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Monday 16 April 2018

व्याकुल पथिक 16/ 4/ 18
 आत्मकथा

     एक ईमानदार पत्रकार की जो सबसे बड़ी कमजोरी  है, वह यह कि अपनी लेखनी से चहुंओर मोर्चा खोल देना। जिन विषयों और जिनके संदर्भ में उसकी कलम स्वतःही चल गयी। स्वयं को चौथा स्तंभ समझ, ऐसा कर उसे लगता है कि उसने अपने पत्रकारिता धर्म का पालन ही किया है। परन्तु कभी कभी पर्दे के पीछे के खिलाड़ी को वह पहचान नहीं पाता अथवा उसे नजरअंदाज कर देता है। जानते हैं वे कौन लोग होते हैं ? वे हैं हमारे कतिपय मित्र पत्रकार बंधु ही। जिनका जुगाड़ वहां रहता है, जिन पर हम जैसे पत्रकार प्रहार कर देते हैं । जो इस अर्थयुग  का हवाला दें,हमारी लेखनी पर शिकंजा कसना चाहते हैं। उनके  प्रलोभन के बावजूद भी यदि हमने समझौते वाले मार्ग का चयन कर एक चतुर सौदागर सा व्यवहार नहीं किया, तो मुसीबत में फंस सकते हैं।  मित्रों , मैं जो भी आपके लिये लिख रहा हूं न, उसका भुक्तभोगी हूं, तभी आप युवाओं को उन खतरे से अवगत करवा रहा हूं, जिनसे मैं गुजरा हूं। मैं  कोई वैसा पत्रकार हूं नहीं ,जो बड़े बड़े संगठनों का मुखिया बन जाते हैं , जिन्हें न तो समाचार लिखना है , न ही कोई लेख । ऐसे बड़े पत्रकार कहलाने वाले भाई साहब लोग हमारे जैसे श्रमिक ईमानदार पत्रकारों से उम्मीद करते हैं कि हम उनकी अधिनता स्वीकार कर लें। परंतु  यदि पत्रकारों का मंच सजाने वाले ऐसे  लोगों से आप पत्रकारिता जीवन में उनके संघर्ष के संदर्भ में कभी  विचार गोष्ठी अथवा अब तो "  सीधी बहस " जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर खूब होती है, वह करवा कर देख लें, ऐसे लोग आपने समक्ष कुछ भी संघर्ष व आदर्श प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे, अफसरों, राजनेताओं और धन सम्पन्न लोगों संग  हंसी ठिठोली और हमारे जैसे लिखने पढ़ने वाले पत्रकारों के हक अधिकारी को हजम करने और मानसिक उत्पीड़न देने के अलावा कुछ किया हो, तब न। अरे मेरे भाई  ! इतना तो आप सभी जानते हैं कि थोड़ी बहुत गलतियां सही राह पर चलने वालों से भी होती ही रहती हैं। मैं भी इससे अलग नहीं हूं। परंतु यह भी तो बताया गया है, न कि निकम्मे लोग ही गलतियां नहीं करते हैं, क्यों कि उन्हें कुछ करना ही नहीं है। इंसान गलतियां न करे, तो फिर भगवान न बन जाए।  यदि कोई पत्रकार अपने कर्मपथ पर चलते हुये, कोई गलती कर भी देता है, तो उसकी मंशा समाज में किसी को ब्लैकमेल करने की तो नहीं होती है न। आप उसे उसकी भूल बता भी सकते हैं। क्षमा भी कर सकते हैं। परंतु होता यह नहीं हैं ,ऐसी स्थिति में आपके ही पत्रकार मित्र सबसे आगे आ कर मोर्चा खोल आपकों फंसाने में जुट जाते हैं। एक पत्र प्रतिनिधि की एक और बड़ी कमजोरी यह होती है कि यदि उसके सम्पादक को नोटिस जाती है या फिर मुकदमा आदि आपके किसी समाचार लेखन पर दर्ज हो जाता है, तो फिर सारी जिम्मेदारी हम पर ही थोपी जाएगी। पहले जैसे सम्पादक अब नहीं रहें। अब तो इस कुर्सी पर जो बैठें है, वे भी व्यापारी ही है। और भला एक व्यवसायी कैसे अपना नुकसान चाहेगा। सो, मित्रों आपका यह पत्रकारिता धर्म ऐसे  संकट काल में आपको अवसाद की ओर ले जा सकता है।मैं अपनी ही बात कहूं, तो विगत कुछ वर्षों से जबसे हमारे प्रेस के सम्पादक बदले हैं, कोई भी खतरा उठाने की स्थिति में नहीं हूं। दो मुकदमे अपने बल पर ही झेल रहा हूं। संस्थान से साफ साफ हिदायत मिली है कि कोई भी विवादित समाचार बिल्कुल भी न लिखा करें। सो, पत्रकारिता में अब मेरी कोई रुचि नहीं है। बस इसमें इसलिये सड़ रहा हूं, क्योंकि मुकदमे का सामना जो कर रहा हूं। वैसे, दो दशक पूर्व ही मैं जब चाहता, तब किसी बड़े बैनर का गुलाम बन सकता था। लेकिन,  मुझे कलम की स्वतंत्रता पंसद है, इसीलिये भी इन करीब ढ़ाई दशक से गांडीव से ही जुड़ा रह गया। बड़े अखबारों का पोस्टमैन जो मैं नहीं कहलाना चाहता था।  मेरा यही हठ मुझ पर बहुत भारी पड़ा। पहचान बनी , पर जीवन की हर खुशियां और ख्वाहिश दूर चली गई। अब तो बस मुसाफिर बन गुनगुना रहा हूं, न घर है, न कोई ठिकाना...

(शशि)
 क्रमशः