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Thursday 10 May 2018

लोभ मुक्त कर्म

व्याकुल पथिक

            लोभ मुक्त कर्म ही हमारी पहचान
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       मेरा स्वयं से एक सवाल सदैव रहा है कि बिना किसी तैयारी, बिना किसी जानकारी के ही मैं नये नये कार्यों में क्यों उलझ जाता हूं। अब देखें न बचपन में मैं एक पेंटर बनना चाहता था। पेंटिंग के अभ्यास के लिये मुझे एक कुशल चित्रकार के यहां भेजा भी गया था। रंगों को हल्का-गाढ़ा कर चित्र पर भाव लाने की उनकी कला मुझे मंत्रमुग्ध किये हुये थी। उन्होंने भी मुझसे कहा था कि निश्चित ही तुम भी एक अच्छे चित्रकार बनोगे, परंतु हाईस्कूल में पिता जी ने मुझे साइंस  दिलवा दिया। तो मेरा मन गणित के सवालों को सुलझाने में उलझ गया। गणित के दोनों पेपर में बराबर अंक मिले। सौ में 98 अंक प्राप्त करना सचमुच मेरी एक बड़ी उपलब्धि ही थी।  परंतु मैं इंजीनियर भी तो नहीं बन सका। पढ़ाई बीच में छूट गयी। परिस्थितियों ने मुझे कलम थमा दिया। हिन्दी से जितना दूर मैं भागता था, वह मुझे जबर्दस्ती अपने पास खींच लायी, जीवन के पच्चीस साल कब इस मीरजापुर की सड़कों पर इस भाग दौड़ में गुजर गये कि कोई खबर छूटने न पाये। मैं कभी किसी से पीछे जो नहीं रहना चाहता था, यहां तक कि भदोही और सोनभद्र की बड़ी घटनाओं की सूचना सबसे पहले प्रेस को दे, वहां बैठें वरिष्ठ जनों को भी चौका देता था। और अब मन की व्याकुलता शांत करने के लिये यूं ही अचानक बिना किसी तैयारी के ब्लॉग लेखन करने लगा। न किसी की आत्मकथा पढ़ी , न ही कोई साहित्य पढ़ा बस लगा अनाड़ियों की तरह मोबाइल फोन का बटन दबाने। इस तरह का दुस्साहस कर मैं अपने उपहास का मार्ग स्वयं ही क्यों प्रशस्त करता हूं, मुझे नहीं पता, बावजूद इसके मेरे कई विद्वान शुभचिंतक  जब यह कहते हैं कि बहुत बढ़िया लिखा, शब्द साधना करते रहो, तो अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ी ही लज्जा की अनुभूति होती है। सोच रहा हूं कि काश ! मैं हिन्दी का विद्यार्थी होता,  तो गर्व के साथ अपनी तारीफ पर सिर उठा तो सकता न...
     फिर भी मन की ये जो भावनाएं हैं, वह भला कहां मानती हैं। अपनों की यादें मुझे व्याकुल ही किये जा रही थीं और मैंने  अतीत और वर्तमान दोनों को एक साथ लेते हुये चिन्तन युक्त आत्मकथा लेखन शुरु कर दिया, अपना एकाकीपन दूर करने के लिये। मेरा मानना है कि यदि हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन अपने कार्य में कर रहे हो और उसमें सच्चाई की सुगंध हो, तो सरस्वती की कृपा निश्चित ही प्राप्त होनी है। इसीलिये तो पत्रकारिता में यहां मुझे क्या सम्मान और स्नेह मिला है और उसमें अब तो और वृद्धि भी हो रही है, उसे वे पत्र प्रतिनिधि कभी नहीं समझ सकेंगे , जो जुगाड़ में ही रहते हैं। एक बिल्कुल ही अनजाने शहर में सिर्फ दो रोटी की रोटी के लिये मैं वाराणसी से देर शाम यहां मीरजापुर आ कर पैदल ही अखबार बांट लौट जाया करता था। आज भी मैं उन दिनों को याद करता हूं, तो चकित सा रह जाता हूं कि मेरे किस गुण के कारण लोगों ने मुझे इतना सम्मान और स्नेह दिया ! आज घर-परिवार, स्वास्थ्य सब-कुछ खोने के बावजूद भी मैं एक खुशहाल फकीर क्यों हूं। मेरे चेहरे पर आप अत्यधिक काम के बोझ के कारण थकान तो देख सकते हैं, परंतु इसे लेकर मैं चिन्ता में हूं, यह नहीं कह सकते हैं आप !
      कारण मैंने  महान संत कबीर की एक छोटी सी थ्योरी पढ़ी है,  वह यह है न कि
   रुखा सुखा खाई के, ठंडा पानी पी।
   देख पराई चुपड़ी , मत ललचाओ जी ।।

  बड़े से बड़े  शास्त्रों का ,विद्वानों का ,चिंतकों का सारा का सारा ज्ञान , इसी दो लाइन के दोहे में समाहित है। जरुरत तो इस पर प्रैक्टिकल की है हमें।  और यह प्रयोग हमें स्वयं पर करना है। आज मैं क्यों पूरे आत्मविश्वास के साथ कहता हूं कि मुझमें तनिक भी लोभ नहीं, तो इसके लिये लम्बा अभ्यास भी तो किया हूं। तब जा कर इस स्थिति में अब हूं कि मेरे सामने आप छप्पन भोग ही क्यों न रख दें , परंतु मुझे तो सिर्फ चार सूखी रोटी और थोड़ी सी सब्जी की ही तलाश रहती है । इन मेवा- मिष्ठान से अपने को क्या काम।  यहीं लोभ पर संयम मेरी स्थाई पुंजी है। जिसे मैं इस शहर की गलियों में पच्चीस साल से अखबार बांट कर कमाई है। जिसका परिणाम यह है कि मेरे लिये मजदूर और सेठ में कोई फर्क नहीं है। आज इस समाज में जो मेरा जो सम्मान है न, वह भी कारण है कि मैंने किसी सेठ के सामने हाथ नहीं फैलाया है।

( शशि)11/5/18