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Wednesday 29 July 2020

आत्माराम

   
आत्माराम

      उसके घर का रास्ता बनारस की जिस प्रमुख मंडी से होकर गुजरता था। वहाँ यदि जेब में पैसे हों तो गल्ला-दूध , घी-तेल, फल-सब्जी, मेवा-मिष्ठान सभी खाद्य सामग्रियाँ उपलब्ध थीं।लेकिन, इन्हीं बड़ी-बड़ी दुकानों के मध्य यदि उसकी निगाहें किसी ओर उठती,तो वह सड़क के नुक्कड़ पर स्थित विश्वनाथ साव की कचौड़ी की दुकान थी, क्योंकि कचौड़ियाँ छानते वक़्त कड़ाह से निकलने वाली शुद्ध देशी घी की सुगंध उसकी स्वादेन्दिय को बेचैन कर दिया करती थी।अपनी इस स्थिति से उसे बोध हुआ था कि संयमित व्यक्ति के उदर की अग्नि भी अनुकूल अवसर मिलते ही भभक उठती है।


   यहाँ सुबह से ही ग्राहकों के कोलाहल के बीच कोई कचौड़ी बेलने तो कोई छानने और खिलाने में व्यस्त दिखता । बड़े-से कड़ाह में कनस्तर भर घी उड़ेल दिया जाता और फ़िर कचौड़ी और जलेबी बनाने केलिए चार-पाँच सहायकों संग हलवाई लग जाते थे। इस दुकान पर कचौड़ी खाने में इलाके के रईस व्यक्ति भी अपनी शान समझते थे।


     माथे पर तिलक-चंदन लगाये बिल्कुल प्रथम पूज्य गणेश देवता जैसे लंबोदर विश्वनाथ साव दुकान के दूसरे छोर पर गद्दी संभाले ग्राहकों से पैसा बंटोरने में व्यस्त दिखते। वे अपने इस कार्य में ऐसे निपुण थे कि दुकानदारी के वक़्त सगे-संबधी भी सामने आ खड़े हों तो उसे न पहचान पाए, किन्तु साव की काक दृष्टि इतनी पैनी थी कि कोई भी ग्राहक बिना पैसा दिये भीड़ का लाभ उठा यहाँ से खिसक नहीं सकता था। दुकान के इर्द-गिर्द खड़े होकर अथवा अंदर मेज पर बैठ चटखारे ले कर कचौड़ी खाते लोगों को देख कर रजनीश बुदबुदाता -" काश! उसके जेब में कुछ पैसे होते, ताकि वह भी इन ग्राहकों की टोली में सम्मिलित हो पाता।"


      सुबह के नाश्ते में कचौड़ी-जलेबी बनारसीपन की पहचान है। कड़ाह में छन-छन कर तैयार होती कचौड़ियों को देख वह मन ही मन कहता - " आहा! कितनी बड़ी-बड़ी,लाल-लाल और फूली-फूली ये गरमागरम देशी घी की कचौड़ियाँ हैं। उसकी क्षुधा  बस दो-तीन कचौड़ियों में ही तृप्त हो जाती और यदि साथ में दो-चार रसभरी ये कुरकुरी जलेबियाँ मिल जाती,तो क्या कहना। उसे अपनी दीनता पर तरस आता । घर पर उसके लिए दो वक़्त की चार सूखी रोटियों से अधिक कुछ नहीं था। पर व्यवसायहीन व्यक्ति से तो हितैषी भी चाय-जलपान नहीं पूछते हैं, पेट की अग्नि बुझ जाए यही काफ़ी है। क्यों वह इस मिष्ठान की दुकान पर दृष्टि डालकर अपनी क्षुधा और इच्छाओं को भड़कने देता है ?


  ऐसे विचार आते ही, स्वादेन्द्रिय विद्रोह करे इससे पूर्व रजनीश तत्क्षण सावधान हो जाता और स्वयं से कहता-" बंधु ! सुनो न.. खाने दो उन्हें कचौड़ी-पकौड़ी..ज़नाब ! जब पेट खराब हो जाएगा,तो लोटा लिये दौड़ते फिरेंगे..।"


     फ़िर भी हृदय की ऐंठन जब कम नहीं होती, तो वह उसे यूँ समझाता- " सुनो भाई ! तुमने भी तो अपने ननिहाल में अन्नपूर्णा का अनादर किया था। याद करो कोलकाता के तिवारी बदर्स और देशबंधु की मिष्ठान दुकान को, ऐसे बड़े प्रतिष्ठानों के सामान भी तुम्हें नहीं पसंद थे। माँ-बाबा न मालूम कितना मनुहार कर तुम्हें मूंग की कचौड़ी और लुची खिलाया करते थे।  तुम तो काजू बर्फी खाने तक में नखड़े दिखाते थे। "


   ओह ! तो क्या अन्न के इसी तिरस्कार का परिणाम था कि बनारस में बचपन से लेकर इस शहर से नाता टूटने तक उसके जेब में इतने पैसे कभी नहीं हुये कि वह विश्वनाथ साव की दुकान पर सुबह कदम रख पाता ? यह संताप रजनीश के हृदय की शीतलता को जलन दे रहा था।


   किन्तु आज़ उसकी तब आँखें फटी की फटी रह गयी थीं,जब उसने अपने छात्र जीवन के एक सादगी पसंद अध्यापक को यहाँ खड़े हो उँगलियों से मसालेदार तरकारी वाला दोना चाटते देखा था। देखते ही देखते मास्टर जी आठ कचौड़ियाँ गटक गये थे और अब जलेबी की बारी थी। 


   वे उसे दर्जा छह में हिन्दी पढ़ाया करते थे। अजी ! पढ़ाना क्या,उससे अधिक तो अपने शिष्यों को 'सादा जीवन , उच्च विचार ' का उपदेश देते थे वे। उस समय यह वित्तपोषण विद्यालय नहीं था । सो, यहाँ के शिक्षकों को मामूली तनख़्वाह से अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचनी पड़ती थी। उस दौर में ट्यूशन से भी कोई खास कमाई नहीं होती थी। उसे भलीभांति स्मरण है कि गाँव से शहर में नौकरी की तलाश में आये मास्टर जी ने इमली की चटनी संग चावल खाकर दिन गुजारे थे। उन्हें अपनी ही एमo एo; बीएड की डिग्री हृदय में शूल सी चुभन देती। उनकी अंतरात्मा उन्हें धिक्कारती और सवाल करती - "मूर्ख! किसान पुत्र होकर भी हल की जगह क़लम थामने तुझसे किसने कहा था? अब देख, मास्टर जी कहलाने की यह ललक तेरी खुशियों पर भारी पड़ रही है।"


