दुःख! तुम लौट आओ
( जीवन के रंग)
दिन भर अंगार बरसाने के बाद आसमां ने नीलिमा की भीनी चादर ओढ़ ली थी। जलती धूप से राहत मिलते ही लोकबाग खरीदारी अथवा मनोरंजन के लिए घर से निकल पड़े ,जिससे बाज़ारों में रौनक छा गयी। फलों की दुकानों पर लंगड़ा और दशहरी आम के खरीददारों की भीड़ लगी हुई थी। इस वर्ष मौसम अनुकूल होने से फलों का राजा आम ख़ास ही नहीं आमजनों के लिए भी सुलभ था। इन दुकानों पर निम्न-मध्य वर्ग के ग्राहकों को देख दीपेंदु का मन हर्षित हो उठा था।
यूँ तो आम हो या लीची उसकी स्वयं की स्वादेन्द्रिय इनके लिए अब कभी नहीं तरसती-तड़पती है । उसे तो यह भी नहीं पता कि पर्व-उत्सव के दिन कब निकल जाते हैं। वह पेट की आग बुझाने के लिऐ जैसे-तैसे कुछ भी बना-खा लेता है। जिह्वा पर नियंत्रण पाने में परिस्थितियों ने उसकी भरपूर मदद की है। थाली में पड़ीं कच्ची-पक्की रोटियाँ और उबली सब्जी उसके लिए पकवान समान हैं । जीवन की धूप-छाँव से दीपेंदु नहीं घबड़ाता, क्योंकि वह समझ चुका है कि जीवन की महत्ता वेदनाओं और पीड़ाओं को हँसते-हँसते सह लेने में है।
फिर भी आज न जाने क्यों इन आमों के देख अतीत से जुड़ी अनेक घटनाओं का स्मरण हो आया । इस आनंद-स्मृति में उसे गुदगुदी-सी होने लगी। बात तब की है,जब वह अनाथ नहीं था। उसका अपना छोटा-सा घर था। माता-पिता और भाई-बहन संग थे। परिवार के सदस्यों में कितना स्नेह था, संवेदनाएँ थीं, सच्चाई की झंकार थी। सहानुभूति, दया और त्याग जैसे गुणों के कारण आनंद और उत्साह दो मासूम बच्चों की तरह उसके घर-आंगन में किलकारियाँ भरा करते। उसके परिवार में यदि कुछ नहीं था तो वह थी लक्ष्मी की कृपा। जिसका सामना उसका परिवार बड़े धैर्य के साथ कर रहा था। उन दिनों उसके पिता अपनी शिक्षा की डिग्री लिये नौकरी की तलाश में बनारस जैसे शहर में चप्पलें घसीट रहे थे। जीविका के लिए कोई ठोस आश्रय नहीं था। पुरुषार्थ कर के भी लक्ष्मी को प्रसन्न नहीं कर पाने का उन्हें दुःख था। बिना किसी जुगाड़ के नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितना की अब है।
धन के अभाव में दरिद्रता का दारूण दृश्य उत्पन्न हो गया,फिर भी परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति समर्पित थे। मिल कर दुःख बाँटने से कोई पीछे नहीं हटता। उसके परिवार की खुशी का यही राज था। दीपेंदु की माँ बड़े घर की बेटी थी। ससुराल के अभावग्रस्त जीवन ने उन्हें विचलित अवश्य किया, किन्तु शीघ्र ही परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने खुद को ढाल लिया। वे कोयल और शक्कर के अभाव में छत पर गिरे बरगद के सूखे पत्तों से अँगीठी सुलगा गुड़ के चूरे से चाय लेतीं,लेकिन उनके मुख से उफ ! किसी ने नहीं सुना। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए दस-पाँच पैसे तक का हिसाब रखते। हर रात्रि जब वे ख़र्च पर नियंत्रण के लिए डायरी लेकर बैठते माथे पर चिन्ता की लकीरें और गहरा जातीं । हृदय-पीड़ा आँखों में न समाती और प्रभात होते ही बच्चे रट लगाने लगते - "मम्मी! भूख लगी है। नमक-रोटी दो न।" ज़िगर के टुकड़ों की यह करुण पुकार सुनकर नित्य नयी चुनौतियों के साथ उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती। किन्तु जीवन के इस संघर्ष में किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। आशा का झिलमिलाता दीपक बुझने नहीं पाए इसके वे लिए एक-दूसर के मनोबल को ऊँचा रखते।
