Followers

Saturday 2 February 2019

तेरी याद दिलाएगा...



तेरी याद दिलाएगा...
****************

जब-जब चन्दा आयेगा
तेरी याद दिलायेगा
सारी रात जगायेगा
मैं रो कर रह जाऊँगी
दिल जब ज़िद पर आयेगा
दिल को कौन मनायेगा..

   यादों की ऐसी पीड़ा भी विचित्र होती है। कोई सांत्वना  काम नहीं देती है। भले ही वक्त ने जख्म को भर दिये हो।
फिर भी कभी- कभी खाली पड़ा यह लंचबॉक्स बचपन के उस टिफिन बाक्स की याद दिला देता है , जिसमें किसी माँ का स्नेह था, किसी मासूम का अरमान था और कितने ही मनपसंद व्यंजन थें उस बालक के , जिसे खोने के बाद टिफिन तो अनेक मिले ,परंतु किसमें स्नेह था और किसमें छल, नहीं समझ सका वह पथिक। जब भी कभी क्षुधा की अग्नि भड़की या मन ने ज़िद ही कर दिया कि आज तो यह चाहिए, उसे डांट पड़नी निश्चित है, क्यों कि विवेक उस पर अपना वर्चस्व चाहता है। भले ही जागते रहे वह सारी रात , मनाने फिर कोई नहीं आएगा उसकी इस पुकार पर- 

होंठ पे लिये हुए दिल की बात हम
जागते रहेंगे और कितनी रात हम
मुक़्तसर सी बात है तुम से प्यार है
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो..

  कोलकाता  में जब वह माँ (नानी) के पास रहता था। वह टिफिन  बाक्स आज भी उसे याद है और एक लंच बाक्स यहाँ भी है, जो वर्षों से खाली पड़ा है। पिछले एक माह से देर शाम भोजन का पैकेट लेने वह होटल से सांईं मेडिकल तक जाता है। अब यही मोटे कागज का पैकेट ही उसका डिनर बाक्स है । इस भोजन के डिब्बे के रंगरूप बदलने के साथ उसका प्रेम भी बदलता गया।
   जिस टिफिन बाक्स से पथिक का स्नेह जुड़ा था। उसी को किसी ने अपने स्वाभिमान के लिये , तो किसी ने अपने स्वार्थ के लिये पांव तले रौंद दिया। स्नेह का बंधन टूट गया, फिर भी यादों की जंजीरों से वह जकड़ा रहा ।
   अब भी याद है उसे जब वह मात्र पांच वर्ष का था, तो टिफिन बाक्स में  बड़े प्यार व दुलार से अंगूर , काजू की बर्फी और उसके पसंद के व्यंजन मिलते थें।
  परंतु नानी माँ का यही स्नेह उसकी जीवन यात्रा पर एक दिन भारी पड़ा। उस दिन जिसका रक्त था वह , उसी ने यह टिफिन बाक्स देख लिया। समानता का प्रश्न उठा उस बालक को बनारस ले आया गया। कोलकाता के प्रमुख अंग्रेजी माध्यम स्कूल की जगह उसे काशी के हिन्दी माध्यम विद्यालय में दाखिला दिलाया गया। स्कूल की बस की जगह नन्हे पांवों से डेढ़-दो किलोमीटर दूर विद्यालय जाना पड़ा प्रतिदिन ।
      अब जो टिफिन बाक्स था उसके पास, उसमें रोटी-पराठे और टमाटर हुआ करता था। शिशु कक्षा से उसे सीधे दर्जा दो का विद्यार्थी बना दिया गया। अंगूर की जगह टमाटर से उसका मन बहलाने के लिये उसके गुरु जी तब कहा करते थें-

"लाल- लाल है पके टमाटर, खाकर देखों कितने अच्छे।"

