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Sunday 28 October 2018

दिवंगत पत्रकार की श्रद्धांजलि सभा में जब फफक कर रो पड़ींं केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया 
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
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 पत्रकारिता जगत ही नहीं समाजसेवा के हर क्षेत्र में यदि हम त्यागपूर्ण तरीके से अपना कर्म करेंगे, तो समाज हमारा ध्यान
आज इस अर्थ प्रधान युग में भी रखता है , फिर भी अपने पेशे के लोग यदि सम्मान दें, पहचान दें ,तो उसका विशेष महत्व होता है। एक आत्मसंतुष्टि सी होती है कि जीवन सार्थक हुआ।
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है...
 
  हमारे कार्य, हमारे सदगुण और हमारा संघर्ष यदि जनहित में है,तो बेजां नहीं जाता, हम रहे न रहें , फिर भी समाज हमें याद करेगा। मैं सदैव अपने स्नेह विहीन ,कष्ट भरे एकाकी जीवन को लेकर व्याकुल सा रहता था कि क्या पत्रकारिता जगत में आकर इस अस्वस्थ तन- मन के साथ यूँ ही इस दुनिया से कूच कर जाऊंगा, हमारी पहचान यूँ ही नष्ट हो जाएगी, अपना कोई वंश भी तो नहीं है कि वह मुझे याद करे..। परंतु ऐसा नहीं है , यदि हम कर्तव्य पथ पर हैं, तो समाज हमें याद रखता है। रविवार को जिला पंचायत परिषद का यह सभागार इसका गवाह रहा..।
       इस दिन सुबह साढ़े दस बजे से ही जिला पंचायत के सभागार में शोक के बादल आ-जा रहे थे कि तभी केन्द्रीय राज्यमंत्री मंत्री श्रीमती अनुप्रिया पटेल 'हिंदुस्तान' के ब्यूरोचीफ स्व तृप्त चौबे के लिए शोकोद्गार व्यक्त करने के लिए माइक थामा तो वे खुद को सम्हाल न सकी और उनके नारी-हृदय से करुणा की धारा बह चली । वे खुद फफक कर रो पड़ी । उन्हें सम्हालने श्रीमती नन्दिनी मिश्र मंच पर आयीं लेकिन श्रीमती अनुप्रिया अंत तक शोक-धारा से विलग न हो सकी और उसी में बहती नजर आयीं ।
     प्रशासन के लगभग हर उच्च अधिकारियों, यहां के पत्रकारों तथा समाज के हर वर्ग के लोगों के इस भाव की कि  स्व० चौबे की बेटी को मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार के तहत राजकीय सेवा मिले, इसकी मांग कभी पत्रकारिता जगत के स्तम्भ रहे सलिल पांडेय ने रखी और ज्ञापन स्व0 चौबे की बड़ी बेटी निमिषा (B. Sc. द्वितीय वर्ष) और छोटी बेटी साक्षी (कक्षा 12) द्वारा पत्रकारों ने एकस्वर समर्थन के साथ दिलवाया, जिस पर पूरी सहानुभूति के साथ मुख्यमंत्री तक पहुंचाने का भरोसा देते श्रीमती अनुप्रिया पटेल ने यह कहा कि वे अपने स्तर से भी बेटियों के लिए बहुत कुछ करेंगी और उनकी स्नातक तक की शिक्षा की जिम्मेदारी भी स्वयं ली। विधायक राहुल प्रकाश कोल और नगरपालिका अध्यक्ष मनोज जायसवाल ने भी हर सम्भव सहयोग की बात कही।
  इससे पूर्व ऐसी श्रद्धांजलि सभा किसी पत्रकार के लिये नहीं हुई थी। जो खाटी पत्रकार रहें अथवा हैं , यही उनका सर्वोच्च सम्मान है।
   इसके पहले यहाँ पत्रकारों ने स्वर्गीय प्रेस छायाकार इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव के परिजनों और गम्भीर रुप से अस्वस्थ दिनेश उपाध्याय के आर्थिक सहयोग के लिये भी गणमान्य जनों के सहयोग से काफी कुछ किया। यह परम्परा कायम रहना चाहिए। जाहिर है कि हममें से अधिकांश पत्रकार श्रमजीवी हैं। जब तक सामर्थ्य है और हम किसी अखबार या इलेक्ट्रॉनिक चैनल से जुड़े हैं, इस चकाचौंध भरी दुनिया में हमारी मान- प्रतिष्ठा है। हाँ, पैसा तो फिर भी एक खाटी पत्रकार के पास इतना नहीं रहता कि हम परिवार की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके, फिर भी पद व प्रभाव के कारण कोई कार्य रुकता भी नहीं, यह भी सत्य है। परंतु जैसे ही हमारी शारीरिक क्षमता घटती है, हम पूर्व पत्रकार हो जाते हैं, ऐसा कोई आर्थिक स्त्रोत हमारे पास नहीं रहता कि हम सम्मान से अपना अपना शेष जीवन व्यतित कर सकें। फिर तो हम टूट जाते हैं, गुमनाम हो जाते हैं और जिस दिन मिट जाते हैं, एक कालम की शोकसभा में इन्हीं अखबारों में ही खो जाते हैं। मुझे याद है कि अपने समय के श्रेष्ठ छायाकार  अशोक भारती एक बड़े अखबार से जुड़े थें। प्रशासन, राजनीति, व्यापार से जुड़ा हर शख्स इस शहर का उन्हें पहचानता था। हैट और सस्पेंडर बेल्ट उनकी खास पहचान थी। अपने समय के इकलौते प्रेस छायाकार थें वे, परंतु हुआ क्या उनके साथ, शरीर के कमजोर पड़ते ही प्रेस की नौकरी चली गयी। गुमनाम से पड़े रहे दरबे में और वैसे ही गुजर गये। वरिष्ठ पत्रकार पंडित रामचंद्र तिवारी जो मेरे गुरु थें , को इनसाइक्लोपीडिया (विश्वकोश)  कहा जाता था ,इस मीरजापुर के भद्रजनों की मंडली में। परंतु उनकी स्मृति में हम क्या कर पाये।  पत्रकारिता दिवस पर ऐसा कोई बैनर तक नहीं टांगते, जिसपर उन वरिष्ठ पत्रकारों के चित्र हो, जो कभी आदर्श पत्रकारिता के मिसाल थें। हम उनकी पत्रकारिता पर कभी किसी ऐसे मंच से चर्चा तक नहीं करते हैं।आदर्श पत्रकारिता के लिये यहाँ जिनकी ऊँची पहचान थी, वे आज गुमनाम हैं।जिले की पत्रकारिता पर ऐसी कोई पुस्तक नही है, जिसके माध्यम से स्थानीय पत्रकारों का जीवन परिचय और पत्रकारिता जगत में उनके संघर्ष की जानकारी युवा जगत को मिली। कोई पत्रकार भवन नहीं है, जहाँ इन आदर्श पत्रकारों के चित्र हो और हम इनकी जयंती पर वहाँ जा श्रदांजलि अर्पित करें। बस वर्ष में एक दिन पत्रकारिता दिवस पर हम मंच सजा कर बड़ी- बड़ी बातें करते हैं और फिर सहभोज..?
    हमें आपस का वैमनस्य दूर करना चाहिए। जो भी पत्रकार वास्तव में पत्रकारिता के लिये समर्पित है, उनकी सही पहचान कर क्यों न कम से कम तीज- त्योहार पर उन्हें एक छोटा सा तोहफा ही भेट करे। जिससे हर कष्ट सहन कर भी कर्मपथ पर चलने वाले ऐसे पत्रकारों का मनोबल बढ़े। उसे यह न लगे कि समर्पित भाव और ईमानदारी से की गयी उसकी पत्रकारिता इस रंगीन दुनिया की चकाचौंध में गुम हो गयी।
  बंधुओं आज में उस पड़ाव पर हूँ, जहाँ अपना परिवार, अपना स्वास्थ्य खो चुका हूँ। फिर भी थोड़ी पहचान बनायी है, इसीलिये निवास के लिये चंद्रांशु भैया ने सहृदयता दिखला , मित्र समझ अपने होटल में शरण दे दिया। बीमार होता हूँ, तो अपने सांईं मेडिकल के चंदन भैया दवा- इलाज से पीछे नहीं हटते हैं और दांत में गड़बड़ी आई तो अग्रज राजेश चौरसिया के बड़े पुत्र डा० राहुल चौरसिया ने चाचा- भतीजे वाला संबंध  का निर्वहन किया। यदि कभी मेरा सेल फोन खराब हो जाता है, तो जनप्रतिनिधि और समाजसेवी जन स्वतः ही उसकी व्यस्था कर देते हैं। वे जानते हैं कि इससे अधिक मेरी कोई आवश्यकता नहीं है। भोजन में दलिया , रोटी और थोड़ी सी सब्जी यदि बना सकूं , तो इतना बहुत है, क्षुधा शांति के लिये।
    मित्रों,  पत्रकारिता जगत ही नहीं समाजसेवा के हर क्षेत्र में यदि हम त्यागपूर्ण तरीके से अपना कर्म करेंगे, तो समाज हमारा ध्यान आज इस अर्थ प्रधान युग में भी रखता है , फिर भी अपने पेशे के लोग यदि सम्मान दें, पहचान दें ,तो उसका विशेष महत्व होता है। एक आत्मसंतुष्टि सी होती है कि जीवन सार्थक हुआ। जिसका प्रभाव नये पौध पर पड़ता है। वे भी प्रभावी तरीके से अपने कर्मपथ पर पांव जमा कर चलना सिखते हैं। यह कांटों भरा जीवन सफर है दोस्तों, किसी ऐसे पड़ाव पर पहुंच कर बहुत कुछ याद आता है...

