्वयं से, तमाम प्रयासों के बावजूद मैं उसे रोक नहीं पाता हूँ। उसे समझाता हूँ कि

" कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे,
उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे,
कभी सुख कभी दुख, यही ज़िंदगी हैं,
ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी हैं ..."

फिर भी यह जो मन है न, वह उपहास करता है मुझपर। तभी तो मुझे फिर से दशकों पूर्व घर का वो आंगन याद हो आया है। जहाँ मैं कृष्ण जन्माष्टमी की झांकियाँ सजाया करता था। छोटे भाई- बहन मेरा सहयोग करते थें। बुरादे को तरह - तरह के रंगों में रंगने का कार्य दो दिन पूर्व ही कर लेता था। खिलौने  हमारे पास कम नहीं थें। बड़े जतन से सभी को सुरक्षित रखता था। एक सुंदर सा पालना भी था, जिसकी सजावट मम्मी किया करती थीं, क्यों कि पूजन एवं मध्य रात्रि कृष्ण जन्म का कार्य वे ही सम्पन्न करती थीं।  मैं तो आजके दिन बिल्कुल बावला ही हो जाया करता था। सुबह आँखें खुलते ही कम्पनी गार्डेन भागा जाता था। उन दिनों पैसे उतने नहीं थें, अतः वहाँ से ही पुष्प और पेड़ की कुछ डालियाँ ले आया करता था। पहला कार्य मेरा एक बड़ा सा पहाड़ बनाने का होता था। जिसके  झाँवा ( भट्टे की पकी काली ईंट) कहाँ से लाता ।  कोलकाता में होता तो बाबा टोकरी भर खिलौना लाकर दे देते थें। लेकिन, बनारस में इतना खुशनसीब नहीं था, ना ही मेरी भावनाओं का कोई मोल था वहाँ , फिर भी न जाने क्यों कृष्ण जन्माष्टमी से एक लगाव था। ऐसे में पहाड़ बनाने के लिये मैंने एक विकल्प तलाश लिया था। छत पर पड़े ईंट और बांस के पतले टुकड़ों से पहाड़ का ढ़ाचा बनाता।उस पर सफेद चादर को डाल उसे पहाड़ की आकृति देता। लेकिन, हमें को हिमाचल पर्वत तो बनाना नहीं था। ब्रजमंडल में तो गोवर्धन है न। अतः मिट्टी, ईंट के चूर्ण , घास और पुष्प से उसकी सफेदी छिपा देता था। उस पर चीनी मिट्टी के भगवान शंकर विराजमान होते थें । जिनकी जटा से जल प्रवाह के लिये पाइप लगाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी और वह पानी एक जलाशय में जाए उसका भी निर्माण करना होता था। फिर कारागार, कृष्ण दरबार और भी के खिलौनों के लिये उचित स्थान का चयन करता था। रात्रि में तब ताऊ जी भी आते थें। उन्हें इस तरह से मेरे द्वारा पहाड़ के निर्माण का तरीका पसंद था साथ ही जितनी सफाई से मैं लाल, हरे और पीले रंग वाले बुरादे से फर्श तैयार करता था, उसे देख वे मुझे पूरे अंक देते थें। सच कहूँ तो सजावट का मुझे बचपन से ही बेहद शौक था । दीपावली हो , जन्मदिन हो , सरस्वती पूजन हो या फिर रथयात्रा( कोलकाता में) यह जिम्मेदारी मेरी ही थी। विडंबना यह है कि अपने जीवन को खुशियों के रंग से नहीं सजा सका।  फिर भी प्रयास यह है कि इस जीवन अपने चिन्तन से , सुविचारों से, दूसरों के दर्द से, उनसे मिले स्नेह से एवं वैराग्य से सजाकर प्रस्थान करूं। अन्यथा अभी तो यह चंचल मन कभी-कभी यह पुकार उठता है-

" कोई नहीं है फिर भी है मुझको
 क्या जाने किसका इंतज़ार हो ओ ओ...
 ये भी ना जानूँ लहरा के आँचल
 किसको बुलाये बार बार..."


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (एक अकेला इस शहर में, आशियाना ढूंढता है ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
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