    फिर वह कुछ बड़ा हुआ तो कोलकाता में माँ के आंचल का पुनः छांव मिला। फिर से टिफिन में राजभोग और महंगे फलों को स्थान मिला। वर्ष 1982 में ,वह आखिरी दीपावली थी उसकी , जिसे माँ के साथ मनाया था उसने,  वह स्नेहिल छांव कुछ दिनों बाद हमेशा के लिये छीन गया उससे।  वापस बनारस के लिये टिकट कट गया उसका । जाते समय उस बालक को बताया गया था कि वह काशी विद्याध्ययन के लिये जा रहा है ,वापस घर कोलकाता लौट कर आना है। उसके बाबा (नाना) उसे हर माह मनिआर्डर किया करेंगे । सो, टिफिन बाक्स की जगह उसे प्रतिदिन इतना जेबखर्च मिल जाता था कि स्कूल में लंच के समय बाहर जा छोला भटूरा अथवा इटली डोसा खा सकता था। कुछ दिनों बाद वहाँ फिर से समानता की बात उठी। यह प्रश्न किया गया कि एक ही लड़के को मनिआर्डर क्यों आएगा। तो वह जेबखर्च भी चला गया। दुखी मन से बाबा ने मनिआर्डर करना बंद कर दिया।
   फिर कभी टिफिन बाक्स न मिला उसे छात्र जीवन में। हाँ निठल्ला कहलाने का दर्द अवश्य मिला। उसने एक विद्यालय में नौकरी कर ली । अपने घर का स्कूल हो कर भी औरों के यहाँ शरण ली। जब वेतन मिला तो पहला कार्य उसने अपने सहपाठी के प्रतिष्ठा से स्टील का टिफिन बाक्स खरीदने का ही किया। स्नेह और भोजन की तलाश में आश्रम पहुँचा , तो इसी टिफिन बाक्स में आश्रम से भोजन घर पर लाया करता था। फिर बाद में जब वहीं रहने लगा तब टिफिन बाक्स
फिर से खाली हो गया।
         हाँ ,याद है उसे यह भी कि मुजफ्फरपुर एक टिफिन बाक्स मौसी भी दिया करती थी ,जब काम पर जाता था। वे सुबह उठ कर उसके पसंद की उबली सब्जी बना दिया करती थीं ।   कलिम्पोंग में था,तो एक टिफिन बाक्स वहाँ छोटी नानी जी भेजा करती थीं, छोटे नाना जी के मिष्ठान के प्रतिष्ठान पर , उसमें माँ जैसा स्नेह तलाशता था , वह नादान । उसकी उदासी देख पड़ोस की एक आंटी जो महाराष्ट्र की थीं, रात्रि में उस टिफिन को उससे ले लिया करती थीं और अपने यहाँ बना स्वादिष्ट एवं गर्मागरम व्यंजन उसके लिये परोसा करती थीं। आज उन्हें नमन करने की इच्छा हो रही है पथिक को, परंतु बीता हुआ समय कहाँ वापस लौटता है ? सिर्फ यादें ही संग रहती हैं। यह बात भी तो तीन दशक पुरानी है। आंटी शाकाहारी थीं और अंकल जी जो कश्मीरी ब्राह्मण रहें , उन्हें नानवेज बहुत पसंद था। पति परमेश्वर के लिये वे उसे बनाती थीं। दूसरी पत्नी थी उनकी, विवाह इस शर्त पर हुआ था कि दिवंगत प्रथम पत्नी के बच्चों की माँ बन कर ही रहेंगी। स्त्रियों में त्याग की भावना का प्रत्यक्ष दर्शन उनमें मुझे हुआ। फिर भी यदि कोई सौतेली माँ कहे तो..?
    कोलकाता, बनारस , मुजफ्फरपुर, कलिम्पोंग से होते हुये टिफिन बाक्स की कहानी उसकी मीरजापुर में भी जारी रही। लेकिन एक दर्द, एक चुभन , एक परायापन और एक चिन्तन के साथ उसका भी पटाक्षेप हो गया। अब टिफिन बाक्स खाली है । पथिक को प्रतीक्षा है कि आहत हृदय उसका , उसी प्रकार से खाली डब्बा हो जाए। न उसकी याद रहे और न ही कोई आकांक्षा। हृदय का रूदन मौन हो जाए और वह स्थितिप्रज्ञ हो जाए।
    क्यों कि दिल की ज़िद कुछ ऐसी होती है कि जब भी यादें मचलती हैं। तन्हाई में वो अपनों को ढ़ूंढती है । रात आँखों में  कटती है और दिन का उजाला उसे याद दिलाता है-
   
तेरा ग़म तेरी ख़ुशी
मेरा ग़म मेरी ख़ुशी
तुझसे ही थी ज़िन्दगी
हँस कर हमने था कहा
जीवन भर का साथ है
ये कल ही की बात है..