कर्मफल
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जीवन के रंग
पितरपख का महीना चढ़ते ही गनेशू सेठ स्वर्गलोक सिधार गये। उन्होंने न किसी की सेवा ली न दवा-दुआ ! इतवार की सुबह आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही प्राण पखेरू उड़ गये। मुख में तुलसी-गंगाजल डालने का अवसर भी प्रियजनों को नहीं दिया। उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं थी,ताउम्र अपने व्यवसाय को ही देवता समझ जो पूजा था। दाँतों से दमड़ी पकड़ने की कला में वे पूरे इलाके में विख्यात, यूँ कहें कुख्यात थे।जीवन के आखिरी दिनों तक दुकान में आसन जमाये रहे। पुत्र ने धंधे में तनिक भी उदारता बरती नहीं कि ग्राहकों के सामने ही लगते नसीहत देने । घंटों व्यापार की रीति-नीति समझाते।व्यवसाय में संबंधों की उपेक्षा की बात कहते। चंदा-सहयोग माँगने वालों को ढ़ोंगी बता, उनसे सावधान करते। यह भी उपदेश देते कि कुशल बनिया वो ही है,जो धंधे में पराई पीड़ा को अपने दिल से न लगाता हो। सेठजी स्वयं तो दर्शन-पूजन , दान-पुण्य एवं व्रत-उपासना से दूर रहते और यदि घर-दुकान में एक अगरबत्ती से अधिक बेटे-बहू ने सुलगायी नहीं कि ऐसा शोर मचाते मानो खजाना लुट गया हो। उनकी बस एक ही आकांक्षा थी--घर आयी लक्ष्मी तिजोरी से बाहर न जाए, इसीलिए उन्होंने न तो कभी अपने संकीर्ण हृदय का विस्तार किया और न ही संचित धन का धर्म-कर्म और समाजसेवा जैसे कार्यों में सदुपयोग ।
उनका धन-लक्ष्मी से अत्यधिक स्नेह स्वभाविक था।जिसकी कृपा से वे गनेशू से सेठ गनेश प्रसाद बने थे। जब-तक जीवित रहें मुग्ध नेत्रों से अपने खजाने को तौलते रहे। धन देखते ही उनके हृदय में हिलोरें उठने लगतीं।आनंद से रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठता। बचपन में एक साइकिल तक को तरसने वाले सेठ की कोठी की शोभा अब बाहर खड़ी महंगी मोटरगाड़ी बढ़ाने लगी थी। शहर के उन चंद उद्यमियों में उनका नाम मिसाल था, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से विरासत में मिली बंजर भूमि पर सोने की फसल उगाई थी। फिर भी उनसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं थी। उनका सबसे बड़ा शत्रु यह कंजूसी ही थी। जिसे वे खुद के अमीर होने का राज समझते।धीरे-धीरे बेटे-बहू भी उनके रंग में ढलते गये। कृपणता के मामले में बाप-बेटे का रिश्ता लक्खीमल-करोड़ीमल जैसा था। घर के मुखिया के रूप में वे सर्वमान्य रहें,पूरा परिवार उनके इशारे पर चलता था।
योग्य उत्तराधिकारी पाकर सेठ को विश्वास हो गया था कि ऐसे पुत्र के रहते उनकी दौलत पर समाज का कोई भी परोपकारी प्राणी डाका नहीं डाल सकता। फिर भी मन में जिसे लेकर आशंका थी, वह था उनका पौत्र भोंदू। तीन बहनों के बाद जब उसका जन्म हुआ था, तो सेठ ने यह कह कर किसी विशेष आयोजन पर पहरा बैठा दिया था कि लड़का जब-तक पाँच साल का नहीं हो जाए, उसके जन्म की खुशी में कोई भी उत्सव घर में नहीं होगा। लेकिन बच्चे के ननिहाल से आये ढेरों उपहार की गिनती करने वे स्वयं दरवाजे पर जा डटे। बच्चे की तीनों सगी बुआ भी अपने पिता की इस कंजूस पर तुनक उठी थीं।जिस कारण अनेक दिनों तक उन्होंने मायके की ओर झाँका भी न था । बच्चे के जन्म पर मायके से कीमती उपहार मिलने की उम्मीद जो टूट चुकी थी। ऐसे शुभ कार्यक्रमों में बुआओं का हक-पद बनता ही है।पिता की कंजूसी से उनकी ये अभिलाषा धरी रह गयी थी।
