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Wednesday 26 September 2018

ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा

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मैं तो बस इतना कहूँगा कि यदि पत्नी का हृदय जीतना है , तो कभी- कभी घर के भोजन कक्ष में चले जाया करें बंधुओं , पर याद रखें कि गृह मंत्रालय पर आपका नहीं आपकी श्रीमती जी का अधिकार है। रसोईघर से उठा सुगंध आपके दाम्पत्य जीवन को निश्चित अनुराग से भर देगा। ऐसा इसीलिये कहता हूँ कि मैं जब भी कहींं रहा , प्रयास मेरा होता था कि प्याज और सब्जी काट दूँ। यह देख खुश हो महिलाएँ मुझसे कहा भी करती थीं कि शशि भैया ! आपकी पत्नी तो बड़ी भाग्यशाली होगी ...काश ! अपने भाई साहब को भी अपना यह हुनर कुछ तो सिखा दें न...
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यूँ तो अकेला ही अक़सर, गिर के सम्भल सकता हूँ मैं ,
तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा, दुनिया बदल सकता हूँ ,
मैं मांगा है तुम्हें दुनिया के लिये ,
अब ख़ुद ही सनम फ़ैसला कीजिये ,
ओ मेरे दिल के चैन ..
   रात्रि की इस तन्हाई में जब हम दो ही साथ होते हैं , अक्सर यह सवाल मैं अपने मासूम दिल से पूछता हूँ कि  बंधु माना कि हम किसी के नहींं हो सके ना कोई हमारा ही हुआ ,तो भी तुम्हें इन नगमों की थपकियों से नींद की देवी के आगोश में पनाह दे ही देता हूँ। देखों न हम -तुम आपस में कितने लड़ते -झगड़ते हैं, रूठते- मनाते हैं और जीवन का हर दर्द खुशी- खुशी बांट लेते हैं। यह मान लेते हैं कि हम दोनों की नियति है, यह तन्हाई। हाँ, यह सत्य है कि तुम्हारी अनेक चाहतों को मैं पूरा नहीं कर सका हूँ । तुम्हारी उदासी कभी- कभी मेरे मुस्कुराते चेहरे पर भी झलक आती है। तुम्हारी मासूमियत पर , तुम्हारी कसमसाहट पर , तम्हारी बच्चों जैसी बातों पर जब तरस मुझे आता है , तो एक टीस  हृदय में उठती है। स्मृतियों के पटल पर अतीत का मानचित्र बनने लगता है -

तुम होती तो कैसा होता,
तू यह कहती, तुम वोह कहती,
तुम इस बात पे हैरान होती,
तुम उस बात पे कितनी हसती,
तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता..

 इसी अंताक्षरी में रात गुजर जाती है,  सबेरा होने के साथ ही

  भोर भये पंछी धुन ये सुनाए,
 जागो रे गई रितु फिर नहीं आए ...

 यह संदेश हम दोनों को फिर से चैतन्य कर देता हैं। हम अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं। न अतित, ना वर्तमान की सुधि रहती है...