     किन्तु उनके चेहरे पर पड़ी दर्द की यह लकीर कभी इस सभ्य समाज को नज़र नहीं आयी।

रजनीश के पिता भी इसी स्कूल में पढ़ाते थे। माली हालत किसी भी शिक्षक की ठीक नहीं थी। सो ,प्राइमरी से लेकर जूनियर हाई स्कूल तक की कक्षाओं में इन गुरुजनों ने रजनीश को अध्यापक पुत्र समझ सदैव सादगी और संयमित जीवन का पाठ ही पढ़ाया था। 

      गुरुओं से मिले इसी ज्ञान का परिणाम रहा कि रजनीश ने अपने जिह्वा-स्वाद पर लगभग नियंत्रण पा लिया था।  किन्तु उसी विश्वनाथ साव की दुकान पर आज़ वर्षों बाद मास्टर जी को नये अवतार में देख बिल्कुल चौंक उठा था। वह विस्मयपूर्ण नेत्रों से उनमें आये इस परिवर्तन को देखता रहा। मास्टर साहब के चेहरे पर जो लालिमा थी, उसमें दर्प झलक रहा था। बाटा कम्पनी की चमचमाती महंगी चप्पलें पहने बादामी रंग के सफ़ारी शूट में खड़े गुरुजी के व्यक्तित्व में उसे ख़ासा बदलाव आ गया था । यह देख,वह समझ गया कि लिबास बदलने से व्यक्ति का रुतबा भी बदल जाता है । उसने बड़े गौर से गुरुजी को देखा, जो कचौड़ी, घुघरी और जलेबी ग्रहण करते हुये इस क़दर आनंदित हो रहे थे कि समीप खड़ा हर शख्स उनके लिए अजनबी था। 


    .ख़ैर,रजनीश दुकान के बाहर इस प्रतीक्षा में ठहर गया कि जब वर्षों बाद भेंट हुई है, तो क्यों न उनसे दण्ड-प्रणाम कर ले? सो, जैसे ही वे इस पटरी आते हैं,उसने उनका चरण स्पर्श कर अपना परिचय दिया। " अच्छा-अच्छा, तुम तो काफ़ी होनहार छात्र थे।" उन्होंने उसे बिल्कुल साधारण पोशाक और हवाई चप्पल में देख सहानुभूति जताई थी। फ़िर पूछा , "कुछ काम-धाम करते हो या नहीं, शायद तुम्हारी पढ़ाई भी अधूरी रह गयी थी।" उनके इस प्रश्न पर झेंप -सा गया था रजनीश।  क्या जवाब देता बेचारा ,यही न कि किसी निठल्ले की तरह अपने जीवन के अनमोल क्षणों को व्यर्थ कर रहा है। " अच्छा सुनों,मुझे विद्यालय जाना है।कल कम्पनी गार्डन में आकर मुलाकात करना ।" उसे चिन्तामग्न देख मास्टर जी ने कहा था। 


  ...और अगले दिन बाग में उसने मास्टर जी को  युवाओं की तरह उछल-उछल कर कसरत करते पाया । वे कभी बैजंती के अधखिले फूलों से ओस की बूँदों को हथेली पर उड़ेल उससे अपने नेत्रों को भिंगोते , तो कभी हरी घास पर तेज कदमों से चहलकदमी करने लगते थे। और जब ललाट पर स्वेद की बूँदें मुस्कुराने लगीं ,तो वे वहीं हरी घास पर आँखें मूँद विश्राम करने लगे थे।शीतल पवन बहने लगा था । जिससे बगीचे में लगे वृक्षों के पत्ते इस प्रकार कंपन करने लगे थे कि मानो वे दुनिया के सबसे सुखी व्यक्ति के सम्मान में पँखा झल रहे हो। तभी एक युवक आया, जिसने घंटे भर उनके शरीर पर तेल मर्दन किया।जिससे इस प्रौढावस्था में भी उनके अंग- प्रत्यंग में निखार-सा आ गया था। 


   उनके इस राजस सुख को देख वह चकित हृदय से सवाल कर रहा था-" क्या ये वही गुरुजी हैं, जिन्होंने कभी उसे सादगी से जीवन जीने का पाठ पढ़ाया था ?"  मास्टर जी के 'उपदेश और उपभोग' के अंतर के द्वंद में उलझता जा रहा था वह। तभी उसे उनकी पुकार सुनाई पड़ी - "अरे ! रजनीश आ गये ? चलो उस बेंच पर बैठकर बातें करते हैं !" अपने नित्य कर्म से निवृत्त हो कर मास्टर जी ने उस पर अपनी दृष्टि डाली । स्नेह की आँच पाकर वह मोम की तरह पिघलने लगा था।


     किन्तु गुरुजी के नेत्रों में उसके प्रति अपेक्षित करुण भाव नहीं दिखा , क्योंकि उनका दर्शन शास्त्र आज़ कुछ और बोल रहा था। उन्होंने कहा था - " सुनो रजनीश,  धन के बिना सारी विद्वता और योग्यता अंधकूप में पड़ी सिसकती रहती हैं। सो,आत्महीनता की अनुभूति से मुक्त होना चाहते हो तो पैसा कमाओ, अन्यथा शहर छोड़ किसी वन में शरण ले लो, मठ- आश्रम में चले जाओ, संयासी हो जाओ, कुछ भी करो, परंतु याद रखना निर्धन व्यक्ति के लिए इस सभ्य समाज में कोई स्थान शेष नहीं है। वह उपहास का पात्र होता है ।" तभी टोकरी में सेब लिये एक बूढ़े ने आवाज़ लगायी थी और बात अधूरी छोड़ वे उस ओर बढ़ चले थे ।


     ओह ! तो मास्टर जी ने आज़ उसे इस बगीचे में धन की महत्ता का पाठ  पढ़ाने के लिए बुलाया था ? तभी वे कह रहे थे कि यह दुनिया पैसे की है। पहले अपने 'आत्माराम' को तृप्त करो। 'राम' का क्या भरोसा, हर कोई 'दाम' मांगता है। पर एक दर्द जो उन्होंने  वर्षों से अपने सीने में  दबा रखा था, आज़ बातों ही बातों में फ़िर से उभर आया था। वह विद्यालय जिसमें उनकी योग्यता का डंका बजा करता था,उसी के दबंग व धनलोलुप प्रबंधक ने वित्तविहीन इस जूनियर हाईस्कूल के वित्तपोषित होते ही ,उनसे यहाँ शिक्षक बने रहने की शर्त पर मोटी रकम मांगी थी। स्तब्ध रह गये थे मास्टर जी! जिस शिक्षक धर्म के निर्वहन के लिए उन्होंने हर कष्ट सहा ,आज़ जब सुख के दिन आने को हैं, तो उनके ईमान की बोली लग रही है। चीत्कार कर उठा था उनका अंतर्मन और बदल गयी थी उनकी  सोच। 


