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Friday 1 March 2019

ऐ मेरे उदास मन..

 ऐ मेरे उदास मन..
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    अभिशापित व्यक्ति के जीवन में भला खुशियाँ आ भी कहाँ सकती है। उसे तो भयावह शाप, बददुआ और लांछन  को सहते हुये ही अपना जीवन चक्र पूरा करना है।एक तरह उदासी उसके मुखमंडल पर सदैव छायी रहती है।
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ऐ मेरे उदास मन
चल दोनों कहीं दूर चले
मेरे हमदम तेरी मंज़िल
ये नहीं ये नहीं कोई और है..

  अभिशापित व्यक्ति के जीवन में भला खुशियाँ आ भी कहाँ सकती है। उसे तो भयावह शाप, बददुआ और लांछन  को सहते हुये ही अपना जीवन चक्र पूरा करना है।एक तरह उदासी उसके मुखमंडल पर सदैव छायी रहती है। वह कर्मपथ पर चलता अवश्य है , परंतु परिणाम तय रहता है, उसे मंज़िल नहीं मिलती है। वह अपने हृदय को सदैव यहीं समझाता रह जाता है ताउम्र-

इस बगिया का हर फूल देता है चुभन काँटों की
सपने हो जाते हैं धूल क्या बात करे सपनों की
मेरे साथी तेरी दुनियाँ
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

     मिथ्या दोषारोपण कभी- कभी मृत्युदंड से भी अधिक पीड़ादायक होता है। धर्मग्रंथों में देखें तो तीन ऐसे प्रमुख पात्र अहिल्या, सीता और कर्ण रहे हैं , जिन्हें इस कष्ट को सहन करना पड़ा। अहिल्या पाषाण बन गयी, जब यौवन ढल गया तो वृद्धावस्था में अयोध्या के राजकुमार राम ने उसका सम्मान वापस किया, फिर उसके जीवन में कैसा आनंद ? सीता पर दो बार लांछन लगा। पहली बार तो उन्होंने अग्निपरीक्षा दी , परंतु दूसरी बार जब एक नारी का सम्मान आहत हुआ तब उन्होंने उस राज्य और राजा दोनों का परित्याग कर दिया। अभिशापित जीवन से मुक्ति पाने के लिये सीता पृथ्वी की गोद में समा गयीं। वहीं अभिशापित जीवन के बावजूद कर्ण ने संघर्ष किया। मृत्यु से पूर्व अपने सामर्थ्य से सम्पूर्ण जगत, यहाँ तक कि सर्वसमर्थ कृष्ण को भी अचम्भित किया। परंतु अभिशापित था वह , अतः विजय के स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुआ। सर्वश्रेष्ठ योद्धा होकर भी वह इस सम्मान से वंचित रह जाता है।

 अभिशप्त -सा जीवन जिस व्यक्ति का हो। जिसके स्नेह का का कोई मोल नहीं हो । जो अहिल्या की तरह पथरा गया हो। सीता की तरह जिसकी पावनता निर्रथक हो । उस कर्ण की तरह जिसके नम नेत्रों से किसी का भी हृदय न पिघले, उसे यह वेदना सदैव सहनी पड़ती -

जाने मुझ से हुई क्या भूल जिसे भूल सका न कोई
पछतावे के आँसू मेरे आँख भले ही रोये
ओ रे पगले तेरा अपना
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

   यही अभिशाप है। कृष्ण द्वारा शापित अश्वत्थामा जैसा कोई भी कुकृत्य इन तीनों ही का नहीं था, फिर भी नियति का यह  कैसा अन्याय ?
   समसामयिक विषय पर कहूँ , तो पाकिस्तान हमारे देश के लिये अभिशाप ही है। भारत ने सदैव उसे छोटे भाई सा सम्मान देने का प्रयास किया, फिर भी वह आतंकवाद का पोषक बन स्थाई रूप से पीड़ा देता आ रहा है। यही नहीं वह सम्पूर्ण विश्व और मानवता के लिये खतरा बन गया है। उसे दंडित करने के लिये भी किसी कृष्ण की आवश्यकता है, ताकि अश्वत्थामा सा वह भी मानव समाज के लिये घृणा का पात्र बने और अपने ललाट पर बदनुमा दाग लिये उस कष्ट की अनुभूति करे , जो आतंकवाद के माध्यम से मानवता को देते आ रहा है।

   अभिशप्त जीवन बड़ा ही कष्टकारी होता है। पथिक भी अपने इस एकाकी जीवन में  कोलकाता में माँ ( नानी) और काशी में गुरु द्वारा दुखी मन से कही गयी उस वाणी को कभी नहीं भुला पाता, यद्यपि उन्होंने उसे दंडित करने के लिये उन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। वे तो उससे स्नेह करते थें,  मार्गदर्शक थें। लेकिन, यतीमों जैसे अपने जीवन से जब भी वह विचलित हो जाता है, उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारती है कि उसने अपने बाल्यावस्था में ऐसी शरारत क्यों की थी कि उसकी माँ को यह कहना पड़ा कि जब वे नहीं रहेंगी ,तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्होंने प्रथम और अंतिम बार ऐसे कठोर शब्द कहें। जाहिर है कि उनकी मृत्यु के बाद से ही वह बालक पथिक बन भटक रहा है, अस्वस्थ तन- मन लिये, अभिशापित सा ? वहीं आश्रम जब वह छोड़ रहा था,तो गुरु ने कहा था कि जा रहा है ,लेकिन याद रख कि माया की यह नगरी तेरे लिये कल्याणकारी न होगी। इसके बाद उसने जब भी स्नेह की दुनिया में प्रवेश करना चाहा, ठोकर लगी और सभी ने दरवाजे बंद कर लिये। पथिक वापस आश्रम में जाना चाहता है ,परंतु तन- मन जर्जर है। गुरु के ज्ञान का प्रकाश विलुप्त हो चुका है। उसका जीवन अभिशापित जैसा ही है, मुक्ति पथ पर बढ़ा जा रहा है,उसकी वेदना उनके लिये उपहास एवं उपेक्षा से अधिक कुछ भी नहीं रही , जिनसे उसे स्नेह रहा है । अतः उसका मन जब भी बेचैन होता है,मान -अभिमान फिल्म का यह गीत , उसके नेत्रों की नमी को पिघलने नहीं देता है-


पत्थर भी कभी इक दिन देखा है पिघल जाते हैं
बन जाते हैं शीतल नीर झरनों में बदल जाते हैं
तेरी पीड़ा से जो पिघले
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

    यह वेदना और यह अभिशाप ही यदि नियति है ,तो भी कर्ण की तरह अपने पराक्रम का  प्रदर्शन करते हुये अग्निपथ की ओर बढ़ते जाना है।