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Sunday 3 June 2018

बेरोजगारी का दर्द देख नम हो आती हैं आंखें



         जैसे ही हम छात्र जीवन से गुजरते हुये यौवनावस्था में प्रवेश करते हैं और यदि हम उद्यमी अथवा बड़े राजनेता के लाडले नहीं हैं,तो हमारी पहली चुनौती नौकरी ही होती है। सरकारी नौकरी मिलनी लाटरी लगनी जैसी ही तो होती है। यह एक बड़ा जुआं है। हर मेधावी बच्चों को पता है कि  10 अंकों के इस खेल में खुलेगा सिर्फ एक ही अंक। वहीं हमारी जनसंख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है।  यदि बच्चे ने मेहनत से तैयारी की और दुर्भाग्य से वह असफल रहा, नौकरी नहीं मिली तो वह टूट जाता है। प्राइवेट सेक्टर में आकर्षक नौकरियां हैं जरुर , परंतु तैयारी तो कुछ और पर चल रही थी ,उस सरकारी नौकरी न पाने वाले नौजवान की। बेरोजगारी की स्थिति में वह मजबूरन प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर लेता है, पर एक वेदना उसके चेहरे पर साफ झलकती है। अब देखे न प्राइमरी पाठशाला में सिर्फ हाजिरी लगा गुरु जी जितनी मोटी रकम सरकार से पाते हैं,प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाला अध्यापक तमाम योग्यता रखने के बावजूद अत्यधिक श्रम कर भी सरकारी सहायक अध्यापक का एक चौथाई वेतन तक नहीं पाता। तो फिर उसका कुंठित होना स्वाभाविक है। हम जिस पिछड़े शहर मीरजापुर में रहते हैं। वहां वहां निजी विद्यालय के शिक्षक हो या फिर किसी प्रतिष्ठान में काम करने वाले कर्मचारी अमूमन पांच हजार वेतन ही प्रतिमाह पाते हैं। ये सभी पढ़े लिखे युवक युवतियां हैं। बताए घर गृहस्थी कैसे चलेगी इनकी। किराये पर ढ़ाई हजार रुपये से नीचे कोई कमरा ही नहीं मिलता। यह सोच कर भयभीत हो जाता हूं कि यदि संग बीवी-बच्चे होते, तो साढ़े चार हजार रुपये के पगार  (अब तो उसका भी ठिकाना नहीं है) में क्या करता मैं ? इस ईमानदारी  और स्वाभिमान  की रक्षा कैसे करता ! पत्नी भी कहीं यह न कह बैठती की तेरी दो टकियां दी नौकरी वे मेरा लाखों का सावन जाये...
    अभी तो मुसाफिर की तरह रात कट जाती है। इन पच्चीस वर्षों में कोई घर ठिकाना नहीं है, यहां मेरा। अपने अखबार का भी मैं एक चलता फिरता दफ्तर हूं। एक पत्रकार हूं, सो हर पर्व त्योहार पर जब भी रिपोर्टिंग करने निकलता हूं तो निम्न मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की व्याकुलता देख आंखें मेरी भी नम हो जाती हैं । रमजान के बाद में अभी ईद पर्व आएगा। किसी गरीब मुस्लिम इलाके में यह पूछने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूं कि भाई जान कैसी तैयारी चल रही है। सुबह मुस्लिम इलाके में एक प्रतिष्ठित दरी निर्यातक के भव्य बंगले पर पेपर देने गया, तो देखा कि सामने एक खंडहरनुमा मकान के बारजे पर एक वृद्ध बुनकर दम्पति दरी की काती सुलझा रहे थें और एक दूसरे को हाथ के पंखे से हवा भी कर रहे थें। यह सुखद दृश्य को  मैं अपलक निहारता रहा। सोचा चलो इस गरीबी में एक तो अच्छाई है कि आपसी प्रेम सम्बंध को वह और प्रगाढ़ कर देती है। मन में भावना जगी कि इस वृद्ध बुनकर दम्पति का एक फोटो ले लूं, फिर ठिठक इसलिये गया कि कहीं वे बुरा न मान लें। क्यों कि गरीबों की निगाहों में हम मीडिया कर्मी झूठ की राह पर हैं । इसीलिए कभी मजबूरी में ही मेरी जुबां से यह निकलता है कि पत्रकार हूं भाई ...मुस्लिम परिवार में आज भी महिलाएं बीड़ी बना अपने बच्चों के पेट की ज्वाला शांत करती हैं। तमाम तरह की बीमारियों ने कुपोषण के कारण इन्हें घेर रखा है। जब से जीएसटी का हल्ला बोल हुआ है, कालीन और दरी के धंधे पर अच्छे दिन की ख्वाहिश का ग्रहण लगा हुआ है। कल ही तो मिर्जापुर दरी एवं मैन्युफैक्चर एसोसिएशन की बैठक हुई थी। जिसमें बताया गया जीएसटी रिफंड की भारी समस्या से निर्यातकों की पूंजी का एक बड़ा हिस्सा सरकार के पास फंसा है। जिससे 48 फीसदी बुनकरों का पलायन हो गया है। चुनाव में तो हमारे रहनुमाओं ने सीना चौड़ा कर नौकरी देनी की बात कही थी, पर यह उल्टी बयार कैसे चल पड़ी...
  पढ़ेलिखे बेरोजगार नौजवानों की टोली जरायम की दुनिया  में इंट्री मारे जा रही हैं। बस चंद रुपयों के लिये ये बड़े बड़े अपराध कर बैठ रहे हैं। काश ! इनके पास नौकरी होती..तो पापा का नाम यूं ना बदनाम करते। बेरोजगारी का जख्म आज भी इस उम्र में भी मुझे अतीत से जुड़ी कड़ुवी स्मृतियों को ताजा किये रहती है।

(शशि)