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Wednesday 18 December 2019

चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो ( जीवन की पाठशाला)


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   हम घर बैठ चाहे ठंड पर कितनी ही कविताएँ और कहानियाँ लिख ले, पर यह कभी नहीं समझ सकते हैं कि इस हाड़कंपाऊ ठंड में जैसे ही कंबल इस बांसफोर  परिवार के वृद्ध सदस्यों और उनके बच्चों को मिला, उनके चेहरे पर किस तरह की मुस्कान थी,साथ में दुआएँ भी, इसमें किसी तरह की कृत्रिमता नहीं थी।
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कहता है जोकर सारा ज़माना
 आधी हक़ीकत आधा फ़साना
चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो
 दुनिया नयी है  , चेहरा पुराना..

 ब्लॉगिंग का अपना सफर तो कुछ यूँ ही चल रहा है। कभी अपनी अनुभूतियों का जिक्र करता हूँ, तो कभी अपने चिंतन और दर्द को शब्द देने का प्रयत्न , एक पत्रकार होने के लिहाज से समाज में जो कुछ दिख जाता है, वह मेरे लिए खबर होती है। अतः थोड़ा नमक-मिर्च लगा उसे अखबार के पन्ने पर परोस आता हूँ। ढ़ाई दशक से अधिक तो यही काम करते हुये गुजार दिया है और अब कोई दूसरा धंधा करने की योग्यता खो भी चुका हूँ। जहाँ तक समाचारपत्र का सवाल है, तो वहाँ मैं अपनी पीड़ा नहीं लिख सकता , इसलिए गत वर्ष ब्लॉग पर आया , परंतु जो लिखता हूँ वह  फ़सान (काल्पनिक) नहीं है।
  वैसे यह मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है, क्योंकि मुझे लगता है कि  " चश्मा" आँखों पर पड़े पर्दे से भी घातक है। धर्म , राजनीति और पारिवारिक - सामाजिक संबंधों का सटीक विश्लेषण करने केलिए हम इसी स्वार्थ रूपी  चश्मे का प्रयोग करते हैं। मुझे पता नहीं है कि हम दूसरों को धोखा देने केलिए ऐसा करते हैं अथवा स्वयं को !
सच तो यह है कि विदूषक चाहे अपनी कला में कितना भी निपुण हो, वह कोई भी वेष बना ले,फिर भी उसकी सच्चाई एक दिन सामने आनी ही है।
   अब सीधे मुद्दे पर आता हूँ -  क्या " गरीबी  हटाओ " से लेकर " सबका साथ - सबका विकास " जैसे करिश्माई जुमले ने कामनमैन को मुस्कुराने का अवसर दिया है ?
    पूस का महीना है और अपनी बात यहीं से शुरू कर रहा हूँ। बचपन में जब दार्जिलिंग में था तो  निश्चित ही बर्फबारी का आनंद हमसब बच्चों ने भी खूब उठाया था। लेकिन,अब भलीभांति समझता हूँ कि उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों में ठिठुरन के साथ ही गलन का  जनजीवन पर कितना व्यापक प्रभाव पड़ता है।
  अपने मीरजापुर जनपद में विगत दिनों हुये बरसात के पश्चात ठंड अपने शैशवावस्था से युवावस्था में प्रवेश कर चुका है।
