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Monday 1 July 2019

रेणु दी..

रेणु दी..
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 " शशि भाई , यदि आप चाहते हैं कि आपकी बात अन्य पाठकों तक पहुँचे, तो आपको अपने ब्लॉग में काफी कुछ सुधार करना पड़ेगा । "
  ...यह रेणु दी ही थीं , जिन्होंने " व्याकुल पथिक " को गत वर्ष सर्व सुलभ बना दिया था। मेल पर भेजे गये उनके संदेश ने आभासीय दुनिया में प्रथम बार मुझे उस पवित्र स्नेह का आभास करवाया जो " बहन- भाई " के मध्य होता है।
   कहना नहीं होगा कि अब जबकि पथिक का ब्लॉग सूना पड़ा है, उसकी लेखनी ठहर गयी है , उसकी चिन्तन शक्ति , उसकी पहचान और उसका आत्म सम्मान सब-कुछ इसी आभासीय दुनिया में नष्ट हो चुका है। ऐसे में उसके हृदय के रिसते हुये घाव पर किसी ने मरहम का फाहा रखने का प्रयास किया है , तो वे श्रीमती रेणुबाला सिंह ही हैं, जिन्हें मैं स्नेह से रेणु दी बुलाया करता हूँ।
    ब्लॉग पर मौजूद इस साहित्यिक जगत में जब भी यह लगता है कि यहाँ निखालिस कुछ भी नहीं है। इस तथाकथित संवेदनशील मंच पर निर्मल अश्रुओं का कोई मोल नहीं है। ऐसे में रेणु दी मेरे लिये वह आदर्श साहित्यकार हैं , जिनके हृदय में कृत्रिमता तनिक भी नहीं है।
  मुझे उनकी रचानाओं, उनकी लेखनी और ब्लॉग जगत में उनकी  विशिष्ट पहचान से कहीं अधिक उनका व्यवहारिक पक्ष पसंद है।अपने अंदर के पत्रकार अथवा बहन के प्रति प्रेम भाव में ऐसा मैं कदापि नहीं कह रहा हूँ । उनमें अनजाने लोगों के प्रति भी जो सहयोग की भावना है, वे उन्हें एक साहित्य प्रेमी से ऊपर मानव की विशिष्ट श्रेणी में ला खड़ा करता है। जो वास्तविक साहित्यकार का श्रृंगार है ।
  मैंने देखा कि उन्होंने निश्छल एवं निस्वार्थ भाव से "शब्द नगरी " , " प्रतिलिपि " और " ब्लॉग " पर कनिष्ठ रचनाकारों का न सिर्फ उत्साहवर्धन किया है, वरन् उनकी कविता एवं लेख की त्रुटियों को भी मधुर संबोधन के साथ सुधारने का कार्य किया है। ऐसा करने में समयाभाव के कारण वे अपनी रचना न लिख पाती हो, फिर भी इस आभासीय जगत के अनजाने लोगों के सहयोग के लिये सदैव तत्पर रहती हैं। जिनमें से एक मैं भी था । यूँ कहूँ तो इस " व्याकुल पथिक " ब्लॉग पर मुझसे कहीं अधिक उनका ही अधिकार बनता है और इस ब्लॉग के सूनेपन से यदि कोई आहत है , तो वे रेणु दी हैं । वे ब्लॉग पर मेरी वापसी चाहती हैं । हाँ ,मीना शर्मा दी भी इसके लिये मेरा उत्साह बढ़ा रही हैं।  परंतु  दुर्भाग्य के प्रहार को बदलने में इस बार असमर्थ-सा हूँ । अस्वस्थता के कारण पुनः आश्रम जीवन संभव नहीं है। अतः एकांतवास ही एकमात्र विकल्प है। इस आभासीय जगत की पाठशाला में मैंने जीवन का वह अंतिम कष्टप्रद अध्याय पढ़ा है । जिसने स्वास्थ्य से कहीं अधिक मेरे उस अपनत्व -भाव पर प्रहार किया है, जिसके लिये मैं आजीवन भटकता- फिसलता रहा। सो, अब यह काया ढांचा मात्रा है। जिसमें स्पंदन नहीं है।यह मेरे हृदय की दुर्बलता रही कि इस आभासीय संसार में वर्षों बाद स्नेह और अपनत्व की भूख पुनः जगा बैठा।
    फिर भी रेणु दी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त किये बिना , इस आभासीय दुनिया से विदाई , उनके ही जैसे उन भद्रजनों का अपमान करना होगा , जिनमें दूसरों के प्रति सहयोग की भावना है।
    रेणु दी के ब्लॉग पर जाने से और उनके द्वारा लिखी श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ने से ,यह आभास होना कठिन है कि यह ऐसी गृहणी के द्वारा लिखा गया लेख अथवा कविताएँ हैं, जो सुबह से रात्रि तक अपने पारिवारिक दायित्वों में व्यस्त रहती हैं और इसके पश्चात भी अपने साहित्य प्रेम के कारण देर रात कम्प्यूटर पर बैठ इस सीमित समयावधि में ही नयी रचनाओं का सृजन करती हैं साथ ही दूसरों की रचानाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भी देती हैं। ऐसे अनेक नये रचनाकार जिनका " कमेंट बाक्स " खाली पड़ा रहता है, उसके उत्साहवर्धन के लिये रेणु दी की प्रथम टिप्पणी उसपर निश्चित ही दिखाई पड़ती है। कभी इन्हीं में से एक मैं भी था।
   
