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Thursday 28 May 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -1]

 मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -1]
(जीवन की पाठशाला से)

      मैं अनुपयोगी सी खड़ी अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था। जिसने मुझे 'साइकिल वाले पत्रकार भाई' की पहचान दी है। अन्यथा कोई किसी को यह तो नहीं कहता न कि कार वाले पत्रकार -बाइक वाले पत्रकार ? 
    तभी ऐसा लगा कि आज यह मुझे उलाहना दे रही है, क्योंकि पिछले दो महीने से बिना साफ़-सफ़ाई के वैसे ही खड़ी है और पहिए की हवा भी निकल चुकी है । यूँ कहें कि इस लोकबंदी में हम दोनों की स्थिति एक जैसी ही है। हमारी भागती-दौड़ती ज़िदंगी में ठहर गयी है। न मेरे पास कोई काम है और न ही इससे (साइकिल) किसी को काम है। मैं अपनी पूँजी खा रहा हूँ और यह भी यूँ खड़े-खड़े अपने कलपुर्जों को !
     लोकबंदी के पश्चात यदि मैं पुनः अख़बार वितरण प्रारम्भ कर सका,तभी इसका भाग्योदय संभव है ,अन्यथा एक दिन इसे कोई कबाड़ी उठा ले जाएगा। दो माह पूर्व जिस प्रकार मैं समाचार पत्र का बंडल न आने से अपनी आजीविका खोने के भय से काँप उठा था, ठीक वैसी ही स्थिति कबाड़ी के रूप में अपनी मौत से साक्षात्कार होने की कल्पना मात्र से मेरी साइकिल की भी है।फ़र्क हम दोनों में सिर्फ़ यह है कि मैं अपनी वेदना को व्यक्त कर सकता हूँ और यह मौन- निस्सहाय  खड़ी है। 
    हाय ! इसके रुदन को मैंने पहले क्यों नहीं सुना ? किसी ने सत्य कहा गया है कि मनुष्य प्रत्येक संबंध को अपनी आवश्यकतानुसार स्वार्थ के तराजू पर तौलता है। मैं भी यही कर रहा हूँ, जब तक इसकी उपयोगिता थी,तो इसका कितना ध्यान देता था, किन्तु आज़ इसकी भूख की मुझे चिन्ता नहीं है ? इन दो महीनों में इसके प्रति मेरे व्यवहार में ठीक वैसा ही परिवर्तन आया है , जिस तरह आत्मीय जन संबंध में दरार पड़ने पर सम्मुख हो कर भी अज़नबी बन जाते हैं। मैं यह कैसे भूल गया कि मेरे जीवन में आये अनेक तूफ़ानों की यह साइकिल ही एकमात्र साक्षी है। सर्द रात में ज़ब सड़कें भयावह लगती थीं। यह मेरी यह  "संघर्ष सहचरी "साथ होती थी। पूरे पच्चीस वर्ष प्रतिदिन औसत साढ़े तीन घंटे मैंने साइकिल चलाई है। दो घंटे समाचार पत्र वितरण और शेष समाचार संकलन आदि इसी के सहारे तो करता रहा।
   अरे भाई ! साइकिल वाले पत्रकार भाई का सम्मान मुझे ऐसे ही नहीं मिला है,किन्तु इस लोकबंदी में मेरी ही तरह यह भी अनुपयोगी हो चुकी है। वर्ष 1994-95 की बात करूँ, तो मैं एक वर्ष तक इस शहर में पैदल ही अख़बार लिये भटकता रहा। मीरजापुर से रात्रि 12 बजे जब वापस बनारस पहुँचता ,तब अपने पाँव को थामे, सिसकियाँ रोके माँ को पुकारा करता था, यद्यपि यह दर्द उस भूख से बड़ा नहीं था, जिसके लिए ताउम्र काशी छोड़ने को मैं विवश हुआ। महानगरों से मीलों लम्बी पैदल यात्रा कर घर वापस लौट रहे इन प्रवासी श्रमिकों को देख ,मुझे इनकी क्षुधा और पीड़ा की अनुभूति इसीलिए है कि मैंने भी पूरे वर्ष भर प्रतिदिन छह घंटे खड़े-खड़े बस में सफ़र ही नहीं किया, वरन् हाथों में ढेर सारे अख़बार लिये तीन घंटे किसी अनजान शहर में लम्बे-लम्बे डग भरता सड़कें नापा करता था।  तब मेरी एक ही ख़्वाहिश थी कि किसी प्रकार साइकिल रखने की व्यवस्था इस अनजान शहर में कहीं हो जाती। 
   और यहाँ साइकिल से मित्रता होने के पश्चात एक दिन भी (समाचार पत्र कार्यालय में अवकाश के दिन को छोड़कर)  ऐसा नहीं रहा कि मैंने हाथ-पाँव जोड़ कर इसे मनाया न हो। सवारी करने से पूर्व इसकी सीट पर दुलार से थपकियाँ दिया करता था। जरा भी उबड़-खाबड़ स्थल पर इसका पहिया पड़ा नहीं कि अगले दिन सुबह भागा -भागा उसके डॉक्टर के पास जा पहुँचता था,इस आशंका से कि कहीं  रिम डायल न हुआ हो अथवा ट्यूब पंचर तो नहीं है। आज़ इसकी इस स्थिति के लिए दोषी मैं नहीं तो कौन है ?