  धर्म, साहित्य, समाजसेवा और राजनीति के प्रति भीड़तंत्र से जरा हट कर अपना मत प्रस्तुत करने वाले बड़े भैया सलिल पांडेय जी के शब्दों में कहूँ , तो पूस-माघ का यह दो महीना कम्बल-अवतार उदारमनाओं' के दर्शन-उपदेश का है। यह 'महानुभाव' 'प्रख्यात समाजसेवी', 'उदारमना' आदि से अलंकृत होने का महीना होता है ।  वे सौ रुपए से भी कम का थोक में कम्बल जुटातेे हैं । इसके बाद बड़ा सा जलसा, महोत्सव, सेवा कैम्प आदि लगता है । बड़ा सा मंच शोभायमान होता है । क्लास वन और क्लास टू श्रेणी के लोग बुला लिए जाते हैं तथा फोर्थ श्रेणी का यह कम्बल बांटा जाता है, फिर भी खूब तालियाँ बजती हैं ।
 क्या आप बता सकते हैं कि सभ्य समाज के ऐसे जेंटलमैनों को क्या कहा जाए.. ? अतः सरकारी अफसर हों या राजनीति के माननीय । वे मंच पर अतिथि-मुख्य अतिथि बनने से पहले कम्बल की क्वालिटी जांच लें । झुर्रीदार चेहरे को कुछ ऐसा कम्बल दें कि इसे पाने की खुशी में उनकी एकाध झुर्री कम हो सके । प्रायः जो कम्बल बांटा जाता है पहली ही बार झटकने पर उसका रेशा-रेशा गठबन्धन वाली पार्टी की तरह अलग-अलग होने लगता है ।
 सच तो यही है कि इस आधुनिक युग में भी ठंड गरीबों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है , भिक्षुओं को तो कंबल मिल जा रहा है।  सामाजिक संस्थाएंँ अपने मंच से उन्हें गर्म वस्त्र दे स्वयं को संवेदनशील कहलाने का प्रमाण पत्र समाचार पत्रों के माध्यम से ले लेती हैं,  परंतु वे लोग जो श्रम के पुजारी हैं और किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाते हैं, यह ठंड उनके स्वाभिमान की परीक्षा लेती रही है । पिछले दिनों हुई बरसात ने ठंड को बढ़ा दिया है।  ठिठुरन से श्रमिक वर्ग परेशान है। रही बात अलाव की तो वह कुछ प्रमुख स्थानों पर  अथवा सरकारी कागजों पर ही जलते हैं ? जरा घर से बाहर निकल कर हम देखें तो सही किसी-किस चट्टी चौराहे पर प्रशासन ने अलाव जलवाया है या फिर किसी सामाजिक संगठन में यह पुण्य कार्य कर रखा है.. ?
 हम पत्रकारों को इसपर बहस करना चाहिए। यहीं हमारा धर्म-कर्म है। परंतु टीवी स्क्रीन पर एंकर अपनी कम्पनी के हितों का ध्यान रखते हुये कुछ कथित भद्रजनों ( राजनीतिज्ञ / गैर राजनीतिज्ञ )  को लाभ देने केलिए जिस तरह से किसी समसामयिक विषय  को तोड़मरोड़ कर बहस करते- कराते हैं, उसे देख मुझे लगता है कि पत्रकारिता का स्तर कितना नीचे गिरता जा रहा है। सवाल यह है कि क्या हो गया है , हम पत्रकारों की निष्पक्षता को !  मीडिया को व्यवसाय क्यों बना दिया गया है ?