        "  रेणु दी वह संपूर्ण आर्य नारी हैं ,जो साहित्यकार होने से पहले एक कुशल गृहणी हैं । अपने प्रियजनों संग रिश्तों की खुशबू को बरकरार रखने के लिए वे गृहस्थ धर्म का अनवरत निष्ठा पूर्वक पालन करते हुए, रात्रि में साहित्य सृजन के लिए सहर्ष तत्पर रहती हैं । जैसा कि प्रबुद्ध वर्ग के लिए कहा जाता है कि जिस तरह शरीर का खाद्य भोजनीय पदार्थ है, उसी तरह से मस्तिष्क का खाद्य साहित्य है।  सच कहूं तो रेणु दी में वह संवेदना और सहानुभूति है ,जो साहित्य की सृष्टि करती है। "

    परिस्थितिजन्य कारणों से परास्नातक की शिक्षा उन्होंने किसी कालेज जाकर न भी ग्रहण की हो, तब भी उनकी यह डिग्री गांव की बेटी की शिक्षा के प्रति समर्पण और संघर्ष की दास्तान है।
  रेणु दी की कविताओं में प्रकृति, सौंदर्य एवं मानव मन का सम्मिश्रित चित्रण है। हर शब्द बोलता है और व्यर्थ यहाँ कुछ भी नहीं है। वहीं, गद्य की बात करे ,तो उनका हर लेख विषय वस्तु को विस्तार के साथ समाहित किये हुये है। उसमें सम्पूर्णता है और सार्थकता भी।
  ब्लॉग पर रचनाओं की अधिक संख्या एवं पेज व्यूज के पीछे भागने वाले लेखकों के लिये रेणु दी का ब्लॉग " स्पीड ब्रेकर " है। जिस तरह से "गति अवरोधक" असावधान वाहन चालकों को सजग करता है। उसी तरह उनका ब्लॉग भी ऐसे लेखकों को सावधान करता है कि वे जरा ठहर कर अपनी रचनाओं की स्वयं समीक्षा करे ।
   स्वयं अपने कार्यों का मूल्यांकन करना ही  मनुष्य के लिये सफलता की दिशा में बढ़ता वह पहला कदम है , जो उसे शीर्ष पर ले जा सकता है। आत्मावलोकन कर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण  रखा जा सकता है।
  रेणु दी ऐसी ही रचनाकार हैं , जिन्हें यह पता है कि गृहस्थ धर्म ही उनकी प्राथमिकता है। सो, वे अपने कवि हृदय को अपने पारिवारिक दायित्व पर बोझ बनने नहीं देती हैं। जो एक कुशल गृहिणी का प्रथम कर्तव्य है।
     आज जब ब्लॉग जगत से दूर विकल हृदय लिये एकांतवास पर हूँ। मानसिक तनाव एवं अस्वस्थता के कारण " नेत्रों की ज्योति " बुझने को है। न्यूरो सर्जन के माध्यम से उचित उपचार होने तक ऐसे में लिखने- पढ़ने में असमर्थ रहूँगा। फिर भी प्रयत्न कर  रेणु दी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये इन चंद शब्दों को लिख सका हूँ । साहित्यकार तो मैं हूँ नहीं ,अतः मेरी यह धृष्टता वे अवश्य क्षमा कर देंगी, ऐसा मुझे विश्वास है।
   
              -व्याकुल पथिक
                20 जून 2019