     शाम ढलते ही फिर से वही तन्हाई , जिसमें अक्सर बातें करते हैं  हम , कुछ अपनी तो कुछ देश दुनिया की, रात आखिर यूँ कटेगी कैसे ? अभी कल ही विचार मन में आया कि जिसके पास धन- दौलत , बीवी- बच्चे  सब -कुछ है, उनका हाल-खबर भी हो जाए कि कितना खुशनुमा जीवन उनका है।         
   सो, मुसाफिरखाने से निकल अपंने एक शुभचिंतक के प्रतिष्ठान पर जा बैठा । जनाब अवस्था में मुझसे छोटे ही हैं, फिर भी  मुहर्रमी सूरत उनकी मुझ यतीम पर भी भारी थी । इन दिनों मार्केट पर पितृपक्ष जो लगा है । दो पैसे की ललक में लोग रविवार तक को दुकानें खोले बैठे रहते हैं। बातों ही बातों में बंधु ने घर- गृहस्थी का मसला उठाते हुये जनाब ने एक लम्बी ठंडी सी सांस ली और कहा कि भाई साहब ! मस्त तो आप हो दोस्त ... यहाँ तो अपने घर की महिलाओं का हाल यह कि वे गृहलक्ष्मी की जगह दरिद्रता लाने वाली देवी बन बैठी हैं । बताएं न तीस हजार रुपये महीने का घर का खर्च है ,धंधे का हाल देख ही रहे हैं । हम कुलर में दिन गुजार देते हैं। मैडम एसी चला बेडरूम में पड़ी टीवी सिरियल्स देखती रहती हैं। फिर वे अपने गोलमटोल लाडले की ओर इशारा कर कहते हैं..  देख लें अपने भतीजे को , फास्टफूड खिला- खिला कर इसी उम्र में इसका क्या हाल बना दिया है .. हमारी तो कोई सुनता ही नहीं..? पर मैं जानता हूँ कि झुंझलाहट में जिसे वे ताना दे रहे थें, उनका व्यवहार वैसा है नहींं, उनका निश्छल - सरल स्वभाव है साथ ही रंग रूप से भी आकर्षण है। हाँ , बड़े घर की बेटी हैं, कांवेंट में पढ़ी हैं। सो, सोसायटी में फर्क निश्चित ही है। कुछ ख्वाहिशें उनकी भी होगी  , अपने साजन से। परंतु हालात यहाँ यह है कि मियां रविवार को भी दुकान खोल ग्राहक सेवा में जुटे रहते हैं और बेचारी  बीबी मन मारे क्या करती  फिर सिरियल्स देखने के अतिरिक्त । संस्कारित परिवार है, तो बाहर किसी स्कूल में नौकरी की इजाजत भी तो उन्हें नहीं मिली है..
    घर- घर की अमूमन एक ही कहानी है, वह जो प्रेम, समर्पण, अनुराग गृहस्थ जीवन में पति- पत्नी के मध्य होना चाहिए, वह सिंदूर की एक लकीर पर समाजिक बंधन के कारण टिकी हुई है। एक खूबसूरत स्वप्न, एक काल्पनिक उड़ान और एक उमंग जो विवाह के पूर्व हर किसी में होता है..

झिलमिल सितारों का आँगन होगा ,
रिमझिम बरसता सावन होगा,
 ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा ,
प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बनाएंगे ,
कलियाँ ना मिले ना सही काँटों से सजाएंगे ..

   आखिर दाम्पत्य जीवन में यह परिदृश्य बदल क्यों रहा है। जबकि सोशल मीडिया पर युवा दम्पति यूँ लिपटे-चिपके दिखते हैं मानों  कह रहे हो..

हमें और जीने की चाहत न होती ,
अगर तुम न होते, अगर तुम न होते ,
हमें जो तुम्हारा इशारा न मिलता ,
भंवर में ही रहते किनारा न मिलता ...