     ख़ैर, नौकरी तो बचानी ही थी। सो, वे प्राइवेट स्कूल के अध्यापक की जगह वित्तपोषित विद्यालय के मास्टर साहब बन गये थे। अच्छा वेतन मिलने लगा, परंतु उनका पुश्तैनी खेत हाथ से निकल गया था। साथ ही उनका 'राम' भी इसी रिश्वत की ज्वाला में जल कर भस्म हो गया।  संवेदनाशून्य हो गये थे वे । स्वांतःसुखाय के अतिरिक्त उनके जीवन का और कोई ध्येय नहीं रहा।


      मास्टर जी ने अपनी अनुभूति की पाठशाला में फ़िर कभी किसी को सादगी और ईमानदारी का पाठ नहीं पढ़ाया। इस अर्थयुग में वे अपने शिष्यों को और धोखे में नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने स्वयं को भी बदल लिया था। वे 'आदर्श' और 'यथार्थ' के मर्म को समझ गये थे, क्योंकि बिक गये खेत में उनका ' राम ' दफ़न हो चुका था और नौकरी बचाने के लिए दिया गया  रिश्वत  'आत्माराम ' बन अट्टहास कर रहा है।


                      -- व्याकुल पथिक



    

Wednesday 22 July 2020

दुनिया में आकर जग को हँसाया


 दुनिया में आकर जग को हँसाया..


    यहाँ मैं इस छोटे से संस्मरण लेख के माध्यम  से एक ऐसे राजनेता के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहा हूँ, जिनका कृतित्व धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा एवं ज्ञान-विज्ञान नहीं,वरन् एक निश्छल 'मुस्कान' था। जो 'आह-आह' नहीं 'वाह-वाह' कह कर समाज के हर व्यक्ति का उत्साहवर्धन करते थे।  आत्मीयता  भरा यह शब्द उनके हृदय स्थल से निकलता था,न कि कंठ से।


    स्व0 माताप्रसाद दुबे👉खुद गए तो हँसते हुए पर लोगों को रुला गए-


  🌹 जिले की राजनीति को यहाँ की गंगा-जमुनी संस्कृति से सराबोर करने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता श्रद्धेय माता प्रसाद दूबे के आकस्मिक निधन की सूचना उस दिन जैसे ही मुझे मिली सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था। ख़ैर, भरे मन से पत्रकार धर्म का निर्वहन करते हुये मैंने अपने व्हाट्सअप ग्रुपों के माध्यम से शोक संदेश जनपदवासियों तक पहुँचा दिया। परिजनों ने बताया कि प्रातः नित्यकर्म के दौरान हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी। मंडलीय अस्पताल से जैसे ही उनके पार्थिव शरीर को रतनगंज स्थित आवास पर लाया गया, शोकाकुल शुभचिंतकों का आगमन शुरू हो गया और उनके पैतृक ग्राम मुजेहरा में इस कोरोना संक्रमण  के संकटकाल में भी भारी संख्या में लोग जुटे , जो उनकी अंतिम यात्रा की साक्षी बने।


इस कर्मयोगी के संदर्भ में यदि यह कहा जाए ..


कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥

तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।


    स्वर्गीय दुबे  ने , वातावरण कितना भी बोझिल हो,संकट चाहे जितना भी गंभीर हो, ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन का भरपूर आनंद लिया और साथ ही सम्मुख खड़े व्यक्ति के अधरों पर भी मुस्कान लाने का प्रयत्न किया।


  उनकी जब भी और जहाँ भी मुझसे मुलाकात हुई, वे तपाक से बोल उठते थे-" का शशि ! तनिक मुसकिया द भाई।"


  और उस दिन जब उनकी वाणी मौन हो गयी,तो ऐसा लगा कि इस सावन में जिले की राजनीति से मुस्कराहट  चली गयी। निर्वाचित जनप्रतिनिधि न सही, किन्तु एक जनसेवक के रूप में --उन्होंने अपनी  निश्छल मुस्कान से यहाँ जनता के हृदय पर राज किया। दरअसल, यह मुस्कराहट होती ही ऐसी है,जो मोल नहीं ली जा सकती, मांगी नहीं जा सकती,उधार नहीं मिलती और इसे चुराया भी नहीं जा सकता है, क्योंकि जब तक यह दी नहीं  जाए, किसी के कुछ काम की नहीं होती और स्व0 दूबे यही मुस्कराहट तो बांटते थे। मुस्कराहट ही वह चीज है जिसे पाने वाला मालामाल हो जाता है, परंतु देने वाला भी गरीब नहीं होता है।


   लोकबंदी के पूर्व तक मेरी और दूबे जी की मुलाकात प्रतिदिन रतनगंज में होती थी, जब मैं साइकिल से अख़बार बांट कर वापस राही होटल लौटता था,तो वे अपने घर के बाहर समाचार पत्र के पन्नों पर आँखें गड़ाए मिलते थे। मुझे देखते ही, वे जोर से आवाज़ लगाते -"का शशि !"

और फ़िर वही चिरपरिचित वाक्य उनकी जुबां पर होता था- 'मुस्कुराहट की आकांक्षा !'

    उनका यही स्वरूप आज भी मेरी स्मृति में है । वैसे दूबे जी को मैं सच्चा राजनीतिज्ञ इसलिए मानता हूँ क्योंकि उन्होंने किसी के संग कभी भी छल-कपट नहीं किया। जो भी समीप आया, उसके यश में वृद्धि करने का प्रयास किया और जो अपना नहीं था उसके प्रति भी उनके मन में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं थी। राजनीति के छलावे से दूर वे एक अच्छे इंसान थे। ऐसे ही कर्म-बहादुरों के लिए ही यह कामना की गयी है-


यद्यपि सौ शरदों की वाणी,

इतना काफी है अंतिम दस्तक पर
खुद दरवाजा खोलें...।🙏

  स्व0 दुबे इतना धैर्यवान थे कि विगत वर्षों पुत्र की आकस्मिक मृत्यु के सदमें को सहन करके भी मुस्कराहट  रूपी इस प्रेम-पंजीरी को समभाव से समाज के हर वर्ग में जीवनपर्यंत बाँटते रहें। वैसे, स्वयं के कष्ट से ऊपर उठकर दूसरों को खुशी देना प्रत्येक व्यक्ति के लिए  संभव नहीं है, पर इस संसार में यश भी तो सबको प्राप्त नहीं होता है ।