दीपेंदु को भलिभाँति याद है कि इस विपत्ति में भी उसके परिवार में भाग्य का रोना नहीं था। उन तीनों बच्चों के लिए घर में होली, दीपावली और दशहरा जैसे पर्वों पर पकवान बनते। पूड़ी-कचौड़ी, दहीबड़ा-कांजीबड़ा और मगदल वे तीनों भाई-बहन त्योहारों पर छककर भोजन करते, क्योंकि ऐसे स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए उन्हें अगले किसी उत्सव की प्रतीक्षा जो करनी पड़ती थी। पर्वों पर रुपये-आठ आने के पटाखे अथवा रंग-अबीर उसके पिता लाना नहीं भूलते। पर्वों पर नये वस्त्र नहीं बने तो क्या हुआ,वे ऐसे स्वच्छ पोशाक पहनते , जिसे देख अड़ोस-पड़ोस के बच्चे यह नहीं कह सकते थे -" तुम बहन-भाइयों ने होली पर पुराने कपड़े पहन रखे हैं।" और हाँ, खिचड़ी(मकर संक्रांति) पर्व पर उन तीनों बच्चों के लिए माँ चूड़ा-लाई और गुड़ से निर्मित कनस्तर भर लड्डू बनाना कैसे भूल जातीं। बच्चों से ही तो सारे उत्सव हैं।
"वाह! घर के बने पकवान कितने स्वादिष्ट थे ! कितना स्नेह छिपा था इनमें।" बचपन के उन दिनों का स्मरण होते ही दीपेंदु का हृदय पुलकित हो उठा था। वे भी क्या दिन थे,जब दस पैसे की चाय लेने वह भागा-भागा उस खंडहरनुमा मकान में नीचे से ही चायवाले काका को पुकारते घुस जाता था।स्नेहवश वे मखनहिया दूध से बनी अपनी चाय से उसका गिलास भर देते थे। घर लौटते ही माँ उसे ढेरों आशीष देते न थकती।वह स्वयं से वार्तालाप में कुछ इस कदर खो-सा गया था कि सड़क पर हो रहे शोर-शराबे और मोटर-गाड़ियों की आवाज़ तक उसे नहीं सुनाई दे रही थी।
पिताजी को अपने रिश्तेदारों से मदद लेना पसंद न था।घर की आर्थिक स्थिति को देख दीपेंदु समय से पहले समझदार हो गया था, इसीलिए त्योहार मनाने में उसके गुल्लक का भी छोटा-सा योगदान हुआ करता था। मिट्टी का शिवलिंग बना तो कभी आसमान से कट कर छत पर आ गिरीं पतंगों को आकर्षक बना कर वह मुहल्ले के दो-चार बच्चों को बेच दिया करता था। यदि कभी किसी हितैषी ने चार आने भी दिये तो उसे चाट-पकौड़ी में उड़ाने की जगह इसी गुल्लक में सहेजता । खिलौनेनुमा प्लास्टिक का यह गुल्लक ननिहाल में उसे बैनर्जी दादू ने दिया था। जो अब यहाँ बचत का महत्व समझा रहा था। यदि किसी पर्व पर जब कभी उसकी माँ के गहने,बरतन, साड़ी और पुराने उपन्यास बिके थे, तो उससे पहले उसका गुल्लक खाली होता था। ऐसा कर उसे खुशी मिलती थी। हर्ष-विषाद युक्त हृदय से उसके माता-पिता आपस में चर्चा करते - "हमारे ये बेसमझ बच्चे कितने बुद्धिमान हो गये हैं!हम क्या इन्हें कभी खुशियाँ नहीं दे पाएँगे ?"
