(जीवन के रंग)
कहते हैं कि मेहनत और ईमानदारी से किया गया कोई भी काम लज्जाजनक नहीं होता । दुनिया पुरुषार्थी व्यक्ति को झुककर सलाम करती है। किन्तु सच यह भी है कि ऐसा पुस्तकीय ज्ञान मनुष्य के सामाजिक जीवन में व्यवहार की कसौटी पर सदैव खरा नहीं उतरता। अन्यथा सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ और पूँजीवादी वर्ग की
उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ता। इनका मान, सम्मान,स्वाभिमान और अधिकार सुरक्षित होता। अपनी कमली बुआ को ही लें। कल तक जिसे वह स्नेह से बहू कह बुलाया करती थी,उसी के विद्यालय में चाकरी क्या कर ली कि व्यवहार और संबोधन दोनों में परिवर्तन आ गया । अब वह उसे बहू की जगह सहमे-सहमे लहज़े में बड़े अदब से 'मास्टरनी' जी कहा करती है ,जबकि उसे बुआ के स्थान पर बिना किसी शिष्टाचार का प्रदर्शन किये, उपेक्षा से 'दाई' पुकारा जाता है।
बात उन दिनों की है जब स्त्री जाति के प्रति आम धारणा यह हुआ करती थी कि लड़कियों को ससुराल जाकर घर-गृहस्थी देखनी है, तो वे विद्यालय में वक़्त क्यों जाया करें ? पुत्री घर पर रह कर अपनी माँ से पाककला का ज्ञान अर्जित करे, सिलाई-बुनाई सीखे,ताकि ससुराल में मायके वालों की नाक न कटे,परिवार के बड़े-बुजुर्ग यही चाहते थे।मानो गृहकार्य में दक्षता ही नारी की योग्यता का एकमात्र प्रमाणपत्र हो। मायके की चारदीवारी से ससुराल की देहरी,यही उनकी लक्ष्मण रेखा थी।जिसका उलंघन स्त्री मर्यादा के विपरीत था।
बनारस जैसे शहर में जन्मी कमली ने सयानी होते ही ये सारे गुण-ढंग सीख लिये थे। श्वेत नर्म रोटी और तरकारी तो ऐसा स्वादिष्ट बनाती कि खाने वालों की लार टपकने लगती।सौंदर्य,लज्जा और विनय की देवी थी वह,किन्तु संपूर्ण स्त्रीयोचित संस्कारों से युक्त हो कर भी उसने कभी विद्यामंदिर में कदम नहीं रखा था।अपनी इस इच्छा को सीने में दबाये वह कम उम्र में ससुराल चली गयी। कमली गृहकार्य में दक्ष होने के साथ ही व्रत-उपासना में भी पीछे न थी। जिस कारण सभी उससे स्नेह करते । हिन्दू पतिव्रता के सारे कर्तव्य और आदर्श उसमें समाये थे। अपने प्राणनाथ मोहन पर तो मानो उसने मोहनी ही कर रखा था, जो सदैव उसका मुख निहारा करता । नाते-रिश्तेदार उसकी सास से कहते-"ईश्वर ! हमें भी तुम्हारी-सी बहू दें।" यूँ समझें कि घर के सारे सदस्य उसपर जान देतें। अपने सौभाग्य पर इठलाती कमली को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि क्षणिक सुख दे कर नियति ,उसका नाता आजीवन दुःख से जोड़ने वाली है।
और उस रात नाग देवता उसका दुर्भाग्य बन के घर में प्रवेश कर गये। अपनी सुशील पत्नी से अतिशय प्रेम करने वाले मोहन ने उसे भयभीत देख कौशल दिखलाने का प्रयत्न क्या किया कि घर का कुलदीपक बुझ गया। अचानक हुये इस वज्रपात से कमली का कोमल हृदय झुलस कर राख हो गया। उसका दमकता हुआ मुखड़ा मलिन पड़ गया। सारे साज -श्रृंगार बिखर गये। अब वह एक श्वेत वस्त्र में लिपटा हाड़-मांस का पुतला मात्र थी।रंगीनियों से भरा उसका जीवन पल भर में दर्द का सैलाब बन गया । सपने राख हो गये,रह-रह कर आँखें बरसती रहतीं,फिर भी गुमसुम बनी ससुरालवालों की सेवा-सत्कार में लगी रहती।इस घर की बेटी नहीं बहू जो थी,वह भी विधवा,जिसके लिए यहाँ सांत्वना के दो शब्द भी न थे, परंतु वह सबका मुँह जोहते रहती।
उसके संयम की परीक्षा शुरू हो गयी।ससुराल में हर कोई मोहन की मृत्यु के लिए उसे जिम्मेदार मानता। उसकी सौभाग्य रेखा वेदना,दुत्कार और तिरस्कार में परिवर्तित हो गयी थी। उस पर जान छिड़कने वाली सास की जिह्वा से निरंतर शब्दबाण छूटते रहते। उसे केश संवारते देख ननद ताना देती-" रांड ! अब न जाने किसे खाएगी ?" सहानुभूति की जगह प्रियजनों के ऐसे कटु संवाद से आहत इस बेचारी का ससुराल में कोई आश्रय न रहा।संतानहीन कमली पर ऐसी विपत्ति और उसका वैध्वय रूप देख उसके माता-पिता का हृदय हाहाकार कर उठा। वे उसे अपने साथ लिवा ले गये। फिर कभी उसने ससुराल में पाँव नहीं रखा।