    और जरा यह विचार करें कि किसी के कष्ट में सहभागी होता भी कौन है, फ़िर हम क्यों अपनी पीड़ा दूसरों से कहते हैं। जब तनिक सी सहानुभूति दिखा पुनः ये ही लोग कहते हैं कि ऐसे मनहूस व्यक्ति से क्या वार्तालाप की जाए, जो सदैव अपने दुःख का वर्णन करते रहता है। यहाँ तक कि आपका कष्ट दूसरे केलिए परिहास का विशष बन सकता है। इसकी अनुभूति मुझे अपने इस असाध्य रोग के कारण हुई है। इसीलिए तो कहा गया है-


रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय। सुनि  इठलैहैं  लोग  सब , बाटि न  लैहै कोय॥


  वैसे,शास्त्रों के कथनानुसार कष्ट तो हम नहीं --हमारा यह नश्वर शरीर सहन करता है। हमारी आत्मा सदैव आनंदमय स्थिति में रहती है।

परंतु प्रत्यक्ष तो यही लगता है कि यह कैसे संभव है ? जैसे,उमस भरी गर्मी में बिजली चली गयी हो और ऊपर से मच्छरों के दल ने भी आक्रमण कर दिया हो, ऐसे में क्या हम आनंद की अनुभूति कर सकते हैं ? नहीं न ..?
     लेकिन, आज़ से ढ़ाई दशक पूर्व जब मैं प्रतिदिन बस से वाराणसी -मीरजापुर की यात्रा करता था। बस बिल्कुल भरी होती थी। भीषण गर्मी में भी तीन घंटे का यह सफ़र अनेक बार खड़े होकर तय करना पड़ता था। जीवन में इससे पूर्व मैंने इतना शारीरिक कष्ट नहीं सहन किया था, फ़िर भी पेट की ज्वाला शांत करने के लिए यह सब करना ही था।
    तभी मेरे मन में यह विचार आया था कि क्यों न मैं बस में ही आँखें बंद कर खड़े-खड़े यह अनुभूति करूँ कि ठंडी हवा चल रही है, जो मेरे मस्तिष्क के पिछले भाग से मेरे शरीर में प्रवेश कर रही है।  सच कहूँ तो ऐसा करते हुये मुझे पता ही नहीं चलता था कि यह कष्टकारी यात्रा कब पूरी हो गयी। बस आज़ यहीं तक,अगले सप्ताह पुनः किसी नये विषय के साथ बंदा हाज़िर है ।

----व्याकुल पथिक

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  विंध्यक्षेत्र से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में विशेष पहचान रखने वाले  'मर्द 'साप्ताहिक  के संपादक   आदरणीय सलिल पांडेय जी ने जनप्रिय दिवंगत राजनेता स्व0 माताप्रसाद दुबे को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक विशेष परिशिष्ट निकाला है। मुझे भी इसमें अपनी लेखनी के माध्यम से स्व0 दुबे को श्रद्धासुमन अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 👆

Wednesday 15 July 2020

अवलंबन

जीवन के रंग
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     चितरंजन काका की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है। कभी कमरे में तो कभी बारजे पर ,यही नहीं पड़ोस के दीना साहू की दुकान तक भी निकल पड़ते हैं। पर उम्र का यह कैसा विचित्र पड़ाव है कि उनके मन को कहीं शांति नहीं मिल पा रही है।वे स्थिर हो कर तनिक भी बैठ नहीं पाते हैं। उनके हाथ-पाँव तो पहले से ही काँप रहे थे, अब तो जुबां भी लड़खड़ाने लगी है, इसलिए वे क्या कहना चाहते हैं, इसे समझना किसी पहेली से कम नहीं है। फ़िर किसे इतनी फुर्सत है कि बूढ़े काका के समीप बैठ कर उनके मन को खंगालने की कोशिश करे। और तो और उनके संदर्भ यहाँ तक कहा जा है कि काका को 'मतिभ्रम' की शिकायत है। उन्हें किसी मनोचिकित्सक की सेवा लेनी चाहिए। अपने संदर्भ में शुभचिंतकों द्वारा ऐसी कानाफूसी से आहत काका ने कुछ इसतरह से मौन धारण कर लिया है,मानो संबंधों के दरकते अपने ही महल में उनके हृदय की आवाज़ गुम हो गयी हो। ठहाकों से गुलज़ार रहने वाले उनके बैठक में अब मरघट सा सन्नाटा है।

      वैसे, बेटे-बहू दोनों ही उनके भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं,किन्तु इससे अधिक इस हवेली में उनके लिए कुछ नहीं है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में उनका हस्तक्षेप  नहीं है। वे कागज़ पर ही इस हवेली के मुखिया मात्र हैं । और परिजनों द्वारा अपनी यही उपेक्षा उनके लिए असहनीय है।सो, जीवन के संध्याकाल में एक ऐसा अवलंबन जो उन्हें मानसिक शांति प्रदान करे, उनके खालीपन को समेट ले, इसी के अभाव में वे असामान्य व्यवहार कर रहे हैं।और स्वयं से यह सवाल भी - "क्या अब मेरी किसी को ज़रूरत नहीं रही ?" 


        अन्यथा काका अपने नाम के अनुरूप प्रौढावस्था तक बेहद खुशमिज़ाज थे। अरे भाई ! नाम ही जो उनका चितरंजन है । और हाँ,एक दौर वह भी था कि जब उनकी दुनिया भी रंगीन थी। उनके अतिथिकक्ष की रौनक देखते ही बनती थी। जहाँ सभ्रांतजनों की उपस्थिति देख ,  ऐसा लगता था कि मानो किसी छोटे-मोटे ज़मींदार का दरबार हो। इन्हीं की तरह  काका अपनी अचल सम्पत्ति की बोली लगाते गये और उनके मेहमानखाने में ठंडा-गर्म होता रहा। बड़े होकर बच्चों ने घर को संभाल लिया,अन्यथा उनका बंगला भी हाथ से निकल जाता और सभी सड़क पर होते। लेकिन काका अकेले पड़ गये हैं , क्योंकि दरबारी तो कब का साथ छोड़ चले थे। घर पर मनबहलाव के लिए उनके पास कोई साधन शेष नहीं है, ईश भक्ति में उन्हें विशेष रूचि नहीं है और जीवन की यह साँझ उनपर भारी पड़ती जा रही है..।


  और उधर...