अरे हाँ ! याद आया, दूर्गापूजा पर पूरे परिवार के साथ वह शहर के पांडालों की सजावट देखने निकलता तो कबीरचौरा पर हलवाई की उस दुकान से लिये गये लौंगलता की मिठास वर्ष भर कायम रहती थी और होली पर बंगाली टोला के रसगुल्ले को कैसे भुला सकता है वह। जिसे खरीदने के लिए रिक्शे के पैसे की बचत की जाती। पाँव थक जाते, परंतु चेहरे पर मुस्कान होती। लाटभैरव के नक्कटैया की रात घर में पहली बार रेवाड़ी-चूड़ा पिताजी लेकर आते। वे तीनों बच्चों को मध्यरात्रि लाग और चौकियाँ दिखलाने ले जाते।
"अहा ! धनाभाव में सुख से भरे उन दिनों पर सारे धन-दौलत न्योछावर है।" दीपेंदु अपने उस दुःख भरे सुनहरे दिनों के स्मरण-लोभ में डूबता ही जा रहा था। उसे याद है कि उन बच्चों के जन्मदिन पर केक और मिष्ठान मंगाने में अभिभावक असमर्थ थे, किन्तु चावल-दूध की खीर का भगवान को भोग लगाया जाता था। मेवे, इलाइची और केशर के सुंगध न सही,इसमें प्रेम की अद्भुत मिठास घुली होती थी। प्रसाद तो वैसे भी अमृततुल्य हो जाता है। सावन में ठेकुआ चढाने वे सभी दुर्गाजी और मानस मंदिर जाते। मार्ग में लिये गये दो- तीन भुट्टे में ही पूरे परिवार की आत्मा तृप्त हो जाती थी। इनको खरीदने के लिए पैसे की व्यवस्था पहले से करनी पड़ती थी। फिर भी वे सभी कितने खुश थे।
और उस दिन जब माँ ने नज़रें नीचे कर पिताजी से कहा था -"सुनते हैं ! बच्चों ने इस बार आम नहीं खाया है। वैसे,इसके लिए वे जिद्द नहीं करते,किन्तु यदि हो सके तो..।" वेदना से भीगे इस स्वर को सुनकर उसके पिता ने दुःख भरी दृष्टि से उसकी माँ को देखा था और फिर उन दोनों की गर्दन झुक गयी थी। उसी रात जब वे काम से लौटे तो उनके रुमाल में कुछ बँधा हुआ था। अत्यधिक उमस से बेचैन दीपेंदु को नींद नहीं आ रही थी।तभी उसने देखा कि माँ उन आमों के गले और सड़े हुये हिस्से को अलग कर रही थीं। एक सभ्रांत परिवार की स्त्री के लिए ऐसा करना लज्जाजनक था। डबडबा उठीं अपनी आँखों को उन्होंने बड़ी सफाई से बच्चों से छिपा लिया।
दीपेंदु समझ गया कि पैसे के अभाव में उसके पिता ने अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा को ताक पर रख उन बच्चों के लिए उस ढेर में से कुछ आम छाँट लाये थे,जिन्हें दुकानदार सड़ा-गला और गुलगुले समझ अलग रख दिया करते थे। ग़रीब-गुरबे कम दाम पर इन्हें खरीद ले जाते। यह देख उस नासमझ बालक का हृदय में कंपन-सी उठी थी । उसे ऐसा आभास हुआ कि इन दागी आमों की मिठास ने उसकी आत्मा हमेशा के लिए तृप्त कर दी हो। अब भला बाज़ार में बिक रहें आमों में वह रस कहाँ? इन्हें खिलाने वाले वे अपने प्रियजन कहाँ ?
