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Wednesday 24 April 2019

वेदना


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        वेदना जीवन की वह पाठशाला है , जिसके माध्यम से आत्मदर्शन प्राप्त होता है और हम अपने कर्मपथ, धर्मपथ यहाँ तक कि वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ (निर्वाण) को प्राप्त कर सकते हैं।
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     इस बार का हमारा विषय है वेदना ।  यह वह मानसिक कष्ट, संताप है, जिससे मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही कभी- कभी बिखर जाता है। जब कभी स्नेह आहत होता है, किसी प्रियजन से वियोग होता है अथवा कटु वचन से स्वाभिमान को ठेस पहुँँचता है, तब हृदय में इसकी अनुभूति होती है।
      मेरा मानना है कि जिस भी मनुष्य में संवेदना है , उसमें वेदना निश्चित होगी। जब सिद्धार्थ ( महात्मा बुद्ध) को वृद्ध मनुष्य और शवयात्रा ने , वर्द्धमान (महावीर स्वामी ) को जातीय भेद, पशु बलि और अन्य सामाजिक कुरीतियों ने , महर्षि दयानंद सरस्वती को सतीप्रथा ने तथा मोहनदास कर्मचंद गांधी  को रेलयात्रा के दौरान अंग्रेजों की रंगभेद मानसिकता ने विकल कर दिया , तब इनके हृदय की इसी वेदना ने, इन्हें धर्म प्रवर्तक एवं महात्मा बना दिया।
  विवाह के पश्चात मूर्ख कालीदास को विदुषी पत्नी विद्योत्तमा के व्यंग्य वचन तथा तुलसीदास को  पत्नी रत्नावली के तिरस्कार ने इस तरह से वेदना दी कि इनका अन्तर्मन जागृति हो उठा। ध्रुव के साथ भी यही हुआ, सौतेली माँ के व्यंग्य वचन से उन्हें जो मानसिक कष्ट पहुँचा, उसका ही परिणाम रहा कि एक नन्हा बालक तप कर सर्वश्रेष्ठ नक्षत्र बन गया। एक वेदना वह भी है,जो भृतहरि को जन्म देती है। राग से विराग की उनकी यात्रा वेदना से मुक्ति के लिये एक प्रकाश स्तम्भ है।
   अतः वेदना हमें अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सकती है। वह हमें शीर्ष पर पहुँचाने का सामर्थ्य रखती है। जबकि हँसी- ठिठोली में लिप्त मनुष्य जनप्रिय हो सकता है, फिर भी विदूषक की श्रेणी में ही उसकी गिनती होगी, क्यों कि मानव के सर्वश्रेष्ठ गुण करुणा से वह वंचित है।
अतः यह संवेदना होनी चाहिए, हम मनुष्यों में-

 किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है..।

  इस तरह से देखें , तो मनुष्य में वेदना  मानवीय गुणों का विकास करती है।
   वेदना तब भी होती है, जब किसी अप्रत्याशित घटना में हम  अपने किसी प्रियजन को खो देते हैं। हमारे निर्मल स्नेह अथवा प्रेम के साथ छल, विश्वासघात और उपहास होता है, तब भी अत्यधिक कष्टदायी मानसिक पीड़ा होती है।
   यदि विरह वेदन की बात करूँ, तो इसे सूरदास ने  कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों  के माध्यम से कुछ इस तरह से परिभाषित किया है -

      उधौ मन नाहिं दस बीस ,
एकहु  तो सो गयो श्याम संग ,
को अराध तू ईस। (अब काहू राधे ईस )..
भई अति शिथिल  सबै माधव बिनु ,
यथा देह बिन सीस ,
स्वासा अटक रहे ,आसा लगि ,
जीव ही कोटि बरीस (वर्षों ).
तुम तो सखा श्याम सुन्दर के
सकल जोग के ईस !
सूरजदास (सूर श्याम )रसिक की बतियाँ ,
पुरबो (पूरा करो )  मन जगदीस।