 और फिर यह साफ-साफ कह क्यों नहीं दिया जाता कि मीडिया भी एक धंधा है ।

     पिछले दिनों मैं अपने साथी पत्रकार नितिन अवस्थी के साथ समाचार संकलन के लिए निकला था। मार्ग में एक जनसेवक का क्षेत्र मिल गया। कड़ाके की ठण्ड के बीच भगवान भास्कर बादलों की ओट में छिपे हुये थें । सड़क किनारे ठंड की पहली बारिश से पानी ठहर गया है। उसके पास ही दर्जन भर प्लास्टिक के तम्बू तने हुये दिखें। जिसके आसपास बच्चों का झुंड खेलने में मग्न था ।  मानों ये बच्चे गरीबी और ठण्ड से लड़ रहे हो। यहीं कुछ लोग बांस को छीलकर पतली- पतली फरहटी  निकालते दिखें। महिलाएँ उसे अपने हुनर से दउरी(टोकरी) का स्वरुप देने में तल्लीन थीं। दीवारों पर लगने वाली पेंटिंग की तरह का नजारा डीआईजी आफिस के आगे ग्राम सिरसी गहरवार में देख बाइक के ब्रेक पर दबाव बढ़ गया। हमदोनों काम में लीन इन ग्रामीणों के पास पहुँचे, तो इनकी जो व्यथा कथा सामने आयी, वह दबे- कुचले वर्ग की रहनुमाई का दावा करने वालों  के लिए आईना है ।  जिसे देखने के लिए छप्पन इंच के कलेजे  से ऊपर उठ कर मानवीय संवेदना की जरुरत है । यहाँ जो लोग हमें मिले, वे अपनी मेहनत से कमाने और दो वक्त की रोटी के लिए बांस से सामान बनाने के कारण बांसफोर कहे जाते हैं। फटे चादर के बीच अपने तन को सर्द हवाओं से बचाने का प्रयास कर रहे वृद्ध की जुबां से वार्तालाप के मध्य, उसका यह दर्द फूट पड़ा -" काश ! एक कम्बल मिल जाता तो इस ठिठुरनसे राहत मिल जाती। "
   यानी कि उसकी स्थिति कुछ ऐसी ही थी, जैसाकि हिंदी साहित्य में निम्न तबके के दर्द से वाकिफ उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद्र ने मौसम की मार झेलते एक बेबस किसान को पूस महीने में तड़पते देखा, तो उन्होंने तीन रुपए के कम्बल का इंतजाम न कर पाने के वाकए को इस कहानी में चित्रित किया था । इस कहानी का मुख्य पात्र हलकू पूस की रात में जबरा कुत्ते के साथ खेत की रखवाली करता तो है लेकिन कम्बल के रूपए साहूकार के ले लेने से वह कम्बल नहीं खरीद सका । ठंडक के चलते नीलगायों से खेत की रखवाली नहीं कर सका । जब वह पूस की रात में खेत चरते जानवरों की ओर घास-फूस की अलाव छोड़कर जाता तो शीतलहरी से हिम्मत न पड़ती और हलकू फिर अलाव के पास लौट आता रहा ।
 भोजन केलिए संघर्ष के दौर में बनारस जाने वाली आखिरी बस छूटने पर जब मैंने पूस की वह रात मीरजापुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर गुजारी थी,  मुझे आज भी याद है कि अपने पास बचे हुये अखबारों को खोलकर चादर की तरह उसे शरीर पर डाल लिया था और घुटने को छाती से सटा रखा था।
     इस वृद्ध के पुकार में भी कुछ ऐसा ही दर्द था, जो  सरकार की तमाम योजनाओं की हकीकत का झलक दिखला गया।
      अपने घर गाजीपुर से 180 किलोमीटर दूर सिरसी गहरवार में आकर रहने वाले इन भूमिहीन बांसफोर के बच्चों को सरकारी विद्यालय में दाखिला महज इसलिए नहीं मिला कि उनके पास बच्चों का आधार कार्ड नहीं था। सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद अगर उसकी योजना पात्रों तक नहीं पहुँच पा रही हैं तो इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा जाना भी आवश्यक है। जिले का मुखिया जिलाधिकारी है, तो सबसे छोटी इकाई गाँव का बड़का साहब ग्राम विकास अधिकारी होता है ।  इसके बावजूद कमी किस स्तर से है उसकी तलाश करने वाला वाला कोई नहीं है। फिर कैसे होगी रामराज्य(सुशासन) की स्थापना?  ताकि हमसभी गर्व से कह सकें- "रामराज्य बैठे त्रिलोका, हर्षित भयऊ गये सब शोका । "