उस जमाने में आज की तरह विधवा विवाह आसान नहीं था, ऊपर से यह लाँछन कि ससुराल जाते ही पति को खा गयी। आदरमय सहज संसार से उसका नाता टूट चुका था।सामने कुरूप और नग्न समाज खड़ा था,जो उसके विधवा होने में अपना सौभाग्य खोज रहा था।किन्तु उसने अपने वैध्वय को कभी लाँछित होने नहीं दिया। उसका हृदय उसके श्वेत वस्त्र की तरह पवित्र रहा। न वह किसी के सामने खुल कर हँसती और न ही बातें किया करती। अपनी सारी इच्छाओं को नियंत्रित कर निर्लिप्त भाव से जीवन जी रही थी। दिन भर साफ-सफाई और चौका-बर्तन में लगी रहती। मनोरंजन क्या होता है वह भूल चुकी थी। उसकी ऐसी गति देख उसके पुनर्विवाह की मंशा संजोये शोकाकुल माता-पिता स्वर्गवासी हो गये।
मायके में भाभी का शासन हो गया। दो जून की रोटी पर पलने वाली मुफ़्त की नौकरानी का परित्याग भला कौन करता, जिसने अपनी पीड़ा की उपेक्षा कर स्वयं को परिवार के लिए समर्पित कर दिया हो। कमली ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। समय बीतते देर न लगा । सिर के खिचड़ी बाल उसकी प्रौढ़ावस्था को दर्शाने लगे थे। भाभी का साम्राज्य पुत्रवधू के हाथ में चला गया। परंतु इससे कमली को क्या फ़र्क पड़ता। उक्ति है न- "कोउ नृप होय हमें का हानि। चेरी छांड़ि ना होउ रानी।।" इस परिवार में उसकी हैसियत भी यही थी, किन्तु मंथरा का एक भी गुण उसमें नहीं था। उसके हृदय में प्रेम का अथाह सागर छिपा था,इसी कारण उसकी पहचान मुहल्ले में 'जगत-बुआ' की हो गयी थी। बड़े क्या बच्चे भी उसे बुआ ही पुकारते । बाल- गोपाल तो स्नेह के भूखे होते हैं,शाम जब कमला घर के बाहर चबूतरे पर बैठी होती, वे अपनी बुआ से कहानी सुनने दौड़े आते। उन दिनों आज की तरह पाबंदी नहीं थी कि बच्चे घर के बाहर निकले ही नहीं। दिन भर पुस्तकों में आँखें गड़ाए रहें, मुहल्ले में न कोई देखे न पहचाने, फिर तो बचपन कैसा ? ये बच्चे ही कमली के लिए सब-कुछ थे। प्रेम बाहुल्य देख वे उस पर जान देते और इन्हें देख वह भी अपने हृदय के संताप को शांत कर लेती, क्योंकि उसका मातृत्व इन्हें दुलार देकर तृप्त हो जाता था। परंतु उसकी ज़िदगी का सफ़र इतना आसान कहाँ था ? भाभी की पढ़ी-लिखी पुत्रवधू ने दुर्गाकुण्ड जैसे तथाकथित सभ्य समाज के मध्य रहने का निर्णय ले लिया था। दो कमरों वाले इस नये फ्लैट में कमली के लिए कोई जगह नहीं था। यूँ कहें कि उम्र के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति को किसी आसरे की तलाश होती है, बुआ से पीछा छुड़ाने के लिए बड़ी चतुराई से यह साज़िश रची गयी थी।
अब बुआ के सिर पर कोई छत नहीं था। न कोई अपना था। मायके वालों ने जिस निर्लज्जता से दूध में पड़ी मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका था , उससे उसका हृदय रुदन कर रहा था। पुराने मकान मालिक ने तरस खाकर गलियारे में उसे कुछ दिनों के लिए शरण दे दी थी। जिस स्त्री ने ताउम्र घर-परिवार का मरजाद बनाये रखा। उसे पेट की अग्नि शांत करने के लिए इस अवस्था में कुछ तो करना था। पर एक अनपढ़-गंवार औरत झाड़ू-पोंछा अथवा चौका, बर्तन के सिवा और क्या कर सकती थी? " हे प्रभु ! मेरी कितनी परीक्षा लोगे! क्या पेट जिलाने के लिए मुझे ये भी करना पड़ेगा ? न-न मुझसे यह सब नहीं होगा।" कुछ ऐसी ही चिन्ता में डूबी कमली ने मन को कठोर कर पहली बार काम की तलाश में घर से बाहर पाँव रखा था। तभी बिट्टू उसे अपनी माँ के घर ले आता है।
