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Sunday 30 September 2018

गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा , हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा

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आज रविवार का दिन मेरे आत्ममंथन का होता है। बंद कमरे में, इस तन्हाई में उजाला तलाश रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि यह मन भी कैसा है , जख्मी हो हो कर भी गैरों से स्नेह करते रहा है।
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मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे
 के तेरा हाल क्या है
किस्मत तेरी रीत निराली, ओ छलिये को छलने वाली
 फूल खिला तो टूटी डाली
 जिसे उलफ़त समझ बैठा, मेरी नज़रों का धोखा था
 किसी की क्या खता है ...
 
     अभी कल ही मैंने अपने इस नादान मन से एक बार फिर से यह प्रश्न पूछा था कि जब तुम्हारी मंजिल उस वैराग्य की खोज है, जहाँ न किसी रिश्ते नाते की डोर है । अकेला आया था और अकेला जाना है,तो फिर किस प्रपंच में जा फंसा है। क्यों सामाजिक सारोकारों को उठा रहा है। अपने दर्द को यूँ खोल रहा है। जो राज वर्षों तक इस नाजुक मन को जख्मी करता रहा है, उन संस्मरणों को क्यों न दफन कर दे रहा है। दुनिया का तमाशा यूँ ही चलता रहेगा प्यारे ! तू क्यों बावला बना डोल रहा है रे मन !!
     अब कौन यहाँ है  तेरा , फिर क्यों है किसी का इंतजार। आने वाले को सलाम बोल ओर जाने वाले को खुदा हाफिज , क्यों कि हे मन..

गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दुबारा
हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा
खुशियाँ थीं चार पल की आँसू हैं उम्र भर के
तन्हाइयों में अक़्सर रोएंगे याद कर के
 दो वक़्त जो कि हमने इक साथ है गुज़ारा
हाफ़िज़ ...

     ढ़ाई दशकों तक राजनीति पर लिखा, अपराध जगत पर लिखा। कितनों को पसंद आया  तो कितनों ने बुरा भी माना । पर वह तुम्हारा पेशा था, रोजी रोटी का जरिया था। आज भी मित्रगण चाहते हैं कि तू ब्लॉग पर देश दुनिया के हालात पर लिख, पत्रकारिता के अपने अनुभवों से इस ब्लॉग की उपयोगिता को सार्थक कर।  आखिर में मैं अपने विषय से क्यों भटक गया यहाँ आकर । क्यों इस समाज में एक नन्हा सा दीपक बनने को रे मन तू यूँ मचल रहा है, जब कि यहाँ नहीं कहीं तेरा ठिकाना है।
   आज रविवार का दिन सदैव मेरे आत्ममंथन का होता है। सो, मुकेश के गाये इस गीत का रहस्य सुलझा रहा हूँ-

दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई
 काहे बनाए तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
 जिसमें लगाया जवानी का मेला ...

   बंद कमरे में, इस तन्हाई में उजाला तलाश रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि यह मन भी कैसा है , जख्मी हो हो कर भी गैरों से स्नेह करते रहा है। दो बातें  किसी ने क्या कर ली, उसे अपना मीत सा समझ लेता है। वर्षों गुजर गये मनमीत को लेकर क्यों कल्पनाओं में खोया- खोया सा रहा। भृतहरि सा वैराग्य क्यों तेरे मन में तब ना आया और अब तूँ , उन्हीं विषयों को उठा रहा है, एक टूटे हुये दर्पण को चूर-चूर कर रहा है। यह ठीक है कि तुझे किताबी धर्म नहींं सिर्फ कर्म में आस्था है। फिर मन की किताब के पन्ने क्यूँ बार बार पलट रहा है।  वैराग्य धारण कर क्यों नहीं उस निर्वाण को प्राप्त कर रहा है। जो कब से तेरे द्वार पर दस्तक दे रहा है।  तूने क्यों इसे भी छोड़ रखा है, खुद को सामाजिक भावनाओं से जोड़ रखा है। यादों की जंजीर पहने डोल रहा है,जरा सोच फिर कैसे मंजिल तेरे करीब आएगी। बचपन से ही तू एक चिन्तक रहा। दर्जा पांच में जब था, तभी मृत्यु भय से साक्षात्कार हुआ था। फिर दो वर्ष बाद ही अपनी प्यारी माँ की अर्थी लेकर निकला था। कोलकाता का वह महा श्मशान आज भी तुम्हें याद है।  सोच जरा कोलकाता में पड़ोस वाले कमरे का बारजा तुझे याद है न, माँ की मौत पर तब तक वहाँ खड़ा अनंत को निहारता रहा, जब तक तुझे जबरन बनारस ना भेजा गया। जहाँ से तेरी बर्बादी की कहानी शुरू क्या हुई , नगरी- नगरी भटकता ही रहा है। अब तो तू इस बंद कमरे का द्वार खोल वैराग्य की किरणों से अपनी कोमल मन की उन सारी भावनाओं को झुलसा दें। न कहीं तू आता है, ना जाता है, न ही कहीं तू कुछ खाता है। जब जैनियों सा तेरा भोजन है,परिग्रह का लोभ न है, फिर क्यों नहीं ब्लॉग पर अंतिम हस्ताक्षर कर उस महानिर्वाण का सुख पाता है। इस अनंत की ओर तो जरा देख जहाँ तेरे अपने हैं  , एक मनमीत को छोड़ दे , तो वहाँ तेरे सपने हैं। वहाँ न तुझे सिर दर्द की दवा चाहिए, ना ही नींद की गोली, इस अंधकार भरे  कमरे में न हँसी न ठिठोली है, पर वहाँ तो हर वक्त उजाला है। रे हंसा प्यारे ! यह दुनिया का मेला है। मेले में तू बिल्कुल अकेला है। हाँ , यह तमन्ना जरूर है, तेरी कि तू किसी के काम आ सके। पर व्हाट्सएप्प का स्टेटस बदले से क्या तेरा अकेलापन दूर हो जाएगा। फिर से सोच रे पागल मन कहीं तूने कुछ झूठ तो न लिख डाला । इस पवित्र पुस्तक को बदरंग करने से पहले चल चला चल मेरे यार । अब तेरा इस जहां पर कुछ भी कार्य तो शेष नहीं बचा । जब तक रहा सिर उठा के जिया है, पहचान और सम्मान भी पा लिया है । पटरियों पर गुजरी रात या महल में, पकवान मिले भोजन में या लोटा भर जल ही पिया है । हाथ तेरे कभी न फैले थें किसी के सामने, परंतु किसी अपने की चाहत में तू गिरता गया, झुकता गया, टूटता गया, लूटता गया। फिर इस नगमे से कब और कैसे तेरा  रिश्ता हो गया -

घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं
कभी इस पग में कभी उस पग में
बँधता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह ...
कभी टूट गया कभी तोड़ा गया
सौ बार मुझे फिर जोड़ा गया
यूँ ही टूट-टूट के, फिर जुट-जुट के
 बजता ही रहा हूँ मैं...

      बस तेरी यही कहानी है, न वंश ना ही जिंदगानी है। पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब, यह ख्वाहिश तेरे मन में भी लायी गयी थी बचपन में , पर तू तो " यतीम " बना दर दर भटक रहा है। रंगमंच पर अपने उस आदर्श पुरुष " जोकर " सा अभिनय कर रहा है।  आज शरीर साथ दे रहा है, तो दलिया बना ले रहा है, कल को रोटी जब न बना पाया तो क्या करेगा प्यारे । तूने अपना बैग हमेशा तैयार रखा है ,जैसे एक लम्बे सफर पर निकला है । तो फिर से ये मन क्यों भटक रहा है , जब न कोई साथी न बसेरा है। देख तो जरा वहाँ कितना उजाला है, जहाँ तुझे जाना है। आज तूने इस शाम के अंधेरे में , इस एकांत में  , जहाँ न कोई सखा न सहेली यह जो चिन्तन किया है मेरे दोस्त  , फिर पीछे पलट कर न देख। दर्द जो तेरे हृदय में समाया है , स्वयं को अनंत को समर्पित कर उसे बांट ले। जहाँ  न किसी के संदेश की प्रतीक्षा हो, न गुजरे दिनों की याद हो..
     रे मन ! तू उस कठोरता (वैराग्य) को प्राप्त कर । एक संत बनने की राह पर बढ़, फिर प्रस्थान कर इस जग से ।

 अपनों में रहे या ग़ैरों में
घुँघरू की जगह तो है पैरों में
कभी मन्दिर में कभी महफ़िल में
सजता ही रहा हूँ मैं
 घुँघरू की तरह ...
 
मुक्त हो जा अब इस दर्द से, इस तन- मन से ...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा, हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Saturday 29 September 2018

ओ दूर के मुसाफ़िर हम को भी साथ ले ले रे

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  मैं छोटी- छोटी उन खुशियों का जिक्र ब्लॉग पर करना चाहता हूँ, उन संघर्षों को लिखना चाहता हूँ, उन सम्वेदनाओं को उठाना चाहता हूँ, उन भावनाओं को जगाना चाहता हूँ, जिससे हमारा परिवार और हमारा समाज खुशहाली की ओर बढ़े ।
   बिना धागा, बिना माला  इन बिखरे मोतियों की क्या उपयोगिता है। मैं अपने इस लम्बे एकाकी जीवन में क्या खोया ,क्या पाया और क्या सीखा  इसकी चर्चा
निःसंकोच ब्लॉग पर करता हूँ ..
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 दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए
 फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए
 है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
 ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना
 ये घाट तू ये बाट कहीं भूल न जाना ...

