नौकरानी
********
समीप के देवी मंदिर में कोलाहल मचा हुआ था। मुहल्ले की सुहागिन महिलाएँ पौ फटते ही पूजा का थाल सजाये घरों से निकल पड़ी थीं। उनके पीछे- पीछे बच्चे भी दौड़ पड़े थे।
उधर,आकाँक्षा इन सबसे से अंजान सिर झुकाए नित्य की तरह घर के बाहर गली में मार्निंग वॉक कर रही थी । वह भूल चुकी थी कि तीज-त्योहार भी कुछ होता है। फ़िर ऐसे पर्व पर स्त्रीयोचित श्रृँगार कर दर्शन-पूजन उसके लिए बेमानी है । कौन-सी खुशी मिली है उसे , अपने इस निर्रथक जीवन से। स्त्री होकर भी वह पत्नीत्व, मातृत्व एवं गृहिणीत्व से वंचित है। सो, जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे मन को बाँधने केलिए कुछ बुदबुदाती रहती है। मानों ईश्वर से मोक्ष की प्रार्थना करती हो। तभी सज-धज कर मंदिर को निकली माधुरी से उसकी नज़र टकराती है।
" अरे आकाँक्षा ! तू दिनोदिन इतनी दुर्बल क्यों होती जा रही है। बीमार थी क्या रे ! और मंदिर नहीं जाना है तुझे ? पता है न आज शीतलाष्टमी है। "
- एकसाथ इतने सारे सवाल कर माधुरी ने अंजाने में ही सही , उसके कभी न भरने वाले ज़ख्म पर नश्तर रख दिया था ।
वह फ़िर से अपने सुनहरे अतीत और उपेक्षित वर्तमान में डूब जाती है। हाँ,वह माँ-बाप की 'आकाँक्षा' ही तो थी । वे उसे ऐसा गुणी और संस्कारवान लड़की बनाना चाहते थे ,जो मायके और ससुराल दोनों का मान बढ़ाए, इसीलिए भाइयों की लाडली चीनी गुड़िया से ऊपर उठकर उसने स्वयं को सर्वगुणसंपन्न युवती बना लिया था। किंतु नियति का तमाशा भी विचित्र होता है। अतः उसके हाथ पीला करने का स्वप्न संजोए पहले पिता और फ़िर उनके ग़म में माँ भी साथ छोड़ गयी। भाइयों ने अपना घर बसा लिया ,पर वह कुँवारी ही रह गयी।
रिश्ते तो कई आए थे, लेकिन भाभी दाँव खेल गयी। वही तो एक थी घर में जो झाड़ू-पोंछा से लेकर उनके बच्चों को स्कूल पहुँचाने तक का सारा काम करती थी। चीनी गुड़िया से रोबोट बन गयी थी आकाँक्षा, तब रिश्तों के पीछे छिपे स्वार्थ को वह कहाँ पढ़ पायी थी। दो जून की रोटी और दो जोड़े कपड़े में उसने स्वयं को सीमित कर लिया था। विवाह-भोज आदि विशेष अवसरों पर जब परिवार के सभी सदस्य घर के बाहर होते , तो वह अकेले ही बंगले की रखवाली किया करती। एक अकेली स्त्री इतने बड़े मकान में किस तरह से रहेगी , इसकी तनिक भी चिंता उसके भाई- भाभियों को नहीं थी। यह जानकर भी अंजान बनी आकाँक्षा , बच्चों ने बुआ जी कहा नहीं कि अपनी सारी ममता उनपर लुटा दिया करती थी । ये तीनों बच्चे ही उसकी अपनी दुनिया थी।
आज वे ही बच्चे बड़े हो गये हैं तो उने उनके व्यवहार में यकायक कितना परिवर्तन आ गया है ! किसी कार्य केलिए वे उससे अनुरोध नहीं वरन् आदेश दिया करते हैं। कल ही सोनू ने उसकी भावनाओं की अनदेखी कर कितने रूखे अंदाज़ में मटन बनाने को कहा था , जबकि उसने मांसाहार त्याग दिया है। वह अपनी माँ से भी कह सकता था। बुआ क्या उसकी नौकरानी है ?