    वेदना की यह शीर्ष स्थिति है। बिना अनुभूति के इसे समझना अत्यधिक कठिन है। उद्धव जैसे ज्ञानी पुरुष भी इसके समक्ष नतमस्तक हैं।
         मेरा मानना है कि वेदना जीवन की वह पाठशाला है , जिसके माध्यम से आत्मदर्शन प्राप्त होता है और हम अपने कर्मपथ, धर्मपथ यहाँ तक कि वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ (निर्वाण) को प्राप्त कर सकते हैं। अपनी अनुभूतियों के आलोक में वेदना में वैराग्य का वह पथ दिख रहा है , जिसपर से गुजरने पर मग में क्या खोया और क्या पाया का बोध नहीं होगा।  आदि शंकराचार्य के निर्वाण-षटकम का यह श्लोक-

नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
 न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम |

      सदैव मेरा मार्गदर्शन करता है।  21वर्ष पूर्व जब मैं अत्यधिक अस्वस्थ था। अभिभावक के रूप में कोई नहीं था। अस्वस्थ्य शरीर के बावजूद कठोर श्रम करना पड़ता था। मेरी मनोस्थिति को समझ पत्रकारिता जगत में मुझे स्थापित करने वाले मेरे गुरु स्व० रामचंद्र तिवारी  ने कैसेट आदि शंकराचार्य का यह "अद्वैत दर्शन , जिसको पंडित जसराज ने रागों के राजा राग दरबारी में गाया है, मुझे लाकर दिया था।
    फिर भी मित्रों यह कहना चाहूँगा कि विरह वेदन का  उपचार इससे भी सम्भव तब तक नहीं है, जब तक हम वेदना के शीर्ष तक नहीं पहुँच जाएँ।  विचित्र मनोदशा है यह, जिस पीड़ा को कम करने के लिये रुदन आवश्यक प्रतीत होता है मुझे। रुदन ही हमें ऐसी वेदना में घुटन से बाहर निकालता है।
     वियोग अथवा स्नेह का तिरस्कार दोनों ही परिस्थितियों में  रुदन चित को शांति प्रदान करता है।
  " गबन " में प्रेमचंद  की लेखनी विस्मित कर देती है मुझे  , उन्होंने लिखा है -

" रुदन में कितना उल्लास, कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठ कर किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में, सिसकसिसक और बिलखबिलख कर नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हँसिया न्योछावर है। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हँसी के बाद मन खिन्न हो जाता है। आत्मा क्षुब्ध हो जाती है। मानो हम थक गये हों। पराभूत हो गये हो। रुदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन , एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है।"
   
   इसलिये मैंने सदैव रुदन का समर्थन किया है। यह हर वेदना के लिये अचूक औषधि है। रुदन के पश्चात जो शांति और विरक्ति है। उसे वैराग्य की ओर ले जाना चाहता हूँ।
      अपनों के स्नेह से वंचित व्यक्ति अकसर देखा गया है कि दूसरों से प्रीति कर बैठता है। परंतु स्मरण रहे कि जो अपने नहीं है, हम यदि उनसे स्नेह करेंगे, तो  वे अपनी सुविधानुसार हमारे प्रति अपनत्व का प्रदर्शन कर भी दें, तब भी हम उनकी प्राथमिकता नहीं हैं। जैसा कि अकसर ही हम समझ लेते हैं। यही से एक वेदना जन्म लेती है। इस उपेक्षित स्नेह का उपचार रुदन के पश्चात विरक्ति ही है।
      पिछले कुछ दिनों यह विरक्त भाव मुझे कुछ इस तरह से मानसिक शांति प्रदान कर रहा है कि मानस पटल पर स्नेह एवं वेदना के वे पल चलचित्र की तरह छाये हुये हैं, फिर भी हृदय उसे ग्रहण नहीं कर रहा है। मन में यदि कुछ है,तो वह अपने आश्रम का सुखद स्मरण एवं गुरु की वाणी-
          माया महा ठगनी हम जानी...
    यदि सचमुच ऐसा ही है,तो मैं यह कहना चाहूँगा कि वेदना हमारे लिये वैराग्य पथ है। यही शांति पथ है।

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- व्याकुल पथिक