   यह गीत मुझे तब से पसंद है , जब एक-एक कर प्रियजन मुझे छोड़ ना जाने कहाँ चले गये।  माँ , बाबा और फिर दादी भी ... और भी जो बाद में अपनों जैसे लगे वे भी तो छल गये  मुझे ...
   इन्हीं की स्मृतियों में नेत्रों में आयी नमी को छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहा था , तभी स्मरण हो आया कि धर्म-
अध्यात्म में रुचि रखने वाले बड़े भैया सलिल पांडेय जी ने इस पितृ पक्ष माह को लेकर अभी पिछले दिनों ही बातों ही बातों में टोका था मुझे कि  तुम कुछ नहींं लिख रहे हो अपने ब्लॉग पर.. ? देखों तो अपने पूर्वजों के संग भी किस तरह से दिखावट , बनावट और मिलावट कर रहे हैं ,  उनके ये कतिपय कलयुगी संतान.. कोई गया ( पिण्डदान स्थल) के लिये दौड़ लगा रहा है, तो कोई अन्य तरीका अपना रहा है , ताकि समाज की नजरों में वह श्रवण कुमार बन सके । शायद ये जनाब यह भूल गये कि श्रवण कुमार तो अपने जीवित माता- पिता को लेकर तीर्थ यात्रा पर निकले थें। परंतु ये सभी उनकी मृत्यु के बाद गया में उन्हें मोक्ष दिलाने जा रहे हैं।  इन लोगों से जरा यह पूछ ले कि वृद्ध माँ - बाप को , उनके जीवित रहते चार न सही एक भी धाम की यात्रा करवायी थी क्या कभी ..?  फिर उनकी मृत्यु के पश्चात मोक्षधाम में जाने को लेकर यह उतावलापन क्यों है मेरे भाई ..?  इतना नाटक - नौटंकी क्यों कर रहे हो आप..  प्यारे यह पब्लिक है, सब जानती है कि आप अंदर से कितने काले हो या गोरे...
    वैसे सच कहूँ तो पितृपक्ष पर मेरी भी इच्छा रही कि कुछ लिखूँ, परंतु मैं अपने परिवार के  किसी भी सदस्य के लिये एक योग्य संतान जब स्वयं को साबित ही न कर पाया, तो क्या लिखूँ ..?
      वैसे भी मेरा यह पूरा प्रयास है कि ब्लॉग पर मैं कुछ भी असत्य नहीं लिखूँ। यह ब्लॉग मेरे लिये अब तक के जीवन काल में एक पवित्र पुस्तक से अधिक महत्व रखता है। इस पर असत्य लेखन करना मैं महापाप से कम नहींं समझता हूँ। यहाँ किसी भी प्रकार की कृत्रिमता मुझे बर्दाश्त नहीं है। चाहे भले ही उसे पढ़ लोग व्याकुल पथिक समझे  या फिर  संत या ढ़ोंगी , वे मेरा उपहास करे या फिर मुझे गंभीरता से ले , मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता , क्यों कि जिस जगह में खड़ा हूँ, बंधुओं वह अब दलदली भूमि नहीं कठोर चट्टान है। यहाँ से मेरे पांव डगमगाने वाले नहीं है, मन चाहे कितने ही जख्मों को सहता क्यों न करता रहे और राह में मिलने वाले मुझे चंद दिनों में बेगाना समझ लें। ऐसा होना भी स्वभाविक ही है , जब आप अपने परिवार के नहीं हो सके, तो गैर क्यों आप पर विश्वास कर ले.. ? हाँ ,वह आपके साथ टाइम पास जरुर कर सकता है , पर यह उस परिवार का सुख तो नहीं है न, जिन्हें इस माह वियोग होने पर हम बड़े आदर भाव से याद करते हैं। इसलिये उतावलेपन में परिवार का त्याग करने से पूर्व इस पर गम्भीर से विचार कर लें कि आपकों कैसा जीवन चाहिए ...
       मेरी तरह घुटन भरा  या फिर अपनों संग वह स्वाभाविक हँसी-ठिठोली । मित्रों , जब आपका परिवार है, तभी कोई व्याकुल होगा कि सुबह - शाम आपने क्या भोजन किया, बाहर हैं तो फोन पर संदेशा आएगा , नहीं तो मेरा हाल सुन ले कि सुबह जो थोड़ा सा दलिया खा कर निकलता हूँ , तो रात 10 बजे के बाद ही जा कर रोटी की व्यवस्था हो पाती है।  मेरे भोजन ग्रहण करने न करने से किसी को क्या फर्क पड़ेगा। इसे लेकर बेचैनी तो आपकी माँ या पत्नी को ही होती है। शेष जो भी सम्बंध हैं,इस समाज में उसमें आपके प्रति वह तड़प निश्चित ही नहीं दिखेगी, क्यों कि उसका भी अपना परिवार है, फिर हम उसकी प्राथमिकता की सूची मैं कैसे आएँगें।
    जो नौजवान गुमराह हो घर छोड़ दे रहे हैं ,उनके लिये कह रहा हूँ यह सब ... कितनी ही बार अवसाद की स्थिति में इस एकाकी जीवन को समाप्त करने की इच्छा हुई, परंतु नहीं किया। अभी तो समय के उस चक्र को पूरा करना है और अपनों की जुदाई को अभी कुछ यूं ही सहना है-

 तू ख़यालों में मेरी अब भी चली आती है
अपनी पलकों पे उन अश्कों का जनाज़ा लेकर
 तूने नींदें करीं क़ुरबान मेरी राहों में
 मैं नशे में रहा औरों का सहारा लेकर
 ग़म उठाने के लिये मैं तो जिये जाऊँगा ..

 अभिभावकों के कितने ही अरमानों को मैंने परोक्ष रुप से ध्वस्त किया। चाहे वह मेरी विवशता ही क्यों न रही हो। कोलकाता(ननीहाल) में मिले दुलार और फिर बनारस(घर) के अति अनुशासन ने मुझे बेघर कर दिया हो। आज उसी का परिणाम है कि मैं एक मुसाफिरखाने में पड़ा हूँ। फिर क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ पितृपक्ष पर .. नौटंकी मुझे पसंद बिल्कुल भी नहीं है।
  गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है -

 पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।

  इसे मैंने अपने ब्लॉग लेखन का पैमाना मान लिया है। एक बात और मैं छोटी- छोटी उन खुशियों का जिक्र ब्लॉग पर करना चाहता हूँ, उन संघर्षों को लिखना चाहता हूँ, उन सम्वेदनाओं को उठाना चाहता हूँ, उन भावनाओं को जगाना चाहता हूँ, जिससे हमारा परिवार और हमारा समाज खुशहाली की ओर बढ़े । बिना धागा, बिना माला  इन बिखरे मोतियों की क्या उपयोगिता है। मैं अपने इस लम्बे एकाकी जीवन में क्या खोया ,क्या पाया और क्या सीखा  इसका जिक्र निःसंकोच ब्लॉग पर करता हूँ ।  वैसे एक पत्रकार के रुप में तो मेरी रुचि राजनीति और अपराध जगत से जुड़ी खबरों में अधिक रहती है , फिर भी ब्लॉग को मैंने इससे दूर ही रखा हूँ।
     हाँ , अपने पूर्वजों को लेकर  बचपन का एक - दो संस्मरण है  मेरे पास ।  जब मैं छोटा था, तो चित्रकला में रुचि थी मेरी।  तब मैंने अपने दादा जी का चित्र बनाया था। जो घर पर सभी सदस्यों को पसंद आया था और एक याद बचपन की है। पितृपक्ष पर एक छोटी सी पोटली में भोजन सामग्री बांध उसके साथ एक बांस की छोटी सी छड़ी घर के बाहर दरवाजे पर रखी जाती थी । हम बच्चों से बताया जाता था कि रात में दादा जी इसे ले जाएँगें। अगले दिन सुबह होते ही हम दरवाजे  की ओर भागते थें। पोटली और छड़ी खोजते थें, पर वह मिलती कहाँ थी। तब हम बहुत खुश होते थें कि दादा जी ले गये उसे। सच तो यही था कि चूहा उसे खींच ले जाता होगा , फिर भी हम बच्चों को अपने पूर्वजों से भावात्मक रुप से जोड़ने का यह सहज माध्यम था। आज के बच्चों में  ऐसा आत्मीय लगाव क्यों  नहींं ला पा रहे हैं हम ..?  इस पर भी विचार करें हम ।
   सम्वेदनाओं की यही कमी , हमें अवसाद की ओर ले जा रही है। परिवार बिखर जा रहा है, हम टूट जा रहे हैं । इन्हीं सब विषयों पर यहाँ ब्लॉग पर मैं अपने आप से बात करता हूँ, अंतःकरण में दृष्टि डालता हूँ। मुझे लगता है कि अवचेतन मन  हमें लगातार संकेत देता रहता है, हम उसे भले न समझ पा रहे हो। बाबा थें ,तो माँ  की लम्बी बीमारियों के बावजूद जब भी उनका चित्त प्रसन्न  रहता था । उनका पसंदीदा गीत था..

जब प्यार किया तो डरना क्या
प्यार किया कोई चोरी नहीं की
प्यार किया कोई चोरी नहीं की
 छुप छुप आहें भरना क्या ...

     यह गीत एक दिन सत्य हो गया, उनकी मृत्यु कोलकाता में कब-कहाँ हुई, किस दिन हुई , मुझे कुछ भी पता नहीं। बस इतना पता है कि परिवार का कोई सदस्य वहाँ नहीं था। इस पितृपक्ष में सबसे अधिक मन उन्हीं को लेकर व्याकुल है। माँ का अंतिम संस्कार तो उन्होंने पूरी भव्यता के साथ किया था, परंतु स्वयं अनाथ सा चले गये। दादी घर के एक छोटे से कमरे में बीमार पड़ी रहीं और चली गई, तब मैं कलिम्पोंग में था। ताऊ जी ने बताया था कि तुम्हारे पिता की मृत्यु से दो दिनों पूर्व तुम्हारी छोटी बहन भी चल बसी । अपनी माँ की अर्थी को 13 वर्ष की अवस्था में कंधा देने वाला वह बालक इतना विवश क्यों हो गया कि फिर सभी अपनों से दूर रहा, उनके अंतिम संस्कार तक में न शामिल हो सका। अतः क्या लिखूँ ब्लॉग पर..?
 सिर्फ इन कुछ पंक्तियों के..

 ओ दूर के मुसाफ़िर हम को भी साथ ले ले रे
 हम को भी साथ ले ले
 हम रह गये अकेले
 तूने वो दे दिया ग़म, बेमौत मर गये हम
 दिल उठ गया जहाँ से, ले चल हमें यहाँ से
 ले चल हमें यहाँ से
 किस काम की ये दुनिया जो ज़िंदगी से खेले रे
 हम को भी साथ ले ले....