यह सोचते हुये नम हो चुकी आँखों को एक बार पुनः अपने दुपट्टे से साफ़ करती है वह..।
इस परिवार की खुशी केलिए उसने क्या नहीं किया। आँखें खुलते ही पहले बच्चों केलिए फ़िर भाइयों केलिए ब्रेकफॉस्ट और टिफिन की व्यवस्था की जिम्मेदारी उसी की थी और दिन चढ़ते ही भाभियों के इशारे पर किचन में नाचती रहती।
आकाँक्षा को आज भी याद है कि तृप्त उसे कितना पसंद करता था, किंतु घर की इज्ज़त केलिए भाग कर उसने अंतर्जातीय विवाह नहीं किया। वह भाभियों की चालबाज़ी को सहती रही। अपने मन को उनके बच्चों के साथ बाँध लिया था। जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों को एक समान कर लिया था।
जब भी उसकी सहेलियाँ मायके आती । वे उसे अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के वर्णन के साथ ही उसके भाई-भाभियों की चतुराई से सावधान करना नहीं भूलती थीं, किंतु आकाँक्षा उनके समक्ष कभी दार्शनिकों -सा बात करने लगती, तो कभी विदूषकों-सा रंग बदल अपने ग़म को छिपा लेती थी।
लेकिन, आज सखी मालती का इस उम्र में भी निखरा हुआ रूप और कल सोनू का कठोर व्यवहार देख वह टूट चुकी थी। उसकी आँखें छलछला उठीं । हर दुःख को अपने भीतर समेट लेने वाली आकाँक्षा अब अपने मन को बिल्कुल नहीं बांध पा रही थी। उसका विकल हृदय सवाल कर रहा था - " बताओ आकाँक्षा , इस परिवार में बहन, ननद अथवा बुआ जैसा सम्मान क्या सचमुच तुम्हें मिल रहा है ? यहाँ तुम्हारी अपनी भी कोई खुशी है? तुम्हारे श्रम बिंदु क्या कभी इस घर में मुसकाये हैं ? बोलो आकाँक्षा बोलो इस मरघट में क्या कहीं तुम्हारा भी ख़ुद का कोई रेशमी महल है ? क्या तुम्हारी कोई आकाँक्षा नहीं है ? क्या तुम अपने ही घर में एक नौकरानी नहीं हो ? "
" बस- बस , अब कुछ न बोलो निर्दयी ! " -चींख उठी थी आकाँक्षा।
जिस घर में उसने जीवन के पचास वर्ष गुजारे, वह अपना नहीं है । यहाँ खून के रिश्ते में कितना स्वार्थ छिपा है, इस सत्य को वह और नहीं नकार सकती थी । उसे यह बोध हो गया था कि उसके दुर्बल शरीर पर जिस दिन बुढ़ापे का जंग चढ़ जाएगा , दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाएगी। यहाँ निखालिस ख़ालिस कुछ भी नहीं है। अपनो का यह रिश्ता भी नहीं। वह तो स़िर्फ एक सेविका है सेविका !!
