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Tuesday 16 April 2019

जियो और ​जीने दो

 
जियो और ​जीने दो
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  भगवान महावीर स्वामी की जयंती को दृष्टिगत कर  यह लेख मैंने पिछले तीन दिनों से लिख रखा है । आज ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर रहा हूँ। यह मेरे मन का एक भाव है। कृपया इसे किसी धर्म अथवा व्यक्ति विशेष पर कटाक्ष न समझें  ।
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      नगर के संकटमोचन मंदिर मार्ग पर पिछले दिनों सुबह पुनः वध से पूर्व किसी मुर्गे की आखिरी पुकार सुन मेरा हृदय कुछ पसीज सा गया। यह जानते हुये भी कि नियति ने हर प्राणी के लिये मृत्यु दण्ड तय कर रखा है। वह उसी तरह से निष्ठुर है , जिस तरह से कोई वधिक जो कि बकरे का पालन पोषण तो करता है, परंतु अपने हित में उसके गर्दन पर छूरा भी चलाता है, तब उसके हृदय में तनिक भी संवेदना नहीं जगती।  बेचारे बकरे को पता भी नहीं चल पाता कि उसके पीठ को सहलाने वाले हाथ कब उसके मुख को जकड़ लेते हैं । मौत का खूंखार पंजा भी ऐसा ही होता है ? इन अबोध जानवरों की तरह हम मनुष्य भी उसे देख - समझ नहीं पाते हैं।
      नवरात्र पर्व समाप्त होते ही ,मांस- मछली की दुकानों पर ग्राहकों की पुनः बढ़ी चहल-पहल को देख, वहीं  एक प्रश्न फिर से मेरे मन में उठा कि यह कैसे देवी भक्त हैं ।  यदि वे अपने अधिकांश आराध्य देवों को निरामिष भोज्य सामग्री प्रसाद के रुप में अर्पित करते हैं , स्वयं भी विशेष पर्व और प्रमुख दिनों जैसे मंगलवार, वृहस्पतिवार अथवा शनिवार मांस- मदिरा से दूर रहते हैं, सात्विक आचरण का प्रदर्शन करते हैं। तो सामान्य  दिनों में वे ऐसे पदार्थों को ग्रहण कैसे करते हैं। वे जीव हत्या के निमित्त क्यों बनते हैं। उन्हें मांस - मछली खरीदते समय वध के दौरान क्या कभी इन निरीह प्राणियों की करार और छटपटाहट का एहसास नहीं होता है ? अन्य बहुत से धर्मों की बात इसलिये मैं नहीं करता ,क्यों कि वहाँ किसी उपासना पर्व अथवा दिन मांसाहारी भोजन सम्भवतः वर्जित नहीं है। साथ ही कुछ धर्म का मानना है कि मनुष्य को छोड़ अन्य प्राणी में रूह नहीं रहता। लेकिन, हिन्दू धर्म तो चौरासी लाख योनियों की बात करता है। जीवात्मा इनमें भटकती है, फिर  पशु वध क्यों ?
      मुझे ऐसे लोगों से चिढ़न सी होती है, जो पूजा- पाठ तो खूब करते हैं और विशेष दिनों को छोड़ मांस-  मदिरा का सेवन करते हैं।
   कालिम्पोंग में था, तब वहाँ एक कश्मीरी पंडित पड़ोस में रहा करते थें। महाराष्ट्र की उनकी पत्नी अत्यंत धार्मिक थीं । लेकिन पति परमेश्वर के लिये मुर्गा पकाया करती थीं। मैं अकसर कहता था उनसे कि क्या अंकल आप भी कितने विचित्र हैं, कभी तो सोचा करें कि आंटी जी को कैसा महसूस होता है। वे चम्मच ,कांटे और चिमटे से किसी तरह से मांस को पकड़ कर उसे पकाया करती थीं। मांस के टुकड़े को हाथ लगाने में उन्हें मानसिक कष्ट पहुंचता था। लेकिन शाम को जब अंकल मस्ती में होते थें, तो कहते थें कि तुम दोनों बिल्कुल पागल हो , कभी टेस्ट कर के देखों इसकी यह टांग , बढ़िया से बढ़िया भोजन भूल जाओगे।
     अपनी ही पत्नी की भावनाओं के प्रति उनमें मानो कोई संवेदना थी ही नहीं। बड़े- बुजुर्गों से मैंने भी यही सुना है कि मांसाहारी लोगों के हृदय में वैसी कोमलता, दूसरों के प्रति संवेदना और   अन्य प्राणियों के प्रति दया का भाव नहीं रहता है। दूसरों के दर्द और उसके रूदन का वे यह कह उपहास उड़ाते हैं कि खाओ पियो ऐश करो । मुझे नहीं पता ऐसी धारणा में कितनी सच्चाई है।