क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है....


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है.. ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन


Thursday 25 October 2018

वो जुदा हो गए देखते देखते..


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     दबाव भरी पत्रकारिता हम जैसे फुल टाइम वर्कर के लिये जानलेवा साबित हो रही है। पहले प्रेस छायाकार  इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव की दुर्घटना में मौत और एक और छायाकार कृष्णा का घायल होना,वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर दिनेश उपाध्याय का मौत के मुहँ से निकल कर किसी तरह से वापस आना और मैं स्वयं अस्वस्थ तन-मन लिये इसी पेशे का शिकार हूँ, जिसमें मुनाफा बिल्कुल नहीं है मेरे दोस्त... !
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वो भी एक पल का किस्सा था
 मैं भी एक पल का किस्सा हूँ
 कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
 वो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
 मैं पल दो पल का शायर हूँ
 पल दो पल मेरी कहानी है ...

    कब किसकी सांसें किस मोड़ पर थम जाए, जीवन एक कहानी बन कर रह जाए, क्या पता..। अनंत में समाने की चाहत मन में लिये मैंने बड़ी बेचैनी से आज की शाम गुजारी है। गोपियों संग ब्रह्मांड नायक श्रीकृष्ण के महारास के संदर्भ में चिन्तन कर रहा था। प्रेम की ऐसी अद्भुत परिभाषा रची कि द्वारिकाधीश हो कर भी उनकी  पूजा राधा संग ही होती है।  योगेश्वर होकर भी उनकी पहचना वृंदावन के नटखट कृष्ण कन्हैया से ही है। जिन्होंने आज शरद पूर्णिमा के दिन ही गोपियों संग महारास रचा था। आध्यात्मिक जगत करते रहे इसकी व्याख्या, परंतु ज्ञान की आँखों से परे है यह प्रेम की परिभाषा..?
  वैसे, कितना सुंदर सलोना होता है , यह शरद पूर्णिमा का चांद भी, फिर भी मुझे  बंद कमरे की खिड़की खोलने की तनिक भी इच्छा नहीं हो रही है। जबकि पड़ोस के मैरिज हाल में नाच गाने का काफी शोर है। हो सकता है कोई पार्टी हो वहाँ .। परंतु अपना तो बुखार से शरीर टूट रहा है। दांत में दर्द था, अतः रूट कैनाल करवाया है।  जिससे चेहरा भी दायी ओर गुब्बारे की तरह हो गया है।  युवा दंत चिकित्सक डा० राहुल चौरसिया ने अल्प समय में ही अपनी पहचान बना ली है। अब संबंधों के लिहाज से मैं ठहरा उनका चाचा , तो मेरा देखभाल कुछ ज्यादा ही हुआ। ढ़ाई दशक की पत्रकारिता में बस इतना ही कमाई की है कि जेब में पैसे रहे न रहे , कोई काम रुकता नहीं है, न ही मुझसे कोई पैसा ही लेना चाहता है। इस शहर में हर मोड़ पर कोई अपना परिचित मिल ही जाता है , सिर्फ अपने बंद कमरे को छोड़ कर। यहां पर ऐसा कोई मनमीत नहीं, जो मेरी मनोदशा को समझे, मैं नाराज हो जाऊँ, तो वह  मुझे मनाएं और इस तन्हाई को साझा करे।  ऐसे व्यर्थ के जीवन को मैं झेले जा रहा हूँ , परंतु कब तक..?
  मानसिक और शारीरिक पीड़ा का सीधा असर मस्तिष्क पर पड़ रहा है, फिर भी यह मन निरंतर चलायमान है। उसे कोलकाता में गुजरा अपना वह बचपन, वह कमरा, वह आंगन, वह सीढ़ी ,.वह चांद आज भी तो याद है, जब माँ के कहने पर हाथों में सुई और धागा लेकर ऊपर वाली सीढ़ी पर चढ़ जाया  करता था। जहाँ चंद्र प्रकाश में सुई के छिद्र में धागा डालता और फिर उसे लाकर माँ को दिखला देता, तो वे कितनी खुश होती थीं। कहती थीं कि मुनिया अब तेरे नेत्र की ज्योति कमजोर नहीं होगी । पर जब माँ ही चली गयी , तो आशीर्वाद का वह सुरक्षा कवच भी टूट गया।
 मीरजापुर में दो जून की रोटी के लिये कुछ इस तरह का शारीरिक एवं मानसिक श्रम करना पड़ा कि चार आँखों वाला हो गया हूँ। फिर जब मलेरिया ने घेर लिया तो चश्मे का नंबर बढ़ता ही जा रहा है..।
और हाँ, आज तो चावल की खीर खुले आसमां के नीचे रखी जाती है,  चंद्र किरणें उसे अमृत तुल्य जो बना देती हैं। इस खीर  के पीछे औषधीय कारण है कि नए धान की फसल पर जब चन्द्रमा की यह किरणें पड़ती हैं तब धान (चावल) अत्यंत पुष्टिकारक हो जाता है । आश्विन मास का नामकरण अश्विनीकुमारों के नाम से होने के कारण आयुर्वेदिक चिकित्सक तमाम बीमारियों की दवा इस रात रखे गए खीर के साथ रोगियों को देते है । पुष्टिकारक एवं आयुष्य देने वाली किरणों के कारण ही हमारे ऋषियों ने 12 महीनों में 'जीवेम शरद:शतम' का आशीष देकर इस माह को गौरवान्वित किया , परंतु अपने नसीब में तो वही दलिया ही रहा आज की शाम भी। चलों अच्छा ही हुआ कि तरह - तरह के व्यंजनों का मैंने स्वेच्छा से ही त्याग कर दिया। उक्ति है न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। ये चंद्र किरणें और अमृत तुल्य यह खीर नसीब वालों को मुबारक हो , मेरे लिये तो अपना दलिया ही छप्पन भोग है।  जब इससे अधिक कुछ बनाने में असमर्थ हूँ तो अन्य भावनात्मक  इच्छाओं की तरह व्यंजनों का भी परित्याग उचित ही मेरे लिये।  वैसे, सच तो यह भी है कि दलिया और मूंग की खिचड़ी कितना सम्हालेगी, इस शरीर की उर्जा सम्बंधित आवश्यकताओं को , यह तो मैं भी जानता हूँ,  परंतु  नियति  के समक्ष विवश हूँ, कल रात में ही दांतों में दर्द शुरू हो गया था, हालांकि डाक्टर साहब ने दवा दी थी और बताया भी था कि इंजेक्शन का प्रभाव कम होने पर कुछ दर्द होगा ही। फिर भी करवटें बदल रहा था कि रात गुजर जाय। हाँ , तभी किसी के स्नेह का आभास हुआ और कुछ देर के लिये आँखें लग गयीं । सुबह के चार बजते ही मेरे दोनों सेल फोन एक साथ उठो लाल अब आँखें खोलों ...का रट लगाने लगता है। चाहे बुखार हो या दर्द मैं अपनी ड्यूटी पूरा करने निकल पड़ता हूँ सुबह साढ़े चार बजे मुकेरी बाजार चौराहे की ओर ...।
    अन्तर सिर्फ इतना है कि पहले पेट की अग्नि शांत करने के लिये काम करता था और अब स्वयं को व्यस्त रखने के लिये , ताकि एकाकीपन अवसाद बन मन मस्तिष्क पर न छा जाए...।
 पत्रकारिता के बोझ ने जहाँ मेरे जीवन की हर खुशी छीन ली,जिसका एहसास अब इस मोड़ पर मुझे हो रहा है कि कोई एक इंसान ऐसा नहीं है , जो इस रंगीन दुनिया में , मेरा दर्द बांट सके। भला कौन इस पथिक की वेदनाओं में रूचि लेगा और कितने दिनों तक , सबका तो अपना घर परिवार है न ..।  माँ के बाद एक भी इंसान मुझे ऐसा नहीं मिला, जो मुझे इस तन्हाई में अपना समझ कर पुकारे ।  जिन्होंने पुकार भी वह छलावा था...।
  परंतु  जिनके अपने हैं , सपने हैं , वे भी अपना विकेट गंवा चले जा रहे हैं यूँ ही अचानक। हिन्दुस्तान समाचार पत्र के मीरजापुर के ब्यूरोचीफ तृप्त चौबे की हृदयगति रुकने से हुई  मृत्यु ने इस व्याकुल मन को और झकझोर दिया है। मामूली सा सीने का दर्द भयावह हो गया। पत्नी और पुत्री के समक्ष ही उन्होंने अस्पताल में कल अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं , सारी योजनाओं और सारे सम्बंधों से नाता तोड़ लिया। कच्ची गृहस्थी बिखर गयी। पल भर में  यह क्या हो गया..?

इस दिल पे लगा के ठेस
जाने वो कौन सा देश
जहाँ तुम चले गए...

     दबाव भरी पत्रकारिता हम जैसे फुल टाइम वर्कर के लिये जानलेवा साबित हो रही है। पहले प्रेस छायाकार  इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव की दुर्घटना में मौत और एक और छायाकार कृष्णा का घायल होना,वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर दिनेश उपाध्याय का मौत के मुहँ से निकल कर किसी तरह से वापस आना और मैं स्वयं अस्वस्थ तन-मन लिये इसी पेशे का शिकार हूँ, जिसमें मुनाफा बिल्कुल नहीं है मेरे दोस्त... !
     मैं भी अपने परिवार, अपने स्वास्थ्य और उन अपनों  का साथ , सभी कुछ गंवाने के बावजूद  उस अनंत में समाने को छटपटा रहा हूँ। अपना तो सबकुछ वहाँ है। यहाँ अब खुद पर भी क्या भरोसा, जो दूसरों पर विश्वास करूं ...