" काश ! मैं तुम्हारी बात मान लेती तृप्त , तो आज मैं गृहस्वामी होती, अर्धांगिनी होती और जननी भी होती..।"
- जीवन रस से अतृप्त रह गयी आकाँक्षा फूट-फूट कर रो पड़ी थी ।
- व्याकुल पथिक
********
समीप के देवी मंदिर में कोलाहल मचा हुआ था। मुहल्ले की सुहागिन महिलाएँ पौ फटते ही पूजा का थाल सजाये घरों से निकल पड़ी थीं। उनके पीछे- पीछे बच्चे भी दौड़ पड़े थे।
उधर,आकाँक्षा इन सबसे से अंजान सिर झुकाए नित्य की तरह घर के बाहर गली में मार्निंग वॉक कर रही थी । वह भूल चुकी थी कि तीज-त्योहार भी कुछ होता है। फ़िर ऐसे पर्व पर स्त्रीयोचित श्रृँगार कर दर्शन-पूजन उसके लिए बेमानी है । कौन-सी खुशी मिली है उसे , अपने इस निर्रथक जीवन से। स्त्री होकर भी वह पत्नीत्व, मातृत्व एवं गृहिणीत्व से वंचित है। सो, जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे मन को बाँधने केलिए कुछ बुदबुदाती रहती है। मानों ईश्वर से मोक्ष की प्रार्थना करती हो। तभी सज-धज कर मंदिर को निकली माधुरी से उसकी नज़र टकराती है।
" अरे आकाँक्षा ! तू दिनोदिन इतनी दुर्बल क्यों होती जा रही है। बीमार थी क्या रे ! और मंदिर नहीं जाना है तुझे ? पता है न आज शीतलाष्टमी है। "
- एकसाथ इतने सारे सवाल कर माधुरी ने अंजाने में ही सही , उसके कभी न भरने वाले ज़ख्म पर नश्तर रख दिया था ।
वह फ़िर से अपने सुनहरे अतीत और उपेक्षित वर्तमान में डूब जाती है। हाँ,वह माँ-बाप की 'आकाँक्षा' ही तो थी । वे उसे ऐसा गुणी और संस्कारवान लड़की बनाना चाहते थे ,जो मायके और ससुराल दोनों का मान बढ़ाए, इसीलिए भाइयों की लाडली चीनी गुड़िया से ऊपर उठकर उसने स्वयं को सर्वगुणसंपन्न युवती बना लिया था। किंतु नियति का तमाशा भी विचित्र होता है। अतः उसके हाथ पीला करने का स्वप्न संजोए पहले पिता और फ़िर उनके ग़म में माँ भी साथ छोड़ गयी। भाइयों ने अपना घर बसा लिया ,पर वह कुँवारी ही रह गयी।
रिश्ते तो कई आए थे, लेकिन भाभी दाँव खेल गयी। वही तो एक थी घर में जो झाड़ू-पोंछा से लेकर उनके बच्चों को स्कूल पहुँचाने तक का सारा काम करती थी। चीनी गुड़िया से रोबोट बन गयी थी आकाँक्षा, तब रिश्तों के पीछे छिपे स्वार्थ को वह कहाँ पढ़ पायी थी। दो जून की रोटी और दो जोड़े कपड़े में उसने स्वयं को सीमित कर लिया था। विवाह-भोज आदि विशेष अवसरों पर जब परिवार के सभी सदस्य घर के बाहर होते , तो वह अकेले ही बंगले की रखवाली किया करती। एक अकेली स्त्री इतने बड़े मकान में किस तरह से रहेगी , इसकी तनिक भी चिंता उसके भाई- भाभियों को नहीं थी। यह जानकर भी अंजान बनी आकाँक्षा , बच्चों ने बुआ जी कहा नहीं कि अपनी सारी ममता उनपर लुटा दिया करती थी । ये तीनों बच्चे ही उसकी अपनी दुनिया थी।
आज वे ही बच्चे बड़े हो गये हैं तो उने उनके व्यवहार में यकायक कितना परिवर्तन आ गया है ! किसी कार्य केलिए वे उससे अनुरोध नहीं वरन् आदेश दिया करते हैं। कल ही सोनू ने उसकी भावनाओं की अनदेखी कर कितने रूखे अंदाज़ में मटन बनाने को कहा था , जबकि उसने मांसाहार त्याग दिया है। वह अपनी माँ से भी कह सकता था। बुआ क्या उसकी नौकरानी है ?
