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Sunday 8 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 9/ 4/18
 आत्मकथा
       
      हम सभी प्रबुद्धजनों का यह कर्तव्य है कि अपने उत्तराधिकारी का उचित मार्ग  दर्शन करें । कोई ऐसा आदर्श उनके समक्ष प्रस्तुत कर जाये, जिससे कर्मपथ पर चलते समय व्याकुलता की स्थिति में यह उनके आत्मबल को बढ़ा सके। क्यों कि जिनसे हमने कुछ पाया और कुछ सीखा , उनका स्मरण सदैव मन को आनंदित करता है। इस दृष्टि से पत्रकारिता के क्षेत्र में मैं सौभाग्यशाली हूं। हमारे गांडीव समाचार पत्र के संस्थापक सम्पादक स्वर्गीय भगवानदास अरोड़ा जी का जो आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ। वे मेरे सामने एक बड़ा आदर्श हैं। लगभग दशक भर पूर्व जब मैं यहां अखबार बांटता था, तो कितने ही ऐसे वरिष्ठ नागरिक मिलें, जो यह बताया करते थें कि उनके सम्पादकीय लेखन का इस तरह नशा उनपर था कि बीएचयू में जब वे पढ़ते थें, तो जेबखर्च से इतना पैसा जरुर बचा लिया करते थें कि शाम को गांडीव खरीद सकें। वहां प्रेस में जिनसे कुछ सीखा उनकों मैं भला कैसे भूला सकता हूं। डा० राधारमण चित्रांशी जी , अत्रि भारद्वाज जी, कमलनयन मधुकर जी, सत्येंद्र श्रीवास्तव जी इन सभी वरिष्ठ पत्रकारों ने एक अभिभावक की तरह मुझे कलम पकड़ना सिखाया है। साथ ही एक और चेहरा मुझे सदैव स्मरण रहेगा। वे रहें मित्र अरशद भाई के पिता स्वर्गीय अख्तर आलम शास्त्री जी। गांडीव कार्यालय में समाचार डेक्स पर किनारे से पहली कुर्सी उनकी ही होती थी। खबरों से भरे कागजों के पुलिंदे के अतिरिक्त एक ट्रांजिस्टर भी उनके बगल में रखा रहता था। सो, उनका पूरा प्रयास होता था कि दोपहर तक की कोई राष्ट्रीय और प्रादेशिक खबर गांडीव से छुटने नहीं पाये। एक बार मैं जब अपने समाचार डेक्स प्रभारी मधुकर जी को मीरजापुर का समाचार सुधारने के लिये दे रहा था ,तो उन्होंने बड़े ही अपनत्व के साथ मुझे बुलाया और क्या कहा जानते हैं ? यह गुरु मंत्र था मेरे लिये मीरजापुर की पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाने से कहीं अधिक यहां के लोगों के दिल में जगह बनाने का।  तो, सूने मित्रों उन्होंने मुझे नसीहत दी थी कि मैं यदि गांडीव को एक अनजान शहर में जनप्रिय बनाना चाहता हूं, तो स्थानीय जन समस्याओं पर ध्यान दूं। लोगों से मिलूं और उनके वार्ड, गली- मुहल्ले की समस्या लिखूं। साथ ही पाठक मंच के लिये भी उनकी खबरें लाता रहूं। उनका यही सबक मेरी यहां पहचान बन गयी। आज के पत्रकारों की तरह कलम पकड़ते ही यदि विभागीय घोटाला खोजने निकल पड़ता, तो शायद आज यहां के गली मुहल्ले में " क्या शशि भाई " कह के लोग मुझे ना बुलाते। शास्त्री जी ने मुझे तब और चकित किया था, जब विंध्याचल नवरात्र मेले की रिपोर्ट तैयार कर एक बार प्रेस में ले गया था। पहले पेज पर खबर लगनी थी। सो, वह समाचार उनके पास गया। संयोग से मैं उस दिन वहीं था। उन्होंने मुझे बुलाया और मेरे उस रिपोर्ट में काफी कुछ संशोधन कर , यह भी बताया कि किस तरह से शब्द चित्र खींचा जा सकता है। ताकि उस खबर को पढ़ते समय पाठक को लगे कि वह स्वयं विंध्यवासिनी धाम में उपस्थित है। तब मैं अचम्भित भी रह गया कि एक मुस्लिम होकर भी उन्होंने विंध्याचल मेले की मेरे समाचार को एक बोलती हुई तस्वीर के रुप में प्रस्तुत कर दिया। जिसका परिणाम जानते हैं क्या रहा मेरी पत्रकारिता पर , तो आज मुझे यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं है कि जातीय-मजहबी भावना से बिल्कुल ही ऊपर उठकर मैंने पत्रकारिता की है। इसीलिए बड़ों का आदर्श और मार्गदर्शन जरूरी है। जब हमने किसी से कुछ पाया है, तो यह हमारा भी कर्तव्य है कि अगली पीढ़ी को भी कुछ दिया जाए।  यह आत्मकथा मैं उन्हीं पत्रकारों के लिये लिख रहा हूं, जो आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं। आपकी कलम सबसे पहले आसपास की जनसमस्याओं पर चलनी चाहिए। पत्रकारिता में आते ही घोटाला खोंजने लगेंगे, तो आपके ईमान की सौदेबाजी शुरू हो जाएगी। फिर जब आप पक्के हुये नहीं हैं, तो पांव डगमगाने लगेगा। परंतु हमारे जैसे पत्रकार सीना ताने यह कह सकते हैं , माया महा ठगनी हम जानी...
(शशि)
क्रमशः