  गैर की बात तस्लीम क्या कीजिये
 अब तो ख़ुद पे भी हमको भरोसा नहीं
  अपना साया समझते थे जिनको कभी
  वो जुदा हो गए देखते देखते..

 और हाल यह है इस रंगीन दुनिया में रिश्तों का  ..

  मैंने पत्थर से जिनको बनाया सनम
  वो खुदा हो गए देखते देखते
सोचता हूँ कि वो कितने मासूम थे
क्या से क्या हो गए देखते देखते...
    शशि 24/10/2018

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (वो जुदा हो गये देखते देखते... ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

Sunday 21 October 2018

वसुधैव कुटुम्बकम का दर्पण यूँ क्यों चटक गया..

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बड़ी बात कहीं उन्होंने ,यदि हम इतना भी त्याग नहीं कर सकते तो आखिर फिर क्यों दुहाई देते हैं वसुधैव कुटुम्बकं की ? शास्त्र कहते हैं कि आदर्श बोलते तो है पर उसका पालन नहीं करते तो पुण्य क्षीण होता है ।
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गुज़रो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे...

       काश ! कुछ ऐसा ही होता कि हमारी दुआ असर दिखलाती और इस खूबसूरत दुनिया की हर बगिया गुलजार रहता। हर सम्वेदनशील, भावुक और दयालु इंसान ऊपर वाले से कुछ ऐसी ही प्रार्थना तो करता है न। हमारे शास्त्रों में   ' ' 'वसुधैव कुटुम्बकं' एक आदर्श वाक्य है। हम सम्पूर्ण विश्व का कल्याण चाहते है।  परंतु अमृतसर दशहरा हादसा एक बार फिर से हमारी मानवीय सम्वेदनाओं का उपहास उड़ाते दिख रहा है। रावण के पुतला दहन को देख रहें रलवे ट्रैक पर खड़े कितने ही बेगुनाह लोग ट्रेन से कट मरे और उससे कहीं अधिक घायल भी हैं ।  उजड़ गए परिवारों की चीख-चीत्कार, आह-विलाप से फिर भी जिसका हृदय द्रवित नहींं हुआ, वह मानव नहीं बल्कि दानव ही कहा जाएगा । कोई मां पुत्र खोई होगी है , कोई बहन अपना भाई । कोई पिता खोया तो कोई पति खोकर हुई होगी विधवा । पर्व की खुशी पल भर में मौत के तांडव नृत्य में बदल गयी।
   घटना के समय मैं अपने शरणदाता व अति उदार स्वभाव के मित्र चंद्रांशु गोयल के होटल के रिसेप्शन कक्ष में था। होटल के कर्मचारी पर्व के कारण छुट्टी पर थें, अतः बंद कमरे से बाहर निकल चंद्रांशु भैया के पास नीचे आ गया था..। जहाँ लगी बड़ी सी एलईडी टीवी के स्क्रीन पर यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज बन कर फ्लैश होने लगा , कुछ ही मिनटों में। तब तक सोशल मीडिया पर भी यह हृदय विदारक दृश्य सहित  समाचार आ रहा था..।
   मन व्यथित हो गया इस पथिक का और भी तब यह देख कर कि यहाँ दशहरे के जश्न में कोई कमी नहीं आई। मानों मरने वाले  लोग हमारे जैसे इंसान नहीं थें...। जो रक्त बह रहे थें रेल पटरियों पर उसका रंग सुर्ख लाल नहीं था..। समझ नहीं पा रहा हूँ कि कैसे मानव हैं हम, या हमारा रक्त ही शव पर लिपटे कफन की तरह श्वेत हो चुका है..।
   तभी  सलिल भैया का यह संदेश सोशल मीडिया पर आया,
 " अमृतसर दशहरा हादसा राष्ट्रीय शोक की घड़ी । वसुधैव कुटुम्बकं मानने वाले तत्काल हर तरह के दशहरा-उत्सव करें स्थगित, मनाएं शोक । "
   मैंने सोचा कि चलो इस मार्मिक अपील के प्रभाव से निश्चित ही मेले और दुर्गा पूजा पंडाल के आयोजकों की तंद्रा भंग होगी, कम से कम वे ध्वनि विस्तार यंत्रों से निकलने वाले शोर को तो कम कर ही देंगे। परंतु अफसोस , ऐसा कुछ भी न हुआ ,जबकि हम सम्पूर्ण विश्व को अपना मानते हैं। हमें संस्कार का सबक देने के लिये सुबह होते ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ विशेष चैनल धार्मिक, नैतिक और सामाजिक आइटम परोसने लगते हैं। हम भी तो बातें बड़ी ऊंची- ऊंची करते हैं न..? और तो और हादसे पर राजनीति भी शुरु हो गयी। घटना की जिम्मेदारी को लेकर तेरा- मेरा की वहीं गंदी सियासत फिर से...।

  एक प्रश्न सलिल भैया का का विचारणीय है कि असली रावण कौन है..? अमृतसर दशहरा हादसे में मरते मरते 'रावण' (पात्र दलबीर) इतना संवेदनशील साबित हुआ कि तीन की जान बचा ले गया लेकिन रामभक्ति में डूबे दशहरा उत्सव के आयोजकों में कहीं से खबर नहीं आ रही थी कि कोई उत्सव मातम में रोक दिया गया हो। कितनी दुखद स्थिति है। अनुसरण तो हम राम का करते हैं, रावण का पुतला जलाते हैं और जब अपने ही पड़ोस के राज्य में ही इतनी बड़ी दर्दनाक घटना हो जा रही हैं , फिर भी हम मुस्कुरा रहे हैं, जश्न मना रहे हैं। यह संवेदनहीनता असुर- राक्षसों वाली ही तो प्रवृत्ति है न..। विजयादशमी के दिन 19 अक्टूबर को देर शाम यह पीड़ादायक समाचार चहुंओर फैल गया था।
सब अवाक और आहत थें,  लेकिन यह खबर कहीं से नहीं आयी कि धमाचौकड़ी और झूमझाम के कार्यक्रम स्थगित करना तो दूर थोड़ी देर के लिए आयोजकों द्वारा शोक-श्रद्धांजलि व्यक्त की गई हो । दलील दी जा सकती है कि जब उत्सव शुरू हो गया तो कैसे रोके ? रोक न पाने की स्थिति में शोक तो व्यक्त किया जा सकता था । काफी आहत दिखें सलिल भैया , जिनका कहना रहा कि मान ले कि किसी आयोजन कमेटी के महत्वपूर्ण पदाधिकारी के घर कार्यक्रम के दिन कोई गम्भीर बीमार हो जाए, कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या वह आयोजन से तौबा नहीं करेगा ? इसी परिप्रेक्ष्य में अमृतसर की घटना में रोते-बिलखते परिजनों को यह मान लेते कि ऐसे ही अपना परिवार बिलखता तो क्या आयोजन में हम धमाचौकड़ी करते ? मुख्य अतिथि का स्वागत करते ? माला पहनाते ? बताने की जरूरत नहीं उत्तर खुद ही मन सही सही दे देगा ..।   बड़ी बात कहीं उन्होंने ,यदि हम इतना भी त्याग नहीं कर सकते तो आखिर फिर क्यों दुहाई देते हैं वसुधैव कुटुम्बकं की ? शास्त्र कहते हैं कि आदर्श बोलते तो है पर उसका पालन नहीं करते तो पुण्य क्षीण होता है । स्कन्दपुराण में स्पष्ट है कि पुण्य कब कब और कैसे-कैसे क्षीण और नष्ट होता है ।
 जहाँ तक मेरा सवाल  है , तो धर्मग्रंथों पर तो बहुत नहीं चिंतन- मनन नहीं करता , परंतु अपनी अंतरात्मा की आवाज निश्चित ही सुनने का प्रयास करता हूँ।  अन्यथा स्वयं को रावण कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं होगा।
  यदि राम कहलाना है तो हमें अपनी मानवीय संवेदनाओं को    विस्तार देना होगा। दो नारियों अहिल्या और सबरी , जिन्हें उस समय के भ्रदजनों ने ठुकरा दिया था। राम निःसंकोच उनकी कुटिया में गये। केवट , बानर  और राक्षक तक के प्रति उनमें सम्वेदना थी और हम तनिक देर शोक में मौन भी न रह सकें...?
   सोचे हम राह क्यों भटकते जा रहे हैं और अपने बच्चों की सामाजिक ज्ञान की झोली में नैतिक शिक्षा की कौन सी पुस्तक डाल रहे हैं। यदि हम अपनी सामाजिक सम्वेदनाओं को इसी तरह से सिकोड़ते जाएँगे, तो एक दिन हमारे स्वयं के परिवार में भी यह दुखद दृश्य देखने को मिलता है।  माता- पिता और भाई- बहन जैसे नजदीकी रिश्ते भी नहीं बचते। एक भाई का परिवार भूखा है और दूसरा रसमलाई खा रहा है, होता है कि नहीं बोले न ...?
    अपने बचपन की बात बताऊँ,  कोलकाता में मेरे एक काफी अमीर रिश्तेदार थें। बड़ी - बड़ी मिठाई की दुकानें रहीं और  बंगला- मोटर भी। परंतु उनकी अपनी बुआ उनकी दुकान पर मिठाई बनने के लिये आये परवल को छिलती और  उसका बीज निकाल कर जीवकोपार्जन करती थीं। बोरी भर भर कर परवल दिन भर छिला करती थीं।  बड़ा ही कठिन कार्य था, उस अवस्था में ...। हाँ , पर थीं स्वाभिमानी । मैंने भी तो अपने सम्पन्न रिश्तेदारों के समक्ष हाथ नहीं फैलाया था।
  फिर भी यह हमारा नैतिक दायित्व है कि आपदा की घड़ी में
हम यदि तन और धन से सहयोग न कर सके, तो मन को तो उन्हें समर्पित करें, जो कष्ट में हैं। पर्व- उत्साव तो फिर आएँगे ,  परंतु औरों की वेदनाओं में अपनी सम्वेदनाओं प्रकट   भावात्मक रुप से ' वसुधैव कुटुम्बकम '  को आत्मसात करने का अवसर सदैव तो नहीं आता।
  मृत्यु के पश्चात जिन भी महापुरुषों को अमरत्व को प्राप्ति हुई है , सभी ने अपने चिन्तन और कर्म से वसुधैव कुटुम्बकम का ही तो अनुसरण किया है..। अन्यथा फिर निदा फ़ाज़ली  के शब्दों में..
    कहां चिराग जलाएं कहां गुलाब रखें
    छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
    ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
    ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता।

Friday 19 October 2018

है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर...