यह सोचते हुये नम हो चुकी आँखों को एक बार पुनः अपने दुपट्टे से साफ़ करती है वह..।
इस परिवार की खुशी केलिए उसने क्या नहीं किया। आँखें खुलते ही पहले बच्चों केलिए फ़िर भाइयों केलिए ब्रेकफॉस्ट और टिफिन की व्यवस्था की जिम्मेदारी उसी की थी और दिन चढ़ते ही भाभियों के इशारे पर किचन में नाचती रहती।
आकाँक्षा को आज भी याद है कि तृप्त उसे कितना पसंद करता था, किंतु घर की इज्ज़त केलिए भाग कर उसने अंतर्जातीय विवाह नहीं किया। वह भाभियों की चालबाज़ी को सहती रही। अपने मन को उनके बच्चों के साथ बाँध लिया था। जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों को एक समान कर लिया था।
जब भी उसकी सहेलियाँ मायके आती । वे उसे अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के वर्णन के साथ ही उसके भाई-भाभियों की चतुराई से सावधान करना नहीं भूलती थीं, किंतु आकाँक्षा उनके समक्ष कभी दार्शनिकों -सा बात करने लगती, तो कभी विदूषकों-सा रंग बदल अपने ग़म को छिपा लेती थी।
लेकिन, आज सखी मालती का इस उम्र में भी निखरा हुआ रूप और कल सोनू का कठोर व्यवहार देख वह टूट चुकी थी। उसकी आँखें छलछला उठीं । हर दुःख को अपने भीतर समेट लेने वाली आकाँक्षा अब अपने मन को बिल्कुल नहीं बांध पा रही थी। उसका विकल हृदय सवाल कर रहा था - " बताओ आकाँक्षा , इस परिवार में बहन, ननद अथवा बुआ जैसा सम्मान क्या सचमुच तुम्हें मिल रहा है ? यहाँ तुम्हारी अपनी भी कोई खुशी है? तुम्हारे श्रम बिंदु क्या कभी इस घर में मुसकाये हैं ? बोलो आकाँक्षा बोलो इस मरघट में क्या कहीं तुम्हारा भी ख़ुद का कोई रेशमी महल है ? क्या तुम्हारी कोई आकाँक्षा नहीं है ? क्या तुम अपने ही घर में एक नौकरानी नहीं हो ? "
" बस- बस , अब कुछ न बोलो निर्दयी ! " -चींख उठी थी आकाँक्षा।
जिस घर में उसने जीवन के पचास वर्ष गुजारे, वह अपना नहीं है । यहाँ खून के रिश्ते में कितना स्वार्थ छिपा है, इस सत्य को वह और नहीं नकार सकती थी । उसे यह बोध हो गया था कि उसके दुर्बल शरीर पर जिस दिन बुढ़ापे का जंग चढ़ जाएगा , दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाएगी। यहाँ निखालिस ख़ालिस कुछ भी नहीं है। अपनो का यह रिश्ता भी नहीं। वह तो स़िर्फ एक सेविका है सेविका !!
" काश ! मैं तुम्हारी बात मान लेती तृप्त , तो आज मैं गृहस्वामी होती, अर्धांगिनी होती और जननी भी होती..।"
- जीवन रस से अतृप्त रह गयी आकाँक्षा फूट-फूट कर रो पड़ी थी ।
- व्याकुल पथिक
मार्मिक कहानी ,मैं तो अपनी बिल्डिंग में ही एक आकांक्षा को देख रही हूँ उसकी तो माँ ने स्वार्थवश उसका घर नहीं बसाया ,क्यों कि उनको बेटा नहीं सिर्फ एक बेटी हैं जिसे उसने अपने सेवा में लगा रखा हैं ममता भी आज स्वार्थी हो गई हैं ,सादर नमन शशि जी
ReplyDeleteमार्मिक कहानी जो भावों को झकझोर देती है 👌👌
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार,
Deleteमैं जिस दौर से गुजरा हूँ, मेरे आसपास के पात्र भी ऐसे ही हैं।
फ़िर मैं अकेला कहाँ ?