       मंदिर के समीप चबूतरे पर बैठीं वृद्ध महिलाएँ  "हरि-चर्चा" में मग्न थीं। इन सभी के मुख पर प्रसन्नता थी। इनमें निर्धन-धनी का कोई भेद नहीं था। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि किसी की कलाई में सोने का कड़ा था,तो किसी ने साधारण काँच की एक-दो चूड़ियाँ पहन रखी थीं। किसी की मेवा-मिष्ठान से भरी प्रसाद की टोकरी वज़नी होती तो किसी की इलाइची दाना वाली टोकरी हल्की। यहाँ वे नित्य अपना दुःख-सुख बाँटने जुटती हैं। मंदिरों में धूप-दीपादि के पश्चात इसी चबूतरे पर सुबह-शाम बैठ कर भजन गाया करती हैं। 


     किन्तु इनमें से कुछ की बहुओं को संदेह है कि कीर्तन-भजन के नाम पर ,उनकी सासु माँ मुहल्ले की अन्य वृद्ध महिलाओं से अपने बहू-बेटे  की शिकायत करती हैं । इसीलिए इनके इस धार्मिक ,सामाजिक और पारिवारिक संवाद को उन्होंने  "गृह फोड़-चर्चा" का नाम दे रखा है।  ख़ैर ,नाम में क्या रखा है। प्रश्न यह है कि आपकी सोच कैसी है। जब जीवन के संध्याकाल में अपने ही घर में वृद्ध सदस्यों की जाने-अनजाने में उपेक्षा होने लगे, तो इस अवसाद से मुक्त होने के लिए किसी न किसी आश्रय की आवश्यकता  होती ही है। और इससे अच्छा और क्या है कि इन वृद्ध महिलाओं ने समय गुजारने के लिए इस चबूतरे का चयन किया है। क्योंकि घर के टेलीविज़न पर बहुओं का कब्जा है,उन्हें अपने पसंद की धारावाहिक जो देखनी होती है और फ़िर स्कूल-कोचिंग से छूटते ही बच्चे कार्टून लगा वहाँ अपना आसान जमा लेते हैं।


   दादी माँ की परियों वाली कहानी अब कौन सुनता है।! यदि बच्चे कभी अपनी दादी के साथ कहीं जाना चाहते भी हैं तो उनकी मम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती है-" गोलू , इधर आओ.. स्कूल का होमवर्क पूरा करना है कि नहीं ? "

  और ऊपर कमरे में जाते ही गोलू की तो क्लास ही लग जाती है। बेचारा  कुछ यूँ सहम जाता है कि दादी माँ की परछाई से भी दूर भागने लगता है। अपने ही संतान के बच्चे के सानिध्य से वंचित होना यशोदा के लिए भी सहज नहीं था। किन्तु
आधुनिकता की अंधीदौड़ में सारे संबंध तेजी से परिवर्तित होते जा रहे हैं।पति की मृत्यु के पश्चात यशोदा ने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने ही घर में वह परायी जैसी हो जाएगी। बहू के पश्चात अब उसका बेटा कुंदन भी उसकी उपेक्षा करने लगा था। बेटे को अफ़सर बनाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया था। किन्तु आज उसका पुत्र ' कुंदन ' और वह स्वयं ' पाषाण' बन गयी है।
वह अपने ही सभ्य परिवार में बैकवर्ड समझी जाती है।

    इसी घुटन से बाहर निकलने के लिए वह छटपटा रही थी कि एक दिन पड़ोस में रहने वाली   गायत्री ने उसे रास्ता सुझा दिया। अब यशोदा उसके साथ मंदिर के समीप के उसी चबूतरे पर नियमित पहुँच जाती है। वह धर्मनिष्ठ  महिला है। और भजन -हरि बिन तेरो कौन सहाई ... भी अच्छा गा लेती है, इसलिए यहाँ उसे ख़ूब सम्मान मिल रहा है। उसे ऐसा अवलंबन मिल गया है, जिससे बिछुड़ने का भय नहीं है।वह प्रभु -भक्ति में लीन रहने लगी है । उसे नयी पहचान मिल गयी है । वह मुहल्लेवासियों की 'यशोदा माई' बन गयी है ।  सभी लौकिक आकर्षक, लिप्सा, मोह और अनुराग से ऊपर उठ चुकी है।


   

    यह वृद्धावस्था मनुष्य के धैर्य की परीक्षा लेती है। घर में न सही तो बाहर ही किसी ऐसे आश्रय की तलाश करें, जहाँ कुछ देर के लिए सुकून मिल सके। कोई साथी मिल सके, जिसके संग वार्तालाप कर, मन का बोझ हल्का कर सके।
भले ही जीवनपर्यन्त हमने कर्म की उपासना की हो,फ़िर भी सच्चाई और ईमानदारी के अवलंबन से कहीं अधिक ममत्व भाव की आवश्यकता इस अवस्था में होती है। आश्रय कहीं भी मिले, पर ऐसा मिले कि मुख पर वहीं मुस्कान पुनः थिरकने लगे, ताकि वह जीवन की शून्यता और दर्द से उभर सके। 

   इकलौते पुत्र की मृत्यु के पश्चात डगमगाते पाँवों को छड़ी के सहारे मस्जिद की राह दिखलाते जुम्मन चाचा, जीवन के संध्याकाल में अर्धांगिनी से वियोग के पश्चात शहर के बगीचे में हम-उम्र लोगों संग प्रातःभ्रमण और आध्यात्मिक चर्चा करते पांडेय जी एवं अपनों से मिले तिरस्कार से उत्पन एकांत को ध्यान में परिवर्तित के लिए मंयक भी कुछ इसीप्रकार से प्रयत्न कर रहा है। उपासना स्थल, आध्यात्मिक चर्चा और ध्यान ये तीनों ही इनका अवलंबन है।


   व्याकुल पथिक



    

Sunday 12 July 2020

कोरोना की दहशत

यह लेख कोरोना संक्रमित व्यक्ति की मनोस्थिति पर आधारित है ।

( आइसोलेशन सेंटर में उपचार के पश्चात कोरना संक्रमण से मुक्त पत्रकार श्री राजन गुप्ता का संदेश )
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   दूरदर्शन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार  श्री समीर वर्मा ने इस ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया था।

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    छुआ-छूत (अस्पृश्यता) कभी धर्म के पर्दे में मानव की भ्रष्ट सामंती व्यवस्था का प्रतीक हुआ करती थी, किन्तु देखें न कि प्रकृति का खेल भी कितना विचित्र है ,जिसने इस कोरोना संक्रमण- काल में समाज के प्रभावशाली वर्ग को भी "अछूत" की श्रेणी में ला खड़ा किया है। किसी भी प्रशासनिक अथवा पुलिस अधिकारी, राजनेता और चिकित्सक के कोरोना (कोविड-19) पॉजिटिव पाये जाते ही बिना उसके ओहदे का ध्यान रखे शोर मचने लगता है - " अब तुम्हारी गली नहीं आना..।"

    संक्रमित लोगों से ही नहीं भयवश इनके स्वस्थ परिजनों से भी सामाजिक दूरी और बढ़ती जा रही है। कोरोना संक्रमित एक महिला चिकित्सक ने अपना दर्द कुछ इस तरह से बयां किया है-"क्या हमारे बच्चों को दूध के लिए भी तरसना पड़ेगा। हमने ऐसा क्या पाप किया है ?"