  लिहाजा, मीडिया को हकीकत का आईना दिखलाते रहना चाहिए। समाचार प्रकाशन के बावजूद भी पात्र तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुँच रहा हो तब भी ।
    बहरहाल, यहाँ रामविलास, कमलेश, बबलू और गुड्डू का परिवार रहता है। लगभग तीस की संख्या में सदस्य हैं। जिनमें से 15 -16 बच्चे हैं।
इनमें से सिर्फ दो बच्चे ही समीप स्थित जय माँ विद्यामंदिर में पढ़ते हैं। शेष दिन भर धमाचौकड़ी मचाया करते हैं। ये बांसफोर यहाँ दउरी बनाते हैं। दिन भर में तीन दउरी ही बन पाती हैं। 80 से 100 रुपये में एक दउरी बनती है। तीन दउरी बनाने में एक कच्चा बांस लगता है। जो 100 रुपये में मिलता है।आप बताएँ जरा कि इनके श्रम का उपहास है कि नहीं, दिन भर काम कर डेढ़-दो सौ रुपये की कमाई से क्या ये अपने परिवार का विकास कर सकते हैं। ये बांसफोर लोग जो गाजीपुर से रोजी-रोटी की तलाश में यहाँ आये हैं,  इनके पास  न जमीन है, ना ही घर। ये सभी झोंपड़ी में रहते हैं। सभी सरकारी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। हमने देखा गरम वस्त्र के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं है । बारिश में पुआल , जो इनका बिछावन था, वह भी भीग गया था । क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि छोटे बच्चों के साथ महिलाएँ इन झोपड़ियों में ठंड भरी रातें किस तरह से काट रही हैं ?
   जीवकोपार्जन के लिए कर्म तो वे भी करते हैं प्रतिदिन, परंतु उनके श्रम का यह आधुनिक सभ्य समाज उपहास उड़ा रहा है। जनप्रतिनिधियों की संवेदनाएँ यहाँ परखी जा सकती है जो विभिन्न मंचों से अपनी वाह-वाह करवाया करते हैं।
  लेकिन, इन बांसफोर की पीड़ा समाचारपत्र में प्रकाशित करने के बाद हमदोनों पत्रकारों को खुशी तब मिली जब गौसेवक राज महेश्वर ने मेरे फेसबुक पर इस पोस्ट को देखा और मुझसे कहा कि वे चौबीस घंटे के अंदर इनसभी केलिए गरम वस्त्र की व्यवस्था कर रहे हैं। रोटरी क्लब डायमंड के अध्यक्ष पंकज खत्री ने भी मुझसे संपर्क किया,इसलिए ऐसा नहीं है कि मीडिया सिर्फ शोर मचाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि  गौसेवक राज महेश्वरी ने अपने कथनानुसार चौबीस घंटे के अंदर इन सभी बांसफोर लोगों को उनके निवासस्थान पर जाकर सस्नेह कंबल प्रदान किया, इसके लिए उन्होंने मंच सजाकर दानदाता होने का प्रदर्शन नहीं किया। यही तो है , एक सच्चे समाजसेवा का धर्म।
हम घर बैठ चाहे ठंड पर कितनी ही कविताएँ और कहानियाँ लिख ले, पर यह कभी नहीं समझ सकते हैं कि इस हाड़कंपाऊ ठंड में जैसे ही कंबल इस बांसफोर  परिवार के वृद्ध सदस्यों और उनके बच्चों को मिला, उनके चेहरे किस तरह की मुस्कान थी,साथ में दुआएँ भी थीं। इसमें किसी तरह की कृत्रिमता नहीं थी।

    अतः हम पत्रकारों का कार्य सिर्फ समाचार बेचना नहीं है , वरन हमारा कर्तव्य है अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना। पीड़ित की सहायता करना , चाहे उसके लिए कुछ भी मूल क्यों न अदा करना पड़े।  एक सच्चा पत्रकार वर्तमान सरकार की नाराजगी जाने के लिए तैयार रहता है।  वह सरकार के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता।  यदि वह अपना कर्तव्य नहीं निभाता , तो उन दुकानदारों की तरह है कि किसी ने सब्जी बेच दी तो किसी ने खबर।

     - व्याकुल पथिक