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Tuesday 19 June 2018

दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन





 न जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ
  अचानक  ये   मन
  किसी के जाने के बाद ,करें फिर उसकी याद
  छोटी   छोटी   सी  बात ...

         मेरी लिये अश्वनी भाई के ऐसे गीतों का गुलदस्ता खासा मायने रखता है। फादर डे पर ब्लॉग पर कुछ वरिष्ठ साथियों की कविताएं पढ़ रहा था। कितने श्रद्धा भाव से लिखी गयी थीं, वे चंद पंक्ति। मन बोझिल सा हो गया । पुत्र होने का जब कोई फर्ज अपना पूरा किया होता, तब न नमन करता मैं भी ! अन्यथा चित्र पर माला पहनाने का क्या मतलब है। बाबा(नाना) और पापा( पिता जी) दोनों में से किसी के अंतिम संस्कार तक में मैं मौजूद नहीं रहा। यहां पश्चाताप की दो बूंदों से काम नहीं चलेगा। नियति की विडंबनाओं से मैं यह पूछ भी तो नहीं सकता कि तुम्हें मैं ही इतना प्रिय क्यों हूं कि जब भी मुस्कुराने की बारी आती है, आंखें भर आती हैं। ढ़ाई दशक तक पता नहीं सुबह से लेकर रात तक ये चार शो वाले रंगमंच का चयन मैंने कैसे और किस विवशता में कर लिया था कि अपनों से दूर बहुत दूर होता चला गया। यदि अब यह कहूं कि दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन, तो स्मृतियों के अतिरिक्त और क्या शेष है मेरे पास । हां , आप ऐसी गलती कभी मत करना अपना कर्म क्षेत्र चयन करते समय, अपनों के लिय वक्त जरूर रखना । मैं तो अपने पागल मन को यूं समझा लेता हूं -
 ऐ मेरे उदास मन
चल दोनों कहीं दूर चले
मेरे हमदम तेरी मंजिल
ये नहीं ये नहीं कोई और है...

पर इसके लिये भी काफी अभ्यास करना पड़ा है मुझे । अब भी मैं  विवाह- बारात जैसे मांगलिक समारोह की चकाचौंध भरी दुनिया में इन पच्चीस वर्ष बाद कदम रखने में असहज महसूस करता हूं। मैं एकांत चाहता हूं , इस दुनिया से मेरा अब ऐसा क्या रिश्ता ? पर जो शुभचिंतक हैं न, वे मेरी मनोस्थिति को कहां समझ पाते हैं। सो, उनके आनंद के लिये जाना तो पड़ेगा ही।
  वैसे, इस बार फादर डे पर अपनी वेदना से कहीं अधिक व्याकुलता अगले दिन एक दुखद घटना को लेकर हुई मुझे। हमारे जैसे किसी भी सम्वेदनशील इंसान की जुबां पर सिर्फ एक ही शब्द रहा कि बच्चे किस दबाव में इतना बड़ा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। जो उनके माता पिता को ताउम्र सालता रहेगा। घटना यह है कि नगर के एक प्रमुख चिकित्सक की सत्तरह वर्षीया पुत्री का शव फादर डे के अगली सुबह उसके कमरे में पंखा से लटका मिला। छोटी सी बात थी मृत छात्रा को चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी प्रतियोगी परीक्षा में कम अंक मिल रहे थें। नामी चिकित्सक हैं, सो उनके पास हर वैभव मौजूद रहा। फिर भी उनके भव्य बगले में मातम बन मौत ने पांव रख ही दिया। पिता ने अपनी दोनों ही पुत्रियों को शहर के सबसे बड़े कानवेंट स्कूल में पढ़ाया था। जरूर तमन्ना अभिभावकों की भी होगी कि उनकी बिटिया भी डाक्टर बन नाम रौशन करे।  ऐसी ही महत्वाकांक्षा  किशोर मन पर भारी पड़ती है कभी कभी । परीक्षा में असफल होने के बाद वह टूटती रही होगी। उसकी मनोस्थिति को कोई समझ नहीं पाया होगा। परिणाम सामने हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ प्रदेश उपाध्यक्ष भगवती प्रसाद चौधरी जिनका इस डाक्टर परिवार से घरेलू संबंध हैं, जो अच्छे चिंतक भी हैं, वे चकित से थें कि बच्ची ने इतना बड़ा दुस्साहसिक कदम किस तरह से उठा लिया । दुपट्टे को पंखा में फंसाने के बाद कुर्सी को पांव से धक्का देने की हिम्मत वह आखिर किस प्रकार जुटा पाई। यह चिन्तन का बड़ा विषय है, हम सभी के लिये। बड़ों का तनावग्रस्त हो अप्रिय कदम उठाना समझ में आता है। लेकिन ,बच्चों पर इतना अधिक उनके कैरियर का दबाव ? कहां जा रहे हैं हम मित्रों इस भौतिक युग में, विचार किया आपने। क्या कभी अपने बच्चों से पूछा कि वे क्या चाहते हैं। मैं तो अपना किशोरावस्था याद कर सहम उठता हूं। कोलकाता में 6 की परीक्षा पास कर वाराणसी जब आया था, तो सीधे कक्षा 8 की बोर्ड की परीक्षा में बैठा दिया गया था। फिर नौ में साइंस का स्टूडेंट हो गया। जो लड़का सदैव अपने परिश्रम के  बल पर कक्षा में अव्वल रहा हो। उसे दो दर्जा  ऊपर की पढ़ाई तनिक भी समझ में नहीं आ रही थी। फिर भी अपने सम्मान के लिये दिन भर और देर रात भी गणित का सवाल हल करता रहा। सो,गणित में भले ही मुझे हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा में 100 में से 98 अंक मिल गया, परंतु ना जाने किस कारण परिवार से दूरियां बढ़ती ही गयी,  मैं घर छोड़ कोलकाता बाबा के पास होते हुये मुजफ्फरपुर मौसी के घर जा पहुंचा।वे सारे स्वप्न जो मुझसे  जुड़े थें अभिभावकों के वे बिखर गये। आज भी व्याकुल पथिक बना मंजिल तलाश रहा हूं। कहने का बस इतना तात्पर्य है कि अपने बच्चों की मनोदशा को हमें समझना होगा, क्यों कि वे अपनी नहीं अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षा के शिकार हैं। उन्हें भारतीय और आयातित संस्कृति के मध्य फंस कर अकेले ही द्वंद करने के लिये छोड़ दिया गया है। कसूरवार कौन है हम या ये नादान बच्चे ...शशि