वैसे भोंदू बच्चे का असली नाम नहीं था। हाँ, गनेशू उसे भोंदू कह इसलिए पुकारते ,क्योंकि वह अपने बाप-दाद की तरह धन-संग्रह की प्रवृत्ति से दूर था।जब-तब चोरी-छिपे अपने जेबख़र्च से ग़रीब सहपाठियों का सहयोग किया करता था। धन के संबंध में उसकी यह उदारता भला कंजूस सेठ को कैसे सहन होती,जिसने अपने जीवनकाल में भूल कर भी मदद के नाम पर किसी को फूटी कौड़ी न दी हो।इसलिए उन्होंने अपने कुलदीपक को धन-संचय संबंधी नसीहत देने के लिए अपनी पाठशाला में बुला लिया। बच्चे के समक्ष दानशीलता के दुर्गुण पर घंटों व्याख्यान देते। घर आये अतिथि को शनिदेव समान बताते। ऐसी विपत्ति से निपटने के लिए उन्होंने जिन युक्तियों का सहारा लिया था, यह सब सबक भोले बालक को रटाते। उसे बार-बार चेताते - "बेटे, यही मेरी अमीरी का राज है। इस फ़न में तेरा बाप भी पक्का है। अब तेरी बारी है ।"
गनेशू सेठ में इस कंजूसी के अतिरिक्त कोई बुराई नहीं थी। मुहल्ले में हर कोई इसका साक्षी है कि उसने धूर्तता से यह धन अर्जित नहीं किया। उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया,किसी की शिकवा- शिकायत नहीं की।उनकी आँखों में तो उनका धंधा नाचता रहता,अन्य कार्यों के लिए वक़्त कहाँ था ? वे हर उस व्यक्ति की दृष्टि में शांतिप्रिय थे, जो उनकी तिजोरी पर बुरी नज़र नहीं रखता था। किन्तु कंजूसी के काले रंग पर और कोई रंग चटख हो भी तो कैसे , इसीलिये शुभचिंतकों में सेठ के सूमपना के किस्से उनके जीवनकाल में ही मशहूर थे। उनके सारे गुणों पर यह एक अवगुण भारी था।
तो फिर सेठ की ऐसी सुखद मृत्यु उनके किस कर्मफल का पुण्य-प्रताप था ? मुहल्ले-टोले में इसीपर नयी बहस छिड़ी हुई थी। आखिरकार बूढ़े भगेलू भगत से रहा नहीं गया- "भगवान के दरबार में यह कैसा अंधेर है ? इस पापात्मा को ऐसी सद्गति !" "हाँ भईया ,गज़ब कलयुग है ! जिसने कभी एक दमड़ी परोपकार पर ख़र्च नहीं किया,उस बूढ़े को ऐसी सुखद मौत!"-गंगा स्नान कर लौटी श्याम दुलारी काकी का स्वर भी कम कसैला नहीं था। यूँ समझे कि सेठ का स्वर्गारोहण उसपर सदैव तंज़ कसने वालों के रंज का कारण बन गया था।
गनेशू सेठ की पुत्रियों का ससुराल दूर था। उनके आने के पश्चात कृत्रिम शोकाकुल वातावरण में अंतिम संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई। अब रात्रि हो चुकी थी। नाते-रिश्तेदार अपने घरों को लौट गये थे। फुर्सत मिलते ही सेठ की बहू ने अपने पति से कहा- "अजी सुनते हो ! बाबूजी कितने पुण्यात्मा थे, जो पितरपख में ऐसी सुखद मृत्यु मिली ? मैं तो इतना ही चाहती हूँ कि वे जहाँ भी हों ,अपनी छाया हमपर बनाए रखें। कुछ भावुक सी हो गयी थी सुमन।
" हाँ, भई! मरे भी तो रविवार बंदी के दिन, व्यापार को भी क्षति नहीं पहुँची। यदि और दिन जाते तो दुकान जो बंद करनी पड़ती। " सेठ के लायक पुत्र ने पत्नी की ओर देख अपनी सहमति जताते हुये कहा।