...कालोनी के लोगों को जैसे ही जानकारी हुई कि वे कोरोना संक्रमित हैं ,तो वे सभी उनके परिजनों की परछाई से भी दूर भागने लगे और दुकानदारों ने भी इस परिवार से किनारा कर लिया। उन्हें स्वयं की सुरक्षा से कहीं अधिक यह भय है कि पीड़ित परिवार के सदस्यों को देख
उनके प्रतिष्ठान से अन्य ग्राहकों के संबंध न बिगड़ जाए।
  
     और यदि किसी प्रतिष्ठान के स्वामी पर ही कोरोना का खूनी पंजा चल गया , तो समझें कि उसका सारा व्यवसाय कुछ दिनों के लिए चौपट। एक रेस्टोरेंट संचालक भी कोरोना के आघात से उभर नहीं पा रहा है ,क्योंकि उसके कर्मचारी संक्रमित जो हो गये थे। सो, इससे उसके होटल की तो पूरे शहर में "कोरोना वाला" के रूप में पहचान हो गयी है, किन्तु ग्राहकों के न आने से वह स्वयं जेब से ठन-ठन गोपाल है।   

        एक अस्पताल के मुखिया के संक्रमित होते ही सहयोगी चिकित्सकों के खिले हुये चेहरे कुछ इस प्रकार से स्याह पड़ गये , मानों सामने साक्षात यमराज खड़ा हो। पीड़ित वरिष्ठ चिकित्सक पर अपना गुस्सा उतारते हुये एक युवा डॉक्टर ने अपने मित्रों से कुछ यूँ कहा- " ये बुड्ढे स्वयं तो सजग नहीं रहेंगे और मीटिंग में बुलाकर हमारी जान भी आफ़त में डाल रहे हैं ।"

   एक और युवा प्रतिष्ठित व्यवसायी की पहचान सोशल वर्कर के रूप में रही, किन्तु इस दुष्ट कोरोना ने उसे अपने गिरफ़्त में क्या लिया कि पड़ोसियों ने ग्वाले को सख्त हिदायत देते हुये कहा- " सुनो भाई ! यदि उस घर की ओर दूध लेकर गये तो समझ लेना कि कई ग्राहकों से हाथ धो बैठोगे ।"

   बेचारा ग्वाला धर्मसंकट में पड़ गया था। संक्रमित व्यवसायी के बच्चों को वह वर्षों से गाय का दूध देता आ रहा था। ऐसे में मानवता क्या कहती है ? कैसे उन बच्चों को वह दूध से वंचित रखे और यदि ऐसा करता है तो फ़िर मुहल्ले के अन्य लोग उससे दूध नहीं लेंगे।

    एक चिकित्सक के घर काम करने वाली एक युवती का एक नज़दीकी संबंधी संक्रमित हो गया है। उसके रिश्तेदार के आइशोलेशन सेंटर भेजे जाने की जानकारी जैसे ही उक्त डॉक्टर को हुई उसने उसे यह फ़रमान सुना दिया - " माया ! यदि तुम अपने उस रिश्तेदार के घर गयी,तो फिर कल से काम पर मत आना। मेरी इस चेतावनी को गंभीरता से लो। आगे तुम्हारी मर्जी ।"

    लोकबंदी के पश्चात वैसे ही काम के लाले पड़े हुये हैं, ऐसे में एक तरफ़ चिकित्सक की हिदायत और दूसरी तरफ़ उसके संबंधी का वह परिवार जिसने सदैव आवश्यक पड़ने पर तन- मन-धन से उसका सहयोग किया है। अब क्या करे वह ?
 कहाँ तो उसने सोच रखा था कि काम समाप्त होते ही चल कर कोरोना पीड़ित संबंधी की पत्नी और उसके बच्चों की सुधि लेगी..और अब यदि वह ऐसा नहीं करती है तो वे क्या सोचेंगे ?  इस हितैषी परिवार से भी भविष्य में उसका पहले की तरह मधुर संबंध नहीं रह जाएगा। कहाँ से आ टपका यह कोरोना , इधर नौकरी जाने का भय और उधर शुभचिंतकों से संबंध बिगड़ने का डर। 
 उपकार करने वालों का संकटकाल में साथ न देना कृतघ्नता भी तो है। आखिर क्या करे वह ? माया को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोरोना उसके रिश्ते को तोल रहा था।

      ओह! यह कैसी विडंबना है कि पलक झपकते ही अपने पराये हो जा रहे हैं। आइसोलेशन सेंटर में रोहित स्वयं से प्रश्न कर रहा था। यह कैसी महामारी है कि जो पीड़ित व्यक्ति ही नहीं उसके परिवार को भी सामाजिक बहिष्कार की स्थिति में ला खड़ी कर रही है।  उसने ऐसा क्या कुकर्म कर दिया कि अचानक हरकोई बदला हुआ सा दिखने लगा है? यह तिरस्कार क्यों ? उसे लग रहा था कि उसकी दौड़ती-भागती ज़िदगी में सब-कुछ ठहर-सा गया है। अपनत्व का प्रदर्शन तो दूर सहानुभूति के दो शब्द कहने के लिए भी उसके इर्द-गिर्द यहाँ कोई शुभचिंतक नहीं है। 

    यह देख वेदना से भर उठा रोहित स्वयं से प्रश्न करता है कि प्लेग(हैजा) तो उसने देखा नहीं है, परंतु उसके संदर्भ में सुना अवश्य है। आज़ इस कोरोना में भी उसे उसी महामारी का प्रतिविम्ब नज़र आ रहा है। उसकी पलकों के पोर नम हो चले थे और आँखें बरसने ही वाले थीं कि तभी  आइसोलेशन सेंटर का डॉक्टर वहाँ आ जाता है। वह कहता है- "वेलकम रोहित ! अब तो तुम ठीक हो रहे हो,चिन्ता मत करो।"

 " थैक्यू सर , यहाँ आप सभी ने हितैषियों से बढ़कर मेरा ध्यान रखा, अन्यथा  कल तक साथ उठने-बैठने वाले मित्रों का भी फोन आना बंद हो गया है। "  
-- इतना कहते-कहते निस्सहाय-से अस्पताल के बेड पर पड़े हुये रोहित का गला रुंध जाता है ,फ़िर भी उसे अपने किसी भी शुभचिन्तक पर तनिक भी क्रोध नहीं आया ,क्योंकि वह जानता है कि हर किसी को अपना जीवन प्रिय है। 

 लेकिन , रोहित के पिता का हृदय अत्यधिक आहत है। वे कहते है कि जब उनका पुत्र ज्वर से पीड़ित था और इस शहर के नामी चिकित्सक भी उसका रोग नहीं पकड़ सकें , तो वह वाराणसी बेहतर उपचार के लिए चला गया था। परंतु यहाँ उसके कुछ परिचितों ने ही यह अफ़वाह फैला दी थी कि रोहित रोग छिपा रहा है। उसके परिवार के सदस्यों को भी कोरोना है । इसीलिए उसकी दुकान सील कर दी गयी है ,आदि- आदि..अनेक ऐसे कड़वे संवाद उन्हें सुनने को मिल रहे थे, जिससे उनका आत्मसम्मान आहत हुआ है। 