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मैं और मेरी तन्हाई के किस्से ताउम्र चलते रहेंगे , जब तक जिगर का यह जख्म विस्फोट कर ऊर्जा न बन जाए , प्रकाश बन अनंत में न समा जाए।
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(बातेंःकुछ अपनी, कुछ जग की)

कल  सुबह अचानक फोन आया ..अंकल!  महिला अस्पताल में पापा ने आपको बुलाया है... दीदी को पापा- मम्मी लेकर गये है...।
    पता चला कि उनकी बिटिया को प्रसव पीड़ा शुरू है। बड़ी पुत्री की पहली डिलेवरी रही , अतः माता- पिता ने सोचा कि गांव के ससुराल से बेहतर सुविधा वे यहाँ मायके में उपलब्ध करवा सकते हैं। पर सरकारी अस्पताल का हाल जगजाहिर है ही, परम स्वतंत्र हैं  यहाँ के मसीहा..।
       यदि बेहतर उपचार चाहिए तो पैसा या फिर जुगाड़ होना ही चाहिए, अन्यथा फिर...?  खैर , नगर विधायक प्रतिनिधि चंद्रांशु गोयल ने सहयोग किया। हमारे पत्रकार साथी सुमित गर्ग भी आ गये। हमें पत्रकार जान डाक्टर और नर्स ने अच्छे व्यवहार का प्रदर्शन किया और भाई साहब नाना बन गये। यह  शुभ समाचार उन्होंने सबसे पहले मुझे ही फोन पर दी।

       ढ़ाई दशकों की पत्रकारिता के इस सफर में इसी सवाल का जवाब तो तलाश रहा हूँ मैं कि कलयुग के ये भगवान  , ये मसीहा, ये रहनुमा , ये माननीय, ये नौकरशाह  अपने पथ से विचलित क्यों हो गये और जनसेवक की जगह दौलत पुत्र क्यों हो जाते है.. ? सरकारी वेतन, बंगला और गाड़ी सारी सुख सुविधा इन्हें मिलती है फिर भी...।
      अभी पिछले ही महीने की तो बात है , सूबे के एक ताकतवर  मंत्री , जिनकों अपने इस जनपद में विकास की गति को बढ़ाने, जनहित के मुद्दों पर अफसरों की क्लास लेने और साथ ही सरकार की छवि निखारने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, ने इसी महिला चिकित्सालय का निरीक्षण किया। मरीज और उनके तीमारदारों से यहाँ की खामियाँ पूछी, सुविधा शुल्क लिये जाने की शिकायत आई। जिस पर भड़के मंत्री ने आरोपियों को जेल भेजने की बात तक कह दी ,अपने चादर से अधिक पांव बढ़ा कर...। सप्ताह, पखवाड़ा और माह बीत गये , क्यों कोई कार्रवाई नहींं हुई ...?
   इन राजनेताओं की घुड़की का कितना प्रभाव पड़ता है, जनता भी इसे अब समझने लगी है। नयी सड़क गड्ढ़े वाली पर फिसल कर बाइक सवार पिता ने अपने जिगर के टूकड़े को खो दिया। फिर इस भ्रष्टाचार पर किसी माननीय की आँखें नम नहीं हुई, न ही ठेकेदार कठघरे में खड़ा हुआ...?
   याद रखें , राजनेताओं से यह डगर एक दिन जब यही सवाल करता है, तो वे स्वयं जनता की अदालत के कठघरे में होते हैं...।

   बहरहाल, मुझे इस बात की खुशी हुई कि किसी के लिये कम से कम पत्रकार होने के कारण एक नेक कार्य तो कर पाया  मैं...

    नहीं तो दिन अपना खबरों की दुनिया में बितता है और रात दर्द भरी तन्हाई में.. ।  सप्ताह में सातों दिन शाम की रोटी मिलेगी ही, इसकी भी गारंटी नहीं है। मन उदास रहा, बुखार रहा अथवा आलस्य ने घेर लिया, तो पतंजलि के आटे वाले बिस्किट- पानी से ही काम चल जाता है, पर्व पर भी..। भले ही यह शरीर परिस्थितिजन्य किसी तपस्वी सा दुर्बल होता जा रहा हो, फिर भी न मुझे इसकी परवाह है और न कोई है ऐसा इर्द-गिर्द जो तनिक प्रेम जता ठीक समय दो जून की रोटी देता..! हाँ सुबह दलिया अवश्य बना-खा के समाचार संकलन को निकलता हूँ। ऐसे में कभी मेरे पड़ोस में किराएदार रहें ये इस दम्पति से जान पहचान हो गयी थी।
     अन्यथा हम बंजारों का इस दुनियाँ के मेले में कैसा रिश्ता- नाता ..?  जब भी इस रात की तन्हाई में किसी अपने को और अपनी मंजिल को तलाशता हूं, तो इस नगमे के सिवा और कुछ न हाथ लगता है..
एक राह रुक गयी तो और जुड़ गयी
मैं मुड़ा तो साथ-साथ राह मुड़ गयी
हवा के परों पर मेरा आशियाना
मुसाफिर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना..

     नियति का यह कठोर दंड मेरे लिये जेल के उस तन्हाई वाले बैरक की तरह है ,जहाँ कुख्यात कैदियों को रखा जाता है...।
    इस खूबसूरत दुनिया के पिंजरे में तन्हा कैद अनंत को निहार रहा हूँ , फड़फड़ाते हुये ... ऐसे पर्व पर मुक्त होने की चाहत लिये...।
  देखें ना ऐसी कैदियों के भी अपने हैं, जो माह- पखवाड़े,  रविवार को अन्यथा पर्व पर तो निश्चित ही जेल पर आ उनसे मुलाकात कर जाया करते हैं.. दाना - पानी कुछ दे जाया करते हैं.. उनके भी सपने अभी शेष हैं... । यहाँ अपने इस बंद कमरे में भला कौन आएगा , क्यों आएगा और  कैसे आ आएगा...।
  अतः अब तो पर्वों का भी पता, सड़कों पर बढ़ी चहल-पहल से ही चलता है मुझे.. जब सभी अपने परिजनों संग खुशियाँ मना रहे होंगे ... तब यह तन्हाई मुझे एहसास कराती है कि कोई त्योहार है आज, इसीलिये सभी व्यस्त हैं ...  फिर मुझे कौन पूछेगा और क्यों ..?
   खैर मैं और मेरी तन्हाई के किस्से ताउम्र चलते रहेंगे , जब तक जिगर का यह जख्म विस्फोट कर ऊर्जा न बन जाए, प्रकाश बन अनंत में न समा जाए...।
    इस तन्हाई को मैं नकारात्मक शक्ति मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हूँ, यह मेरी चिन्तन शक्ति है..।
     अपनी वेदना को, अपने रूदन को, अपने एकांत को चरम तक पहुँचाने का प्रयास हमें करना होगा,  वैराग्य से नीचे इस जीवन के उलझे मार्ग में हम जैसों के लिये कोई सुख नहीं है, जो अन्य तृष्णा है भी, वह छलावा है, अवरोध है...। यह विजयादशमी पर्व फिर से मुझे इस सत्य को अवगत करा गया.. ।
 यदि हम जैसे लोग गृहस्थ जनों जैसे आनंद की कल्पना करेंगे तो, बार - बार फिसल कर हाथ- पांव चोटिल करते रहेंगे, फिर कौन मरहम पट्टी  करेगा इस मासूम से मन का...
  दिल अपना और दर्द पराया , यदि जब कभी ऐसी स्थिति बने भी तो उसे जनकल्याण को समर्पित कर दें , यही वैराग्य है, सन्यास है..
 मेरा अपना मानना है कि जब तक आत्मज्ञान विकसित नहीं होता  सकारात्मकता की बातें इंद्रजाल जैसी ही लगती हैं, हम जैसों को , भले ही ज्ञान के बाजार में सकारात्मकता सुपर माडल हो...
  साथियों .. !   बुद्ध, भृतहरि,तुलसी और विवेकानंद  जैसे महापुरुषों ने भी  अपनी वेदना को चरम पर पहुँचाने की कोशिश की है, तभी उस ज्ञान प्रकाश को वे प्राप्त कर सके हैं।
   किसी भी तरह की लज्जा की अनुभूति नहीं करों बंधु मेरे, क्यों कि यही रूदन हमें वैराग्य एवं मोक्ष प्रदान करेगा..
  नवजात शिशु ने यदि माँ के गर्भ के बाहर आने पर रूदन नहीं किया तो , क्या उसका जीवन सम्भव है...?
 वहीं, उसके रूदन करते ही इस धरती पर उसके आगमन के स्वागत में खड़े वे अजनबी लोग, जिनसे प्रथम बार उसका संबंध तय हुआ है, देखो न वे आपस में किस तरह से शुभकामनाएं देने लगते हैं।
   संत कबीर ने कितनी अद्भुत बात कही है...

