लिप्सा
( जीवन की पाठशाला से )
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धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा..
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सुबह के पाँच बज रहे थे। बूँदाबादी ने ठंड को फिर से जकड़ लिया था , जो लोग चौराहे पर दिखे भी, वे बुझ रहे अलाव के इर्द-गिर्द गठरीनुमा बने बैठे मिले।
ऐसे खराब मौसम से बेपरवाह दुखीराम अपनी उसी पुरानी साइकिल से नगर भ्रमण पर निकल पड़ता है। यह उसकी नियमित दिनचर्या है।
बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद भी वह क्यों ऐसा करता है ?
पापी पेट केलिए अथवा पैसे की वही इंसानी भूख ..?
बंधु ! किसके लिए.. ?
आज यह प्रश्न पुनः सिर उठाए उसके हृदय को रौंद रहा था। स्नेह की दुनिया में उस आखिरी चोट के बाद किसी से वार्तालाप , हँसी- ठिठोली में उसे तनिक भी रुचि नहीं रही ,फिरभी स्वयं को कमरे में बंद कर बुत बने रहना, विकल्प तो नहीं है ? खैर,अबतो वह इस आकांक्षा से मुक्त है। दुखीराम स्वयं से वार्तालाप कर ही रहा था कि एक वृद्ध महिला के करुण क्रंदन-
" ए हमार भइया ! तनिक उठ जाते भइया !!"
से उसका ध्यान भंग होता है।
" अरे ! ये क्या ? "
उस जाने-पहचाने से घर के करीब पहुँचते ही वह हतप्रभ रह जाता है ।
" अपना दीनबंधु अब नहीं रहा ! कैसे हो गया यहसब ? "
दुखीराम , अपने दिमाग पर फिर से जोर डालता है कि कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा है।
अभी पिछले दिनों ही तो मुख्यालय पर दुआ- सलाम हुई थी उससे !
हाथों में रत्नों की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ, गले में सोने की मोटी सिकड़ी और वह विदेशी चश्मा, किसी बड़े अफसर से कम नहीं दिखता था दीनबंधु ।
सदैव की तरह उस दिन भी वह हाय -हेलो करते हुये किसी उच्चाधिकारी के कक्ष में जा घुसा था । इससे अधिक किसी गैर व्यवसायी से कुछ और बात करने की उसे फुर्सत कहाँ थी ।मानों एक-एक मिनट की कीमत रूपये में होती हो उसकी !
दुखीराम केलिए इतना प्रयाप्त था कि दीनबंधु उसे देख अदब से हाथ ऊपर कर लेता था , अन्यथा ऐश्वर्य आने के पश्चात द्रुपद का द्रोणाचार्य से क्या रिश्ता ? भला धन के समक्ष ईमान की भी कोई कीमत है ?
वैसे, इस नमस्कारी को लेकर दीनबंधु पूरी तरह से आश्वस्त था कि यह जो उसका पुराना लंगोटिया यार दुखीराम है न , वह बड़ा स्वाभिमानी है और घोर संकट पड़ने पर भी सुदामा बन उस जैसे कलयुगी कृष्ण के दरवाजे पर दस्तक देने नहीं आएगा ।
अन्यथा अभिवादन तो दूर उसे ( दुखीराम ) देख ऐसा लगता कि बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। इस अर्थयुग में दीनबंधु की यह सोच बुरी न थी। अनेक पापड़ बेलकर कर उसने यह रुतबा हासिल किया था। अन्यथा, " यथा नाम , तथा गुण" जैसे नीतिवचन का अनुसरण करता तो, वह भी दुखीराम की तरह उसी टूटही साइकिल को घसीटता रह जाता । आज जो उसके पास लग्जरी गाड़ी है, उसे बाप-दादे के रोकड़े से थोड़े न खरीदी थी । यह तो उसके दीमाग की कमाई है।
उसे भलिभाँति यह याद था कि यही सभ्य समाज कभी दलाल कहके उसे दुत्कारा करता था और वह था कि किसी गुलाम की भाँति सलामी दागते हुये - " भाई साहब ! कुछ खास ? सेवक हाजिर है । "
कह खी खी खी..किया करता था। दिनभर इधर-उधर भटकता फिरता था,पर निगाहें उसकी चिड़िए की आँखों पर थीं। एक दिन उसने किसी मकड़ी को जाल बुनते देख लिया और बस जैसे ही वह इस विद्या में परांगत हुआ,उसके मकड़जाल में शिकार फँसने लगा।
वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला।
फिर क्या ..साला ! मैं तो साहब बन गया,
यह गीत आपने सुनी है न ?
