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Monday 2 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 2/4/18
 आत्मकथा

      वैसे,पत्राकारिता के क्षेत्र में मैं स्वयं को एक झोलाछाप डाक्टर से अधिक कुछ नहीं समझता हूं। एक पत्रकार कहलाने के लिये मेरे पास कुछ भी तो नहीं है। न ही कोई  डिग्री है, न ही उच्च शिक्षा प्राप्त किया हूं। इस अर्थ युग के हिसाब से कोई तामझाम भी नहीं कि देखने में मैं स्मार्ट रिपोर्टर जैसा लगूं। पहले पैदल चलता था और अब साइकिल से। फिर भी लोग मुझसे और मेरी खबर से पता नहीं क्यों प्रभावित रहें। जबकि उस समय कई वरिष्ठ पत्रकार थें, समाचार पत्र भी। सम्भवतः मेरी सारी कमजोरियों को सत्य के करीब रहकर समाचार लिखने का प्रयास ढक लेता था। क्योंकि न तो इस पत्रकारिता जगत में यहां मेरा कोई गॉड फादर रहा, न ही कोई ऐसा पत्रकार संगठन , जिसके सहारे मैं ऊंचा उठ पाता। पत्रकार जिसे चौथा स्तम्भ मुझे बताया गया था, वे भी गुटबाजी और  जातिवाद से जकड़े हुये है, इसे मैंने यहीं आ कर करीब से देखा समझा। हालांकि मुझे हर किसी का स्नेह तब मिला। शायद यह पत्रकार बिरादरी भी मेरे परिश्रम से प्रभावित रहा हो !

क्रमशः


व्याकुल पथिक

       मोह को मैं अब तक अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देना चाहता, न ही अर्थ प्राप्ति के लिये कोई नया कर्म ही। सो, मैं लोगों के बीच रहते हुये भी सबसे दूर रहने का भाव अपने हृदय में लाने का प्रयास कर रहा हूं। यहां तक कि अपने शरीर के प्रति भी मोह का त्याग करने का प्रयास कर रहा हूं। जब युवावस्था में पहुंचा था, तो इस शरीर को बनाने और सजाने के लिये क्या क्या नहीं प्रयत्न किया। भले ही अखबार बांटता था। परंतु स्वेटर मेरा वाराणसी के कंबल घर का होता था। जूता  बाटा, एक्शन अथवा किसी महंगी  कम्पनी का। कपड़े भी उसी तरह से। परन्तु वर्ष 1998 में असाध्य मलेरिया से जैसे ही पीड़ित हुआ सबसे पहले शरीर खो दिया। आज तक उसमें सुधार नहीं ला सका। फिर और कोई मोह इस माटी के पुतले के लिये क्यों करुं। हां स्वस्थ रहना चाहता हूं। तो इतना ध्यान रखना ही होगा कि आहार अनुकूल रहे। मैंने एक मोह से मुक्त आहार का चार्ट बना रखा है। जिससे शरीर का काम तो चल जाएगा पर स्वाद का लोभ भी नहीं रहेगा यहां। अपनी प्रिय वस्तुओं का लोभ भी नहीं रखना चाहता हूं। सारे पहचानों से मुक्त हो जाना चाहता हूं। इसी पहचान के मोह ने ही तो मुझे इतने लंबे समय तक एक ही रंगमंच पर कैद कर रखा है। पर अब व्याकुलता बढ़ते ही जा रही है। अपनों की हर यादों से मुक्ति चाहता हूं । सोचता हूं कि मेरा मस्तिष्क ही संज्ञा शून्य हो जाए। पर आनंन में तो दो ही लोग रहते हैं एक फकीर और दूसरा जिसे हम पगला कहते है। फर्क यह है कि फकीर को उस आनंन सुख की अनुभूति होती है, लेकिन दूसरे को नहीं। ऐसे में चैतन्य तो रहना ही होगा।  हां,  मैं जंगल में विचरण करने वाला वैरागी तो नहीं ही बनना चाहूंगा। जहां खोने के लिये.कुछ है ही नहीं, वहां त्याग फिर कैसा। अब जब ऐसे विचार मेरे मन में उठने लगे हो, तो फिर मैं अपने पत्रकारिता धर्म के प्रति ठीक से न्याय नहीं कर पा रहा हूं। मैं किसी की आलोचना करने से बचने जो लगा हूं। आप यदि एक सच्चे पत्रकार हैं, तो व्यवस्था में खामियों को आपकों उजागर करना ही होगा। यहां आपका कर्मपथ तय है। मैंने स्वयं तब तक ऐसा किया, जब तक मुझे लगा कि एक सच्चे  पत्रकार की तरह ही मुझे इस रंगमंच पर आखिरी शो करके अलविदा कहना है। परंतु  अब अंतरात्मा से यह आवाज उठ रही है कि बुरा जो देखन मैं चला, मुझसे बुरा ना ....।