  और जरा यह भी तो सुनते चले कि उस हौली (देशी शराब की दुकान) के बाहर मित्र मंडली के साथ बिना मास्क लगाये बैठा यह भगेलू क्या कह रहा है ? अरे ! यह तो सामाजिक दूरी का उपहास उड़ा रहा है। वह कह रहा है कि हमारे मलिन बस्तियों में जा कर देखों, हुआ क्या वहाँ किसी को कोरोना ? परंतु बेचारा अपना सेठ तो गया काम से , अब सड़ता रहे 14 दिनों तक किरौना वाली कोठरी में। ससुरा , हमलोगों को देखते ही "सोशल डिस्टेंस-सोशल डिस्टेंस"  कह कर ऐसा भड़कता था, जैसे हमहीं कोरोना हो। अब जाकर उसी आइशोलेशन सेंटर में उपदेश दे।

      ख़ैर,निर्धन हो या धनवान, सुरक्षित हो अथवा असुरक्षित कोई भी इस संक्रमण रोग से अछूता नहीं है। परंतु हमें "सामाजिक दूरी" का ध्यान रखना ही होगा। और हाँ, कोरोना कोई एड्स की बीमारी तो नहीं है जो कि अपराध-बोध की अनुभूति हो, फ़िर भी यह क्यों किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आघात कर रहा है ? इसे प्रकृति का अत्याचार कहे अथवा न्याय ?  रोहित को समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसे "जन-अपराध" के लिए दोषी कौन है ?

   संभवतः मीडिया चैनलों के माध्यम से इसे लेकर जो अत्यधिक भय दिखाया गया, यह उसी का दुष्परिणाम है कि संक्रमित क्षेत्र में माताएँ नवजात शिशु को दूध के अभाव में जल में शक्कर घोल कर पिलाते दिखीं, क्योंकि ग्वाले ने दूध देने से मना कर दिया था। जरा विचार करें कि ऐसी माताओं के हृदय पर क्या गुजरी होगी। ऐसे ही एक पीड़ित परिवार ने जब अपने इस दर्द से वरिष्ठ पत्रकार श्री सलिल पांडेय को अवगत कराया, तो उनके नेत्र भी नम हो गये। उन्होंने मुझसे कहा -"शशि, जातीय और सामाजिक छुआ-छूत ने तो अब-तक मानवता पर अनगिनत आघात किये ही हैंं, किन्तु यह आत्मीय छुआ-छूत हम इंसानों की संवेदनाओं को ही निगलने को आतुर है। "

  प्रबुद्धजनों को इसपर चिंतन अवश्य करना चाहिए।



  ----व्याकुल पथिक



    

Wednesday 8 July 2020

सुख

( जीवन की पाठशाला से )
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    बीसवीं सदी के सशक्त क़लमकार कामेश्वर जी की एक रचना "सुख" पढ़ रहा था। जिसमें उद्योगपति जमनालाल बजाज एक मछुआरे ,जो कि अपनी जर्जर नाव की छाँव में आराम से लेट कर बीड़ी पी रहा था, से प्रश्न कर रहे थे। वे उससे कह रहे थे कि यदि तुम अधिक मछलियाँ पकड़ते, तो अमीरी की तरफ बढ़ सकते थे। जैसे ,नाव की जगह मोटरबोट और नायलॉन के जाल खरीद सकते थे। तब तुम्हारी आमदनी काफ़ी बढ़ जाती और तुम बेफ़िक्र हो खुशी से ज़िदगी जी सकते थे। जिसके प्रतिउत्तर में मछुआरे ने उनसे कहा था कि वह ऐसा क्यों करे ? क्योंकि वह तो अब भी खुश है और उनसे ज्यादा सुखी भी है।

     आज़ का मेरा विषय भी यही है। यह सुख क्या है ? मुझे आज़ भी भलीभाँति स्मरण है कि आजीविका की खोज में जब वाराणसी से मीरजापुर आया तो मेरे पास दो जोड़े कपड़े मात्र थे। समाचार पत्र कार्यालय से पारिश्रमिक के रूप में प्रतिदिन चालीस रुपया मिलता था। बनारस से मीरजापुर बस में ढ़ाई घंटे की यात्रा के दौरान मैं दो बड़े-बड़े अनार खरीद कर खा लिया करता था। रात्रि 11 बजे वापस लौटने पर एक ढाबे पर डट कर भोजन करता और  साथ ही एक लीटर दूध सुबह-शाम गटक लेता था। पेट पर हाथ फेरकर डकार लेता और नींद तो इतनी अच्छी आती थी कि आँखें सुबह ही खुलती थीं।धनसंग्रह करने की कोई अभिलाषा नहीं थी। सो,स्वस्थ और प्रसन्न था। दिन भर श्रम करने से जो स्वेद निकलते थे, उनमें मोतियों जैसी मुस्कान थी। 

      कुछ माह पश्चात अख़बार के दफ़्तर में मेरे एक शुभचिंतक ने सलाह दी कि कुछ रुपये इनमें से बचा लिया करो, जिससे तुम्हें इस समाचार पत्र की मीरजापुर एजेंसी मिल सके। इससे तुम्हारा सम्मान और आर्थिक लाभ दोनों बढ़ेगा। मैंने पूछा  कितना तो बताया गया कि कम से कम आठ हजार रुपये और नीचीबाग डाकघर में मेरा बचत खाता भी खोल दिया गया। यह वर्ष 1995 की बात है। मैं समाचार पत्र विक्रेता से अभिकर्ता बन गया। मुझे तीन किस्तों में पैसा संस्थान को देना था। इस धन को अर्जित करने के लिए मैं अपने ख़र्च में कटौती  करने लगा। दो की जगह एक अनार और दूध भी कम कर दिया। जबकि यौवन उफान पर था और अत्यधिक श्रम भी करना पड़ता था, जो इससे पूर्व मैंने कभी किया नहीं था। परिणाम यह रहा कि मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन आना शुरू हो गया। और फ़िर मुझे भविष्य की अनेकानेक चिंताओं ने घेर लिया। विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे, पर मैंने स्पष्ट कह दिया था कि कहा कि धन तो है ही नहीं। तभी अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे किसी भी प्रकार से प्रयत्न करके दस लाख रुपये अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एकत्र करना है।