    क्यों  बढ़ती जा रही हैं फिर ये दूरियाँ ..?  पत्रकार हूँ ,तो आये दिन हृदय विदारक घटनाओं को देखता और लिखता हूँ। अभी विगत माह की ही तो बात है। एक महिला ने अपने तीन मासूम बच्चियों संग विषाक्त पदार्थ का सेवन कर खुदकुशी कर ली। आर्थिक रुप से कमजोर फिर भी सुखी परिवार था। मृतका के  पिता ने भी यह स्वीकार किया था कि उसका जामाता निर्दोष है। तब कैसे हो गयी यह अनहोनी ..? पड़ताल किया तो मृतका के पति ने बताया कि उसकी एक पुत्री के पांव की हड्डी वर्ष भर पूर्व सड़क दुर्घटना में टूट गयी थी। उपचार में काफी खर्च हुआ था। घटना से दो दिन पूर्व उसकी माँ ने उसे अकेले सड़क उस पार सामान लाने भेज दिया था। जिससे क्षुब्ध हो उसने अपनी पत्नी से कह दिया था कि दवा का खर्च क्या तुम्हारे मायके वाले देते हैं । हाँ ,एक बड़ी गलती उसने यह की कि दो दिन घर भी नहींं गया, दुकान पर ही रह गया। उधर , पिता को सम्बोधित कर पति द्वारा दिये गये उलाहना से आहत पत्नी ने यह अप्रत्याशित कदम उठा कर हर किसी को स्तब्ध कर दिया। पिछले ही सप्ताह एक युवक ने फांसी लगा ली । डेढ़ वर्ष पूर्व ही तो हुआ था उसका विवाह  ,  एक माह का बच्चा भी था। फांसी या आग लगा लेनें , जहर खाने, ट्रेन के समक्ष या फिर पुल से नदी में कूद कर मरने वाली विवाहित स्त्रियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
             ये नैना सुन्दर सपनों के झरोखे बनते- बनते पथरा क्यों गये और मन की आशाओं का दर्पण टूटा क्योंं..?
  जहाँ तक मेरी समझ है पति - पत्नि के मध्य तेरा- मेरा का  भेद भरा यह दो शब्द उनके प्रेम में सदैव बाधक है ।  उनमें एक दूसरे के प्रति आदर , भरोसा, श्रद्धा और आत्मसमर्पण का भाव होना ही चाहिए। यदि ऐसा है तो जीवन सागर में गोता लगाने का आनंद कुछ और ही है। लेकिन, होता यह है कि विवाह के पश्चात पति अपनी पत्नी के  तन का स्वामी तो बन जाता है, परंतु उसके मन के भाव को नहीं पढ़ पाता । मैं तो बस इतना कहूँगा कि यदि पत्नी का हृदय जीतना है , तो कभी- कभी घर के भोजन कक्ष में चले जाया करें बंधुओं , पर याद रखें कि गृह मंत्रालय पर आपका नहीं आपकी श्रीमती जी का अधिकार है।जहाँ की संचालिका वे हीं हैं, पुरूष की भूमिका तो यहाँ एक सहायक की है। चलिये माना कि रोटी बनाने नहीं आता, पर सुबह की चाय तो बना कर अवकाश के दिन अपनी अर्धांगिनी को दिया ही जा सकता है। सब्जी काटना आदि कुछ तो मिलजुल कर किया ही जा सकता है। देखें फिर किचन की खुशबू किस तरह से आपके दाम्पत्य जीवन महका सकती है, चहका सकती है। यदि हम मर्द थोड़ा सा समय अपने रसोईघर के लिये निकाल लें, तो फास्टफूड वाली यह बीमारी भी  छूमंतर हो जाएंगी। किंचन में तो बस  आपका प्रेम श्रीमती जी को हर कार्य करने को स्वतः विवश कर देगा। पर याद रखें कि भूल से ही अपनी पंसद वहाँ भी न चलाये। वे अर्धांग हैं आपकी , उन्हें मालूम है कि आपकी पसंद क्या है। न विश्वास हो तो कभी अजमा कर देखें आप ...
    रसोईघर से उठा सुगंध आपके दाम्पत्य जीवन को निश्चित अनुराग से भर देगा। ऐसा इसीलिये कहता हूँ कि मैं जब भी   कहींं रहा , प्रयास मेरा होता था कि प्याज और सब्जी काट दूँ। यह देख खुश हो महिलाएँ मुझसे कहा भी करती थीं कि शशि भैया ! आपकी पत्नी तो बड़ी भाग्यशाली होगी ...काश ! अपने भाई साहब को भी अपना यह हुनर कुछ तो सिखा दें न...
 यह बात और है कि मेरी नियति में तन्हाई है , परंतु आपके पास तो भरपूर अवसर है , इस प्यारे से गीत को गुनगुनाने का..
एक प्यार का नगमा है,
मौजों की रवानी है,
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं,
तेरी मेरी कहानी है,
तू धार है नदिया की,
मैं तेरा किनारा हूँ,
तू मेरा सहारा है,
मैं तेरा सहारा हूँ....


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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