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Wednesday 22 July 2020

दुनिया में आकर जग को हँसाया


 दुनिया में आकर जग को हँसाया..


    यहाँ मैं इस छोटे से संस्मरण लेख के माध्यम  से एक ऐसे राजनेता के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहा हूँ, जिनका कृतित्व धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा एवं ज्ञान-विज्ञान नहीं,वरन् एक निश्छल 'मुस्कान' था। जो 'आह-आह' नहीं 'वाह-वाह' कह कर समाज के हर व्यक्ति का उत्साहवर्धन करते थे।  आत्मीयता  भरा यह शब्द उनके हृदय स्थल से निकलता था,न कि कंठ से।


    स्व0 माताप्रसाद दुबे👉खुद गए तो हँसते हुए पर लोगों को रुला गए-


  🌹 जिले की राजनीति को यहाँ की गंगा-जमुनी संस्कृति से सराबोर करने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता श्रद्धेय माता प्रसाद दूबे के आकस्मिक निधन की सूचना उस दिन जैसे ही मुझे मिली सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था। ख़ैर, भरे मन से पत्रकार धर्म का निर्वहन करते हुये मैंने अपने व्हाट्सअप ग्रुपों के माध्यम से शोक संदेश जनपदवासियों तक पहुँचा दिया। परिजनों ने बताया कि प्रातः नित्यकर्म के दौरान हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी। मंडलीय अस्पताल से जैसे ही उनके पार्थिव शरीर को रतनगंज स्थित आवास पर लाया गया, शोकाकुल शुभचिंतकों का आगमन शुरू हो गया और उनके पैतृक ग्राम मुजेहरा में इस कोरोना संक्रमण  के संकटकाल में भी भारी संख्या में लोग जुटे , जो उनकी अंतिम यात्रा की साक्षी बने।


इस कर्मयोगी के संदर्भ में यदि यह कहा जाए ..


कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥

तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।


    स्वर्गीय दुबे  ने , वातावरण कितना भी बोझिल हो,संकट चाहे जितना भी गंभीर हो, ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन का भरपूर आनंद लिया और साथ ही सम्मुख खड़े व्यक्ति के अधरों पर भी मुस्कान लाने का प्रयत्न किया।


  उनकी जब भी और जहाँ भी मुझसे मुलाकात हुई, वे तपाक से बोल उठते थे-" का शशि ! तनिक मुसकिया द भाई।"


  और उस दिन जब उनकी वाणी मौन हो गयी,तो ऐसा लगा कि इस सावन में जिले की राजनीति से मुस्कराहट  चली गयी। निर्वाचित जनप्रतिनिधि न सही, किन्तु एक जनसेवक के रूप में --उन्होंने अपनी  निश्छल मुस्कान से यहाँ जनता के हृदय पर राज किया। दरअसल, यह मुस्कराहट होती ही ऐसी है,जो मोल नहीं ली जा सकती, मांगी नहीं जा सकती,उधार नहीं मिलती और इसे चुराया भी नहीं जा सकता है, क्योंकि जब तक यह दी नहीं  जाए, किसी के कुछ काम की नहीं होती और स्व0 दूबे यही मुस्कराहट तो बांटते थे। मुस्कराहट ही वह चीज है जिसे पाने वाला मालामाल हो जाता है, परंतु देने वाला भी गरीब नहीं होता है।


   लोकबंदी के पूर्व तक मेरी और दूबे जी की मुलाकात प्रतिदिन रतनगंज में होती थी, जब मैं साइकिल से अख़बार बांट कर वापस राही होटल लौटता था,तो वे अपने घर के बाहर समाचार पत्र के पन्नों पर आँखें गड़ाए मिलते थे। मुझे देखते ही, वे जोर से आवाज़ लगाते -"का शशि !"

और फ़िर वही चिरपरिचित वाक्य उनकी जुबां पर होता था- 'मुस्कुराहट की आकांक्षा !'

