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Sunday 21 April 2019

हाँ , मैंने देखा श्रवण कुमार

 हाँ , मैंने देखा श्रवण कुमार
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     पढ़े लिखे सभ्य समाज में  हम पति-पत्नी और हमारे एक या दो बच्चे यह भावना , सयुंक्त परिवार पर भारी पड़ रही है। सो, उसके बिखरते ही  इस छोटे कथित खुशहाल परिवार की संवेदनाओं में कमी आती जा रही है।
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     आज सुबह मैंने श्रवण कुमार को देखा। उस युवक की मातृभक्ति देख कर मेरा पांव अचानक तेलियागंज तिराहे पर ठिठक गया। मेरे जैसे यतीमों के लिये उस खुशी की अनुभूति कर पाना फिलहाल सम्भव नहीं है और कल्पनाओं में जाकर कुछ लिखने की अपनी आदत नहीं है। पत्रकारिता धर्म ही कुछ ऐसा है कि हम सभी को अमूमन आँखों देखा हाल बताना पड़ता है। फिर भी जब कभी ऐसे दृश्य राह चलते देखने को मिल जाते हैं ,  तो अपने विरक्त हृदय से कहता हूँ कि मित्र कुछ पल के लिये ही सही दूसरों की खुशियों के साक्षी तुम भी बन जाओ।
    इस अर्थ युग में संयुक्त परिवार का बिखराव जिस तरह से हुआ है। उसमें हम दोनों और हमारे बच्चे ,यह सोच विकसित हो गयी है। माता- पिता और भाई- भतीजे के लिये स्थान इस तथाकथित सुखी परिवार के दायरे में नहीं है।
  कभी पति की नौकरी, तो कभी बच्चों की पढ़ाई , कारण जो भी हो ,लेकिन वृद्ध सास-ससुरा अपनी पुत्रवधू के हाथों से निर्मित भोजन से अंततः वंचित तो हो ही जाते हैं , जबकि हर सास की जो पहली इच्छा रहती है, वह यही न कि बहू आएगी तो उसकी सेवा करेगी। सास- बहू के लड़ाई- झगड़े अलग बात है।
    लेकिन, आज मैंने जिस श्रवण कुमार को देखा वह अपनी वृद्ध माँ को व्हील चेयर पर बैठा कर प्रातः भ्रमण करवा रहा था नगर की सड़कों पर। मैं कभी उस माँ को , तो कभी उस लायक पुत्र को अपलक निहार रहा था, जब तक वे रतनगंज की ओर बढ़ न गये। सोचता हूँ कि उसकी माँ के आशीष की वर्षा होती होगी उसपर ? वृद्ध माता- पिता के लिये थोड़ा समय निश्चित ही होना चाहिए उनके बच्चों के पास । प्रतिदिन एक और दृश्य संकटमोचन मार्ग पर देखता हूँ, वह यह कि एक वृद्ध व्यक्ति का हाथ पकड़ सम्भवतः उसकी पुत्री  प्रातः भ्रमण पर निकलती है। वह बहुत ही सावधानी के साथ इस वृद्ध को उस क्षेत्र का भ्रमण कराती है।
 मानों यह संदेश दे रही हो कि बेटा नहीं तो क्या बेटी भी किसी से कम नहीं है।  कभी- कभी मन होता है कि ऐसे दृश्यों को कैमरे में कैद कर , उसे समाचार पत्र में प्रकाशित करूँ, परंतु न जाने क्यों , किस संकोच में पांव ठिठक जाते हैं। परंतु अधिकांश अखबारों में भी ऐसी भावनात्मक खबरों को कहाँ स्थान मिलता है। वहाँ तो फुलझड़ी- पटाखे चाहिए, इलेक्शन है न, तो राजनीति के ऐसे मसाले हम जैसे पत्रकारों को ढ़ूंढने पड़ते हैं। अन्यथा पाठक कहेंगे की मजा नहीं आया , आज तुम्हारे मीरजापुर पेज वाले कालम को पढ़ कर।
      परंतु आज मेरा मन सुबह जहाँ इन वृद्ध जनों के "श्रवण कुमार" को देख आह्लादित रहा, वहीं शाम होते होते वह अपने बचपन , अपने अभिभावकों की स्मृतियों में डूबने लगा। माँ के प्रति तो मैंने अपने सारे कर्तव्य पूरे किये, परंतु बाबा और दादी के लिये कुछ नहीं कर सका था मैं । यहाँ तक की मैं उनके अंतिम संस्कार के समय मौजूद भी नहीं रहा । वैसे तो मैं अपने मौसा जी , पिता जी और छोटी बहन का भी अंतिम दर्शन नहीं कर पाया था । परंतु दादी और बाबा के प्रति मेरा विशेष कर्तव्य था और उस दायित्व का निर्वहन तब मैं नहीं कर सका , जब लगभग 20-21 वर्ष का एक बेरोजगार युवक था । मान- सम्मान भरे जीवन की तलाश मैं कालिम्पोंग और मुजफ्फरपुर चला गया था।

  अतः मुझे यह आशीष अब देने वाला कोई नहीं है -

तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राज दुलारा
मैं कब से तरस रहा था, मेरे आँगन में कोई खेले
नन्ही सी हँसी के बदले, मेरी सारी दुनिया ले ले
 तेरे संग झूल रहा है, मेरी बाहों में जग सारा
आज उँगली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलाऊँ
कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ
तू मिला तो मैंने पाया, जीने का नया सहारा
मेरे बाद भी इस दुनिया में, ज़िंदा मेरा नाम रहेगा
जो भी तुझ को देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा, मुझको जीवन दोबारा
मेरा नाम करेगा रौशन...

