Followers

Friday 19 April 2019

याद आई एक कहानी भूली बिसरी



आम ,टिकोरा और गुरम्मा में छिपा वो स्नेह
*************************

"आम का गुरम्मा बनाएँ न आप , देखें तो बाजार में कच्चा आम आ गया है।"
      बनारस में था तो जैसे ही घर के समीप सब्जी मंडी में आम का टिकोरा दिखता था। घर पर मेरी यह जिद्द शुरु हो जाती थी। भले ही टिकोरा गुरम्मा ( गुड़म्बा ) बनाने के उपयुक्त न हो तब भी।
     माँ, मम्मी और मौसी  तीनों को ही पता था कि मुझे मिठाइयों से भी अधिक प्रिय गुरम्मा लगता है। हाँ,नियति का यह भी एक उपहास है कि उसी गुरम्मा के स्वाद को अब लगभग भूल ही चुका हूँ। अपनी स्मृति को टटोल रहा हूँ , जिह्वा  से पूछ रहा हूँ  कि मित्र याद आया कुछ, उस गुरम्मे की मिठास तो तुझे बहुत पसंद था न ?
   मैं भी न .. इस बेचारे को किस धर्मसंकट में डाल रखा हूँ। घर- परिवार है कहाँ , जो उसे गुरम्मा का स्वाद याद रहे। इसे यही समझाने में पिछले वर्ष से लगा हूँ -

रूखी सूखी खाय कै ठंडा पानी पीव ।
देख पराई चूपरी मत ललचावे जीव  ॥

  और समझता हूँ कि परिस्थितिजन्य कारणों से ऊपर उठ कर मेरी स्वाद इंद्री ने इसे स्वीकार कर ली है । किसी तरह के स्वादिष्ट व्यंजन  की कोई अभिलाषा नहीं है मुझे। दो वक्त की रोटी न हो, तो भी दूध- ब्रेड से काम चल जाता है।

   लेकिन,  टिकोरे पर रचना मांगी गयी, तो यह पाजी मन फिर से बचपन की मधुर स्मृतियों को छेड़ने लगा। टिकोरे से लेकर आम  तक की अनेक दास्तान चेहरे पर क्षणिक मुस्कान के साथ गहरी उदासी ले आयी। वह भूली बिसरी जीवन की कहानी फिर याद हो आई।
    अपनी बात बनारस से ही शुरू कर रहा हूँ , तब हम सभी को घर में घड़े का ठंडा पानी , आम के टिकोरे की चटनी,  गुरम्मा और  पन्ना आदि का सेवन तब तक वर्जित था, जब तक शीतला अष्टमी ( बसौड़ा) का पूजन नहीं हो जाता था। यह पर्व होली के पश्चात पड़ता है। अतः गुरम्मा खाने के लिये मुझे धैर्य रखना पड़ता था। प्रतीक्षा की घड़ी बसौड़ा के दिन जैसे ही समाप्त होती थी, मैं गुलगुले और गुरम्मा पर टूट पड़ता था । इस दिन बासी भोजन की मान्यता है। अतःभोर होने से पूर्व ही  कच्चा- पक्का दोनों ही तरह के विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार हो जाता था।
    शीतला माता , जो की स्वास्थ्य की देवी हैं , के पूजन तब वैज्ञानिक महत्व था,जब आधुनिक स्वास्थ्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं था।  उनके पूजन के लिये  हेतु दो  छोटे -छोटे घड़ों को खूब सुंदर सजाया जाता था। साथ ही उनसे सटाकर दो लोढ़ा भी रखा जाता था।नयी साढ़ी एवं चुंदरी से महिला जैसी दो आकृति तैयार कर हल्दी, सिंदूर , पुष्प सहित अन्य सामग्रियों से इन्हें भी सजाया जाता था। बाद में एक साड़ी मम्मी और दूसरी दादी ले लिया करती थीं। कोलकाता (ननिहाल) से  हम दोनों भाइयों को सोने  की सिकड़ी मिली थी साथ ही शीतला माता की आकृति वाले सोने का लाकेट भी जो लाल डोरे में था। पूजा के बाद जब मैं उसे पहनता था तो खुशी से उछलते हुये कितनी ही बार दरवाजा खोल घर से बाहर जाने का प्रयास करता था। जिसके लिये डांट भी पड़ती थी । अभिभावकों को भय था कि कहीं बाहर इन आभूषणों को कोई छीन न ले मुझसे। जिस दिन हम दोनों भाइयों की और अपनी भी सिकड़ी तुड़वा कर मम्मी ने अपने लिये कंगन बनवा लिये थें, उस दिन मन मेरा कितना उदास था पूछे नहीं, क्यों कि इसमें माँ का प्यार था, यही उनके द्वारा दिया गया आखिरी आभूषण था, परंतु मम्मी की भी अपनी आवश्यकता थी न। यह बात उन दिनों घर पर अपना विद्यालय नहीं खुला था। आर्थिक स्थिति पापा की बहुत अच्छी नहीं थी। एक प्राइवेट स्कूल में वे शिक्षक थें और ट्यूशन पढ़ाया करते थें।
    ऐसे में हम तीनों भाई- बहन को प्रतिदिन आम मिलना कठिन था। सो, छोटे देशी अधपके आम को पापा लाते थें और हम उसे पुआल में रख देते थें। पकने पर बड़े स्वादिष्ट होते थें वे आम।
   हाँ , जब कोलकाता में था, तो आम शुरु से अंत तक प्रतिदिन बाबा भेजा करते थें। बीमार माँ किसी तरह से आधा पराठा और आम के कुछ टुकड़े खा लिया करती थीं। माँ को बहुत पसंद था आम। याद है मुझे अब भी की वहाँ गुलाब खास प्रजाति का आम जैसे ही बाजार में आता था। घर पर उसे आना ही था। लंगड़ा आम से कहीं अधिक हेमसागर आम सभी को पसंद था। बाबा मुझे इसे लगड़े का बाप- दादा कह कर चिढ़ाया करते थें, क्यों कि मैं तो बनारसी लगड़ा आम  का प्रेमी था। यहाँ मीरजापुर में दशहरी आम अधिक पसंद किया जाता है। इसके पश्चात चौसा आम आता है।
   मुजफ्फरपुर में था, तो मौसी जी भी मेरे लिये गुरम्मा बना दिया करती थी। कुछ वर्षों पूर्व जब वे आयी थीं, तो आम का खट्ट मिठा आचार भी लेकर आयी थी। प्यारे ( मेरा उपनाम) के लिये यह उनका विशेष स्नेह रहा।
    खैर, अब गुरम्मा तो नहीं मिलता , लेकिन आम जो उपलब्ध है , उसमें भी मुझे रूचि नहीं है। लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में यह सम्वेदनशील हृदय स्वयं के लिये पाषाण सा बन गया है और जीवन का सारा मिठास नियति के पांव तले कुचलते चला गया।
वह गीत है न-
 एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बरबाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बता मौत से ज़्यादा क्या है
जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
 तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूँ
इतना ज़्यादा है कि एहसाँ से दबा जाता हूँ
मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है
मैने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी
अपनी आँखों से मोहब्बत की तिजारत देखी
ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है...