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ लेले रे ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Wednesday 26 September 2018

ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा

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मैं तो बस इतना कहूँगा कि यदि पत्नी का हृदय जीतना है , तो कभी- कभी घर के भोजन कक्ष में चले जाया करें बंधुओं , पर याद रखें कि गृह मंत्रालय पर आपका नहीं आपकी श्रीमती जी का अधिकार है। रसोईघर से उठा सुगंध आपके दाम्पत्य जीवन को निश्चित अनुराग से भर देगा। ऐसा इसीलिये कहता हूँ कि मैं जब भी कहींं रहा , प्रयास मेरा होता था कि प्याज और सब्जी काट दूँ। यह देख खुश हो महिलाएँ मुझसे कहा भी करती थीं कि शशि भैया ! आपकी पत्नी तो बड़ी भाग्यशाली होगी ...काश ! अपने भाई साहब को भी अपना यह हुनर कुछ तो सिखा दें न...
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यूँ तो अकेला ही अक़सर, गिर के सम्भल सकता हूँ मैं ,
तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा, दुनिया बदल सकता हूँ ,
मैं मांगा है तुम्हें दुनिया के लिये ,
अब ख़ुद ही सनम फ़ैसला कीजिये ,
ओ मेरे दिल के चैन ..
   रात्रि की इस तन्हाई में जब हम दो ही साथ होते हैं , अक्सर यह सवाल मैं अपने मासूम दिल से पूछता हूँ कि  बंधु माना कि हम किसी के नहींं हो सके ना कोई हमारा ही हुआ ,तो भी तुम्हें इन नगमों की थपकियों से नींद की देवी के आगोश में पनाह दे ही देता हूँ। देखों न हम -तुम आपस में कितने लड़ते -झगड़ते हैं, रूठते- मनाते हैं और जीवन का हर दर्द खुशी- खुशी बांट लेते हैं। यह मान लेते हैं कि हम दोनों की नियति है, यह तन्हाई। हाँ, यह सत्य है कि तुम्हारी अनेक चाहतों को मैं पूरा नहीं कर सका हूँ । तुम्हारी उदासी कभी- कभी मेरे मुस्कुराते चेहरे पर भी झलक आती है। तुम्हारी मासूमियत पर , तुम्हारी कसमसाहट पर , तम्हारी बच्चों जैसी बातों पर जब तरस मुझे आता है , तो एक टीस  हृदय में उठती है। स्मृतियों के पटल पर अतीत का मानचित्र बनने लगता है -

तुम होती तो कैसा होता,
तू यह कहती, तुम वोह कहती,
तुम इस बात पे हैरान होती,
तुम उस बात पे कितनी हसती,
तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता..

 इसी अंताक्षरी में रात गुजर जाती है,  सबेरा होने के साथ ही

  भोर भये पंछी धुन ये सुनाए,
 जागो रे गई रितु फिर नहीं आए ...

 यह संदेश हम दोनों को फिर से चैतन्य कर देता हैं। हम अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं। न अतित, ना वर्तमान की सुधि रहती है...

     शाम ढलते ही फिर से वही तन्हाई , जिसमें अक्सर बातें करते हैं  हम , कुछ अपनी तो कुछ देश दुनिया की, रात आखिर यूँ कटेगी कैसे ? अभी कल ही विचार मन में आया कि जिसके पास धन- दौलत , बीवी- बच्चे  सब -कुछ है, उनका हाल-खबर भी हो जाए कि कितना खुशनुमा जीवन उनका है।         
   सो, मुसाफिरखाने से निकल अपंने एक शुभचिंतक के प्रतिष्ठान पर जा बैठा । जनाब अवस्था में मुझसे छोटे ही हैं, फिर भी  मुहर्रमी सूरत उनकी मुझ यतीम पर भी भारी थी । इन दिनों मार्केट पर पितृपक्ष जो लगा है । दो पैसे की ललक में लोग रविवार तक को दुकानें खोले बैठे रहते हैं। बातों ही बातों में बंधु ने घर- गृहस्थी का मसला उठाते हुये जनाब ने एक लम्बी ठंडी सी सांस ली और कहा कि भाई साहब ! मस्त तो आप हो दोस्त ... यहाँ तो अपने घर की महिलाओं का हाल यह कि वे गृहलक्ष्मी की जगह दरिद्रता लाने वाली देवी बन बैठी हैं । बताएं न तीस हजार रुपये महीने का घर का खर्च है ,धंधे का हाल देख ही रहे हैं । हम कुलर में दिन गुजार देते हैं। मैडम एसी चला बेडरूम में पड़ी टीवी सिरियल्स देखती रहती हैं। फिर वे अपने गोलमटोल लाडले की ओर इशारा कर कहते हैं..  देख लें अपने भतीजे को , फास्टफूड खिला- खिला कर इसी उम्र में इसका क्या हाल बना दिया है .. हमारी तो कोई सुनता ही नहीं..? पर मैं जानता हूँ कि झुंझलाहट में जिसे वे ताना दे रहे थें, उनका व्यवहार वैसा है नहींं, उनका निश्छल - सरल स्वभाव है साथ ही रंग रूप से भी आकर्षण है। हाँ , बड़े घर की बेटी हैं, कांवेंट में पढ़ी हैं। सो, सोसायटी में फर्क निश्चित ही है। कुछ ख्वाहिशें उनकी भी होगी  , अपने साजन से। परंतु हालात यहाँ यह है कि मियां रविवार को भी दुकान खोल ग्राहक सेवा में जुटे रहते हैं और बेचारी  बीबी मन मारे क्या करती  फिर सिरियल्स देखने के अतिरिक्त । संस्कारित परिवार है, तो बाहर किसी स्कूल में नौकरी की इजाजत भी तो उन्हें नहीं मिली है..
    घर- घर की अमूमन एक ही कहानी है, वह जो प्रेम, समर्पण, अनुराग गृहस्थ जीवन में पति- पत्नी के मध्य होना चाहिए, वह सिंदूर की एक लकीर पर समाजिक बंधन के कारण टिकी हुई है। एक खूबसूरत स्वप्न, एक काल्पनिक उड़ान और एक उमंग जो विवाह के पूर्व हर किसी में होता है..

झिलमिल सितारों का आँगन होगा ,
रिमझिम बरसता सावन होगा,
 ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा ,
प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बनाएंगे ,
कलियाँ ना मिले ना सही काँटों से सजाएंगे ..

   आखिर दाम्पत्य जीवन में यह परिदृश्य बदल क्यों रहा है। जबकि सोशल मीडिया पर युवा दम्पति यूँ लिपटे-चिपके दिखते हैं मानों  कह रहे हो..

हमें और जीने की चाहत न होती ,
अगर तुम न होते, अगर तुम न होते ,
हमें जो तुम्हारा इशारा न मिलता ,
भंवर में ही रहते किनारा न मिलता ...

    क्यों  बढ़ती जा रही हैं फिर ये दूरियाँ ..?  पत्रकार हूँ ,तो आये दिन हृदय विदारक घटनाओं को देखता और लिखता हूँ। अभी विगत माह की ही तो बात है। एक महिला ने अपने तीन मासूम बच्चियों संग विषाक्त पदार्थ का सेवन कर खुदकुशी कर ली। आर्थिक रुप से कमजोर फिर भी सुखी परिवार था। मृतका के  पिता ने भी यह स्वीकार किया था कि उसका जामाता निर्दोष है। तब कैसे हो गयी यह अनहोनी ..? पड़ताल किया तो मृतका के पति ने बताया कि उसकी एक पुत्री के पांव की हड्डी वर्ष भर पूर्व सड़क दुर्घटना में टूट गयी थी। उपचार में काफी खर्च हुआ था। घटना से दो दिन पूर्व उसकी माँ ने उसे अकेले सड़क उस पार सामान लाने भेज दिया था। जिससे क्षुब्ध हो उसने अपनी पत्नी से कह दिया था कि दवा का खर्च क्या तुम्हारे मायके वाले देते हैं । हाँ ,एक बड़ी गलती उसने यह की कि दो दिन घर भी नहींं गया, दुकान पर ही रह गया। उधर , पिता को सम्बोधित कर पति द्वारा दिये गये उलाहना से आहत पत्नी ने यह अप्रत्याशित कदम उठा कर हर किसी को स्तब्ध कर दिया। पिछले ही सप्ताह एक युवक ने फांसी लगा ली । डेढ़ वर्ष पूर्व ही तो हुआ था उसका विवाह  ,  एक माह का बच्चा भी था। फांसी या आग लगा लेनें , जहर खाने, ट्रेन के समक्ष या फिर पुल से नदी में कूद कर मरने वाली विवाहित स्त्रियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
             ये नैना सुन्दर सपनों के झरोखे बनते- बनते पथरा क्यों गये और मन की आशाओं का दर्पण टूटा क्योंं..?
  जहाँ तक मेरी समझ है पति - पत्नि के मध्य तेरा- मेरा का  भेद भरा यह दो शब्द उनके प्रेम में सदैव बाधक है ।  उनमें एक दूसरे के प्रति आदर , भरोसा, श्रद्धा और आत्मसमर्पण का भाव होना ही चाहिए। यदि ऐसा है तो जीवन सागर में गोता लगाने का आनंद कुछ और ही है। लेकिन, होता यह है कि विवाह के पश्चात पति अपनी पत्नी के  तन का स्वामी तो बन जाता है, परंतु उसके मन के भाव को नहीं पढ़ पाता । मैं तो बस इतना कहूँगा कि यदि पत्नी का हृदय जीतना है , तो कभी- कभी घर के भोजन कक्ष में चले जाया करें बंधुओं , पर याद रखें कि गृह मंत्रालय पर आपका नहीं आपकी श्रीमती जी का अधिकार है।जहाँ की संचालिका वे हीं हैं, पुरूष की भूमिका तो यहाँ एक सहायक की है। चलिये माना कि रोटी बनाने नहीं आता, पर सुबह की चाय तो बना कर अवकाश के दिन अपनी अर्धांगिनी को दिया ही जा सकता है। सब्जी काटना आदि कुछ तो मिलजुल कर किया ही जा सकता है। देखें फिर किचन की खुशबू किस तरह से आपके दाम्पत्य जीवन महका सकती है, चहका सकती है। यदि हम मर्द थोड़ा सा समय अपने रसोईघर के लिये निकाल लें, तो फास्टफूड वाली यह बीमारी भी  छूमंतर हो जाएंगी। किंचन में तो बस  आपका प्रेम श्रीमती जी को हर कार्य करने को स्वतः विवश कर देगा। पर याद रखें कि भूल से ही अपनी पंसद वहाँ भी न चलाये। वे अर्धांग हैं आपकी , उन्हें मालूम है कि आपकी पसंद क्या है। न विश्वास हो तो कभी अजमा कर देखें आप ...
    रसोईघर से उठा सुगंध आपके दाम्पत्य जीवन को निश्चित अनुराग से भर देगा। ऐसा इसीलिये कहता हूँ कि मैं जब भी   कहींं रहा , प्रयास मेरा होता था कि प्याज और सब्जी काट दूँ। यह देख खुश हो महिलाएँ मुझसे कहा भी करती थीं कि शशि भैया ! आपकी पत्नी तो बड़ी भाग्यशाली होगी ...काश ! अपने भाई साहब को भी अपना यह हुनर कुछ तो सिखा दें न...
 यह बात और है कि मेरी नियति में तन्हाई है , परंतु आपके पास तो भरपूर अवसर है , इस प्यारे से गीत को गुनगुनाने का..
एक प्यार का नगमा है,
मौजों की रवानी है,
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं,
तेरी मेरी कहानी है,
तू धार है नदिया की,
मैं तेरा किनारा हूँ,
तू मेरा सहारा है,
मैं तेरा सहारा हूँ....