"अरे हाँ, वे तो कोरोना संक्रमणकाल में गये हैं। ऐसे में तेरही भोज की बस औपचारिकता ही हमें निभानी है।ऐसे नाज़ुक वक़्त में किसी के दरवाजे आता कौन है ?अन्यथा बड़ा आयोजन करने में डेढ़-दो लाख गल जाते, जिसे देख उनकी आत्मा भी दुःखी होती,किन्तु देखो जी, पिताजी ने मरते दम तक हमारा कितना ख्याल रखा।"
मुदित मन से सेठ की पुत्रवधू ने जैसे ही अपनी बात पूरी की ही थी कि सामने भोंदू को खड़ा पाया। जिसकी दृष्टि निरंतर उस कूड़े के ढेर पर टिकी हुई थी। जिसपर बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियाँ पड़ी हुई थीं।सुबह इसी पर उसके दादा का पार्थिव शरीर रखा गया था। वह उस ओर संकेत कर सवाल करता है - " वह तो ठीक है माँ,परंतु यह बर्बादी क्यों ? सैकड़ों रुपये की सिल्लियों को आपने कूड़े में फेंक दिया ! और आप दोनों कहते हो कि दादाजी हमें आशीर्वाद दें! अरे ! उनकी आत्मा रो रही होगी, धन की ऐसी बर्बादी पर।"
तनिक ठहर कर भोंदू ने फिर कहा - " और सुनो माँ , जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो आप दोनों कोरोना से मरना। मुझे न तो इन सिल्लियाँ पर पैसे खर्च करने पड़ेंगे और ना ही आपके क्रियाकर्म पर। सुना है कि यह काम सरकार अपने पैसे से करती है। हाँ माँ, तब दादा जी कितने खुश होंगे मुझ पर, आप दोनों से भी अधिक और उनकी अधूरी आकाँक्षा पूर्ण हो जाएगी,तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। है न पिताजी ! "
अपने इकलौते पुत्र के ऐसे विचार जानकर अज्ञात भय से सिहर उठे थे वे दोनों। उनका मुख मलिन पड़ गया था पुत्र के शब्द तीर की भाँति मर्म- स्थल को छेद गये ।दानशीलता को सबसे बड़ा अवगुण समझने वाले गनेश सेठ ने जिस अच्छे दिन का सृजन अपने परिवार के लिए किया था,उसी कृपणता ने उनके परिवार की संवेदनाओं का इस प्रकार हरण कर लिया था कि बारह साल का मासूम बालक पैसे बचाने के लिए अपने माता-पिता को कोरोना से मरने की बात कर रहा है। क्या धन का लोभ मानव की आत्मा को इतने नीचे गिरा देता है ? किसी ने उचित ही कहा है-"बाढ़ै पूत पिता के धर्मे।"
गणेश सेठ तो चले गये,किन्तु धन-संग्रह के प्रति उनकी अत्यधिक लालसा उनके परिवार का कर्मफल बन उसके उज्जवल भविष्य को निगलने बढ़ी आ रही है। संभवतः इसे ही प्रारब्ध कहते हैं। जो पूर्व जन्म का संचित कर्म नहीं होता,वरन् इसी जन्म में स्वयं अथवा अपनों के द्वारा किये गये कर्म का फल है। संबंधित व्यक्ति अथवा उसका परिवार इसके दंड से अछूता नहीं है।इसलिए इस दम्पति को ऐसा लग रहा था मानो उनका अपना पुत्र ही दंड हाथ में लिए न्याय का देवता शनि बना सामने खड़ा हो...!
तभी उन्हें फ़क़ीर बाबा की वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है। बाबा सेठ की दुकान पर आया करते थे। अपनी आदत के अनुसार बाप-बेटे दोनों ने ही कभी फूटी कौड़ी भी उन्हें न दी थी। और बाबा यह कह आगे बढ़ जाते थे-" ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा।"
सेठ गनेश प्रसाद के साथ भी यही हुआ,जिस दौलत को उन्होंने आजीवन हृदय से लगाए रखा ,दबे पाँव आयी मौत ने इतना अवसर भी नहीं दिया कि वे मृत्युलोक से प्रस्थान के पूर्व अपनी तिजोरी में संचित उसी सम्पत्ति को अंतिम बार जीभर कर देख लेते।
- व्याकुल पथिक