वहीं , "  जीवो जीवस्य भोजनम् " की बात कह  मांसभक्षी लोग अकसर ही यह कुतर्क कर बैठते हैं कि इसके लिये तो शास्त्र भी अनुमति देता है।
     खैर , मैं भी चुटकी लेता था कि अंकल जी क्यों नहीं फिर इसे प्रसाद के रुप में ठाकुर बाड़ी में चढ़ा आते हैं। आपके भी देवी- देवता प्रसन्न हो जाएँगें न ? और अंकल जी का गुस्सा फिर देखते ही बनता था ।
    आज भी मैं अपने ऐसे कुछ मांसाहारी मित्रों से, जो मंगलवार , शनिवार अथवा नवरात्र का नाम लेते हैं, से कहता हूँ कि सत्तर चूहे खा कर बिल्ली बनी भक्तिन ।
    हममें यह हँसी- ठिठोली होती रहती है आपस में ।

  अपने विंध्यक्षेत्र  की बात करूँ, तो जब मानव सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। मांसाहार पर ही जीवन निर्वहन करना पड़ता था ,तब पशुओं का वध कर स्थानीय कोल- भील उसे अपने स्थानीय देवी- देवता को अर्पित करने लगे थें। लेकिन, जब मानव सभ्यता- संस्कृति का विकास हुआ और धर्म ग्रंथों की रचना हुई ,तो सात्विक गुणों को मानव जीवन में प्रमुखता दी गयी ।
 पशुओं की बलि काली और भैरव को दी जाती है। यह वाममार्गी पूजन बिल्कुल अलग है । इससे जुड़े साधक  नवरात्र में महानिशा पूजन  करते हैं। वे पंच मकार विधि (मांस , मदिरा, मत्स्य ,मुद्रा, मैथुन) से अपनी अधिष्ठात्री देवी को प्रसन्न करते हैं । वैसे, वाममार्गी उपासना स्थल प्रमुख रूप से 4 हैं . जिन्हें चार सिद्ध पीठ कहा जाता है। जिनमें  से राम गया घाट ,विंध्याचल के शिवराम में है। महिवग्राम  बिहार में , श्रीरामपुर  बंगाल में और  मणिकर्णिका घाट वाराणसी का उल्लेख है। यहां रामगया घाट के समीप ही दक्षिणाभिमुख भगवती तारा देवी का मंदिर है ।यह तंत्र साधना स्थल है । यहां गंगा नदी का किनारा , श्मशान भगवती शिवलिंग और बिल्वपत्र भी है एकांत स्थान है। कामरूप कामाख्या माया बंगाल नगरी के बाद विंध्याचल स्थित तारा देवी पीठ , भैरव कुंड एवं काली खोह तंत्र साधना के अद्भुत एवं फलप्रद स्थल हैं । ऐसी मान्यता है कि तारा देवी महालक्ष्मी रूपा विंध्यवासिनी देवी की सेवा करती हुई उनके भक्तों को आकर्षण एवं विकर्षण जैसे अलौकिक एवं तांत्रिक भव बाधाओ से मुक्ति दिलवाती हैं। वाममार्ग में सर्वोत्तम तंत्र श्रीयंत्र को माना जाता है। साधक श्री यंत्र की ज्यामिति रचना करके उसकी विधिवत पूजन करते हैं । वैसे तो प्राचीन काल में निशा पूजन में नरबलि तक की मान्यता थी परंतु अब बकरा, मुर्गा, कबूतर ,नारियल, जायफल, कोहरा आदि की बलि दी जाती है। वैसे , यहाँ विंध्यवासिनी धाम में भी प्रतिदिन एक पशु की बलि आज भी दी जाती है।
    बचपन में हम सभी ने सिद्धार्थ( महात्मा बुद्ध ) उनके चचेरे भाई देवदत्त ,जिसके तीर से घायल हंस की कथा पढ़ी ही है। हंस पर जब अधिकार की बात हुई ,तो न्याय मंच पर बैठे राजा ने बालक सिद्धार्थ के इस कथन को स्वीकृति दे दी कि मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है।
   आज भी मुझे याद है कि अपने पाठ्य पुस्तक में इस कहानी को पढ़ते समय और उसके चित्र देख मेरी आँखें नम हो आयी थीं। पशुवध चाहे , वह बलि के रूप में ही क्यों न हो मुझे स्वीकार नहीं है। गंभीर रुप से जब अस्वस्थ हुआ तो , यहाँ के सीएमओ  जो कि मुझसे स्नेह करते थें , उन्होंने अनेक बार मछली के सेवन को कहा। हमारे मध्य एक अधिकारी और पत्रकार का संबंध नहीं था। अतः वे मुझे स्वस्थ देखना चाहते थें। उनके बहुत कहने पर मैंने अण्डे का सेवन किया ,परंतु अंतरात्मा ने उसे स्वीकार नहीं किया और मैंने निश्चय कर लिया कि अब अण्डा नहीं खाना है। वैसे , तो कोलकाता में जब था,वहाँ  लहसुन- प्याज भी वर्जित था। वापस बनारस लौटने पर पिताजी की पिटाई के भय से इनसे निर्मित सब्जी का सेवन करना पड़ा।
    मांसाहारी तो वाराणसी में भी मेरे परिवार में कोई नहीं था।  मेरा स्पष्ट रुप से मत है कि जब क्षुधापूर्ति के लिये अन्य भोज्य सामग्री उपलब्ध हैं ,तो फिर किसी जीव की हत्या क्यों ?