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Sunday 23 September 2018

अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले...

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  ( जीवन की पाठशाला से )

  पशुता के इस भाव से आहत गुलाब पँखुड़ियों में बदल चुका था और गृह से अन्दर बाहर करने वालों के पाँँव तले कुचला जा रहा था। काश ! यह जानवर न आया होता, तो उसका उसके इष्ट के मस्तक पर चढ़ना तय था।पर ,नियति  को मैंने इतना अधिकार नहीं दिया है कि वह मुझे किसी की सीढ़ियों पर गुलाब की पँखुड़ियों की तरह बिखेर सके , ताकि औरों के पाँँव तले मेरा स्वाभिमान कुचला जाए। यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...

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ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना
यहाँ कल क्या हो किसने जाना
हँसते गाते जहाँ से गुज़र
दुनिया की तू परवाह ना कर
मुस्कुराते हुए दिन बिताना...

     सुबह  प्रतिदिन की भांति अपना दैनिक कार्य संपन्न करने निकला था। कान के बाईं तरफ ईयर वैसे ही लगा था। मेरी आदत सी है कि यदि मन मिजाज ठीक रहता है, तो किशोर दा को सुनना पसंद करता हूँ, नहीं तो मेरे सदाबहार गायक तो मुकेश ही हैं। आज अखबार का बंडल एक घंटे विलंब से मिला था। आसमान भी अपनी काली चादर का त्याग चुका था। अच्छी बारिश हुई थी, अतः मौसम  सुहावना था। आगे बढ़ा तो मार्ग में एक धनिक के उपवन पर दृष्टि चली गयी। वहाँ ,खिले सुर्ख गुलाब को लगा मैं अपलक निहारने। तभी माली आया और उसके बेदर्द कठोर हाथ ने एक-एक कर सभी ताजे खिले गुलाब के फूलों को तोड़ लिया। यह देख मेरा विरक्त मन कुछ चित्कार कर उठा और मस्तिष्क  चिन्तन में डूब गया। सोचने लगा कि अब इस मासूम गुलाब का क्या होगा। हम सभी यही कहेंगे कि श्रेष्ठ स्थिति तो यही है न कि वह किसी मंदिर की शोभा बढ़ाये, इंसान भी उसे धारण कर सकता है और रात में वह किसी के शयन कक्ष में रौंदा भी तो जा सकता है वह । एक दिन देखा कि वह सीढ़ियों पर बिखरा पड़ा है। माली थैली में भर उसे धनिक के दरवाजे पर लटका गया था , लेकिन किसी जानवर की नजर उस पर पड़ गयी और अपना मुहँ मार गया उस थैली पर , पशुता के इस भाव से अभागा गुलाब पँखुड़ियों में बदल चुका था और गृह से अन्दर बाहर करने वालों के पाँँव तले कुचला जा रहा था। काश ! यह जानवर न आया होता, तो उसका उसके इष्ट के मस्तक पर चढ़ना तय था। यही सोच तो वह अपने भाग्य पर इतरा रहा था, लेकिन देखें न क्या से क्या हो गया यह बेचारा अपना खुबसूरत गुलाब, कहाँ खो गयी उसकी वह मुस्कान..?
   बंधुओं इसे ही कहते हैं नियति का तमाशा। हम उसके समक्ष कुछ कहने को असमर्थ हैं , सिर्फ इस दर्द भरे नगमे के...

मैं ये भूल जाऊँगा ज़िंदगी
कभी मुस्कुरायी थी प्यार में
मैं ये भूल जाऊँगा मेरा दिल
कभी खिल उठा था बहार में..

     पर हाँ , यह गुलाब जब तक कांटों से भरी अपनी डाली से जुड़ा था, पल दो पल का उसका अपना अस्तित्व निश्चित था यहाँ। कांंटा क्या है , यह मानव जीवन की चुनौतियाँ ही तो हैं ? जब तक गुलाब ने उसे स्वीकार किया। उस पर भंवरे मंडराते रहें, तितलियाँ आती रहीं और  हम उसके सौंदर्य के अभिलाषी रहें। परंतु जैसे ही भौतिकता (माली) का स्पर्श उससे हुआ, उसमें कृत्रिमता आ गयी। फिर चाहे वह सुंदर पुष्पहार बने, पुष्पगुच्छ बने या किसी मंदिर की शोभा ही क्यों न बने , सौंदर्य गुलाब का नहीं उसे धारण करने वाले का बढ़ता है।
                ठीक उसी तरह जब तक हम अपने परिवार से ,अपनी जमीन से ,अपने जमीर से और अपने संघर्ष से जुड़े हैं, तब तक हमारा भी अस्तित्व है भले ही उसमें कांटे( चुनौती) अनेक हो। नहीं तो पता नहीं नियति ( माली)  क्या करे हमारा ..?
   मुझे ही देख लें न , घर से क्या निकला , कभी किसी के गले का हार बना, तो कभी उसी के पाँँव रौंद दिया गया। फिर तो कुछ ऐसा लगा था कि...

तुम्हें अपना कहने की चाह में
कभी हो सके न किसी के हम
यही दर्द मेरे जिगर में है
मुझे मार डालेगा बस ये ग़म
मैं वो गुल हूँ जो न खिला कभी
मुझे क्यों न शाख़ से तोड़ दो
मुझे तुम से कुछ भी   ...

अपने गिरने - सम्हलने का यह सिलसिला यूँ ही जारी है और उम्र के इस पड़ाव पर एक फकीर सा इधर- उधर विचरण कर रहा हूँ।  कुछ यूँ  गुनगुना कर अपने मन को तसल्ली दे रहा हूँ ..

आने वाला पल जाने वाला है
हो सके तो इस में
ज़िंदगी बिता दो
पल जो ये जाने वाला है...

    वैसे, सकरात्मक पक्ष मेरा यह है कि बचपन से ही एक विश्वास रहा है मुझे कि नियति जहाँ भी ले जा फेंके, वहाँ इस गुलाब सा पल दो पल के लिये ही सही, पर एक पहचान होगी मेरी। चाहे छात्र रहा या फिर पत्रकार । मंदिर मेरे सपनों का टूटा अवश्य , पर इस दर्द ने नयी पहचान दी , नये मित्र दिये और नये संबंध दिये । नियति  को मैंने इतना अधिकार नहीं दिया है कि वह मुझे किसी की सीढ़ियों पर गुलाब की पँखुड़ियों की तरह बिखेर सके , ताकि औरों के पाँँव तले मेरा स्वाभिमान कुचला जाए। यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...
       यह मेरी चुनौती है उसे । अब देखे न साहित्यिक ज्ञान में नर्सरी का छात्र जैसा ही हूँ, फिर भी ब्लॉग पर  कुछ पहचान बनाया हूँ न..?  क्यों है ऐसा , यह हमारा अपने निःस्वार्थ
कर्म के प्रति समर्पण है। मैं हर किसी से कहता हूँ , चाय वाले से, पान वाले से लेकर भद्रजनों से भी कि रंगमंच पर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करें। नियति यह अधिकार हमसे नहीं छीन सकती। एक नगमा मुझे हमेशा प्रेरित करता है-

तदबीर से बिगड़ी हुई, तकदीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले...

     ब्लॉग पर अधिकांशतः मैं अपनी ही बात कहता हूँ। नियति के इसी आईने में स्वयंको समझने -सुधारने का प्रयास करता हूँ। मेरी उलझी हुयी इस राह में स्नेही जनों के मिलने का क्रम जारी है। परंतु सच कहूँ, यह जीवन नहीं है मित्रों। हाँ , एक पत्रकार हूँ, ढ़ाई दशक गुजरा है अपने इसी दुनिया में, इसीलिये एक सामाजिक पहचान है , मान भी लिया हूँ  कि यही मेरा घर- संसार  है। लेकिन, शाम ढ़लने के बाद खाली आशियाने में रात गुजारने का दर्द हर इंसान नहीं सहन कर सकता है। भले ही संतों की तरह रुप, रंग, सुंगध और स्वाद से दूरी बना ले वह। यह मासूम सा दिल उसका फिर भी बच्चों की तरह मचलता है किसी ममतामयी आंचल की चाहत में, दर्द नगमे बन जाते है...

एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता  तेरा इरादा क्या है
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बरबाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बता मौत से ज़्यादा क्या है..

      मन को ज्ञान के झुनझुने से इतनी आसानी से फुसलाया नहीं जा सकता है , कभी - कभी तो इस कोशिश में पूरी उम्र ही निकल जाती है । अतः परिवार में रह कर गुलाब सा खिलें , पूर्णता को प्राप्त करें, यदि नियति ने वियोग दिया भी तो  कामनाओं को पीछे छोड़ दें। फिर भय नहीं रहेगा कुचले जाने का , ठुकराये जाने का । अपने को समाज को अर्पित कर दें। अभी तक तो यही अटका हुआ है मेरा चिन्तन। देखूँ कहाँ तक इस पर कायम रह पाता हूँ।



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Thursday 20 September 2018

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार...


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अब देखें न हमारे शहर के पोस्टग्रेजुएट कालेज के दो गुरुदेव  कुछ वर्ष पूर्व रिटायर्ड हुये। तो इनमें से एक गुरु जी ने शुद्ध घी बेचने की दुकान खोल ली थी,तो दूसरे अपने जनरल स्टोर की दुकान पर बैठ टाइम पास करते  दिखें । हम कभी तो स्वयं से पूछे कि क्या दिया हमने समाज को।
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अजीब दास्ताँ है ये
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम
ये मंजिलें है कौन सी
न वो समझ सके न हम...