और आज उसी आंगन में उसका शरीर निष्चेष्ट पड़ा है, जहाँ वह बचपन में किलकारियाँ भरा करता था।
जुगाड़ तंत्र का वह बड़ा खिलाड़ी जिसने धनलक्ष्मी को अपने घर मंदिर में स्थापित कर दिया था, उसी गृह का मनमंदिर सूना पड़ा है ।
" राम-राम ! बड़ा बुरा हुआ,बिल्कुल कच्ची गृहस्थी छोड़ गया । "
- यह कह नाते-रिश्तेदारों ने लोकलाज वश आँखें तनिक गीली कर ली थीं। उसकी मौत की खबर सुनते ही कुछ भद्रजन भी दौड़े आये थे।
कानाफूसी शुरु थी -" लो ससुरा, चला गया और डूबा गया हमारा लाखों रूपया ! "
उन्हें उसकी मृत्यु का गम नहीं था , वरन् दुःखी वे इसलिए थे कि अपने जिन कामों केलिए बयाना जो दे रखा था, वह सब बट्टे खाते में गया।
वे सभी हाथ मल ही रहे थे कि तभी रामनाम सत्य है , का वही कर्णप्रिय उद्घोष दुखीराम को सुनाई पड़ता है ।
चौक उठता है वह , उसे स्मरण हो आया उस अभागे व्यक्ति का जो कुछ माह पूर्व इसी श्मशानघाट मार्ग पर मिला था। जीवन की राह में भटकता- लड़खड़ा- गिड़गिड़ाता वह इंसान, जो स्नेह के दो बूँद केलिए पग- पग छला गया , तो लगा था, कुछ इसीतरह के शब्दों को बुदबुदाने ... और हाँ ,उसके जीवन का यह कटु सत्य किसी को इतना कड़वा लगा कि पूछे न ,उसे किन तिरस्कार भरे शब्दों के प्रयोग से दुत्कारा गया था।आखिर उस बावले से छुटकारा जो पाना था।
परंतु पागल वह नहीं यह दुनिया है। मृत्यु से पूर्व ही हर लौकिक सम्बंधों से मुक्त होना , यही तो रामराम नाम सत्य है ?
जिसे दुखीराम तो समझ गया , लेकिन यह दीनबंधु धन के दौड़ में रमा रहा । इसकी लालसा निरंतर " और -और " कह शोर मचाती रही। यह सत्य है कि लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है, परंतु जब उसका सुनहरा आवरण हटता है, तो वास्तविकता नग्न स्वरूप में सामने आ जाती है।
अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है ।
अतः एक दिन दीनबंधु के " जुगड़तंत्र" को भी झटका लगता है। उसका खेल बिगड़ जाता है। और फिर अवसादग्रस्त दीनबंधु को असमय ही मौत की यह पुकार सुनाई पड़ती है-
"तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ।"
धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा।
-व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला से )
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धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा..
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सुबह के पाँच बज रहे थे। बूँदाबादी ने ठंड को फिर से जकड़ लिया था , जो लोग चौराहे पर दिखे भी, वे बुझ रहे अलाव के इर्द-गिर्द गठरीनुमा बने बैठे मिले।
ऐसे खराब मौसम से बेपरवाह दुखीराम अपनी उसी पुरानी साइकिल से नगर भ्रमण पर निकल पड़ता है। यह उसकी नियमित दिनचर्या है।
बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद भी वह क्यों ऐसा करता है ?
पापी पेट केलिए अथवा पैसे की वही इंसानी भूख ..?
बंधु ! किसके लिए.. ?
आज यह प्रश्न पुनः सिर उठाए उसके हृदय को रौंद रहा था। स्नेह की दुनिया में उस आखिरी चोट के बाद किसी से वार्तालाप , हँसी- ठिठोली में उसे तनिक भी रुचि नहीं रही ,फिरभी स्वयं को कमरे में बंद कर बुत बने रहना, विकल्प तो नहीं है ? खैर,अबतो वह इस आकांक्षा से मुक्त है। दुखीराम स्वयं से वार्तालाप कर ही रहा था कि एक वृद्ध महिला के करुण क्रंदन-
" ए हमार भइया ! तनिक उठ जाते भइया !!"
से उसका ध्यान भंग होता है।
" अरे ! ये क्या ? "
उस जाने-पहचाने से घर के करीब पहुँचते ही वह हतप्रभ रह जाता है ।
" अपना दीनबंधु अब नहीं रहा ! कैसे हो गया यहसब ? "
दुखीराम , अपने दिमाग पर फिर से जोर डालता है कि कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा है।
अभी पिछले दिनों ही तो मुख्यालय पर दुआ- सलाम हुई थी उससे !
हाथों में रत्नों की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ, गले में सोने की मोटी सिकड़ी और वह विदेशी चश्मा, किसी बड़े अफसर से कम नहीं दिखता था दीनबंधु ।
सदैव की तरह उस दिन भी वह हाय -हेलो करते हुये किसी उच्चाधिकारी के कक्ष में जा घुसा था । इससे अधिक किसी गैर व्यवसायी से कुछ और बात करने की उसे फुर्सत कहाँ थी ।मानों एक-एक मिनट की कीमत रूपये में होती हो उसकी !
