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Wednesday 30 January 2019

ये कैसा ख़ुमार है...

 ये कौन सा ख़ुमार है...
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कसमे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या
सुख में तेरे साथ चलेंगे दुख में सब मुख मोड़ेंगे
दुनिया वाले तेरे बनकर तेरा ही दिल तोड़ेंगे
 देते हैं भगवान को धोखा, इनसां को क्या छोड़ेंगे ...

      उपकार फिल्म का गीत है यह । आवाज़ तो मेरी मधुर नहीं है, फिर भी जब कभी गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाता हूँ ,आसपास किसी को नहीं पाता हूँ , तब जीवन का यह सत्य सामने होता है, जो इस नगमे में है। ऐसे में हृदय की व्याकुलता को दिलासा देने के लिये  मैं इसकी दो चार पंक्तियों को गुनगुना लेता हूँ। स्नेह की तलाश में इस खूबसूरत पर रंग बदलती दुनिया में भटकते हुये हम बंजारे ही रह गये हो , तो मन के भारीपन को कम करने का यह तरीका बूरा नहीं है ?
     गत सप्ताह बारिश और ठंड के कारण  तबीयत अधिक बिगड़ गयी  , तो उस रात्रि मेरे एक मित्र मिश्रा जी, जो  सीनियर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हैं, ने कुछ दवाइयाँ लाकर मुझे दी । वे सांईं मेडिकल पर रखा मेरे भोजन का पैकेट भी लेते आये। पिछले एक माह से सप्ताह में छह दिन रात्रि में मेरे लिये रोटी- सब्जी के पैकेट की व्यवस्था समाजसेवी श्री अमरदीप सिंह की संस्था के सौजन्य से हो जा रही है। अन्यथा तो सुबह की तरह रात्रि में भी दूध ब्रेड या दलिया से काम चल रहा था। असंतुलित भोजन और व्यथित हृदय का सीधा प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है, इसकी अनुभूति है पथिक को , परंतु  न ही कोई विकल्प है,ना ही जीवन के प्रति मोह शेष है ,  जब यूँ ही स्नेह की तलाश में एकाकी चलते हुये उसने अपने जीवन के स्वर्णिम काल गुजार दिये , तो अब ट्रेन की आखिरी सीटी बजाने की ही  प्रतीक्षा है।
 
         उस रात्रि जब मिश्रा जी दवा लेकर कमरे पर आये , तो उन्होंने अपने  " थ्री ईडियट्स " दोस्तों की एक संक्षिप्त जीवन कथा और व्यथा मुझे बातों ही बातों में कह सुनाई।
     बड़ी विचित्र है, इन तीनों की दुनिया भी, जो कर्मपथ पर था वह भी अपनी निष्ठा की कीमत चुका रहा है और जिसने " झूम बराबर झूम शराबी "  को अपना जीवन दर्शन समझा , उसकी  भी वही स्थिति है।
    वो उक्ति है न , " टके सेर खाजा, टके सेर भाजी। "

  दरअसल मेरे एकाकी जीवन पर कुछ लोग सवाल उठाते रहे हैं। कुछ तो उपहास भी करते हैं कि जीवन के हर आनंद से दूर यह मनहूस प्राणी कैसे जेंटलमैन हो सकता है ? घर आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है, इसीलिए तो गृहलक्ष्मी इसके पास नहीं आयी। जाहिर है कि जनपद स्तरीय पत्रकारिता में यदि अतिरिक्त आर्थिक स्त्रोत नहीं है, तो फिर हम जैसों (पत्रकार) का बाजार भाव ठंडा है। युवावस्था में तब पत्रकारिता का यह जुनून जो था  , इस नशे के लिये मैंने अपने भविष्य को दांव पर लगा दिया । व्यस्तता बढ़ती गयी और स्नेह के बंधन टूटते गये। जो अपने थें ,वे दूर हो गये।

      मेरे मित्र मिश्रा जी ने देश - दुनिया देखी है, समाजिक , राजनैतिक और कुछ पत्रकारिता के क्षेत्र में भी रहे हैं। लेकिन , समय के साथ चल रहे हैं। काम के नशे में परिवार की उपेक्षा नहीं की ,उन्हें नियति ने श्रम के प्रतिदान में खुशहाल परिवार दिया है। वे मुझे दो- ढ़ाई दशक से जानते हैं, उन्हें पता है कि ईमानदारी की राह में कांटे हैं ,फूल नहीं।
 अतः मेरे प्रति उनके हृदय में एक सम्मान है। हाँ ,इतना अवश्य कहते हैं कि भोजन की व्यवस्था पर किसी तरह ध्यान दें , शेष तो किस्मत का खेल है।
  यहाँ बात मैं उनके तीन मित्रों की जीवन यात्रा की कर रहा था। पहला मित्र उनका उनके ही पेशे से जुड़ा  है। अच्छी खासी आमदनी  रही । लेकिन मधुबाला से पहले मधुशाला से दोस्ती हो गयी।  मित्रों ने काफी समझाया कि देखों भाई थोड़ा बहुत ले लिया करों, मन बहलाने के लिये, परंतु शराब उनके यार के जैसी हो गयी ।  परिणाम यह रहा कि छोटे भाइयों का विवाह हो गया और जनाब अकेले अब यह दर्द भरे नगमे गाया करते हैं-

ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा
मेरा ग़म कब तलक, मेरा दिल तोड़ेगा..