       इस रंगबिरंगी दुनिया के धूप-छांव में जीवन की पहेलियों में उलझते - सुलझते , मंजिल की तलाश में आगे बढ़ रहा हूँ। नियति के इस खेल को न तो मैं ठीक से समझ पा रहा हूँ और न वे मुझे समझ पा रहे हैं, जो मेरे करीब रहें इतने वर्षों तक। किसी ने मुझे ढ़ोगी , तो किसी ने दंभी से लेकर एक बच्चा और संत भी समझा है।  किसी ने स्नेह दिया, तो किसी ने दुत्कारा भी , मेरी जिंदगी का सफर कुछ इसी तरह से आगे बढ़ता जा रहा है। जहाँ तक सम्भव रहा ईमानदारी, मेहनत और समर्पित भाव से अखबार के क्षेत्र में जितनी भी जिम्मेदारियाँ थीं ,उसकों निभाने का प्रयास किया। फिर भी एक मोड़ वर्षों पूर्व ऐसा भी आया , जहाँ मैं अकेलेपन के दलदल में जा फंसा। मेरे मन की छटपटाहट , जब बढ़ी और ऐसा प्रतीक हुआ कि इस रंगीन दुनिया में इस इंसान की कीमत कुछ भी नहीं है। ऐसी मनोस्थिति में विरक्त भाव की प्रबलता के कारण मैंने अपने व्हाट्सएप्प पर लम्बे समय से यह लिख छोड़ा है कि

 तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला...

      यह मेरे उन पसंदीदा गीतों में से एक है, जो मुझे इस एकाकी जीवन में उस सत्य से अवगत करवाता है कि यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते, है कौन सा वो इंसान यहाँ पे जिस ने दुख ना झेला, चल अकेला ...
     परंतु इस लम्बे अंतराल के बाद अब मैं अपने व्हाट्सएप्प का यह स्टेटस बदल रहा हूँ। अपने जीवन में सकरात्मक परिवर्तन के लिये, ताकि समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को और भी बेहतर ढ़ंग से समझूँ साथ ही ब्लॉग पर अपने विचारों को नयी दिशा दे सकूं। ऐसा नहीं कि मैं स्वयं ही किसी बनावट या दिखावट के लिए यह कर रहा हूँ। ना भाई  ना ...बिल्कुल ऐसा न समझे आप , मुझे स्वयं को विशिष्ट दिखलाने का बिल्कुल भी शौक नहीं रहा है। यह  बदलाव मुझमें वर्षों बाद आया है, स्वतः  नहीं, बल्कि ब्लॉग पर रेणु दी , मीना दी एवं श्वेता जी सहित आप सभी मित्रों से मिल रहे अपार स्नेह के कारण। लम्बे समय से एकाकीपन ने  मुझे चहुंओर से घेर लिया था।  वहीं  पत्रकारिता ने भी तो जब-तब आहत ही किया है मुझे। लेखन से जहाँ अनेक मित्र बने, तो कुछ शत्रु भी। किसी ने शाबाशी दी, तो किसी में ईष्या का भाव भी था। यह पत्रकारिता जगत भी तो कुछ ऐसा है कि हर कार्य हम सभी संदेह की निगाहों से देखने लगते हैं। तरह - तरह की घटनाओं को अपनी इन्हीं आँखों से देखते हैं और उस पर समाचार एवं विचार दोनों ही लिखते हैं। जिससे नकारात्मक उर्जा भी हम पर ग्रहण लगाती रहती है, ऐसा इन ढ़ाई दशकों में मैंने महसूस किया। यहाँ मैं अपनी बात कर रहा हूँ। हमारे अन्य बंधुओं के साथ ऐसी स्थिति न रही हो। हर किसी के जीवन को तौलने का एक पैमाना नहीं होता है। हाँ, परिस्थितियों के अनुसार भटकते, फिसलते सच की  राह  को कितना अपनाया , इस पर निष्पक्ष आत्ममंथन तो हमें जीवन के किसी मोड़ पर करना ही चाहिए।  यहीं से हमें अपने दायित्व का बोध होने लगेगा।  अतः  मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना , अपने दर्द को भूलकर अब मैं यह सोच रहा हूँ कि मैंने समाज को क्या दिया।  अब देखें न हमारे शहर के  पोस्टग्रेजुएट कालेज के दो गुरुदेव कुछ वर्ष पूर्व रिटायर्ड हुये। तो इनमें से  एक गुरु जी ने शुद्ध घी बेचनेकी दुकान खोल ली थी,तो दूसरे अपने जनरल स्टोर की दुकान पर बैठ टाइम पास करते रहें। वे भी कभी अपनी अंतरात्मा से पूछे कि क्या दिया उन्होंने समाज को निःशुल्क । डिग्री कालेज के प्रवक्ता के रुप में मोटा वेतन मिलता था उन्हें। तो कालेज में जो शिक्षा वे बच्चों को देते थें, वह निःस्वार्थ और निःशुल्क तो नहीं था न ? हाँ , वे चाहते तो अवकाश ग्रहण के पश्चात कुछ गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दे सकते थें या फिर कोई सामाजिक कार्य जन जागरण का भी करने में वे समर्थ थें।  समाज में कुछ पहचान तो उनकी थी ही।  परंतु वे जीवन के अंतिम चरण में खास की जगह आम आदमी बन कर रह गये। समाज में उनकी पहचान और प्रतिष्ठा कम होती चली गयी। अब यदि ऐसे भद्रजन समीप से गुजर भी जाए, तो युवा पीढ़ी भला इन्हें क्यों पहचाने ? इस धरा से खाली हाथ प्रस्थान करना इनकी नियति है। वहीं ,आप यह भी देखते होंगे कि एक मामूली सा सामाजिक कार्यकर्ता , जिसके पास मोटर- बंगला कुछ भी नहीं है ,उसे कितना मिलता है, इस समाज में, जिसे हम मतलबी कह अपनी असफलता छिपाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सो,  कुछ भी करें,पर करें इस समाज के लिये ,घर- परिवार और अपने से अलग। हाँ , ऐसा भी दिखावा न करें कि आपके तथाकथित समाजिक कार्य उपहास की श्रेणी में आ जाए। अब देखे न किसी भी क्लब के धनाढ्य समाजसेवियों को...  सौ रुपये के मामूली कंबल का बोझ मंच पर फोटो शूट करवाते समय मुख्य अतिथि सहित आधा दर्जन ऐसे लोग इस तरह से उठाये रहते हैं कि जैसे कोई कीमती रजाई ही हो। ऐसा दिखावे का दानदाता बनना हो, तो घर की बनिया की दुकान ही भली है।

   अतः मेरी अंतरात्मा यह कह रही है कि तू भले अकेला है, पर कुछ तो कर जा, जिससे तेरा मानव जीवन सफल हो। सो, चिन्तन इस बात का कर रहा हूँ  कि इस बीमार तन को किस कार्य में लगाऊँ !  तो जुबां पर आ गयी फिल्म  ..... की ये पक्तियाँ

     किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
     किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार
     किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
     जीना इसी का नाम है ...

  बस मैंने तो यही सोच लिया कि यह जो किसी के दर्द को समझने एवं उसमें सहभागिता की बात है, उसे ही जीवन में अपना लूं। अतः यही अब मेरे व्हाट्सएप्प  का स्टेटस होगा ...

   " किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार "

   हर वर्ग से दिल का रिश्ता जोड़ने की एक मासूम कोशिश तो जरूर  करूँगा मैं , पूरी ईमानदारी के साथ। समाज के उस उपेक्षित तबका जिनके नाम पर  राजनीति तो खूब होती रही है, फिर भी  वे पहले की तरह ही उपेक्षित हैं, उनकों अपनी लेखनी समर्पित करना चाहता हूँ, वे बच्चे जो अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षा के शिकार हो रहे हो, उस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ और वे पति परमेश्वर जो बड़े कामकाजी हैं, पर पत्नी के तन पर अधिकार जमाने के लिये उनके पास वक्त हैं, लेकिन उसके मन की बात जानने के लिये नहीं, ऐसे दम्भी जनोंं को आगाह भी करना चाहता हो, ताकि यह माली अपने गृहस्थ जीवन की खुशियों की बगिया को खुद ही न उजाड़ बैठे। एक बात और  उन तमाम गृहलक्ष्मी से कहनी है कि वे सम्पूर्ण परिवार को विशेष कर अपने जिगर के टुकड़े को फूड प्वाइजन का शिकार क्यों बना रही हैं, बाहर से आयातित बना बनाया खाद्य सामग्री  परोस सबकों मरीज वे ही तो बनाती हैं और स्वयं सुबह से देर रात तक टेलीविजन सिरियल्स में आँखें धंसाई रहती हैं।अतः बहुत करना है मुझे, सो चलते - चलते एक और गीत सुने बंधुओं...

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के
काँटों पे चलके मिलेंगे साये बहार के
ओ राही, ओ राही...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Sunday 16 September 2018

मेरा प्यार कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ

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 विडंबना यह है कि मन के सौंदर्य में नहीं बाह्य आकर्षक में अकसर ही पुरुष समाज खो जाता है। पत्नी की सरलता एवं वाणी की मधुरता से कहीं अधिक वह उसके रंगरूप को प्राथमिकता देता है
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मुझे देवता बनाकर, तेरी चाहतों ने पूजा
मेरा प्यार कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ फिर सवारूँ तेरी माँग फिर सजा दूँ
मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूँ...