 वैसे तो, इस अर्थयुग में पत्रकारिता को भी " जुगाड़ वाला धंधा" समझा जाता है, किन्तु मैं अनैतिक तरीक़े से धन अर्जित करने साहस नहीं जुटा सका, इसलिए मेरे लिए दस लाख रुपये बचत करने का लक्ष्य अत्यधिक कठिन था। इस गुल्लक को भरने के लिए मैं अपनी सारी सुख-सुविधाओं में कटौती कर आजीवन साइकिल से चलता रहा। वर्ष 1998 में असाध्य रोग ने मेरे दुर्बल शरीर पर आक्रमण कर दिया और फ़िर मेरे सारे स्वप्न बिखर गये। हाँ, मैंने कुछ धनसंग्रह अवश्य कर लिया , किन्तु "भविष्य" की चिन्ता में मेरा "वर्तमान"चला गया। मेरी " खुशी" चली गयी। प्रियजनों का वियोग सहना पड़ा।  घर-परिवार विहीन व्यक्ति के लिए उसका स्वास्थ्य  ही सबसे बड़ा धन होता है। अब मेरे पास न तो आजीविका का कोई साधन है और न ही वह खुशी, जिसे लेकर मैं मीरजापुर आया था। संग्रह किया हुआ धन "रोटी" दे सकता है, किन्तु "सुख" नहीं।  
     कुछ लोगों ने स्नेह प्रदर्शन कर छल भी किया।  एकाकी जीवन में ऐसा होता ही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा। तत्पश्चात गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है।
      
     इन दिनों मानसिक शांति और स्वास्थ्य के लिए मैं प्राणायाम कर रहा हूँ। अध्यात्मवेत्ता श्री सलिल  पांडेय ने कहा है कि श्वांस को ऊपर से नाभि की ओर धीरे-धीरे नीचे (अपान वायु) की तरफ लाना है। वायु की प्रवृत्ति उर्ध्वगामी होती है । वायु का शरीर में उर्ध्वगामी होना पाचन-क्रिया को बाधित करता है। इसके लिए वायु को अपान स्वरूप ही श्रेष्ठ है। भगवान की पूजा में "पंचवायु" के समन्वय के क्रम में प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा का जप करते हुए भगवान को नैवेद्य चढ़ाने का विधान किया गया है। मेडिकल साइंस भी वायु के इन स्वरुपों को मान्यता देता है। रक्तचापमापी यंत्र (स्फाइगनोमैनोमीटर) में पारा जिस प्रकार नीचे की ओर उतरता है, कुछ इसी प्रकार ही श्वांस को नीचे उतारने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चरणबद्ध तरीके से ऐसा करना है। क्रमशः सर्वप्रथम सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क के मध्य भाग में), आज्ञा चक्र (नेत्रों के मध्य भृकुटि में), विशुद्ध चक्र (कंठ में),अनाहत चक्र (हृदय स्थल में), मणिपुर चक्र (नाभि के मूल में) से अनुभूति के माध्यम से श्वांस को नीचे नाभि पर केंद्रित करना है। मणिपुर चक्र में श्वांस नीचे उतारते समय मूलाधार (गुदा और लिंग के मध्य में) और स्वाधिष्ठान चक्र(लिंग मूल के चार अंगुल ऊपर ) की आनुभूति भी करनी होती है। तत्पश्चात मणिपुर चक्र से श्वास को ऊर्ध्वगामी ( ऊपर की ओर) सहस्त्रार चक्र की ओर ले जाना है। 
   ऋषियों ने माना है कि शिव शीश में स्थित हैं । पूरा शीश (गर्दन के ऊपर का भाग) ही शिवलिंग है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इसी भाग में हैं। जबकि शिवा यानी माता पार्वती नाभि में रहती हैं । माँ और संतान का सर्वाधिक गहरा रिश्ता इसी नाभि से ही होता है। सारी तंत्रिका प्रणाली का मुख्य केन्द्र विंदु नाभि और मस्तिष्क ही है। शीश पर्वत है तो नाभि कुंड। उक्त प्राणायाम का आशय है कि शिव नीचे उतर कर पार्वती के पास आते हैं । इस स्थिति में तन स्वस्थ होता है। अपान वायु के जरिए नाभि में आकर जब शिव शिवा को लेकर अपने कैलाश पर्वत शीश में आते हैं तो चिंतन-मनन शिवस्वरूप हो जाता है। मन को शांत और तन को स्वस्थ करने के लिए सलिल भैया ने यह विशेष प्रकार का प्राणायाम मुझे सिखाया है।

        अभी प्रारम्भिक चरण है। जिस सुख की कामना मैं ऐसे योग-प्राणायाम के माध्यम से इस अवस्था में कर रहा हूँ, वह सुख तो मुझे तीन दशक पूर्व सहज ही गुरुदेव  के आश्रम में प्राप्त हो गया था। गुरुकृपा से आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों में ही। मैं मोहवश इस 'अमृत कलश ' का त्याग कर ' मदिरापान ' के लिए निकल पड़ा था। परिणाम यह रहा कि उस दिव्य प्रकाश (आनंद) से वंचित हो गया।

    परंतु  मछुआरा बुद्धिमान था, उसे ज्ञात था कि उसकी खुशी किसमें है। इसीलिए उसने बड़ी दृढ़ता के साथ उद्योगपति श्री बजाज को जवाब दिया था - "मैं इसी स्थिति में आपसे अधिक सुखी हूँ।"
     सत्य यही है कि मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है। और हाँ, यदि सुख का एक द्वार जब कभी बंद होता है, तो दूसरा खुल भी जाता है। अतः बंद नहीं इस खुले द्वार की ओर भी देखें। 

-व्याकुल पथिक


    

Wednesday 1 July 2020

दौर ये कैसा ?


मन के भाव
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प्यार पंछी से जता के
शिकार इंसान का करते हैं।

  दौर ये कैसा देखो यारो 
जहाँ सैयाद मसीहा होते हैं !

आग  घरों में लगा के
जो चैन की नींद सोते हैं।

गज़ब सियासत देखो यारो 
वे  रहनुमा हमारे होते है !

शहतीर पलकों से उठा के
सुई  विषभरी चुभोते  हैं  ।

इंद्रजाल ये कैसा देखो यारो 
हम यहीं मुतमईन होते हैं !

 दुनिया को बहका के जो
 खुद मालामाल होते हैं ।

जमाना ये कैसा देखो यारो
वे ही  पीर-फ़क़ीर होते हैं !

हंगामा खड़ा करके जो  
फ़िर पर्दे में मुसकुराते  हैं।

खेल कलयुग का देखो यारो 
वे सच्चे साहित्यकार होते हैं !

पहचान पथिक इन्हें तनिक ,
 भरोसा इनपे नहीं करते हैं ।

अनजान दर्द से आँखों के 
पर क़लम के महान होते हैं !

- व्याकुल पथिक