    अत्यधिक शराब सेवन से  काम धंधा चौपट हो गया है और स्वास्थ्य भी बेहतर नहीं है। जीवन साथी के लिये जब मन ने पुकार लगाई , तो उनके पास  न काया रहा न माया  , बेचारे सोशल मीडिया के माध्यम से चैटिंग करने लगें। एक विदेशी युवती पर डोरा डालने में सफल हुये भी , तो सात समुंदर पार जाने के लिये पैसा अब नहीं शेष है। सो, मन में इस उम्मीद को जीवित रखते हुये कि कभी तो उनके पास इतना पैसा होगा कि वे अपनी प्रेयसी के देश जाएंगे और दुल्हन बना उसे संग लाएँगे , परंतु कब यौवन तो ढलने को है ?  सो, अब बाकी बचा है यह गीत उनके लिये -

सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे -
जहाँ की रुत बदल चुकी ना जाने तुम कब आओगे
हर एक शम्मा जल चुकी ना जाने तुम कब आओगे
तड़प रहे हैं हम यहाँ तुम्हारे इंतज़ार में ..

 दूसरे मित्र की दास्तान भी कम दर्द भरी नहीं है। दवा का अच्छा कारोबार रहा। सुंदर पत्नी मिली और पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन , कांच की बोतल से दोस्ती कर ली और जब नशा उतरा तो घर पर न बीवी मिली न बच्चा। मदिरा और ध्रूमपान ने उपहार में अस्थमा का मर्ज दे दिया। बढ़िया कारोबार चौपट हो गया। परिवार के अन्य सदस्यों ने भी दूरी बना ली। उम्र के इस पड़ाव पर जब एकाकीपन जीवन संध्या को गमगीन किये हुये है। वे अपनी अर्धांगिनी और प्रेम पुष्प की वापसी के लिये पुकार लगा रहे हैं ।  कोई ऐसा मिल जाए , जिसके प्रयास से उनके उजड़े आशियाने में फिर से रौनक हो जाए । होली और दीपावली की वह खुशियाँ वापस लौट आये , पर देर हो चुकी है। वे जिससे भी अपना दर्द कहते है, झिड़क मिलती है कि पहले अपना स्वास्थ्य तो सुधारों , आदत बदलों और धनलक्ष्मी की व्यवस्था करों , फिर करना गृहलक्ष्मी की वापसी की प्रतीक्षा ।
     काश  !  शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन का यह डॉयलॉग  "नशा शराब में होती तो नाचती बोतल"  ही सुन लिया होता ,तो तुम भी कहा करते-

थोड़ी आँखों से पिला दे रे सजनी दीवानी..

  आज जीवन संगिनी  के इंतजार में यूँ बैचेन तो न होते आप  ?

   तीसरे मित्र की जीवन यात्रा इन दोनों से विपरीत और करूणामय है। वे एक ऐसे संगठन से जुड़ा हैं , जो  चाल ,चलन और चरित्र  की बात करता है । डेढ़ दशक से वे निष्ठावान कार्यकर्ता के रुप में अपनी सेवा दे रहे हैं। कर्मपथ पर हैं, फिर भी धनलक्ष्मी का दर्शन दुर्लभ है। परिणाम यह है कि समाज, परिवार और वह संगठन जिसके लिये वे समर्पित हैं , तीनों के द्वारा उपेक्षित हैं। दुनिया में पैसा ही किस्मत है, यह बात तब उन्हें समझ में आयी , जब जीवन संगिनी और बच्चों ने उन्हें सम्मान देना बंद कर दिया। ऐसे में हाहाकार कर उठता है हृदय कि सच के मार्ग पर चलने वालों को ऐसा कठोर दंड, फिर विलाप करता है मन-

किस्मत के खेल निराले मेरे भैया.
किस्मत का लिखा कौन टाले मेरे भैया..

  यहाँ भी तो उसका यह जुनून , जो संगठन के प्रति था , नशा बन गया । यह नशा भी "जाम" बन उसकी बर्बादी की पठकथा लिख गया।
      निठल्ले होने का दर्द क्या होता है, "पथिक" को इसकी कड़ुवी अनुभूति है। अन्यथा उसका भी आशियाना था, जहाँ अपनों का बसेरा था और सपनों का घरौंदा था। अब वह सिर्फ एक बंजारा है , न अनाड़ी है न ही खिलाड़ी !

होगा मसीहा सामने तेरे फिर भी न तू बच पायेगा
तेरा अपना खून ही आखिर तुझ को आग लगायेगा
आसमान में उड़नेवाले मिट्टी में मिल जायेगा
सुख में तेरे साथ चलेंगे दुःख में सब मुख मोड़ेंगे
 दुनियावाले तेरे बनकर तेरा ही दिल तोड़ेंगे ...

इस सत्य से साक्षात्कार कर चुका है वह।
    पथिक  की अनुभूति तो यही कहती है कि स्नेह भी एक नशा है, इसके पीछे मत दौड़ों ,अन्यथा कर्मपथ पर ठोकर खाओगे। फिर भी यदि नशा करनी है तो कुछ ऐसे करो -

हुई महंगी बहुत ही शराब के थोड़ी थोड़ी पिया करो
 पियो लेकिन रखो हिसाब के थोड़ी थोड़ी पिया करो...