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये |
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ||

  हमारे तपोभूमि विंध्य क्षेत्र में ऐसे भी साधक नवरात्र पर्व पर आते रहे हैं, जो किसी एकांत स्थल पर किसी आसन में बैठ माँ भगवती के ध्यान में अनंत को निहारते रहते थें और उनके नेत्रों से निरंतर अश्रु टपकते रहते थें। सच तो यह है कि रूदन से नवीन स्फूर्ति, उत्साह और शांति की अनुभूति होती है।  स्मृति एवं वियोग में ही नहीं इष्ट की चाहत में भी हम सिसकते हैं...
 यह सौभाग्य हर किसी को प्राप्त नहीं है। इसमें दिखावट और बनावट जो नहीं है।
  हाँ , यह सत्य है कि जब लौकिक प्रेम से हम वंचित रह जाते हैं, तो अलौकिक सुख की ओर आकृष्ट होते हैं और जबतक इसकी अनुभूति नहीं होती, तबतक रंगीन दुनिया दर्द देती ही रहती है ।  मैं तो ऐसे गीतों के सहारे ऐसे विशेष पर्व पर तन्हाई दूर करने का प्रयत्न करता रहा हूँ..
 
जिन्दगी को बहुत प्यार हमने दिया
मौत से भी मोहब्बत निभायेंगे हम
रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेंगे हम
जायेंगे पर किधर है किसे ये खबर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र...

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर .. )आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
     

Wednesday 17 October 2018

जब तक मैंने समझा जीवन क्या है ,जीवन बीत गया...

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रावण का पुतला दहन हम नहीं भूले हैं, लेकिन भ्रष्टाचार, अनाचार और कुविचार से ग्रसित हो हम स्वयं आदर्श पुरुष का मुखौटा लगाये उसी रावण के सामने खड़े हैं , जिसने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, अपने महल में नहीं..
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मैं कहाँ रहूँ मैं कहाँ बसूँ ना ये मुझसे ख़ुश ना वो मुझसे ख़ुश
 मैं ज़मीं की पीठ का बोझ हूँ मैं फ़लक़ के दिल का ग़ुबार हूँ
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ ...

     वेदनाएँ कुछ ऐसी भी होती हैं, जो इंसान को अंदर ही अंदर जला कर राख कर देती हैं। ऐसे में यदि एकाकीपन से भी मित्रता हो जाए तो उस मनुष्य का जीवन मोमबत्ती की आंसुओं की तरह ढुलक ढुलक कर एक दिन समाप्त हो जाता है। आनंद के जो अवसर प्रत्यक्ष है ,उसे छोड़ ऐसे मनुष्य कल्पनाओं एवं स्मृतियों में डूबे रहते हैं और बदले में कुछ न मिल पाता है।
     अजीब सी उलझन है मेरी भी , यही बात हर पर्व- त्योहार पर मैं अपने मासूम दिल को समझाता हूँ कि देखों मित्र जब तन्हाई का साथ मिला है,तो वैराग्य की ओर बस बढ़ते जाओं।  यह मेला - पर्व तुम्हारे लिये नहीं है। तुम्हारा मेला तो कब का पीछे छूट चुका है । बचपन की वो बातें याद कर इस भुलभुलैये में ना रहों कि तुम भी अब सामान्य परिवार  की तरह अपनों संग यह आनंद सुख प्राप्त कर सकोगे। देखों तो बाजार में कितनी चहल पहल है। युवा हो या प्रौढ़ अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, ये दम्पति किस तरह से मधुर वार्तालाप करते हुये इस उत्सव को महसूस कर रहे हैं। मेले में बच्चों संग इस तरह से सुशोभित हैं, मानों  शंकर- पार्वती का परिवार हो।
   परंतु तुम मेले में जाकर क्या करोगे..? यहाँ तुम्हारे संग कोई न होगा अपना , स्मृतियों के अतिरिक्त तुम्हारा... व्यर्थ न  संताप करों।
    फिर भी वह मानने को भला कब तैयार होता है। दिल के उन जख्मों का भला कौन इलाज है ,जो अपनों ने दिये हैं। धीरे-धीरे कर के दिन, महीने और वर्ष गुजर रहे हैं। वर्ष 1994 में जब इस जनपद में आया था, तो इन आँखों में एक चमक थी और आज एक बंद कमरे में पड़ा अतीत से पीछा छुड़ाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न कर रहा हूँ , पर मेरे सिर पर रखी यादों की यह पोटली इतनी भारी हो चुकी है कि न स्वयं इसे उतार पाने में समर्थ हूँ, न ही कोई मनमीत है जो इस बोझ में हिस्सेदार बन जाए...
    इसे साथ लेकर ही मुझे तब तक बस चलते जाना है, जब तक सांसें न थम जाएँ।  फिर भी पथिक यह उम्मीद खुद से लगाये हुये है कि वह संत सा बन जाए..  !  उपहास भी कर सकते हैं आप मुझपर कि कैसा बावला इंसान है यह भी ... !!
   पर मित्र उलझनें भी तो राह दिखलाती हैं। वह हमें बुद्ध, तुलसी और भृतहरि भी बनाती हैं । सो, क्यों न अपनी ही इन उदास अंधेरी रातों में कुछ ऐसा ढूंढने की कोशिश हो, जो औरों के लिये नूर बन जाए और हम कोहिनूर ...
     यदि जिगर पर यह चोट न होती , तो आज इतनी चिन्तन शक्ति कहाँ से पाता मैं । कुछ अपनी, तो कुछ औरों की सोचने का भला वक्त रहता क्या मेरे पास ऐसे खुशियों भरे पर्व पर ..?  गृहस्थी की गाड़ी  कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी होती। दशहरा, दीवाली और होली पर नये वस्त्र पहने तो वर्षों क्या दशकों बीत गये  एवं पकवान से भी रिश्ता ऐसे खास त्योहारों पर टूट चुका है।
  कोलकाता का वह बचपन, बनारस का छात्र जीवन और मीरजापुर का जीवन संघर्ष सब कब का पीछे छूट चुका है। इस दुनिया के मेले में भटकता रह मन कभी यूँ ही बहकी- बहकी बातें करता है..

एक ख़्वाब सा देखा था हमने
जब आँख खुली वो टूट गया
 ये प्यार अगर सपना बनकर
तड़पाये कभी तो मत रोना
 हम छोड़ चले हैं महफ़िल को
याद आये कभी तो मत रोना...

  मन के इस अंधकार को मिटाने के लिये अपनी चिन्तन शक्ति को दीपक बनाने की कोशिश में बार-बार उसकी अग्नि से चित्त की शांति को झुलसाने की आदत सी पड़ गयी है मेरी । फिर भी एक लाभ यह तो है ही कि आवारागर्दी से जो बचा रहता हूँ , दिखावे से बचा रहता हूँ और झूठ से भी.. भद्रजन कहलाने के लिये किसी मुखौटे की मुझे जरुरत नहीं.. यह समाज जानता है कि मुझे उससे अब और कुछ नहीं चाहिए.. जो दर्द मिला है , वह मेरी लेखनी में समा गया है.. वहीं मेरी पहचान है, वही मेरा ज्ञान है, भगवान है..?
  उसी से तो यह विचार मंथन जारी है कि हम सिर्फ अपने लिये क्यों जीते हैं ..? सुबह से रात तक बस अपना ही अपना लगाये रहते हैं..
  देखें न  इन बड़े बड़े दुर्गा पंडालों में कितनी तेज आवाज में देवी जी के गीत बज रहे हैं। मेरे पड़ोस में भद्रजनों के डांडिया रास  के लिये अत्यधिक तेज आवाज में देर रात तक डीजे भी बज रहा है। आयोजकों ने तनिक भी नहीं सोचा है कि अस्वस्थ वृद्ध जनों को इससे परेशानी होगी। मेरे दोस्त यह जो अपनी मनमानी कर रहे हो न , एक दिन तुम्हें भी कोई अपना नहींं  समझेगा.. इसमें तनिक भी संदेह न समझना..