प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार।
मार्मिक
Deleteजी बिल्कुल ,
ReplyDeleteउचित कहा आपने कामिनी जी।
यह दुनिया ऐसी है कि कौन अपना कौन पराया,इसकी अनुभूति तो ठोकर खाने के पश्चात ही होता है।
सुन्दर
ReplyDeleteजी आभार भाई साहब।
Deleteसुन्दर मार्मिक कथा शशि जी । आकांक्षा जैसे पात्र लगभग हर गली-मुहल्ले में हैं । ऐसे पात्र जो अपना सर्वस्त्र त्याग कर परिवार को सम्भालते हैं उसे आगे बढ़ाते हैं उसी परिवार के सदस्यों के द्वारा वो भूला दिये जाते हैं और ऐसा हमारे समाज के उच्च-मध्यम वर्गीय परिवारों में ज्यादा देखने को मिलता है ।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया , ऐसे ही एक पात्र का चयन किया हूँ
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteहृदय विदारक कथा है मित्र। परिवार का मतलब होता है उत्तरदायित्व का निर्वहन। इसमें त्याग भी होता है और समर्पण भी होता है। तभी जाकर परिवार अपनी मंज़िल को प्राप्त करता है। स्त्री हो या पुरुष, सभी का समय से विवाह आवश्यक है। हर किसी को एक जीवन साथी मिलना चाहिए। जीवनसाथी के लिए माता-पिता भाई-बहन और परिवार के अन्य सदस्यों की ज़िम्मेदारी बनती है। निजी स्वार्थों की बलिवेदी पर किसी को चढ़ाया नहीं जाना चाहिए। हमारी छह बहनें हुआ करती थीं। उनमें से चार बहनें मुझसे छोटी थीं। विवाह की बहुत चिंता थी। तमाम व्यक्तिगत क्षति उठाते हुए, उन सभी के विवाह कराने में सफल हुआ। इस कार्य में आर्थिक सहायता मेरे छोटे भाई से मिली। बाद में मेरे भाई का भी विवाह संपन्न हो गया। मेरे छोटे भाई के ढेर सारे सच्चे मित्र प्रत्येक आयोजन में मेरी बहनों के भाई बनकर बड़े मनोयोग से शरीक हुए। प्रत्येक के विवाह में विलंब होने की क़ीमत भी हमने चुकाई। कई साल हमने दौड़-धूप में गुज़ार दिए। खट्टे-मीठे अनुभव हुए। काफी कुछ मैंने खो दिया, लेकिन मुझे संतोष है। अब मेरे एकाकी हिस्से में बच्चों की ज़िम्मेदारी है। जीना इसी का नाम है। बहुत ही सुंदर लेखन मित्र। 🙏
ReplyDeleteबिल्कुल आपने उचित कहा, कोई तो एक होना ही चाहिए जो उसे समझ सके।
Deleteसंकटकाल में, अवसाद में और जब यौवन ढलने लगे तब सहयोग के लिए अनिल भैया।
आप स्वयं भले ही कष्ट में हैं, परंतु आपको आत्मसंतोष तो है कि आपने अपने दायित्वों का निर्वहन सही प्रकार किया।
Deleteमेरी शुभकामनाएँँ आपके साथ है।
अत्यंत मार्मिक चित्रण, एकाकी जीवन की कीमत वसूलते लोग। ज्योत्सना मिश्रा
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार भाई साहब।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०४-०४-२०२०) को "पोशाक का फेर "( चर्चा अंक-३६६१ ) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
आपका अत्यंत आभार अनीता बहन।
Deleteदिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteआपका आभार ज्योति दी🙏
Deleteआपकी रचना प्रेमचंद की याद दिलाती है।एक आध आँशु तो निकलते ही है।आपने रचना काफी हद तक मनुष्य के चरित्र को उजागर करती है।स्वार्थ में मनुष्य इतना लोभी हो जाता है कि उसे अपने कर्मो का बोध नही राह जाता है। ।। आपको हृदय से प्रणाम भैया।
Deleteनये ब्लॉगर के रूप में आपका स्वागत है मनीष खत्री जी।
ReplyDeleteप्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार।
🙏
ReplyDeleteव्याकुल पथिक स्तंम्भ अक्सर मन को व्यथित कर सच्चाई से रूबरू कराता है,आप और आपकी लेखनी को प्रणाम-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प."भागीरथी"
ReplyDeleteएकाकी जीवन की मार्मिक कथा !!बहुत खूब शशि भाई ।