जिस दुर्लभ निधि के स्मरण-मात्र से उसे परमसुख की अनुभूति हो रही थी।नस-नस में बिजली-सी दौड़ आयी थी। वह समझ गया है कि दुःख तो जीवन का सबसे बड़ा रस है,जो सबको माँजता है, सबको परखता है। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है। इसे संभाल कर रखना चाहिए। क्योंकि सुख के आते ही उसका परिवार बिखर गया था, संवेदनाओं के तंतु कमजोर पड़ गये थे और महत्वाकांक्षा ने आपसी संबंधों के मध्य दीवार खड़ी कर दी थी। काश ! दुःख के वे ही दिन वापस लौट आते। उसके एकाकी जीवन में फिर से स्नेह रूपी पीयूष-वर्षा होती। दीपेंदु अपने नेत्रों से बह चले अश्रु प्रवाह को नहीं रोक पा रहा था।
-व्याकुल पथिक
शशि जी आज की सुबह का आरंभ आपकी इस मार्मिक रचना को पढ़ने के साथ हुआ। आपके लिखे वाक्य मन की गहराइयों में उतर गए और अभी भी मस्तिष्क में गूँज रहे हैं कि "दुःख तो जीवन का सबसे बड़ा रस है,जो सबको माँजता है, सबको परखता है। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है। इसे संभाल कर रखना चाहिए।"बहुत दर्द झलकता है आपकी ऐसी रचनाओं में लेकिन शायद इसी दर्द की अनुभूति आपकी लेखनी की ताकत है।
ReplyDeleteजी प्रवीण जी।
Deleteआपने उचित कहा, यही वेदना मेरी लेखन शक्ति है, यही मेरी संवेदना है,यही मेरी धड़कन है, जिसके आलोक में मैं इस सभ्य संसार को समझ और परख रहा हूँ।
प्रतिक्रिया के लिए आभार।
मार्मिक रचना
ReplyDeleteजी आभार।
Deleteअतीत कितना भी दुःखद हों, उसकी स्मृतियाँ सदैव सुखद होती हैं। कई बार आप आदर्श को पढ़ते हैं, आदर्श को जीते हैं। बावजूद इसके आप कठिनाइयों का सामना करते हैं। कई परिवार इसी तरह से जीते हुए अपनी ज़िंदगी गुज़ार देते हैं। उनमें से कइयों के हिस्से में लाचारी आती है। जब आँखें खुलती हैं, तब समय चला जाता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति अतीतजीवी हो जाता है।
ReplyDeleteजहाँ तक इस कहानी का प्रश्न है, कहानी का नायक परिस्थितियों का शिकार है। इधर-उधर में वक़्त गुज़र गया और भविष्य के लिए कोई ठोस योजना बन नहीं पाई। न ही उसके पास कोई प्रेरणादायक पृष्ठभूमि थी। बारी-बारी सब उसे छोड़ गए। यदि उसका ख़ुद का परिवार होता, तो वह भी परिवारिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए कुछ लक्ष्य प्राप्त करता, तो कुछ लक्ष्य आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ जाता। जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा है, कहानी का नायक बीते दिनों को याद करते हुए ख़ुद को ढांढस देने के लिए तर्क गढ़ रहा है। सारे तर्क उसकी आत्मा से निकल रहे हैं। उसे लगता है कि वह दुखों से बना है औरअब उसे दुखों के लिए ही जीना है। इसीलिए तो वह कहता है, "दुःख तो जीवन का सबसे बड़ा रस है,जो सबको माँजता है, सबको परखता है। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है। इसे संभाल कर रखना चाहिए।"
वैसे भी जीवन एक संघर्ष है। इस बात को कइयों ने कहा है। आप किसी भी मुक़ाम पर रहेंगे, समस्याएँ आती रहेंगी। कहने वाले तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे। सुखमय जीवन की कामना कभी छोड़नी नहीं चाहिए। एक बार फिर आपकी कहानी मर्म को छू गई। शशि भाई लिखते रहिए। 🙏
सदैव की तरह ही विस्तार के साथ प्रतिक्रिया देने आपका हृदय से आभार अनिल भैया।🙏
Deleteएक पसंदीदा गीत याद आ गया है। बोल है-
राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है।
दुख तो अपना साथी है।
सुख है एक छाँव ढलती आती है जाती है।
दुख तो अपना साथी है।
कथाशिल्प और प्लाट के ताने-बाने से बुनि कथानक ने सुख-दुख को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया कि हृदय तार-तार होगया.
ReplyDeleteकाश:दुख का ऐसा एहसास ईश्वर किसी को न दे तो ही अच्छा होगा.
कुछ ऐसे ही सुख-दुख का एहसास कराती मेरी एक रचना(मुक्तक) जिसकी पृष्ठभूमि भी कुछ इसी प्रकार की है.
खाली गिलास हो गई है जिन्दगी.