  और इन पंडालों में आकर्षक विद्युत उपकरणों की सजावट को देख कर एक और विचार मेरे मन में आता रहा  है हर वर्ष कि काश ! यह चकाचौंध भरी रोशनी जो सीमित क्षेत्र में है, उसका विस्तार हो जाता तो कितना अच्छा होता...?  जिस खुशी में हर किसी के लिए कोई जगह होता, तो कितना अच्छा होता । हम बंजारे तो कुछ ऐसा ही चाहेंगे न कि इस रंगीन दुनिया में हमारे लिये भी कोई जगह होता , तो कितना अच्छा होता। अपना यह मीरजापुर छोटा शहर है , तब भी एक - एक दुर्गा पंडाल पर कई लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। महानगरों की बात पूछे ही मत। मैं यहाँ बंगाल की नहीं हिन्दी भाषी क्षेत्रों की बात कर  रहा हूँ। तीन - चार दिन के मेले में करोड़ों रुपये  दुर्गा पूजा पर खर्च हो जाते हैं..
  क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि इन्हीं पैसों से ये आयोजक गरीब बच्चों के चहरे पर थोड़ी सी मुस्कान लाते...?  अनाथालयों में जाकर कुछ नये कपड़े और मिठाइयाँ बांट आते.. किसी के परिवार में कोई गंभीर रोग से पीड़ित है, तो उसका उपचार करवा देतें.. नहीं तो दो- चार निर्धन कन्याओं के हाथ ही पीली करवा देते...किसी निर्धन नौजवान की प्रतिभा को कुंठित होने से रोक भी सकते थें न..
    मैं भी न यह कैसा मूर्खतापूर्ण सवाल कर उठा हूँ। ऐसा भी भला सम्भव है क्या कि जगत जननी का पूजन सामान्य तरीके से कर उसी धन का उपयोग जनकल्याण में किया जाए..?
   सैकड़ों वर्ष पुरानी हमारी रामलीला विलाप कर रही है। कितनी तैयारी होती थी रामलीला को लेकर । पात्रों का चयन , उन्हें सम्वाद रटाना, सभी पात्रों के लिये वस्त्र आदि की व्यवस्था, किस तरह से भीड़ लगती थी राम लीला स्थल पर । दादी का हाथ थामें हम भाई -बहन भी देखने जाया करते थें। तरह - तरह के मुखौटे खरीद लाते थें । तीर- धनुष, तलवार और गदा लिये ललकार लगाते थें। जो अपनी संस्कृति थी , वह धूल में मिल रही । हाँ , रावण का पुतला दहन हम नहीं भूले हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार, अनाचार और कुविचार से ग्रसित आदर्श पुरुष  का मुखौटा लगाये हम स्वयं  उसी रावण के सामने खड़े हैं। जिसने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, अपने महल में नहीं, यह भी सत्य है कि रावण कभी अकेले सीता से मुलाकात तक को नहीं गया था। जब हममें रामत्व है ही नहीं, तो किस अधिकार से महापंडित उस रावण का पुतला हम जलाते हैं..?  असली रावण तो हमारे अंदर ही है , घर - घर रावण है, फिर काहे का पुतला जला रहे हो..??
   पहले राम तो बना जाए .. अयोध्या के राज महल से निकलने के बाद राम ने दलित, शोषित, पीड़ित वर्ग के लिये कितने ही कार्य किये । उन जनकल्याण के कार्यों ने उन्हें वह सामर्थ्य दिया कि त्रिलोक विजेता  रावण का वध कर सकें । आज हम जनहित के एक भी कार्य किये बिना ही दशहरा मना रहे हैं। जरा विचार करें आप भी इसपर..?

  खैर, अपना तो यह जीवन सफर यूँ  ही बीत गया। हर चाहत मुझे और तन्हा कर गयी...

खुशियों के हर फूल से मैंने
ग़म का हार पिरोया
प्यार तमन्ना थी जीवन की
प्यार को पा के खोया
अपनों से खुद तोड़के नाता
अपनेपन को रोया
जब तक मैंने समझा अपना क्या है
सपना टूट गया
जब तक मैंने समझा जीवन क्या है
जीवन बीत गया...

Sunday 14 October 2018

जब किसी से कोई गिला रखना ...

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 यहाँ मैं  गृहस्थ, विरक्त और संत  मानव जीवन की इन तीनों ही स्थितियों को स्वयं की अपनी अनुभूतियों के आधार पर परिभाषित करने की एक मासूम सी कोशिश में जुटा हूँ।
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मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता...

     दर्द कुछ अपना तो कुछ औरों का दिल में लिये इस चिंतन में कल रात खोया सा रहा कि संत की परिभाषा क्या है..?  मैंने किसी भी धर्मग्रंथ को बढ़िया से कभी पढ़ा तो नहीं है ।  हाँ , बड़े- बड़े कथा वाचकों का प्रवचन खूब सुना था , जब निठल्लों की तरह बनारस के कम्पनी गार्डेन संग मित्रता थी मेरी। विकल मन की शांति की चाहत में  पैदल ही काशी के उन स्थलों पर पहुँच जाया करता था, जहाँ विख्यात कथा वाचकों का प्रवचन होता था। परंतु वहाँ भी वही चकाचौंध करने वाला वैभव का प्रदर्शन दिखा। सम्पन्न लोगों की पूछ थी, खैर फिर भी मुरारी बापू के संगीतमय रामकथा से हृदय की अकुलाहट कुछ कम हुयी थी। कथा स्थल पर स्त्रियाँ नृत्य करती दिखीं थीं पहली बार वहाँ... इसी आनंद को वे अपने गृहस्थ जीवन में भी ला पायी या दिखावा था, ठीक से नहीं समझ पाया अब तक मैं ...

     हाँ , अपने लिये इतना अवश्य कह सकता हूँ , जब से ब्लॉग पर आया ,आत्मचिंतन से  दो प्रमुख लोभ  धन और भोजन से मुक्त हो गया हूँ । किसी के अनिष्ट की चाहत  बिल्कुल भी नहीं रह गयी है। वैसे, मेरी पत्रकारिता इससे प्रभावित हो रही हैं ,  चाह कर भी पहले की तरह खुल कर आलोचना किसी व्यक्ति विशेष अथवा राजनैतिक दल की नहीं कर पाता अपनी लेखनी से.. पर अब तो  पथिक के पग बढ़ चुके हैं , नयी मंजिल की ओर...

    यहाँ मैं  गृहस्थ, विरक्त और संत  मानव जीवन की इन तीनों ही स्थितियों को स्वयं की अपनी अनुभूतियों के आधार पर परिभाषित करने की एक मासूम सी कोशिश में जुटा हूँ।
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      एक गृहस्थ जो दिन भर परिश्रम करता है, तो सायं घर पहुँचने पर पत्नी मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है। भोजन की थाली में सजे व्यंजनों की सुगंध से उसका मन प्रफुल्लित हो उठता है। रात्रि में कोमल मखमली शय्या पर देवी रति स्वरुपा अर्धांगिनी का जब सानिध्य प्राप्त होता है, तो वह सृष्टि की सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। मन का भटकाव ठहर जाता है एवं यह मधुर मिलन उसे उर्जा प्रदान करता है साथ ही सृष्टि चक्र आगे बढ़ता है। शास्त्रों में त्रिदेव भी अपनी अर्धांगिनी संग ही विराजमान हैं। इस सुंदर घरौंदे की चाहत भला फिर किसी को क्यों न हो। अब इसे स्वच्छ रखें या गंदगी फैलाये, यह तो गृहस्वामी को तय करना है।  वर्षों पहले की बात याद आ रही है। मैं अपने एक मित्र के घर गया था। वे , उनकी अर्धांगिनी एवं पुत्र तीनों ही एक ही थाली में भोजन कर रहे थें। मित्र महोदय स्वयं अपने हाथों से बारी- बारी से माँ- बेटे के मुहँ में निवाला डालते और स्वयं भी ग्रहण कर रहे थें। मुझे देख कर कुछ सकुचा से गये , तो मैंने एक ठहाका लगाया  और कहा अरे जनाब ! इसमें क्या लज्जा ... चाट के ठेले पर फुलकी वाला इसी तरह - तरह तो बारी- बारी से गुपचुप खिलाता है न भाई..
  इससे अधिक देरी तक भोजन को चबाने के लिये समय मिलेगा, तो स्वास्थ्य भी ठनाठन रहेगा और मोहब्बत भी मेरे  दोस्त..?
   एक नगमा पेश कर रहा हूँ , स्त्रियों के सिर्फ सौंदर्य के पीछे दौड़ लगाने वाले पुरुषों के लिये...

चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था
ना रस्में हैं ना कसमें हैं ना शिकवे हैं ना वादे हैं
 इक सूरत भोली भाली है दो नैना सीधे सादे हैं
ऐसा ही रूप खयालों में था जैसा मैंने सोचा था...

  वैसे, बचपन में बाबा की थाली में भोजन के लिये हम भी दौड़ पड़ते थें।
  ...प्यारे को यह आम (गुठली वाला भाग) नहीं मिलेगा, जहाँ  बोले नहीं कि लड़ाई शुरु।
    कुछ ऐसे भी पुरुष है कि उनके घर में प्रवेश करते ही मरघट सा सन्नाटा पसर जाता है। यदि आप हिटलर बनेंगे तो  निश्चित यह प्रेम खो देगें.. फिर तो आपके इशारे पर नाचने वाली एक कठपुतली सामने होगी। जो आपकी पुकार पर दौड़ दौड़ कर चाय- पानी आप तक पहुँचाती रहती है।  तब भी अर्धांगिनी आपकों प्रेम करती है, परंतु सत्य तो यही है कि उसके हृदय के किसी कोने में अंधकार समाया रहता है..
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      अनुभूतियों को साक्ष्य मान कर यदि वैराग्य की बात करूं , तो यह एक आहत हृदय मानव की मनोवृत्ति है । जब कभी हमारा मन किसी कारण विकल होता है ,  किसी अप्रत्याशित दुखद घटना से , अपनों को खोने से हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व छिन्न भिन्न हो जाता है , स्नेह/ प्रेम का वह  बंधन जो जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सी लगती है , कच्चे धागे सा टूट जाता है, यादों की ज़ंजीर यातना देने लगती है , निश्छल मन की भावनाओं को ठेस पहुँचता हैं, सब कुछ उपहास सा लगता है या फिर नश्वरता का बोध होता है। ऐसे में मोह का आवरण हटता सा प्रतीत होता है, फिर तो खूबसूरत संसार  मरघट सा लगता है। माँ की मृत्यु पर कोलकाता के श्मशान घाट पर मेरे बालमन को पहली बार इस वेदना की अनुभूति हुई थी। तब से अब तक दर्द के हर पैमाने को पार कर चुका हूँ। मन कोई कठपुतली तो है नहीं कि जैसे चाहूँ उसे नचा सकूँ ।  व्याकुलता जब चरम हो, अपनों से मिलन की चाह जब पूरी न हो एवं इस उपहास भरे जीवन को त्यागने की इच्छा प्रबल हो, मन को धीरज देने के लिये वैरागी पुरुषों का निश्चित ही स्मरण करना चाहिए।
    निर्वाण षटकम्‌ जो आदि शंकराचार्य की विशिष्ट स्तोत्र-रचना है। इसमें सारांशतः सम्पूर्ण अद्वैत दर्शन अभिव्यक्त है।

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम्
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्..