    उनका यही स्वरूप आज भी मेरी स्मृति में है । वैसे दूबे जी को मैं सच्चा राजनीतिज्ञ इसलिए मानता हूँ क्योंकि उन्होंने किसी के संग कभी भी छल-कपट नहीं किया। जो भी समीप आया, उसके यश में वृद्धि करने का प्रयास किया और जो अपना नहीं था उसके प्रति भी उनके मन में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं थी। राजनीति के छलावे से दूर वे एक अच्छे इंसान थे। ऐसे ही कर्म-बहादुरों के लिए ही यह कामना की गयी है-


यद्यपि सौ शरदों की वाणी,

इतना काफी है अंतिम दस्तक पर
खुद दरवाजा खोलें...।🙏

  स्व0 दुबे इतना धैर्यवान थे कि विगत वर्षों पुत्र की आकस्मिक मृत्यु के सदमें को सहन करके भी मुस्कराहट  रूपी इस प्रेम-पंजीरी को समभाव से समाज के हर वर्ग में जीवनपर्यंत बाँटते रहें। वैसे, स्वयं के कष्ट से ऊपर उठकर दूसरों को खुशी देना प्रत्येक व्यक्ति के लिए  संभव नहीं है, पर इस संसार में यश भी तो सबको प्राप्त नहीं होता है ।


    और जरा यह विचार करें कि किसी के कष्ट में सहभागी होता भी कौन है, फ़िर हम क्यों अपनी पीड़ा दूसरों से कहते हैं। जब तनिक सी सहानुभूति दिखा पुनः ये ही लोग कहते हैं कि ऐसे मनहूस व्यक्ति से क्या वार्तालाप की जाए, जो सदैव अपने दुःख का वर्णन करते रहता है। यहाँ तक कि आपका कष्ट दूसरे केलिए परिहास का विशष बन सकता है। इसकी अनुभूति मुझे अपने इस असाध्य रोग के कारण हुई है। इसीलिए तो कहा गया है-


रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय। सुनि  इठलैहैं  लोग  सब , बाटि न  लैहै कोय॥


  वैसे,शास्त्रों के कथनानुसार कष्ट तो हम नहीं --हमारा यह नश्वर शरीर सहन करता है। हमारी आत्मा सदैव आनंदमय स्थिति में रहती है।

परंतु प्रत्यक्ष तो यही लगता है कि यह कैसे संभव है ? जैसे,उमस भरी गर्मी में बिजली चली गयी हो और ऊपर से मच्छरों के दल ने भी आक्रमण कर दिया हो, ऐसे में क्या हम आनंद की अनुभूति कर सकते हैं ? नहीं न ..?
     लेकिन, आज़ से ढ़ाई दशक पूर्व जब मैं प्रतिदिन बस से वाराणसी -मीरजापुर की यात्रा करता था। बस बिल्कुल भरी होती थी। भीषण गर्मी में भी तीन घंटे का यह सफ़र अनेक बार खड़े होकर तय करना पड़ता था। जीवन में इससे पूर्व मैंने इतना शारीरिक कष्ट नहीं सहन किया था, फ़िर भी पेट की ज्वाला शांत करने के लिए यह सब करना ही था।
    तभी मेरे मन में यह विचार आया था कि क्यों न मैं बस में ही आँखें बंद कर खड़े-खड़े यह अनुभूति करूँ कि ठंडी हवा चल रही है, जो मेरे मस्तिष्क के पिछले भाग से मेरे शरीर में प्रवेश कर रही है।  सच कहूँ तो ऐसा करते हुये मुझे पता ही नहीं चलता था कि यह कष्टकारी यात्रा कब पूरी हो गयी। बस आज़ यहीं तक,अगले सप्ताह पुनः किसी नये विषय के साथ बंदा हाज़िर है ।

----व्याकुल पथिक

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  विंध्यक्षेत्र से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में विशेष पहचान रखने वाले  'मर्द 'साप्ताहिक  के संपादक   आदरणीय सलिल पांडेय जी ने जनप्रिय दिवंगत राजनेता स्व0 माताप्रसाद दुबे को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक विशेष परिशिष्ट निकाला है। मुझे भी इसमें अपनी लेखनी के माध्यम से स्व0 दुबे को श्रद्धासुमन अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 👆