दुखीराम केलिए इतना प्रयाप्त था कि दीनबंधु उसे देख अदब से हाथ ऊपर कर लेता था , अन्यथा ऐश्वर्य आने के पश्चात द्रुपद का द्रोणाचार्य से क्या रिश्ता ? भला धन के समक्ष ईमान की भी कोई कीमत है ?
वैसे, इस नमस्कारी को लेकर दीनबंधु पूरी तरह से आश्वस्त था कि यह जो उसका पुराना लंगोटिया यार दुखीराम है न , वह बड़ा स्वाभिमानी है और घोर संकट पड़ने पर भी सुदामा बन उस जैसे कलयुगी कृष्ण के दरवाजे पर दस्तक देने नहीं आएगा ।
अन्यथा अभिवादन तो दूर उसे ( दुखीराम ) देख ऐसा लगता कि बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। इस अर्थयुग में दीनबंधु की यह सोच बुरी न थी। अनेक पापड़ बेलकर कर उसने यह रुतबा हासिल किया था। अन्यथा, " यथा नाम , तथा गुण" जैसे नीतिवचन का अनुसरण करता तो, वह भी दुखीराम की तरह उसी टूटही साइकिल को घसीटता रह जाता । आज जो उसके पास लग्जरी गाड़ी है, उसे बाप-दादे के रोकड़े से थोड़े न खरीदी थी । यह तो उसके दीमाग की कमाई है।
उसे भलिभाँति यह याद था कि यही सभ्य समाज कभी दलाल कहके उसे दुत्कारा करता था और वह था कि किसी गुलाम की भाँति सलामी दागते हुये - " भाई साहब ! कुछ खास ? सेवक हाजिर है । "
कह खी खी खी..किया करता था। दिनभर इधर-उधर भटकता फिरता था,पर निगाहें उसकी चिड़िए की आँखों पर थीं। एक दिन उसने किसी मकड़ी को जाल बुनते देख लिया और बस जैसे ही वह इस विद्या में परांगत हुआ,उसके मकड़जाल में शिकार फँसने लगा।
वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला।
फिर क्या ..साला ! मैं तो साहब बन गया,
यह गीत आपने सुनी है न ?
और आज उसी आंगन में उसका शरीर निष्चेष्ट पड़ा है, जहाँ वह बचपन में किलकारियाँ भरा करता था।
जुगाड़ तंत्र का वह बड़ा खिलाड़ी जिसने धनलक्ष्मी को अपने घर मंदिर में स्थापित कर दिया था, उसी गृह का मनमंदिर सूना पड़ा है ।
" राम-राम ! बड़ा बुरा हुआ,बिल्कुल कच्ची गृहस्थी छोड़ गया । "
- यह कह नाते-रिश्तेदारों ने लोकलाज वश आँखें तनिक गीली कर ली थीं। उसकी मौत की खबर सुनते ही कुछ भद्रजन भी दौड़े आये थे।
कानाफूसी शुरु थी -" लो ससुरा, चला गया और डूबा गया हमारा लाखों रूपया ! "
उन्हें उसकी मृत्यु का गम नहीं था , वरन् दुःखी वे इसलिए थे कि अपने जिन कामों केलिए बयाना जो दे रखा था, वह सब बट्टे खाते में गया।
वे सभी हाथ मल ही रहे थे कि तभी रामनाम सत्य है , का वही कर्णप्रिय उद्घोष दुखीराम को सुनाई पड़ता है ।
चौक उठता है वह , उसे स्मरण हो आया उस अभागे व्यक्ति का जो कुछ माह पूर्व इसी श्मशानघाट मार्ग पर मिला था। जीवन की राह में भटकता- लड़खड़ा- गिड़गिड़ाता वह इंसान, जो स्नेह के दो बूँद केलिए पग- पग छला गया , तो लगा था, कुछ इसीतरह के शब्दों को बुदबुदाने ... और हाँ ,उसके जीवन का यह कटु सत्य किसी को इतना कड़वा लगा कि पूछे न ,उसे किन तिरस्कार भरे शब्दों के प्रयोग से दुत्कारा गया था।आखिर उस बावले से छुटकारा जो पाना था।
परंतु पागल वह नहीं यह दुनिया है। मृत्यु से पूर्व ही हर लौकिक सम्बंधों से मुक्त होना , यही तो रामराम नाम सत्य है ?
जिसे दुखीराम तो समझ गया , लेकिन यह दीनबंधु धन के दौड़ में रमा रहा । इसकी लालसा निरंतर " और -और " कह शोर मचाती रही। यह सत्य है कि लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है, परंतु जब उसका सुनहरा आवरण हटता है, तो वास्तविकता नग्न स्वरूप में सामने आ जाती है।
अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है ।
अतः एक दिन दीनबंधु के " जुगड़तंत्र" को भी झटका लगता है। उसका खेल बिगड़ जाता है। और फिर अवसादग्रस्त दीनबंधु को असमय ही मौत की यह पुकार सुनाई पड़ती है-
"तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ।"
धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा।
-व्याकुल पथिक