  मेरा तब का पसंदीदा गीत है यह , जब स्वप्नों के हिंडोले में मचलता और उड़ानें भरता था। हर जवां दिल की कुछ तो ख्वाहिशें होती हैं  न ..
सो,  हरितालिका तीज ,जो अभी पिछले ही दिनोंं बीता है, सुहागिन स्त्रियों के सोलह श्रृंगार देख स्मृतियाँ पुनः एक बार बचपन से लेकर जवानी तक की अनेक यादों, वादों और बातों में अटकती-भटकती रहीं ।  हाँ, और भी कुछ याद हो आया कि अपने पुरुष साथी को सम्मान में ये स्त्रियाँ अकसर  ही कुछ यूँ कह दिया करती हैं,  " तुम तो मेरे भगवान हो ।"
       पर सच तो यह है कि पति परमेश्वर तो पुरुष तब ही बनता है, जब विधिवत विवाह हो जाए। अन्यथा दो दिलों का रिश्ता कच्चे धागे से भी नाजुक होता है । कल तक जो साथ जीने- मरने का कसम खाते थें, मनमीत कहलाते थें, यूँँ अनजान हैं कि जुबां पर नाम भी भला कहाँ याद रहता है उनके।  एक पत्रकार के तौर पर मेरा अपना अनुभव यही है कि यौवन की दहलीज़ पर जब भी दो प्यार करने वाले पकड़े जाते हैं। गुल पिंजरे (जेल) में होता है, तो बुलबुल डोली चढ़ बाबुल को छोड़ साजन की हो लेती है। गृहस्थी बस गई, बच्चे हो गये , वह भी अपने परिवार की हो गई। उधर,  बेचारे गुल की पहचान को इस भद्रजनों के समाज में दुष्कर्मी, अपहर्ता और भी न जाने किस- किस रुप में बदल दिया जाता है। उसके  इस दर्द को यह समाज भला क्या समझ पाएगा। उसे तो बस दण्ड देना आता है, कभी - कभी मृत्यु दण्ड तक।  मैं इसलिये यह कह रहा हूँ कि ऐसे किसी संबंध में कोई देवता कह भी दें, तो प्रेम के उमंग में धोखा न खा जाएं आप। प्यारे यह दुनिया है ,  जैसा दिखती है, वैसा है बिल्कुल नहीं। यदि नहीं जानते हो तो  राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर देख आओ न और उस राजू से पूछों कि दिल की हसरतों ने उसे किस रंगमंच पर ला खड़ा किया ..?

जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में
 नज़रों को हम बिछाएंगे
 चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुमको उम्र भर
 तुमको ना भूल पाएंगे ....

       उसके इस गीत में न जाने कितने दर्द छुपे हैं, न यह जमाना समझ सका , न ही वे मीत  ! बस सब ताली पिटते रहें। तो तमाशबीनों में वे बुलबुल भी शामिल रहीं, जिन्हें देख कभी गुल खिलखिला उठता था। जिन्हें उस रंगमंच पर वह अपने टूटे दिल को छुपा तमाशा दिखा रहा था।

  एक था गुल और एक थी बुलबुल
  दोनो चमन में रहते थे ...

ऐसी कहानियों को अकसर झूठ होनी ही है।  प्रेम में वियोग से अधिक पीड़ा उस छल से होता है ,जिससे इंसान अनभिज्ञ रहता है। जिस वेदना से उभरना आसान तो नहीं होता है , एक सच्चे प्रेमी के लिये , जो उस तिरस्कार को सहता है । यह सब इतना सहज न होता है।

       इस दिल के आशियान में बस उनके ख्याल रह गये।
       तोड़ के दिल वो चल दिये, हम फिर अकेले रह गये ...

    यह जख्म जो उसके नाजुक दिल के लिये नासूर सा बना रहता है कि कल तक जो देवता था , आज मानव भी नहीं रहा वह। फिर भी समाज में सिर उठा कर चलना है, सो हर ग़म को सीने में छुपाये रखना है। कहीं किस्मत उसे फिर रास्ते का पत्थर न बना दे , यह भय उसके जीवन में बहार लाने ही नहीं देता। भले ही दिल की यह लाख पुकार होती रहे ...

     कोई होता जिसको अपना
     हम अपना कह लेते यारों
     पास नहीं तो दूर ही होता
     लेकिन कोई मेरा अपना ...

फिर भी इस छलावे से आहत गुल अब वह नादान आशिक तो नहीं रहता  है न ... उसे पता है कि शाम कितनी भी मस्तानी क्यों न हो, काली रात का आना तय है। उसका वह  कोमल मन कोरा कागज या खाली दर्पण  भी कहाँ रह गया होता है। अनगिनत उपहासों से वह गुजरा होता है, जीवन के उस डगर पर , जहाँ राह न सूझ रही होती है।

     यह जो भटकाव है जीवन का , उसे ही दूर करता है दाम्पत्य जीवन। जहाँ , शीघ्र ही सब कुछ खोने का भय नहीं होता है। और यदि संग में स्नेह का बंधन है , तो फिर ..

     मोरा गोरा अंग लइ ले मोहे शाम रंग दइ दे
     छुप जाऊँगी रात ही में मोहे पी का संग दइ दे ..

    ऐसे ही मधुर गीतों की झंकार होती है जीवन में और यह तीज पर्व है न जो उसका माधुर्य भी तो यही है। पार्वती ने अपने प्रेम(तप) से विरक्त शिव को फिर से वही जन कल्याणकारी महादेव बना ही तो दिया न। शिव पुत्र देवताओं के कष्टों का हरण जो किया।
          निर्जला व्रत कितना कठिन होता है, इन सुहागिन स्त्रियों का .. अपने पति को परमेश्वर मान उसके दीर्घायु के लिये वे यह सब करती हैं । चुटकी भर सिंदूर की सलामती के लिये वे अर्द्धांगिनी होने का वह हर कर्तव्य पूरा करती हैं, इस दिन जहाँ तक उनका सामर्थ्य है। सुबह गंगा स्नान ,पुनः सायं स्नान के पश्चात शिव-पार्वती का विधिवत पूजन और अगले दिन सुबह फिर से गंगा स्नान। फिर भी मैंने इस दिन इन स्त्रियों को कभी भी यह कहते नहीं सुना कि वे अनावश्यक अपने शरीर को कष्ट दे रही हैं। भले ही उनका पति कितना भी दुष्ट प्रवृत्ति का क्योंं न हो, इस दिन वह  न दानव है ना ही मानव, वह तो उनका परमेश्वर है।  सचमुच नारी में ही वह सामर्थ्य है कि वह पुरुष को देवता बना सके...
     और इस दिन चाहे जैसे भी हो कुछ तो देवगुण (देवत्व) इन पति परमेश्वर में जागृत हो ही जाता है। वे व्रती पत्नियों के मनुहार में एक-दो दिन पहले से ही लगे रहते हैं। गुझिया बनाने की सामग्री लाते हैं। नयी साड़ी और अन्य श्रृंगार सामग्री खरीदने के लिये  अपनी अर्धांगिनी को सम्पूर्ण अधिकार देते हैं। व्रत वाले दिन के पूर्व संध्या पर वे सूतफेनी एवं खजला मिठाई लेकर आते हैं। जब वाराणसी में था तो मलाई भी लाकर दिया जाता था। वहीं जिस दिन उन्हें व्रत का पारण होता है, सुबह पांच बजे से ही पति देव स्वयं मिष्ठान के प्रतिष्ठान पर जलेबा लेने के लिये डट जाते हैं। स्वयं अपने हाथों से जल ग्रहण करवाते हैं। यूँ कहें कि वे अर्द्धनारीश्वर हो जाते हैं । कोलकाता में था , तो बीमार माँ को बाबा के लाख मनाही के बावजूद व्रत करते देखा था। कच्ची मिट्टी के शंकर- पार्वती की मूर्ति का भव्य श्रृंगार , मण्डप आदि बनाने में तो मैं माहिर था ही, उस छोटी अवस्था में भी। अपने इलेक्ट्रिकल लाइट वाले शंकर -पार्वती और उस समय झिलमिलाते हुये सुनहरे रंग के बिजली से जलने वाले दीपक को भी लाकर रख देता था। इन कार्यों में मेरी रूचि देख माँ खुश हो कहा करती थी कि मुनिया बस तेरी शादी कर यह खानदानी अमानत ( नाक में पड़े हीरे के कील )  उसे सौंप दूं, मेरी सेवा करे न करे वह , पर तू तो जरूर करेगा न रे ...
   इससे अधिक और शब्द नहीं रहता मेरे लिये और लेखन कठिन हो जाता है। नियति को यह सब मंजूर नहीं था। अतः हम बिछुड़ गये ,बिखर गये ,फिर भी वह तीज पर्व याद है मुझे। कोई स्मृति दोष नहीं है यहाँ।
      जीवन का यह सत्य है कि यदि आप समाज में हैं, तो आपके सद्गुण आपकों " संत " तो  बना सकता है , परंतु
 " देवता " बनने के लिये अर्धांगिनी का स्नेह प्राप्त करना होगा। यह पत्नी ही होती है कि  थाली में भोजन का स्वाद पता चलता है । वस्त्र जो हम पहने हैं, स्वच्छ हैं कि नहीं..केश क्यों बढ़ा है.. खांसी क्यों आ रही है ? तमाम सवालों की झड़ी सी लगा कर रख देती हैं वे ? ?  माँ थीं तो बाबा जैसे ही बाहर निकलते थें , दोनों के ही जुबां पर श्री गणेश जी का सम्बोधन होता था।  यह हम सभी को संस्कार में मिला था। हाँ , मुझे ईश्वर में कोई रुचि नहीं रह गई, अतः मैंने इस शुभ शब्द का त्याग कर दिया।  विडंबना यह है कि मन के सौंदर्य में नहीं बाह्य आकर्षक में अकसर ही पुरुष समाज खो जाता है। पत्नी की सरलता एवं वाणी की मधुरता से कहीं अधिक वह उसके रंगरूप को प्राथमिकता देता है।  और बावली औरतें फिर भी अपने देवता के लिये अपना प्यार छलकाते रहती हैं...

  आजा पिया तोहे प्यार दूँ , गोरी बैयाँ तोपे वार दूँ
किसलिए तू इतना उदास,सुखें सुखें होंठ, अँखियों में प्यास
किसलिए किसलिए ?