       मैं मन नहीं हूँ, न बुद्धि ही, न अहंकार हूँ, न अन्तःप्रेरित वृत्ति;मैं श्रवण, जिह्वा, नयन या नासिका सम पंच इन्द्रिय कुछ नहीं हूँ। पंच तत्वों सम नहीं हूँ (न हूँ आकाश, न पृथ्वी, न अग्नि-वायु हूँ)।वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
    हमारे गुरु जी ने दो दशक पहले स्वयं टेपरिकार्डर और निर्वाण- षटकम् का यह कैसेट तब दिया था, जब मैं असाध्य मलेरिया ज्वर से पीड़ित था एवं जीवन के प्रति तनिक भी आकर्षक शेष न था।
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    और संत  स्वभाव क्या है..? यह मानव जीवन की सबसे श्रेष्ठ मनोस्थिति है। तब मन, वाणी एवं कर्म  तीनों एक समान व्यवहार करता है। स्वयं को कुछ मिले न मिले , परंतु अपना सब कुछ जनकल्याण के लिये दांव पर लगा देता है। किसी का अनिष्ट न हो, भले ही चतुर लोग पीड़ा दे जाएँ , फिर भी संत कभी गिला नहीं करता है। इस अर्थ युग में इस छल युद्ध में अनेकों बार मैंने अपनों से धोखा खाया है। परंतु इस अवसाद से मुक्त रहने के लिये मैं बस इतना स्मरण रखता है कि इस मीरजापुर में जब आया था,  तो दो जोड़ा कपड़े ही लाया था। अतः जो यहाँ पाया है, उसे यहीं छोड़ जाना है।
  .. बुद्ध और अंगुलीमाल का प्रसंग याद है मुझे। हर किसी के प्रति स्नेह , बदले में कुछ भी नहीं चाहता... काश ! मैं भी कुछ ऐसा कर  जाऊँ। मानव जीवन सफल कर जाऊँ। हर किसे से गिले शिकवे अब यही दूर कर जाऊँ... निदा फ़ाज़ली की इस गजल से अपना जीवन रौशन कर जाऊँ...

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना
यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना ...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (जब किसी से गिला रखना ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Thursday 11 October 2018

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है..

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       पुरुष समाज में से कितनों ने अपनी अर्धांगिनी में देवी शक्ति को ढ़ूंढने का प्रयास किया अथवा उसे हृदय से बराबरी का सम्मान दिया..? शिव ने अर्धनारीश्वर होना इसलिये तो स्वीकार किया था न ।  पुरुष का पराक्रम और नारी का हृदय यह किसी कम्प्यूटर के हार्डवेयर और साफ्टवेयर की तरह ही तो है। एक दूसरे से है, इनका अस्तित्व।
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हे आयो आयो नवरात्री त्यौहार ओ आंबे मैय्या
तेरी जय जयकार हो आंबे मैय्या तेरी जय जयकार...

    बचपन में नवरात्र पर्व पर जैसे ही यह भक्ति गीत बजता था, पूछे मत मैं खुशी से किस तरह से चहक उठता था। टाउनहाल, वाराणसी में दुर्गापूजा पर खूब सजावट और पूरे नौ दिनों तक देश भर से सुविख्यात कथा वाचकों का आगमन होता था यहाँ। हमारे घर के पड़ोस में एक लाउडस्पीकर पूजास्थल का हर वर्ष लगता था। सुबह देवी गीत और शाम को विभिन्न धर्मग्रंथों पर कथा सम्वाद। मेरी अवस्था 10 वर्ष रही होगी तब , क्यों कि 12 वर्ष पूरा होने से पहले कोलकाता ही चला गया था। लेकिन ,जैसे ही दुर्गा प्रतिमा को विसर्जन के लिये गाड़ी पर रखा जाता था, मेरी विकलता बढ़ जाती थी। मेरा बाल मन समझ नहीं पाता था कि क्यों गंगा जी ले जा रहे हैं ये दुर्गा  मैय्या को , अभी तक तो सब पूजा पाठ कर रहे थें, अब पराया सा यह व्यवहार क्यों..
    वियोग से मुझे बचपन से ही भय लगता था। माँ - बाबा जब भी वापस कोलकाता जाने को ट्रेन पर बैठते थें, माँ को बिल्कुल भी मैं नहींं छोड़ता था। जबर्दस्ती मुझे उनसे अलग किया जाता था। लेकिन, कोलकाता का दूर्गा पूजा चकाचौंध से भरा रहा ।  बनारस में एक गरीब शिक्षक का पुत्र था, तो कोलकाता में माँ का दुलारा  मुनिया.. और बाबा चाँद - तारा तक तोड़ लाने को तत्पर रहते थें। फिर आज से करीब ढ़ाई दशक पूर्व वह दिन आया जब किसी नाते -रिश्तेदार के यहाँ शरण न लेने की ठान सान्ध्य दैनिक गांडीव समाचार पत्र हाथ में ले एक अनजान शहर मीरजापुर आ गया। पेट की असहनीय भूख ने मुझे राजा मुन्ना से ऐसा विचित्र श्रमिक बना दिया था कि एक पांव बनारस में था, तो दूसरा मीरजापुर में...
   याद आ रहा कि मैं जब मीरजापुर आ रहा था , तभी किसी अपने ने टोका था कि देखों वहाँ जा कर दो कार्य निश्चित करना एक विंध्याचल देवी का दर्शन और दूसरा सदैव मखाना खाते रहना, क्योंं कि तुमने कभी श्रम इस तरह का किया नहीं है। पर मेरे पास विंध्याचल मंदिर जाने का समय कहाँ था, बनारस पहुँचने में ही रात्रि के 11-12 बज जाते थें । हाँ , सत्य तो यह भी है कि माँ के जाने के बाद , फिर किसी उपासना स्थल पर मुझे शांति की अनुभूति नहीं होती है। रही
 मखाना खाने की बात , तो वह  मुझे पसंद नहीं था। वहाँ ,कोलकाता में तो मेरे लिये काजू बर्फी और मेवा खिलाने के लिये माँ मुझे कितना मनाती-फुसलाती  थी।
        इन्हीं स्मृतियों में आज नवरात्र के प्रथम दिन सुबह सड़कों पर देवी भक्तों कों देख खोया सा था कि घंटाघर स्थित एक हलवाई की दुकान पर कचौड़ी की सब्जी छौंकने की सुगंध ने अचानक मुझे जागृत कर दिया। मैंने भी देर न करते हुये अपने मन से पूछ ही लिया कि मित्र क्या चलेगा..गरमा गरम हैं। शाम का कटोरा भर दलिया ही तो खाये हो। अब तो रोटी भी ना ले रहे हो। मैंने सोचा कि मन टटोल लूं उसका भी.. कहीं यह न कहे कि भूखे मार रहा है । परंतु प्रति उत्तर जान संतोष हुआ, जब उसने कह दिया कि नहीं भाई चल कर दलिया और मूंग की खिचड़ी बनाई जाए...

     खुशहाल परिवार का एक सूत्र है कि अपनों की पसंद और नापसंद का ध्यान रखा जाए। विशेषकर मनमीत को लेकर ...

जो तुमको हो पसंद, वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कगेंगे
चाहेंगे, निभाएंगे, सराहेंगे आप ही को
आँखों में दम है जब तक, देखेंगे आप ही को
अपनी ज़ुबान से आपके जज़बात कहेंगे ...