"अरे ! बुआ बहुत दिन बाद आना हुआ ?" सुधा ने उसकी सुधि लेते हुये कहा था। "हाँ बहूँ, स्कूल खोलने के बाद तुम व्यस्त हो गयी थी,सो आने में संकोच होता था। पर तुमलोगों के लिए मैं सदैव दुआ करती रही। बड़ा कष्ट सहा है तुमने भी ।" भावविह्वल होकर कमली ने सुधा को ढ़ेरों आशीष दिये थे। सुधा ने पति से सलाह कर कमली बुआ को अपने स्कूल में दाई का काम दे दिया था। ममत्व की भूखी बुआ अपनत्व भाव से चाकरी से कहीं अधिक सुधा के स्कूल से लेकर घर तक का काम किया करती थी। कब सुबह से साँझ हो जाता उसे पता भी नहीं चलता।
किन्तु उस शाम बहू के सामने हृदय को चीर देने वाले सवालों के कठघरे में वह सहमी हुई खड़ी थी। सुधा का क्रोध देखते ही बनता था। संबधों की मर्यादा टूट चुकी थी। उसने कमली को फटकारते हुये कहा -"कितनी बार बताया कि मुझे मास्टरनी जी बोला करो, किन्तु आज फिर से तुमने बहू कह दिया ? अरे ! काहे की बहू ..कैसी बहू ? मैं तुम्हारी कोई रिश्तेदार हूँ ? तुम्हारे तो सगे-संबंधी अपने नहीं हुये ।अन्य शिक्षिकाओं के सामने जब तुमने बहू कहा तो कितनी लज्जा आयी मुझे ।" इसी आवेश में सुधा ने यहाँ तक कह दिया था कि यदि अपनी कैंची जैसे जुबान को काबू में नहीं रख सकती, तो कल से काम पर मत आना।
हाय री हृदय हीनता ! मानो कभी जान- पहचान ही न हो। सुधा के ऐसे कठोर वचन सुनकर वेदना के प्रवाह से बुआ की आँखों के पोर नम हो गये थे।वह किसी की दया पर जीवनयापन नहीं कर रही थी, फिर भी आज उस स्त्री के समक्ष दीन बनी खड़ी थी, जिसे कल तक बड़े स्नेह से बहू कहा करती थी और जो आज उसकी छोटी-सी भूल पर इसप्रकार बरस रही थी। कमली समझ चुकी थी कि धन आने पर मनुष्य के दृष्टिकोण में किस प्रकार परिवर्तन आ जाता है। इतनी आत्महीनता की अनुभूति जीवन में उसे कभी नहीं हुई थी। उसका मुख इस भय से पीला पड़ गया था कि यदि नौकरी चली गयी तो किसके द्वार पर भीख माँगेगी,कैसे कटेगा ये बुढ़ापा ? मास्टरनी जी की क्रोधाग्नि को शाँत करने के लिए वह दीनभाव से क्षमायाचना करती है,किन्तु विद्यालय से बाहर निकलते ही आँखों में आँसुओं की झड़ी लग गयी थी।
वह भारी कदमों से वापस मुड़ी ही थी कि फिर से बिट्टू प्रकट हो जाता है। " बुआ , चलो कहानी सुनाओं न ।" "नहीं रे! मुझे अब बुआ न कहा कर । हमारे इस रिश्ते में परिवर्तन आ गया है। मैं तेरे स्कूल की एक मामूली दाई जो ठहरी !" यह कहते हुये कमली का गला भर उठा था। " किसने कहा तुम्हें दाई ? मम्मी ने न ? वह बदल गयी है,लेकिन तुम हम बच्चों की बुआ थी और रहोगी। क्या मुझमें भी कोई परिवर्तन दिखा ?" इतना कहते हुये बिट्टू पीछे से कमली के गले में हाथ डाल उससे लिपट जाता है। मानो बुआ का सारा दर्द वह खुद अपने में समेट लेना चाहता हो। बच्चे का प्यार पा कर चोट खाये बुआ के हृदय में हलचल-सी होती है,जैसे बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठी हो,उसका मलिन मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था। वह स्नेह से बिट्टू को अपने अंक में भर लेती है। दोनों के नेत्रों से अश्रुजल बह चले थे। जिसमें निश्छल मुस्कान थी। जिसे कोई परिवर्तन फीका नहीं कर सकता है।
बिट्टू बड़ा हो गया है, सवाल आज भी उसका वही है-" यदि मानव अपने पदों का मुखौटा लगा कर एक दूसरे के बीच खाइयाँ खोदे ,तो यह कैसी मानवता ? यह सभ्य समाज कब समझेगा कि पद मानव को नहीं,अपितु मानवता पदों को सार्थकता प्रदान करती है ?" हाँ, उसने यह तय कर लिया था कि चाहे कितनी भी ऊँचाई पर वह क्यों न हो, उसके जीवन ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आएगा,जैसा उसकी माँ के हृदय में कमली बुआ के प्रति दिखा।
-व्याकुल पथिक