          ओह ! मैं कैसे इतना निष्ठुर और कृतघ्न हो सकता हूँ कि जो साइकिल वर्षों से मेरी आजीविका में सहयोगी रही। जिसके साथ मैंने जीवन के तिक्त और मधुर क्षण बिताए है। जिसने मेरी दुर्बल काया को अवलंबन दिया।उसकी देख-भाल भी मैंने नहीं की ! इसीलिए न कि यह मेरे लिए अनुपयोगी हो गयी है। जैसे पिछले दो महीनों से मेरे अख़बार का बंडल नहीं आने से यहाँ मेरी कोई उपयोगिता नहीं रही।  संस्थान ने कभी यह नहीं पूछा - " शशि , तुम बाहर रह कर इन दो- ढ़ाई महीने से अपना ख़र्च किस प्रकार चला रहे हो ।"
       मैंने सोचा था कि चलो विज्ञापन और अख़बार का जो बकाया बिल है,उसके ही कुछ रुपये मिल जाएँगे, तब भी काम चल जाएगा। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हुआ, मेरे सिर्फ़ दो-तीन  पाठकोंं को ही इसका स्मरण रहा । इस लोकबंदी में यह उनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, अन्यथा मुझे अपने परिश्रम का धन भी अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। तो क्या मेरे साथ जो कुछ हो रहा है , मैं भी वहीं अपनी इस प्रिय साइकिल के साथ करुँ ? क्या यही मानव धर्म है ? मेरी चेतना मुझे सावधान कर रही थी । 
        अरे हाँ ! कल तो 30 मई (हिन्दी पत्रकारिता दिवस) है। मैं वर्ष 1994 से ही इस अवसर पर मंच से अनेक विद्वान वक्ताओं का यह उपदेश सुनता आ रहा हूँ-
          " पत्रकार केवल समाचार नहीं बेचता है। वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है। उसका कार्य प्रजा के दुःख को सरकार के समक्ष रखना, उसे सही परामर्श देना और आवश्यकता पड़ने पर उसके अन्याय के विरुद्ध अपनी लेखनी को गति देना है। पत्रकार यदि यह कर्तव्य नहीं निभाता है, तो वह भी एक दुकान है,किसी ने सब्जी बेंच ली और किसी ने ख़बर, आदि-आदि..।"
     ऐसे ही आदर्श वाक्यों का प्रयोग हम पत्रकारों ,पत्र प्रतिनिधियों और संवाददाताओं के लिए आज के दिन होता है, किन्तु इस लोकबंदी में जब हम श्रमजीवी पत्रकार अपने संस्थान, समाज और सरकार की ओर इस आशा से टकटकी लगाए हुये थे कि क्या हमें भी किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग मिलेगा, तब ऐसे उपदेशक कहाँ चले गये ?
     इन दो माह में पत्रकारिता मुझे अवसाद की  ओर लेती गयी, तन्हाई की ओर लेती गयी। जहाँ प्रवासी श्रमिक तक अपने घरों की ओर भाग रहे थे। मैं जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे अपने  आशियाने को ढूंढ रहा था। मेरा कौन है ? मेरे लिए किसी का अपनापन क्यों नहीं है ? क्या मैंने पुरुषार्थ नहीं किया , फ़िर मेरे जीवन की बगिया क्यों नहीं मुस्काई ? क्यों वेदनाओं की कठपुतली बना विदूषक सा औरों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन अपनी लेखनी के माध्यम से करता रहा ? क्या इस सभ्य संसार में निखालिस कुछ भी नहीं है,समय और भाग्य का यह कैसा अत्याचार है ?
      मुझे अपने एक अन्य शुभचिंतक का हितोपदेश स्मरण हो आया है । चार-पाँच वर्ष पुरानी बात है। मैं संदीप भैया की दुकान पर बैठा हुआ था कि भाजपा के वरिष्ठ नेता रामदुलार चौधरी आ गये। वे हमलोगों के साथ हँसी-ठिठोली भी कर लिया करते हैं। सो, सबके समक्ष ही उन्होंने मुझसे कहा था कि पता है,सबरी मुहल्ले में फलां कह रहा था -" ई पगलवा पत्रकार कब-तक साइकिल से अख़बार बाँटता रहेगा ?"
    आरा मशीन संचालक चौधरी साहब मेरा उपहास नहीं कर रहे थे। वे मुझे इस सत्य का बोध करवाना चाहते थे कि अर्थयुग में सिक्के की झंकार ही सब सुनते हैं। उन्होंने कहा था -"समय के साथ चलना सीखों। जरा देखों अपने इर्द-गिर्द , तुम्हारे बाद आये कितने ही रिपोर्टर बिना अख़बार के ही साधन संपन्न हो गये हैं और तुम हो कि हड्डी पर कबड्डी खेल रहे हो।"      
       अत्यधिक श्रम एवं मेरे गिरते हुये स्वास्थ्य को लेकर वे चिंतित थे।  कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि ऐसा कोई व्यापार करो, जो घाटे का सौदा हो ? पत्रकारिता भी अब मिशन नहीं व्यवसाय है। आज कंधे पर खादी का झोला लटकाए चलने वाले पत्रकार और संपादक नहीं रहे। समाजसेवा, राजनीति, चिकित्सा, शिक्षा और पत्रकारिता भी, यहाँ व्यापार है।
       मुझे नहीं पता कि मेरी साइकिल सही रास्ते पर रही अथवा मार्ग भटक गयी, किन्तु आजीविका खोने के अपने तीन दशक पुराने भय पर इस लोकबंदी में मैंने विजय पा ली है, क्योंकि आज़ मैं बेकार होकर भी भूखा नहीं हूँ । बुभुक्षा एवं तृषा से भरे मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। 
  ( क्रमशः)
            -व्याकुल पथिक