घर में उदास हो गई है जिन्दगी.
सुख-दुख की अपनी सीमाएं जोड़ कर,
आखिर में उपन्यास हो गई है जिन्दगी.
(राजेन्द्र मिश्र)
वाह! बहुत सुंदर। जी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभार।
Deleteशशि भैया , दीपेंदु की व्यथा- कथा एक पीढ़ी पहले के शायद हर इंसान की सच्चाई है जब आम तौर पर किसी भी आम परिवार में इतनी खुशहाली नहीं होती थी कि वे अपने बच्चों के लिए कुछ अनोखा कर सकें | पर दीपेंदु गरीब नहीं था उसके पास अपने स्नेही माता पिता की अनमोल पूंजी थी जो अभावों में भी अपने बच्चों की खुशियों के बारे में चिंतन करते थे और उनके लिए छोटी छोटी खुशियाँ बटोरने को तत्पर रहते थे | स्वाभिमानी पिता और जुझारू माँ से बढ़कर कौन हितकारी हो सकता है संतान का !किते सुंदर शब्दों में आपने दीपेंदु के घर को शब्दांकित किया है --------
ReplyDeleteसहानुभूति, दया और त्याग जैसे गुणों के कारण आनंद और उत्साह दो मासूम बच्चों की तरह उसके घर-आंगन में किलकारियाँ भरा करते।-----------
सच है जिस आँगन में इतने मानवीय गुणों का निवास हो वह निर्धन कैसे था |अभाव एक दूसरे को जोड़ते हैं तो सुविधा - सम्पन्नता अपनों को- अपनों से ही दूर करती है | क्योंकि अभावों से घिरे व्यक्ति के भीतर गहन संवेदनाएं और मानवता निवास करती है |इसमें व्यक्ति अपनों की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझने का गुण होता है जो | अभाव हमें ईश्वर जैसे अतार्किक अवलंबन से जोड़ देते हैं |
आज का लेख पढ़कर भीतर गहन पीड़ा की अनुभूति हुई |गद्य में आपका लेखन दिनबदिन निखरता जा रहा |ये लेख आपके उत्कृष्ठ लेखों की श्रेणी में शुमार किया जाएगा |सुंदर लेखन के लिए मेरी शुभकामनाएं|
शशि भैया , दीपेंदु की व्यथा- कथा एक पीढ़ी पहले के शायद हर इंसान की सच्चाई है जब आम तौर पर किसी भी आम परिवार में इतनी खुशहाली नहीं होती थी कि वे अपने बच्चों के लिए कुछ अनोखा कर सकें | पर दीपेंदु गरीब नहीं था उसके पास अपने स्नेही माता पिता की अनमोल पूंजी थी जो अभावों में भी अपने बच्चों की खुशियों के बारे में चिंतन करते थे और उनके लिए छोटी छोटी खुशियाँ बटोरने को तत्पर रहते थे | स्वाभिमानी पिता और जुझारू माँ से बढ़कर कौन हितकारी हो सकता है संतान का !कितने सुंदर शब्दों में आपने दीपेंदु के घर को शब्दांकित किया है --------
ReplyDeleteसहानुभूति, दया और त्याग जैसे गुणों के कारण आनंद और उत्साह दो मासूम बच्चों की तरह उसके घर-आंगन में किलकारियाँ भरा करते।-----------
सच है जिस आँगन में इतने मानवीय गुणों का निवास हो वह निर्धन कैसे था |अभाव एक दूसरे को जोड़ते हैं तो सुविधा - सम्पन्नता अपनों को- अपनों से ही दूर करती है | क्योंकि अभावों से घिरे व्यक्ति के भीतर गहन संवेदनाएं और मानवता निवास करती है |इसमें व्यक्ति अपनों की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझने का गुण होता है जो | अभाव हमें ईश्वर जैसे अतार्किक अवलंबन से जोड़ देते हैं |
आज का लेख पढ़कर भीतर गहन पीड़ा की अनुभूति हुई |गद्य में आपका लेखन दिनबदिन निखरता जा रहा |ये लेख आपके उत्कृष्ठ लेखों की श्रेणी में शुमार किया जाएगा |सुंदर लेखन के लिए मेरी शुभकामनाएं|