      मेरा अस्तित्व, मेरी पहचान, मेरी मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगी। अकसर हास्य परिहास में मित्रगण कहते हैं कि तुम्हारा अंतिम संस्कार कौन करेगा ? तो मैं मुस्कुराते हुये जवाब देता हूँ कि जब मैं  अपनी माँ की मृत्यु के बाद किसी की शवयात्रा में सम्मिलित ही नहीं हुआ, तो मेरा भी कोई मत करना। जल प्रदूषण के लिहाज से माँ गंगा के गोद में  लवारिस शवों को अब फेंका नहीं जाता । हाँ , इच्छा तो है कि पारसी जनों की तरह ही मेरे शव को मांसाहारी पशु- पक्षियों को सौंप दिया जाए, परंतु यह भी कौन करेगा। अतः नेत्रदान के पश्चात बिजली वाले शवदाह गृह में उसे दे दिया जाए। मृत्यु के पश्चात दावत भोज मुझे पसंद नहीं है। मेरा मानना है कि यह उत्सव उसके लिये हो, जो महावीर और बुद्ध की तरह महानिर्वाण को प्राप्त करता है। जिसने जन कल्याण के लिये कुछ किया ?
      मैं अभी तक वैराग्य के पथ पर अग्रसर नहीं हो सका हूँ। इस जीवन में रह-रह कर न जाने क्यों भ्रमित हो जाता हूँ कि कोई मुझसे भी स्नेह करता है, जबकि ऐसा है नहीं । मैं किसी की जिम्मेदारी नहीं हूँ। मैंने कितनी ही रातें बिना भोजन के गुजार दिये। उस तन्हाई में किसी की आवाज नहीं सुनाई दी। मैं भलिभांति जानता हूँ कि मेरे स्नेह का कोई महत्व नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष के लिये। जब भी कभी मैं यह सोच लेता हूँँ कि कोई मेरा भी ध्यान रख रहा है,एक नयी वेदना हृदय में जन्म लेती है, क्यों कि औरों के लिये मैं एक भूल से अधिक कुछ भी नहीं हूँ।
     इधर, कुछ दिनों से मुझमें पुनः वैराग्य का भाव जागृत हो रहा है। मानो वह कह रहा हो, अब मत भटको।
  लेकिन, इस मोहजाल से मुक्ति मुझे किसी आश्रम में जाकर ही मिल सकती है। परंतु गुरु की कृपा बार- बार नहीं होती। मैंने यह अवसर खो दिया है। हर व्यक्ति को उसकी नियति एक अवसर अवश्य देती है ,ताकि लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
   पत्रकारिता में भी मुझे एक अवसर मिला था, जब मैं लखनऊ अथवा दिल्ली जैसे महानगरों में जा अपनी प्रतिभा  परखता। तब मुझे अपने उस अखबार से मोह हो गया था,जिसने मुझे बेरोजगार कहलाने के कलंक से मुक्त किया था।  यह सब उल्लेख मैं इसलिये करता हूँ कि मेरी अनुभूति किसी का मार्गदर्शन कर सके, तो यही मेरा मुक्ति पथ होगा ?

       आज सुबह जब कलयुग में श्रवण कुमार का दर्शन किया, तब संयुक्त परिवार की भी याद हो आई। वह एक - डेढ़ वर्ष जो मुजफ्फरपुर में मैंने बिताया था। मौसा जी चार भाई थें और सभी का काम-धंधा और चूल्हे अलग होने के बावजूद भी संयुक्त परिवार सा ही वातावरण था। मैं हाईस्कूल के बाद अपनी मौसी के यहाँ चला गया था। कितने ढेर सारे बच्चे थें हमलोग वहाँ,  बबलू भैया, पप्पू, गुड़िया, राजेश , अमित, राखी, वंदन, रंजना, गोलू, रिक्की और सोनी और स्वीट , सभी के नाम आज भी मुझे याद है। छत पर हम खूब खेला करते थें । गुड़िया से मेरी अधिक पटती थी। मैं किसी भी मौसी के कमरे में निःसंकोच चला जाया करता था। और मौसी जी के सास- ससुर का भी अच्छा दबदबा था। छठ, होली और दीपावली जैसे पर्व- त्योहार पर तो पूछे ही नहीं कि एक साथ रहने के कारण वे कितने आनंद के दिन थें।
     परंतु पढ़े लिखे सभ्य समाज में  हम पति- पत्नी और हमारे एक या दो बच्चे यह भावना , सयुंक्त परिवार पर भारी पड़ रही है । सो, उसके बिखरते ही  इस छोटे कथित खुशहाल परिवार की संवेदनाओं में  कमी आती जा रही है। ऐसे जेंटलमैनों से मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि सुखी जीवन के इस नये फार्मूले से वह खुशियाँ नहीं मिलेगी, जिससे लगे कि मानव जीवन एक उत्सव है ?
    अन्यथा तो फिर-

मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा ..

        उस स्त्री की तरह जिसे मैं पुरानी अंजही में प्रतिदिन सुबह घर के समीप टहलते देखता हूँ। उसकी उदासी ने उसे समय से पूर्व वृद्धावस्था में ला खड़ा किया है। वह अविवाहित है ।भाई-भाभी और उनके बच्चे सभी हैं, फिर भी मनमीत के बिना जीवन उसका उत्सव पर्व नहीं बन सका है। बिल्कुल गुमशुम रहती है वह।

                         - व्याकुल पथिक