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धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद
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Wednesday 12 September 2018

विलायती बोलीः बनावटी लोग

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   हमारे संस्कार से जुड़े दो सम्बोधन शब्द जो हम सभी को बचपन में ही दिये जाते थें , " प्रणाम " एवं  " नमस्ते " बोलने का , वह भी अब किसमें बदल गया है, इस आधुनिक भद्रजनों के समाज में...
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     सान्ध्य दैनिक गांडीव में प्रकाशित
      हिन्दी दिवस पखवाड़ा पर अपने जनपद में कुछ विशेष कार्यक्रम होते तो नहीं दिखा , क्यों कि हिन्दी गंवारों की भाषा हो गयी हैं और तथाकथित भद्रजनों ने विलायती बोली, संस्कार एवं परिधान की ओर कदम बढ़ा रखा है। हम हिन्दी भाषी उनके पीछे दौड़ रहे हैं।  विद्यालयों के नाम के आगे कान्वेंट लिख देने से, उसका नाम ऊँचा हो जाता है, भले ही दुकान फीकी क्यों न हो ? किसी आयोजन में महिला ने अंग्रेज़ी में दो- चार शब्द बोल क्या दिये, वह विलायती मैम हो गयी और जिस बच्चे ने अंग्रेजी में कविता सुनाई थी , देखें न कितनी तालियाँ बजी उस पर... और हिन्दी का झंडा उठाने वाले मासूम बच्चे किस तरह से सिर झुकाएँ जमीन की ओर नजर टिकाये रहते हैं। कभी देखा आपने, पर इस वेदना से मैं गुजरा हूँ ।
   अपने मीरजापुर की बात करूँ तो  हिन्दी नवजागरण काल में भारतेंदु मंडल का केंद्र रहा  यह जनपद । यहीं नगर के  तिवरानी टोला स्थित प्रेमघन जी की कोठी पर  भारतेंदु बाबू , आचार्य रामचंद्र शुक्ल, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' एवं राजेंद्र बाला घोष( बंग महिला) जो कि प्रथम हिन्दी कहानी लेखिका हैं ,का जमघट लगता था। पं० मदनमोहन मालवीय जी का भी इसी कोठी पर आगमन हुआ है। जबकि इसी नगर के गऊ घाट महादेव प्रसाद सेठ का  मतवाला प्रेस था। रमईपट्टी से आचार्य रामचंद्र शुक्ल और चुनार से बेचन शर्मा 'उग्र' यहीं तो आते थें।  सुप्रसिद्ध इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल भी इसी लालडिग्गी के ही थें। बंग महिला इसी सुंदरघाट की यहीं। इनके पश्चात पुनः लगभग ढ़ाई- तीन दशक बाद समालोचना के क्षेत्र में  डा० भवदेव पांडेय ने मीरजापुर को गौरवान्वित किया था।
       काशी से मीरजापुर तक इन महान हिन्दी साधकों की कर्मभूमि को नमन करने का मुझे भी सौभाग्य प्राप्त है। इसी कारण ब्लॉग पर वरिष्ठ जनों की हिन्दी भाषा से संदर्भित रचनाएँ देख कर मेरा भी हिन्दी प्रेम जाग उठा साथ ही कुछ ग्लानि भी हुई कि एक हिन्दी समाचार पत्र का ढ़ाई दशक से जनपद प्रतिनिधि हूँ, फिर भी कलम कहीं-कहीं अटक ही जाती है, अपनी भाषा को लेकर । अतः जब से ब्लॉग पर आया हूँ, हर सम्भव यह प्रयास कर रहा हूँ कि और अधिक शुद्ध हिन्दी लिख सकूं। अभी पिछले ही दिनोंं प्रमुख ब्लॉग " पांच लिकों का आनंद" में खड़ी हिन्दी के जनक बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  के संदर्भ में सुन्दर रचनाएँ पढ़ने को मिली।  तो मैंने भी सोचा की काशी से मीरजापुर की अपने जीवन यात्रा में हिन्दी की उपयोगिता पर क्यों न एक संस्मरण ही लिख मातृभाषा के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करूँ। परंतु किस तरह  एवं किस अधिकार से , जब मैंने   पत्रकारिता में आने से पूर्व तक अपनी मातृभाषा के प्रति गंभीरता दिखाई ही नहीं हो। वाराणसी में हरिश्चन्द्र इण्टर कालेज में पूरे चार वर्षों तक मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही सामने  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ही तो प्रतिमा का दर्शन  होता था और स्मारक पर मोटे अक्षरों में यह अंकित रहा -

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

      मैं उसे ध्यान से पढ़ता भी था, लेकिन मुझमें एक अहम यह था कि विज्ञान वर्ग का छात्र हूँ, हिन्दी भी क्या पढ़ना - लिखना है। कभी यह नहीं सोचा कि जिस कालेज में पढ़ रहा हूँ, जिसका नाम उस पर अंकित है, वे ही उस खड़ी हिन्दी के जनक हैं, जो आज हमारे शब्द हैं। वैसे मैं हिन्दी में भी ठीक -ठाक अंक पा गया। परंतु जो प्रदर्शन मेरा गणित में था, उससे काफी पीछे रहा हिन्दी में।  जब मेरी आगे की शिक्षा बाधित हो गई । समय चक्र मुझे मुजफ्फरपुर और कलिम्पोंग घुमाते- टहलाते वापस काशी ले आया। अब -जब से पत्रकारिता में आया हूँ, लेखनी से ही रोजी-रोटी है मेरी।
    हिन्दी के संदर्भ में अपनी बात यहीं से प्रारम्भ करना चाहता हूँ ,जब वर्ष 1994 में मुझे सांध्यकालीन समाचार पत्र गांडीव के लिये मीरजापुर जनपद का समाचार संकलन करना था। युवा था, उत्साह से भरा हुआ था, अतः वाराणसी से मीरजापुर बस से बंडल ले जाने, उसे वितरण करने में तनिक भी कठिनाई की अनुभूति नहीं हुई, परंतु मेरे समक्ष चुनौती यह रही कि समाचार किस तरह से लिखूँ । मेरा यह स्वभाव था कि जो भी कार्य करूँ , उसमें अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन रहे । उस समय मेरा एक मित्र पीएचडी कर रहा था। उसे मेरा चिन्तन बहुत पसंद था, उसके भी अपने विचार थें ही , उसने पहला समाचार मुझे लिख कर दिखलाया। वहीं अपने प्रेस में जो वरिष्ठ जन थें ,वे मेरे समाचार को शुद्ध करते थें, उसे पुनः मुझे पढ़ने को देते थें। हाँ , यहाँ मीरजापुर में स्व० पं० रामचन्द्र तिवारी जो पत्रकारिता में मेरे गुरु थें। जिन्हें मैं बाबू जी कहता था। उनकी पुस्तक की दुकान थी,जहाँ  डा० भवदेव पांडेय, डा० राजकुमार पाठक सहित अनेक साहित्यकार, पत्रकार, संगीतकार आदि विचार - विमर्श के लिये आते थें। जिनसे मुझे ज्ञात हुआ कि हिन्दी नवजागरण काल में मेरी इस कर्मभूमि की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही। जिससे हिन्दी के प्रति मेरी अभिरुचि बढ़ी। बाबू जी के कहने पर मैंने तब श्री राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा की पुस्तक " शुद्ध हिन्दी कैसे सीखें " खरीदी थी।  जिससे हिन्दी मेरी कुछ शुद्ध हो गई और समाचार लेखन में आसानी हुई। वैसे, मेरी भाषा पर कोलकाता और कलिम्पोंग में रहने का दुष्प्रभाव भी पड़ा। वहाँ, थोड़ा - बहुत बंगला और नेपाली भाषा भी जो बोलता था ।

हिन्दी की उपेक्षा
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हिन्दी पखवाड़ा दिवस मनाया जा रहा है , फिर भी हिन्दी उपेक्षित है। कहीं किसी विद्यालय में बच्चों के मध्य निबंध प्रतियोगिता का आयोजन आपने देखा ? क्या आलेख लिखवाये जा रहे हैं अब ..? हिन्दी की कक्षा में बच्चों को खड़ा कर के उसकी पुस्तक का कोई पृष्ठ उसे पढ़ने को कहाँ जाता है क्या अब...?
   इतना ही नहीं मित्रों हमारे संस्कार से जुड़े दो सम्बोधन शब्द जो हम सभी को बचपन में ही दिये जाते थें , " प्रणाम " एवं
" नमस्ते " बोलने का , वह अब किसमें बदल गया है, इस आधुनिक भद्रजनों के समाज में ,  यह तो आप सभी जानते हैं कि बच्चा बोलना भी नहीं सीखा अभी कि उसे दोनों हाथ मिला कर जोड़ने की जगह हाथ हिलाने को कहा जाता है। उसकी बोली फूटी भी नहीं कि उसे सजीव/ निर्जीव जो भी सामने है, उसका हिन्दी नाम न बता लग जाते हैं अंग्रेज बनाने। इसके बाद से तो बच्चे की दो नाव की सवारी जो शुरू हुई , फिर हो गया हिन्दी का कबाड़ा साहब। कितने कष्ट का विषय है कि विद्यालयों में अध्यापक शुद्ध हिन्दी नहीं जानते हैं , समाचार पत्रोंं की भाषा आप देख ही रहे हैं  , विडंबना तो यह है कि इन अशुद्धियों पर हम सभी को तनिक भी ग्लानि नहीं होती है। हम सभी से बचपन में अभिभावक कहते थें कि हिन्दी ठीक करनी है, तो " आज" समाचार पत्र पढ़ा करों। अब क्या स्थिति है समाचार पत्रों की ? सब- कुछ समाप्त हो रहा है  और हम प्रबुद्ध जन हिन्दी दिवस मना रहे हैं।
     परंतु हममें से बहुतों के बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ रहे हैं, क्यों कि हमें स्वयं नहीं विश्वास है कि हिन्दी से उनके लाडलों  का भविष्य उज्ज्वल होगा। अभिजात्य वर्ग में तो अंग्रेजी का ही बोल बाला है न ..? परंतु मैंने कोलकाता और कलिम्पोंग में रहते हुये दो बंगाली या नेपाली को अपनी मातृ भाषा भाषा छोड़ अंग्रेजी में बात करते कभी नहीं  देखा, आपने भी नहीं देखा होगा । फिर हम हिन्दी भाषी ही आपस में क्यों अंग्रेज बन बैठते हैं। यही सोच कर न कि समाज में हमारी अलग पहचान होगी। निश्चित ही विलायती परिधान, संस्कार और भाषा में हम औरों से विशिष्ट दिखेंगे, फिर भी आप अच्छी तरह से जानते हैं कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चाहे कितना भी बड़ा राजेनता हो वह भाषण किस भाषा में देता है  ,  इसी तरह अभिनेता फिल्म का सम्वाद हिन्दी में ही बोलते हैं न ? नहीं तो जनता इन्हें ठुकरा देगी । बस मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि ठीक है अंग्रेजी का भी ज्ञान हो हमें , परंतु ये भद्रजन जो हैं , वे इतना तो कर सकते हैं न कि अंग्रेजी में गुटरगूँ करना बंद कर हिन्दी को अपना लें। अपने बच्चों को प्रणाम और नमस्ते कहना तो सीखा  दें। इतना सदैव स्मरण रहे कि जीवन में एक मोड़ ऐसा भी है, जब हर सम्वेदनशील इंसान अपनी बातों को लेखन के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं, उस समय मातृभाषा ही सबसे सरल और सुगम माध्यम है।



