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Tuesday 15 May 2018

प्रणाम बंधुओंं



व्याकुल पथिक

       तुम्हारे हैं तुमसे दया मांगते हैं     
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         मन की व्याकुलता को कम करने के लिये कभी-कभी रात्रि में पुरानी फिल्में थोड़ी बहुत देख लिया करता हूं।  1954 की बनी एक फिल्म है बूट पॉलिश, जिसका एक गाना है -
      तुम्हारे हैं तुमसे दया मांगते हैं..तेरे लाडलों की दुआ मांगते है..यतीमों की दुनिया में हरदम अंधेरा..

    सुन कुछ भावुक सा हो उठा । सोचता हूं कि उन मासूम बच्चों को सही राह दिखलाने वाले एक जॉन अंकल मिल गये थें और बाद में एक दुलारी मां भी।  पर जब सगे मां-बाप ही अपने बच्चों को भिखारी बना रहे हों, तब उन्हें कौन राह पर लाएगा। हमेशा उलझन में रहता हूं कि इन बच्चों के साथ हमलोगों का व्यवहार कैसा होना चाहिए। यदि जॉन अंकल बन भी जाऊं तो फिर इनके पेट की आग कैसे बुझेगी, क्यों कि बाप तो इनका शराबी जो ठहरा। अतः, अब तक किसी निष्कर्ष पर इतने वर्षों में नहीं पहुंच सका हूं।

     वैसे, जीवन में एक समय ऐसा भी आया था कि मैं भी सबकुछ रहते हुये यतीम ही हो गया था। दो दिनों से भूखा था, फिर भी किसी के सामने हाथ नहीं फैल रहा था, आखिर मास्टर साहब का बेटा जो था । चुपचाप मैदागिन में स्थित कम्पनी गार्डन की एक कुर्सी पर सिर झुकाये बैठा था , मैंने अपने युवा काल के कई वर्ष यहां इसी बगीचे में घंटों बिताये हैं। मुझे आज भी याद है कि एक बुजुर्ग महाशय ने मेरे समीप आ अत्यंत ही प्यार से कहा कि बेटा यदि खाली हो तो फलां धर्मस्थल (मजार) पर जाकर प्रसाद चढ़ा देते, मैंने कहा था कि ठीक है बाबा चला जा रहा हूं, परंतु आपको वापस प्रसाद लाकर कहां दूंगा, यहीं ले आऊं क्या ? उन्होंने कहां कि नहीं यह लो पैसा, तुम उसे खा लेना। तेरी बिगड़ी बात बन जाएगी ! (बता दें कि तब भी और आज भी मेरा एक ही मजहब था है,  इंसानियत का ! मंदिर में बजने वाले घंटा- घड़ियाल और मस्जिद में नमाज का वह गंभीर ऊंचा स्वर दोनों ही मुझे कर्णप्रिय लगता है ) इस तरह से दो दिनों बाद मुझे प्रसाद के रुप में भोजन मिल गया था। वैसे, कई रिश्तेदार थें बनारस में लेकिन मैंने किसी से भी नहीं कहा कि मुझे भूख लगी है। आज भी काम की अधिकता के कारण रात का भोजन कहां कर पाता हूं। पत्रकार हूं अतः तमाम शुभचिंतक हैं। जो कहते भी रहते हैं कि शशि जी भोजन कर जाया करें, हम सभी को खुशी होगी। परंतु मुस्कुराते हुये टाल दिया करता हूं।  खैर...

     बच्चों को ही लेकर कालिंपोंग वाले स्वर्गीय नाना जी की एक सबक मुझे आज भी याद है। बात उन दिनों की है जब इंटर की परीक्षा देने के बाद मैं पारिवारिक कारणों से बनारस अपना घर छोड़ कालिंपोंग नानी मां के छोटे भाई के यहां चला गया था। तब वहां की सबसे बड़ी मिठाई की दुकान उनकी ही थी। सामने पहाड़ पर लड़कियों का एक स्कूल । जब इंटरवल होता था, तब ये बच्चियां पहाड़ से नीचे उतर कर सिर्फ इसलिये नाना जी की दुकान पर आया करती थीं कि  बेसन का बना नमकीन सेव शायद उसे भूजा ही नेपाली में वे बोलती थीं, यहां उन्हें मिलेगा। अधिकांश  लड़कियों के पास 50 पैसे का एक छोटा सिक्का तब हुआ करता था। फिर भी नाना जी की हिदायत रहती थी कि सेव की जो पुड़िया इन छात्राओं को दी जाए, वह ठीक -ठाक हो। चालीस- पचास लड़कियां तो आती ही थीं हर दिन । सो, वैसे ही एक दिन मैंने नाना जी से पूछ लिया कि यह तो घाटे का सौदा है न ? पुड़िया तो एक रुपये की रहती है, पर मिलता अठन्नी है ! जानते हैं नाना जी ने क्या कहा था ! उन्होंने कहा था कि इन मासूमों के चेहरे पर सेव लेने के बाद आप जो चमक देख रहे हैं न, उसकी कीमत नहीं लगाई जाती है ! 

      एक सम्वेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है कि उन्होंने कितनी बड़ी बात कह दी थी तब। तभी से जब मैं वहां हाट करने जाता था वहां , तो बड़ी दुकानों से सब्जी तो बिल्कुल ही नहीं लेता । टोकरियों में सब्जी लेकर बैठीं नेपाली  बच्चियों, वृद्ध महिलाओं को मेरी नजरें ढ़ूढ़ती रहती थीं। भाई -दाज्यू ले लो न राम्रो( बढ़िया) है, हम हिन्दी भाषियों को देख वे बोला करती थीं।  आपसे भी मैं वही छोटे  नाना जी वाली बात कहना चाहूंगा कि बच्चे और वृद्ध यदि सड़क पर बाजारों में कोई सामग्री बेचते दिखें, तो कोशिश करें कि उन्हें निराश न किया जाए। सौ -पचास रुपये तो आप जैसे जेंटलमैन के बच्चे चाकलेट खाकर बर्बाद कर देते ही होंगे , फिर बेचारे उस बच्चे का दिल क्यों तोड़ रहे हो,  अपने जूते पर उससे पॉलिश लगा लो न साहब ! भीख तो नहीं मांग रहा है न हमारा यह  लाल  ...

शशि 16/5/18