   बचपन  में मुझे याद है कि घर में बरसात के मौसम में बड़ी- बड़ी काली चींटियाँ खूब निकला करती थीं। वे हम सभी को कांट लेती थीं। तो दादी उन्हें लकड़ी के एक तख्त से रगड़ - रगड़ कर मार देती थीं। देखा देखी मैं भी तब चीटियों , तितलियों और चूहों को सताने लगा। लेकिन, बचपना समाप्त होते ही मुझे आभास होने लगा कि मैंने इन प्राणियों के साथ उचित नहीं किया। वैसे बाद में भी मैं भयवश कनखजूरे को मार दिया करता था। मुझे लगता है कि भय अथवा क्षुधा के कारण किसी पशु की हत्या और अपने जिह्वा के स्वाद के लिये उसे मारने में अंतर है , फिर भी किसी की हत्या करते समय मन में कठोरता का भाव आना निश्चित है।
     प्राचीन काल में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की 17 अप्रैल को जयन्ती है। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया। उन्होंने तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको एक समान मानने पर बल दिया ।उन्होंने " जियो और ​जीने दो "के सिद्धान्त पर जोर दिया। सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थें । वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थें।
  भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। उन्होंने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी एवं नर की बाली का विरोध किया । सभी जाती और धर्म के लोगों  को धर्म पालन का अधिकार बतलाया। उन्होंने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।
        वैसे तो  " अहिंसा परमो धर्मः " इस नीति वचन पर महाभारत  के वन पर्व में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध के बाद महात्मा गांधी को अहिंसा का पुजारी कहा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ  ने तो बापू के सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर रखा है। यह  "अहिंसा" पशु वध  तक सीमित नहीं है , यह एक आदर्श है।
    व्यवहार में मानव इसका कितना पालन करता है, इसके लिये उसे परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार है, क्यों कि अन्याय का उन्मूलन कर के सत्य पर आधारित धर्म की स्थापना के लिए क्रांति, रक्तपात तथा प्रतिशोध शास्त्र विहित साधन माने गए हैं। इसीलिए बूट्स की तलवार पवित्र है, शिवाजी का बाघनख वंद्य  है, इटली की क्रांति का रक्तपात मंगलमय है, विलियम टेल का बाण दिव्य है और चार्ल्स शिरच्छेद सत्कर्म है।
     फिर भी ,दया ही धर्म का मूल तत्व है। इससे करुणा और प्रेम का भाव विकसित होता है। जब-तब हम अपनी हंसी ठहाके वाली दुनिया से बाहर निकल दूसरों की पीड़ा को नहीं समझते हैं। इसकी अनुभूति सम्भव नहीं है।

                                  - व्याकुल पथिक