         मुकेश द्वारा गाये इस गाने को बार- बार सुनने की इच्छा,मानो मेरी कभी समाप्त  ही नहीं होती है।

       लेकिन , इस दर्द से ऊपर अपना पत्रकारिता धर्म है। आमजन से जुड़े मुद्दे को अपनी लेखनी के माध्यम से उठाता रहूँ । हमारा कर्म पथ चाहे कितना भी कठोर हो, समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुये , जब हम अग्निपथ से होकर गुजरेंगे , तभी धर्मपथ की प्राप्ति होगी। इस सृष्टि में जो जीवधारी हैं, उनके प्रति  हृदय में संवेदना हो। यह मानवीय धर्म कायम रहे। नियति से इतनी ही प्रार्थना है ।

   फिर भी जब अपनों के लिये यह मन बावलों की तरह छटपटाहट है,तो उसे याद दिलाना पड़ता है, कुछ इस तरह -

वहाँ कौन है तेरा,मुसाफ़िर, जायेगा कहाँ
दम लेले घड़ी भर, येछैयां, पायेगा कहाँ
बीत गये दिन, प्यार के पलछिन,सपना बनी वो रातें
भूल गये वो, तू भी भुला दे, प्यार की वो मुलाक़ातें
सब दूर अन्धेरा ,मुसाफ़िर जायेगा कहाँ
कोई भी तेरी, राह ने देखे, नैन बिछाए न कोई
दर्द से तेरे, कोई ना तड़पा, आँख किसी की ना रोई
कहे किसको तू मेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ
कहते हैं ज्ञानी,दुनिया है फ़ानी, पानी पे लिखी लिखायी
है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ किसी के न आयी
कुछ तेरा ना मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ..

    स्नेह, अपनत्व एवं समर्पण की भावना से वंचित मनुष्य के नेत्रों में छिपी अश्रुधारा को हंसी- ठिठोली करने वाले भद्रजन कभी नहीं देख सकेंगे । उनकी मित्रता आपके लिए चार दिनों की चांदनी वाली साबित होगी और फिर जब आपको यह आभास होगा कि उनमें आपके प्रति किसी तरह की संवेदना नहीं थी। आप उनके लिए एक मनोरंजन के साधन मात्र थें। तब  जो अंधकार आपके हृदय पर छा जाएगा, वह
रात की इस तन्हाई में और भी भयावह होता जाएगा, कुछ इस तरह-

रौशनी हो न सकी लाख जलाया हमने
तुझको भूला ही नहीं लाख भुलाया हमने
 मैं परेशां हूँ मुझे और परेशां न करो
  किस कदर जल्द किया मुझसे कनारा तुमने
 कोई भटकेगा अकेला ये न सोचा तुमने
 छुप गए हो तो कभी याद ही आया न करो
 मुझ को इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो
 जिसकी आवाज़ रुला दे मुझे वो साज़ न दो
 आवाज़ न दो...

   जीवन में जो खुशियाँ हैं,वह अपने परिवार के सदस्यों संग ही मिलती हैं। अन्यथा आप किसी अन्य की जिम्मेदारी नहीं हैं । गुरम्मा की बात तो छोड़े , कोई आपसे यह भी नहीं पूछेगा कि आज दो वक्त रोटी मिली या नहीं , चाहे आप उससे कितना भी स्नेह करते हो , फिर भी वो गीत है न-

वो औरत है मैं महबूबा
वो सब कुछ है मैं कुछ भी नहीं..।

 शुभ रात्रि,फिर मिलेंगे।

                 - व्याकुल पथिक