ReplyDeleteजी शुभा दी, आभार ।
Deleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब कहानी
ReplyDeleteआजकल ऐसे स्वार्थी रिश्तों की तादाद बढ़ती जा रही है सच्चाई और ईमानदारी का कोई मोल ही न रहा।
जी सुधा दी , आपकी प्रतिक्रिया सदैव मुझे कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित करती रहती है।🙏
Deleteशशि भाई , नारी जीवन का एक दुखद पहलु आपकी लेखनी में समा गया आज | मेरे मुहल्ले में भी एक आंकाक्षा है जिसे मैं पिछले 23 सालों से युवा से प्रौढ़ होते देख रही हूँ |कहीं ना कहीं माता पिता की दूरदर्शिता की कमी और दुसरे लोगों का स्वार्थ ऐसी परिस्थितियों को जन्म देता है | हमारा समाज भी लड़की में अपने जीवन के निर्णय लेने की क्षमता को समाप्त कर देता है | एक सुसंस्कारी लड़की वही मानी जाती है जो कठपुतली सी नाचती परिवार के कर्तव्यों पर बलि होती रहे | आज यूँ स्थितियां बदल भी रही हैं फिर भी लडकियों का जीवन अक्सर परिवार के ही ऊपर निर्भर रहता है | मार्मिक कथाचित्र के लिए हार्दिक शुभकामनाएं आपको | लेखनी का ये सौन्दर्य यूँ ही निखरता रहे | सस्नेह --
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार रेणु दी। पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण अनेक ऐसे पात्र मिलते हैं।
Deleteजिनका सबकुछ पीछे छूट गया ,वह एकाकी जीवन से कितनी उम्मीद करे, परंतु उसे यह भी समझना चाहिए की ग़ैरों को अपना समझने की भूल कभी न करे, नहीं तो एक और ठोकर खाएगा।
🙏 🌹
ReplyDeleteनमस्ते सर
ReplyDeleteअति सुंदर सर जी 🙏 🌹
अतिसुन्दर
ReplyDeleteजी आभार
DeleteBahut hi achi Salah derahe hai. People should follow the advice.
ReplyDeleteBahut Bahut Dhanyabad Shashi ji
Rajkumar Tandon
General Secretary of All India khatri Mahasabha.
लोग दहेज व अपने स्वार्थ के चलते न जाने कितने लड़कियों को बिना बिबाह किये बिधवा की तरह जीवन गुजारने के लिए मजबूर करते है ,ऐसे कई परिवारों के घरों में ऐसा मैंने देखा है मन द्रवित हो जाता है ,अपने किंचित लाभ के लिए दूसरे स्त्री का स्त्रीत्व नष्ट करना कहाँ का न्याय है , आज भी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाती अधेड़ उम्र की लड़कियों को देखिए कैसे वह अपनी घर की गाड़ी का बोझ अपने कंधों पर उठाए चल रही है वही कितने कामातुर पुरुषो या उनके लिए नपुंसको शब्द उचित होगा , राह चलते फब्तियां कसते है वही स्कूल के मालिक भी अपनी अतृप्त कामवासनाओ को शांत करने का साधन समझते है । कभी ध्यान से देखिए उनकी बेबस आंखों को जिनमे अब कोई स्वप्न नही दिखाई देते । न जाने कब ये सभी अदृश्य देवदासियों में परिवर्तित हो चुकी है केवल बचा है तो चमकती साड़ियों में लिपटा बेबसी की लाश , निशब्द , असहाय जिसे श्मशान घाट पर भी खुद अपने कंधों पर जाना है ....
ReplyDeleteअखिलेश मिश्र" बागी " मीरजापुर
🙏 🌹
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कथा शशि भाई
ReplyDeleteबहुत मार्मिक स्टोरी
ReplyDeleteशशि भाई आपकी लेखनी को प्रणाम।
- अरविंद त्रिपाठी , पत्रकार।
******
बहुत ही सुंदर रचना लिखी सर् जी आपने
- प्रवीण जी, चुनार।
******
✍✍🙏 रिश्ते के ऊपर आपका लेख बहुत बेहतरीन रहा💐👌👌👌🙏
-रतन कुमार , जादूगर
****
अंदर से सभी को भी यह कहानी झकझोर देती होगी।वाह शशि।
-देवेंद्र पांडेय, पत्रकार।
शशि भाई रिश्तों में छुपी चालाकियोऔ का बहुत सुंदर वर्णन .
ReplyDelete- आनंद सिंह पटेल,अपना दल एस
*****
Bahut akshia likha n bhai shashi firoz
****
बहुत सुंदर भैया आपके कलम का जबाब नहीं।
-जे पी यादव