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (विलायती बोली-बनावटी लोग ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
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Monday 10 September 2018

आपके कर्मों की ज्योति अब राह हमें दिखलायेगी

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कुछ यादें कुछ बातें, जिनकी पाठशाला में मैं बना पत्रकार
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एक श्रद्धांजलि श्रद्धेय राजीव अरोड़ा जी को

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किया था वादा आपने कभी हार न मानेंगे
बनके अर्जुन जीवन रण में जीतेंगे हार न मानेंगे
जीवन-मरण के खेल में नियति के हाथों हार गये
चढ़ा प्रत्यंचा गाड़ीव में,क्यूँ अंत समय में हार गरे
आपके कर्मों की ज्योति अब राह हमें दिखलायेगी
यादें मचलेंगी आँखों में अधरों पे मुस्कान खिलायेगी
 

       देर शाम कमरे पर काढ़ा तैयार कर  था , तभी अचानक अपने गांडीव कार्यालय, वाराणसी से फोन आता है  कि भैया जी नहीं रहें। मैंने स्तब्ध सा रह गया, सो पलट कर पूछा कि अरे कब  !  वैसे तो हम सभी को पता था कि इस अप्रिय संदेश का एक दिन आना तय है, परंतु इतनी शीघ्रता भी क्या थी... भले ही गंभीर रुप से अस्वस्थ रहें वे, फिर भी हम सभी के लिये वटवृक्ष थें।  स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डा० भगवान दास अरोड़ा जिनकी त्याग एवं तपस्या से गांडीव के रुप में जो निर्भीक सांध्यकालीन समाचार पत्र काशी के वासिंदों की आवाज बन गया था ,  उनके सुपुत्र राजीव अरोड़ा जी ने उसका और भी विस्तार कर उसे बनारस वासिंदों की धड़कन बना दिया था। पाठकों की कैसी भी खबर हो , प्रेस विज्ञप्ति, जनसमस्या, शोक समाचार, मांगलिक समाचार, कविताएं और लेख सभी को गांडीव में सम्मान मिलता था। उन्होंने गांडीव का उदारवादी चेहरा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया था।  यही नहीं पाठक मंच के लिये भी एक बड़ा कालम होता था अपने अखबार में। सो, यदि किसी ने गांडीव कार्यालय पर अपनी विज्ञप्ति दी है, तो उसे इतना विश्वास रहता था कि उसका समाचार निश्चित  प्रकाशित होगा।
         अब यदि अपनी बात कहूँ तो आज पत्रकार के रुप में मेरा जो सम्मान, पहचान है, जो इस आजीविका से कहींं अधिक मूल्यवान है मेरे लिये, यह सब उन्हीं का तो दिया है।  हमारे समाचार पत्र सांध्य दैनिक गांडीव के निवर्तमान सम्पादक राजीव अरोड़ा जी को हम सभी भैया जी ही कहते थें। जिनका गत शनिवार की शाम निधन हो गया है । वे काफी दिनों से गंभीर रुप से अस्वस्थ रहें। फिर भी जब वे विगत वर्षों यहाँ मीरजापुर आये थें और होटल राही इन में ठहरे थें, तो वापस लौटते समय हम सभी से कह गये थें ,   "इतनी जल्दी जाने वाला मैं नहीं हूँ। हाँ , स्वास्थ्य ठीक न होने से कार्यालय नहीं जा पा रहा हूँ। "  इसके बाद भैया जी से आखिरी मुलाकात उनके घर पर ही हुई थी। मेरे दस्तक पर दरवाजा भी उन्होंने ही खोला था। न्यायालय के एक मामले में उनका मेडिकल रिपोर्ट लेने के लिये मैं गया था तब। मुझे देखते ही उन्होंने हाल समाचार पूछा , फिर कहा कुछ जलपान। जब मैंने ना में सिर हिला दिया , तो कहा कि अच्छा यह सत्तू पी कर जाइए । मुझे याद है मैं जब भी बनारस जाता था। कार्यालय में मुझ पर नजर पड़ते ही उनका पहला सवाल रहता था कि जलपान किया है कि नहीं ? वे हम सभी को " आप "कह कर ही सम्बोधित करते थें। किसी भी खबर पर मुझे डांट पड़ी हो या मेरा समाचार रोक दिया हो उन्होंने, मुझे याद नहीं है। एक बार यहां के एक विधानसभा क्षेत्र से एक प्रभावशाली मंत्री चुनाव लड़ रहे थें। मतदाताओं में साड़ियाँ बांटते हुये उनके चुनाव प्रचार वाहन को पकड़ लिया गया। फिर क्या था माननीय के सिपहसालारों ने मीडिया मैनेजमेंट शुरू कर दिया। मेरी खबर भी रोकने की जानकारी  मुझे मिल गयी, तो उदास मन से मैंने सीधे सम्पादक जी को  अपना वह समाचार दिया और सारी बातें बता दी। फिर क्या था, प्रबंध सम्पादक / उप सम्पादक तक को भनक नहीं लगी और सायं प्रथम पृष्ठ पर खबर लग ही गयी। उस शाम मुझे अपने अखबार पर एवं अपने सम्पादक जी पर कितना गर्व महसूस हुआ था, पूछे ही मत। आप समझ सकते हैं, इससे कि उन्हें जुगाड़ तंत्र की राजनीति समाचार के क्षेत्र में बिल्कुल भी पसंद न थी। सफेद पायजामा- कुर्ता और खादी का झोला, इस वेशभूषा में प्रेस के स्वामी कम  बिल्कुल खाटी पत्रकार दिखते थें वे। समाचार डेस्क पर सभी के पास वे जाते थें, साथ ही पूछते रहते थें कि कुछ लिख रहे हैं क्या विशेष। मेरी खबरें भी उन्हें पसंद थी, बस इतना कहते थें कि थोड़ा और पढ़ लिया करें, ताकि अशुद्धियाँ न हो। परंतु पत्रकार होकर भी मेरे पास पढ़ने का समय था ही कहाँ। समाचार संकलन,  उसे लिखना, बंडल लेने जाना और फिर वितरण भी, सुबह 6 से रात 10 बजे तक घड़ी की सुई के संग- संग  चलना ही मेरी नियति हो गई थी। फिर भी ऐसा भी नहीं है कि मैं समाचार के मामले में बैकफुट पर कभी था। उस दौर में बेखौफ लिखता था मैं , तभी तो शशि और गांडीव एक दूसरे के पर्याय हैं,  ऐसा भी पाठक यहाँ कहने लगे थें।
 पैसा, ताकत और जुगाड़ के बल पर मेरा समाचार कोई कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो भैया जी से कह कर दबवा तो नहीं ही सकता था, इतना मुझे विश्वास था। हालांकि मैं पुलिस और प्रशासन के विरुद्ध जब अधिक मुखर हो जाता था, तो वे कुछ चिन्तित भी हो जाते थें कि लड़का मीरजापुर में अकेले रहता है। सो, मेरे पास किसी सहयोग से अप्रत्यक्ष संदेश भेजा करते थें। फिर भी मैंने तब तक दब कर नहीं लिखा, जब तक अपनों के ही षड़यंत्र का शिकार नहीं हुआ।
     वाराणसी स्थित अपने घर से गांडीव कार्यालय और वहाँ से मीरजापुर आ कर पत्रकारिता करने की मेरी दास्तान पेट की आग और सम्मान से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1994 की बात है। जब मैं दुबारा कलिम्पोंग से लौट कर वाराणसी आया, तो मेरी पहली प्राथमिकता रही दो जून की रोटी , क्यों कि कहींं नौकरी मुझे जमी नहीं। दादी भी न थी कि भोजन के लिये कुछ व्यवस्था कर देती। ऐसे में गांडीव परिवार का मैं सदस्य बना। मुझे एक बिल्कुल अंजान शहर मीरजापुर की जिम्मेदारी दी गयी। साफ शब्दों में बताया गया था कि बनारस से सायं अखबार को मीरजापुर ले जाना, उसका वितरण,  समाचार संकलन एवं लेखन , यह चारों ही कार्य तुम्हें स्वयं करना है। अपने निठल्लेपन के कलंक को धोने की चाह में मेरा एक पांव बनारस तो दूसरा मीरजापुर में होता था। मेरे लिये समाचार लेखन एक बड़ी समस्या थी उन दिनों। इसके लिये मेरे पास न कोई डिग्री थी, न ही प्रशिक्षण । फिर भी इतना प्रेस में भी सभी जानते थें कि मैं नकलची सम्वाददाता नहीं हूँ।अतः सम्पादक जी को मुझ पर विश्वास था और मुझे जब पत्रकारिता का ककहरा भी नहीं आता था, तभी से भैया जी के स्नेह से मेरी बाइलाइन खबर  गांडीव के प्रथम पृष्ठ पर लगने लगी थी। यहां मीरजापुर में जब बड़े समाचार पत्रों के क्षेत्रीय कार्यालय खुलने लगे थें, तो मेरे समक्ष भी उनसे जुड़ने का प्रस्ताव आता रहा , फिर भी गांडीव छोड़ कर मैं कहीं नहीं गया और जाता भी कैसे , भूख, बेगारी, बदहाली, बेरोजगारी और उससे भी अधिक अपनों के परायेपन के दर्द से मुझे इसी समाचार पत्र के चौखट पर मुक्ति जो मिली है। हाँ, लम्बी बीमारी से अब मेरा भी शरीर थक चुका है। अतः यहीं से मैं भी पत्रकारिता जगत से अपनी विदाई चाहता हूँ, कुछ यूँ  हंसते,मुस्कुराते और गुनगुनाते हुये-

 रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेँगे हम ...

    यह इसलिये की थोड़ी बहुत तो मैंने भी अपनी पहचान बना ही ली है, इस अनजाने शहर में पत्रकारिता की डगर पर । यह सम्मान मुझे अपने पूर्व सम्पादक जी के सानिध्य में ही प्राप्त हुआ है। - शशि


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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