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Wednesday 4 April 2018

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक 4/4/18

(आत्मकथा)

   एक बात तो मैं साफ साफ बता देना चाहता हूं कि जिस संघर्ष भरी पत्रकारिता को मैंने झेला है। अब उससे मुक्ति चाहता हूं। एकांत चाहता हूं। वैराग्य चाहता हूं। इसीलिये किसी भी विवाद में खुद को उलझाने में तनिक भी रुचि नहीं है। न ही समाजसेवी कहलाने जैसे तमगे की ख्वाहिश है। अतः आरक्षण  आदि समसामायिक विषयों पर खामोश हूं। हां एक अखबार का प्रतिनिधि हूं, तो आधा पेज खबर भेजनी पड़ती है। सो , बच बचा कर भेज देता हूं। यह पत्रकारिता धर्म के प्रति ईमानदारी नहीं है, जैसा मैं था। परंतु मैं जब तक हूं , मेरा प्रयास रहेगा कि जनहित में जितना भी हो सके, लिखता रहूंगा।  ऐसी पत्राकारिता नहीं करनी है, तो आप इस मीरजापुर में भूल से भी न ठहरें । यहां सड़ जाएंगे, अवसाद ग्रस्त हो जाएंगे। आज जो मुकदमें समाचार लेखन में मैं झेल रहा हूं न , यह बिरादर भाइयों की ही बड़ी साजिश रही, मुझे उस अखबार से बाहर निकलवाने की। मैं ईमान पर था, सो निकला तो नहीं, परंतु मुकदमे का फंदा अभी भी गले में पड़ा है। जिस कारण मैं इस पत्रकारिता को त्याग भी नहीं पा रहा हूं । जिसकों अब मैं करना ही नहीं चाह रहा हूं। यहां एक बात यह भी बतला दें कि दो नहीं मैं एक साथ तीन नाव की सवारी इस पत्रकारिता जगत में विगत ढ़ाई दशक से कर रहा हूं। समाचार लिखना,  फिर बंडल लाना और रात्रि में साढ़े 10 से 11 बजे तक पेपर का वितरण। 12 बजे के बाद बिस्तर पर जाना और सुबह 5 बजे उसे त्याग देना।  दिन भर परिश्रम का परिणाम क्या मेरा यही है कि सिर्फ पांच घंटे ही सोने को मिले। सिर में दर्द होता है, तो सांईं मेडिकल जिन्दाबाद है। सनी भाई कोई टिकिया दे ही देते हैं। सो ,मेरा मत है कि एक अच्छे खिलाड़ी के लिये खेल जगत से सबसे अच्छा सन्यास लेने का समय वही है, जब उसका प्रदर्शन उम्दा रहे , लेकिन उसे यह आभास होने लगे कि इस जज्बे को और बहुत दिनों तक वह कायम नहीं रख सकता। मेरी सोच तो कुछ यही ही है। क्योंकि मैं व्यापारी नहीं हूं, बल्कि एक पत्रकार हूं। अखबार बांट सकता हूं, बंडल ढो सकता हूं। परंतु विज्ञापन के लिये हर किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता हूं। न ही इसके लिये खबरों से समझौता ही कर सकता हूं। थोड़ा बहुत चलेगा, लेकिन बहुत नहीं। एक विधान सभा चुनाव की बात बताऊं । तब पेड न्यूज का युग था। नगर विधान सभा का चुनाव था।  एक राष्ट्रीय दल के प्रत्याशी की चुनावी फिजा बनाने पड़ोसी जिले से कई धुरंधर पत्रकार आये हुये थें। यहां के एक भव्य होटल में पनीर पकौड़ा कट रहा था। स्थानीय पत्रकारों के ईमान धर्म की डीलिंग हो रही थी। मुझे भी बुलाया गया। यहां से अच्छा विज्ञापन मिलता था। उस पार्टी के प्रत्याशी और अन्य स्थानीय नेता मुझसे स्नेह भी करते थें। सो, बुलावे पर मैं गया। साहब फिर क्या हुआ जानते हैं। पड़ोसी जनपद से आये एक युवा पत्रकार ने मुझसे भी कहा कि देखो भाई, मैटर मैं दूंगा। तुम्हारा चार- पांच सौ अखबार भी शाम को लूंगा। शर्त यही है, जो दूं उसे ही छपवाना है।बोलों सौदा पक्का की नहीं। सभी परिचित थें। कुछ बड़े अखबार मोटे हेडिंग में यह छाप भी रहे थें कि इस पार्टी के उम्मीदवार से अन्य सब प्रत्याशी लड़ रहे हैं। सो, दबाव मेरे ऊपर भी बहुत था। जबकि मैं साफ साफ देख रहा था कि इस पार्टी का उम्मीदवार पहले दूसरे स्थान की लड़ाई में है ही नहीं। फिर कलम कैसे बेच देता। तो मैंने विनम्र निवेदन किया कि भाई साहब मेरा पत्रकार धर्म यह  इजाजत नहीं दे रहा है। आप मुझे विज्ञापन देते आये हैं। सो, मैं इतना लिख सकता हूं कि आपके उम्मीदवार का व्यक्तित्व उमदा है। और उनकी चुनावी फिजा बनाने का जोरदार प्रयास शुरु है। तो कार से चलने वाले एक पत्रकार थोड़े नाराज भी हुयें। और कहा कि और बड़े अखबार वाले और हमलोग क्या बेवकूफ हैं। तूम तो अभी बच्चे ठहरे। अखबार बांटने वाला एक मामूली व्यक्ति भला मैं बड़े पत्रकारों से कहां पंगा ले सकता था। सो, सिर झुकाये चला आया। लेकिन, पेड न्यूज नहीं ही लिखा। चुनाव परिणाम आया, तो जाहिर था कि उन्हें पराजय हाथ लगी । चौथे नंबर पर जो प्रत्याशी था, उससे कुछ ही वोट उन्हें अधिक मिला।उन  बड़े समाचार पत्रों की जनता ने तब खूब हंसी उड़ाई और मैं साइकिल से देर रात तक अखबार बांटने वाला पत्रकार सीना ताने चल रहा था। मुंह छिपाने की जरुर नहीं पड़ी , उस पेड न्यूज युग वाले आम चुनाव में भी।(शशि)

क्रमशः