आपके इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के उत्तर में मैं किस प्रकार आभार व्यक्त करुँ रेणु दीदी। यह मुझे समझ में नहीं आ रहा है। यूँ कहूँ कि मेरे पास शब्द नहीं है, सिर्फ़ इसके कि आपका स्नेहाशीष सदैव बना रहे।🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१९-०९-२०२०) को 'अच्छा आदम' (चर्चा अंक-३८२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
जी मंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार आदरणीया अनीता सैनी जी।🙏
Deleteनमस्ते लाज़बाब।
ReplyDeleteजी प्रणाम🙏 आभार।
Deleteअपने परिवार का साथ हो तो इन्सान में भीषण कष्ट झेलने की शक्ति भी ईश्वर दे देता है ।दीपेन्दु के माता-पिता निर्धनता के बाद भी आपसी सामंजस्य और स्वाभिमान के साथ अमीर थे । बहुत मर्मस्पर्शी सृजन शशि भाई ।
ReplyDeleteजी आभार,मीना दीदी।
Deleteवाह शशि जी
ReplyDeleteमार्मिक रचना
जी आभार अग्रज🙏
Deleteबहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन
Deleteधनाभाव में यदि परिवार में प्रेम और एक दूसरे की परवाह होती है तो वह धनाभाव भी मुश्किल नहीं होता एक दूसरे के सहयोग से समय कट ही जाता हैऔर अच्छा समय यदि परिवार के स्नेह को कम करे तो बेहतर है कि वह दुख और कभाव ही भला... परिवार के स्नेह और सहयोग से बढ़कर कोई दौलत नही...।
दीपेन्दु के माध्यम से परिवार के महत्व को समझाता लाजवाब सृजन।
जी आभार🙏
Deleteवाकई में शशि भैया की लेखनी का कोई जोड़ नहीं सादर चरणस्पर्श भैया माॅ सरस्वती की कृपा बनी रहे
ReplyDeleteआभार रामानंद जी।
DeleteBhai sb, deependu ke maata pita ka vipreet paristhiyon mein bhi saamanjasya aur apne bachche ka khayal,bahut saari bhawanaon ko jaga deta hai.kaas aaj bhi pariwaron mein wahi cheej🙏🏻🌹 hoti ,to jeevan kitna sunder hota.
ReplyDelete-एक वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया।
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बहुत ही उम्दा , एकदम सत्य, हृदय को छू लेने वाली रचना , कहानी अथवा आत्म कथा लगती है।वाह 👌
आशीष बुधिया, पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष
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अत्यंत ही मार्मिक और बेहद शिक्षाप्रद कहानी।
-आकाश रंजन
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शशि भैया सादर प्रणाम🙏💐 आपकी यह रचना बहुत ही मार्मिक लगा👏 पढ़कर मेरी आंखें भर आई ।आपके ऊपर माता सरस्वती 🙏💐की विशेष कृपा है ।इसी तरह आपका कलम का जादू चलता रहे👌👌🌹 इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आपका जादूगर रतन कुमार💐👏🎩🎩🎩
बहुत ही हृदय को झकझोर देने वाली मार्मिक रचना ।
ReplyDeleteशशि भैया आपकी कलम और आपकी रचना को बारम्बार प्रणाम है।
जी आभार आशीष जी।
Deleteप्रिय शशि जी,यथार्थ जीवन की कटु बातें सदैव याद आती ही रहती हैं,हम उन्हें भूलने-भुलाने की कोशिश तो करते रहते हैं किन्तु सच्चे भित्र की तरह वे हमें सावधान भी करके अपना फर्ज निभाते रहते हैं शेष हम पर निर्भर करता है,
ReplyDeleteआपको किसी की पीड़ा,किसी का दु:ख भलीभाॅति समझने परखने व व्यक्त करने में तनिक भी देर नहीं लगती,आपकी कलम को प्रणाम है,आप चिरंजीवी हों।
-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"
हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDelete💐🙏💐
जी आपका अत्यंत आभार🙏
Deleteबेहद मर्मस्पर्शी सृजन
ReplyDeleteजी आभार🙏
Delete