Followers

Tuesday 17 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
 17/4/ 18
आत्मकथा

     विचित्र विडंबना है कि यदि हम ईमान पर चलते हैं, तो  हमारे पास न धनबल होता है, न ही जातिबल और बाहुबल। जो वर्तमान समाज का स्टेटस सिम्बल है। फिर संकट काल में कौन बनेगा हमारा सुराक्षा कवच। पत्रकारिता ही नहीं हर क्षेत्र में कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति की घेराबंदी निश्चित ही होती है। तब यह समाज भी जिसके हितों के लिये हमने संघर्ष किया है।  वह अफसोस व्यक्त कर खामोश हो जाता है। ऐसे में एक आत्मबल ही तो है, जिसके भरोसे हमें अपनी लड़ाई लड़नी है। हम जैसे पत्रकारों के पास  धन, जाति और बाहुबल तो बिल्कुल ही नहीं है। यह सब हो भी कैसे, हमने जब इनकी चाहत की ही नहीं, क्यों कि हमारी साधना का क्षेत्र कुछ और रहा । हमें यह बताया गया था कि हम समाज का आईना हैं  और जाहिर है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। तब हम अपनी लेखनी को चाटूकारिता का हिस्सा कैसे बना देतें। ऐसे में जब हम साजिश के शिकार हो जाएं , तो हतोत्साहित होने से काम चलेगा नहीं। ऐसे में तो हमारे पत्रकार साथी ही हमारा उपहास उड़ाने लगते हैं। मैं इस पीड़ा से गुजर चुका हूं एवं अब भी गुजर ही रहा हूं...

   फिर भी ऊपर वाले की सत्ता में विगत कुछ दिनों में मेरा विश्वास बढ़ा है। वर्षों बाद मुझमें यह परिवर्तन आया है, जब मेरे हृदय में उसके प्रति अनुराग जगा है। अन्यथा परिजनों के बिछुड़ने और निरंतर कष्ट सहते रहने के कारण , मैं बिल्कुल ही नास्तिक सा हो गया है। परंतु अब लगने लगा है कि यदि आपका मार्ग सही है,तो जो लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से आपकों परेशान कर रहे हैं।  ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के तहत उन्हें भी दंड मिलना शुरु हो गया है। जो यह समझ रहे थें कि इस जनपद में पत्रकार जगत के वे बेताज बादशाह हैं। जिनकी मैंने कभी किसी न किसी तरह से मदद ही की थी। फिर भी मेरे विरुद्ध षड़यंत्र में शामिल लोगों की टीम में उन्हें देख अत्यधिक कष्ट की अनुभूति होती रही मुझे। मैंने ऐसा कोई बड़ा अपराध नहीं किया था कि इतनी बड़ी साजिश रच मेरी कलम की स्वतंत्रता को बंधक बनवा दिया इन्हीं लोगों ने।  आज सामने से तमाम खबरें गुजरती रहती हैं। लोग कहते भी हैं कि शशि भाई आपके लायक यह अच्छी खबर है, फिर भी कलम नहीं उठा सकता। जिस स्वतंत्रता के लिये बड़े समाचार पत्रों की गुलामी इन ढ़ाई दशकों में करना पसंद नहीं किया। और एक सांध्यकालीन अखबार को कुछ वर्षों पूर्व तक मीरजापुर शहर की धड़कन बना रखा था। कम से कम चार लोग मीरजापुर से लेकर विंध्याचल तक गांडीव वितरण करते थें। वर्षों का वह सारा संघर्ष बिखर गया, इन्हीं तीन- चार पत्रकार बंधुओं के कारण। खैर ! हाल के एक बड़े घटनाक्रम के बाद मेरे वे मित्र जिन्होंने मुझे इस अपमानजनक पीड़ा को सहते देखा है, वे मुस्कुराते हुये अब मुझे यह कह सांत्वना दे रहे हैं कि शशि भाई, देखा न ऊपर वाले की लाठी की मार  ...

   वैसे, सच कहूं, तो मुझे फिर से ईश्वर की न्याय व्यवस्था में विश्वास होने लगा है। मुझे भरोसा होने लगा है कि पत्रकारिता को यदि मैंने गलत माध्यम से धन अर्जित करने का साधन नहीं बनाया है, तो कम से कम ऊपर वाले की अदालत में इंसाफ जरूर मिलेगा। और मिलता दिख भी रहा है। फिर भी जिनकी पत्रकारिता का साम्राज्य एक झटके में ही डगमगा गया है, उनके प्रति मुझे सहानुभूति है। पुराने परिचितों में से जो हैं। हां, पेशे से मित्र मैं उन्हें नहीं कह सकता। क्यों कि मित्र षड़यंत्र का हिस्सा तो नहीं होता है न...

                खैर ! मैं तो यहां बाहर से आया हुआ हूं । अतः अपनी वर्षों की तपस्या भरी पत्रकारिता पर सवाल उठने पर ,
 ऐसी स्थिति में कुछ विचलित होना स्वभाविक है । पर मैं शुक्रगुजार हूं अपने  मित्रों और शुभचिंतकों का , जिनका भरपूर सहयोग मिला।  मुझसे, मेरी लेखनी से और मेरे परिश्रम से स्नेह करने वाले अनेक लोग  इस संकट से मुझे बाहर निकालने के लिये जिस तरह से सामने आये, यह मेरी ईमानदारी से काम करने का ही प्रभाव रहा । मैं इसके लिये उन्हें बार बार धन्यवाद देना चाहता हूं। जिन्होंने मेरा सहयोग करते समय तनिक भी इस बात का एहसास मुझे नहीं होने दिया कि वे एहसान कर रहे हैं मुझपर...

(शशि)
क्रमशः