     यह मेरा पसंदीदा गीत है और मेरी सोच भी, यदि पुरुष को मुखिया होने का दर्प रहेगा, तो उसकी बगिया में वह सुंगधित पुष्प कभी नहींं खिलेगा, जिससे गृहस्थ जीवन का आनंद लाभ वह उठा सके। ऐसे में परिवार का हर सदस्य सहमा सा रहेगा , फिर एक दिन सब कुछ बिखर जाता है...  नहीं मिलता वह मधु कलश , जिसकी तलाश हर बागवान को होती है। जिसका मिसाल मैं स्वयं हूँ, परिवार के सभी सदस्यों के हिस्से में विष ही आता है, ऐसी परिस्थितियों में.. किसी को कम तो किसी को ज्यादा... दोषारोपण करने में ही फिर गुजर जाता है, यह अमूल्य जीवन..
       इसी वार्तालाप के क्रम में मेरे भावुक मन ने प्रश्न कर ही दिया ... मित्र  !  इस तपोभूमि विंध्य क्षेत्र के समीप रहकर तूने क्या पाया - क्या खोया...?
   पारिवारिक संबंधों और स्वास्थ्य सभी तो खो दिया है तुमने .. भोजन की थाली की जगह एक कटोरा भर रह गया है। जिसमें सुबह और शाम दलिया एवं मूंग की खिंचड़ी खाते हो। फिर भी जीवन के इस कुरुक्षेत्र में अभिमन्यु की तरह आठवें द्वार पर आ फंसे हो। जितनी भी नकारात्मक शक्तियाँ हैं, चक्रव्यूह रच घेरे हुये है तुम्हें.. कहीं विजय के पूर्व ही मृत्यु का चयन तो न कर लोगे या अर्जुन की तरह गांडीव की टंकार कर ऐसी नकारात्मक चिन्तन का प्रतिकार करोगे..?
    इस तपोस्थली विंध्य क्षेत्र से तुम क्या लेकर प्रस्थान करोंगे। एक विचित्र सी व्याकुलता इस शक्ति साधना पर्व पर मेरे मन में बनी हुई है। कहाँ- कहाँ से लाखों लोग जिनमें संत से लेकर भिक्षुक  तक हैं, यहाँ आये हुये हैं। लेकिन, मेरा एक प्रश्न है महामाया के दरबार में आये इस पुरुष समाज से कि इनमें से कितनों ने अपनी अर्धांगिनी में देवी शक्ति को ढ़ूंढने का प्रयास किया अथवा उसे हृदय से बराबरी का सम्मान दिया..? शिव ने अर्धनारीश्वर होना इसलिये तो स्वीकार किया।  पुरुष का पराक्रम और नारी का हृदय यह किसी कम्प्यूटर के हार्डवेयर और साफ्टवेयर की तरह ही तो है। एक दूसरे से है, इनका अस्तित्व।
        एक सवाल और जो भद्रजन यहाँ आये हैं , वे  कन्या भ्रूण हत्या रोकने को लेकर कितने सजग हैं ..?
    वैसे  मैं तो अपनी माँ से ही सब-कुछ मांगता था, हूँ और रहूँगा। उनका सम्पूर्ण वात्सल्य सिर्फ मेरे लिये ही था , आज भी उनके साथ गुजरे हुये दिन ही मुझे धैर्य प्रदान करता है। अन्यथा प्रेम से वंचित यह पथिक जीवन के इस लम्बे सफर में गिरता, फिसलता, उलझता और सम्हलता ही रह गया है।
    जल से निकली उस मीन की तरह हूँ मैं , जो किसी के स्नेह वर्षा से श्वास भर ले रही है, परंतु  सत्य तो यही है कि न तो अब उसके लिये जल है ,न ही जीवन...
    फिर भी धड़कन तो है न .. ? हृदय का यह स्पंदन बेचैन कर देता है कभी- कभी...

   कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
   के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्रभर यूही
   उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूं ही
   मैं जानता हूँ के तू गैर है मगर यूं ही...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

Sunday 7 October 2018

माँ , महालया और मेरा बाल मन...

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   आप भी चिन्तन करें कि स्त्री के विविध रुपों में कौन श्रेष्ठ है.? मुझे तो माँ का वात्सल्य से भरा वह आंचल आज भी याद है।
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जागो दुर्गा, जागो दशप्रहरनधारिनी,
 अभयाशक्ति बलप्रदायिनी,
  तुमि जागो...

        माँ - माँ..  मुझे भी महालया सुनना है, कल भोर में समय से उठा दीजिएगा...
  अगले दिन ठीक पौने चार बजे सुबह माँ की पुकार सुनाई पड़ती थी कि मुनिया उठ ... जरा मुँह धोकर ठाकुर जी की अलमारी से अगरबत्ती ले आ तो और बैठ मेरे पास आकर।

     12 वर्ष का तो था ही मैं , फटाफट सारा काम निपटा भागे आता था। बीमारी के कारण माँ जीवन के आखिरी दो वर्ष अपने पांव पर खड़े होने में असमर्थ थीं। अतः उन्होंने मुझे इस योग्य बना दिया कि आज जब एकाकी जीवन तीन दशकों से बीता रहा हूँ, तो सभी कार्य स्वयं ही कर लेता हूँ।

       याद आया बाबा तो दिन भर के थकान के कारण निढ़ाल बिस्तरे पर पड़े रहते थें और हम माँ - बेटे अगरबत्ती सुलगा ट्राजिस्टर से आ रही  वीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज को सुनते रहते थें।  जो मुझे समझ में तब बिल्कुल ही नहीं आता था। माँ बताती थी कि महिषासुर के अत्याचार से भयभीत देवगण माँ दुर्गा का आह्वान कर रहे हैं।
     लगभग 90 मिटन तक मैं बिना किसी हरकत के उस सम्मोहक आवाज को सुनते रहता था।
   रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि...
 बस इतना ही मुझे याद हो पाया था ।
      पितृपक्ष विसर्जन अमावस्या के दिन सुबह चार बजे देश और दुनिया के तमाम बंगाली उठ जाते हैं. श्राद्ध पक्ष के खत्म होने और दुर्गापूजा के आने के बीच इस दिन अल सुबह हर पारंपरिक परिवार में एक रस्म निभाई जाती है. रेडियो ऑन करके वीरेंद्र कृष्ण भद्र के धार्मिक प्ले महिषासुर मर्दनी को न सुन लिया जाए. दुर्गापूजा की शुरुआत नहीं मानी जा सकती है।  कोलकाता में रहने के कारण हम हिन्दी भाषी भी श्रद्धापूर्वक सुनते थें, बिना उसका अर्थ जाने ही..
     1931 में पहली बार सुनाए गए इस प्ले का बंगाल के सबसे बड़े पर्व का हिस्सा बन जाना  एक अनूठा मिसाल है. 1966 में रेडियो पर पहली बार महालया (पितृविसर्जन अमावस्या का बंगाल में प्रचलित नाम) के दिन वीरेंद्र भद्र के प्ले महिषासुर मर्दनी को ब्रॉडकास्ट किया गया था.  देखते ही देखते 90 मिनट की ये कंपोज़ीशन मां दुर्गा के स्वागत का प्रतीक बन गई। 1905 में पैदा हुए वीरेंद्र भद्र प्ले राइटर, ऐक्टर और डायरेक्टर थें।  संगीतकार पंकज मल्लिक के साथ मिलकर बनाई गई उनकी कंपोजीशन महिषासुर मर्दनी ने उन्हें साहित्य और कला जगत के साथ-साथ धार्मिक रस्मो-रिवाज का हिस्सा बना दिया। दुर्गा सप्तशती, लोक संगीत और कूछ दूसरे मंत्रों को मिलाकर बनाई गई इस रचना में विरेन के पढ़ने का अंदाज रोंगटे खड़े कर देता है।

       सबसे प्रचलित लोककथा के अनुसार महालया में देवी को अपनें बच्चों के साथ कैलाश से अपनें पैतृक घर (पृथ्वी) तक की यात्रा शुरू करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। यह निमंत्रण मंत्रों के जप के माध्यम से और जागो तुमी जागो और बाजलो तोमर एलोर बेनू जैसे भक्ति गीतों को गाते हुए दिया जाता है।

     ब्लॉग पर जब अपनी यादों की पोटली को टटोले जा रहा हूँ, तो महालया सुनने से अधिक उतावलापन मुझे और किसी धार्मिक कार्य में रहा हो बचपन में , स्मरण नहींं हो रहा है।
  कोलकाता का कालीघाट स्थित माँ काली का मंदिर एवं जगह जगह बने कई मंजिला ऊँचा पंडाल ,  दुर्गा जी की भव्य कलात्मक प्रतिमाएँ , बाजारों में खूबसूरत बंगाली महिलाओं की भारी खरीदारी और छोटे नाना जी की बड़ाबाजार स्थित प्रसिद्ध मिठाई की दुकान गुप्ता ब्रदर्स की वह रौनक ,  मिठाई के खाली डिब्बों में रुपये भर- भर कर उसे दुकान से कारखाने तक पहुँचाने का मुझे सौंपा गया कार्य , भला कहाँ भूल पाया आज तक। जब माँ का पैर ठीक था , छोटे नाना जी कार भेज देते थे अपनी , बाबा , माँ और हम एक रात जमकर दुर्गा पूजा घुमते थे।

  माँ और वह बचपन एक बार फिर से मिल जाता । एक तड़प सी उठ रही है मन में..

कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन
बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन ..

      रात्रि के डेढ़ बज चुके हैं और ये सुखद स्मृतियाँ भी  न... क्या बताऊँ, यह निद्रा की देवी के आगोश में जाने ही नहीं दे रही हैं मुझे। बिल्कुल शयन की इच्छा नहीं है, भले ही ठीक सुबह चार बजे उठना है। परंतु यह मन अपने बस में कहाँ है। वह तो कोलकाता  के बड़ा बाजार  जा पहुँचा है।  चौथी मंजिल पर स्थित वह अपना कमरा, वह बारजा , बरामदा , नल से आने वाला वह मिट्टी युक्त गंगा पानी , सोफे पर तकिये के सहारे बैठी माँ , नीचे कारखाने से सुनाई पड़ती बाबा की तेज आवाज... प्यारे, लूडो होगा क्या.. नया प्लास्टिक वाला लूडो ले कर मेरा लगभग दौड़ते हुये सीढ़ियों से उतरना , माँ की हिदायत कि सम्हल कर जा मुनिया .. कहींं पांव फिसल न जाएँ ।
     फिर खुद में ही उनका यूँ बड़बड़ाना कि ये चौधरी( बाबा)  भी न लड़के को अकेले नीचे बुला लेते हैं। यह नहीं कि कारखाने से किसी आदमी को भेज देतें, हाथ पकड़ नीचे ले जाता , समझते ही नहीं कि कितनी खतरनाक सीढ़ी है। वह हर एक दृश्य मस्तिष्क पटल पर छा सा गया है।
   उधर बाबा थें कि नीचे मुझे जयनदत्तो के कपड़े की दुकान पर लेकर चले जाते थें। दुर्गा पूजा पर हर बंगाली नये परिधान में होते हैं। महिलाएँ  तो साल भर की खरीददारी कर लिया करती थीं तब..
  अब बस भी करो यार .. चलों बिस्तरे पर, मन को समझाये ही जा रहा हूँ। परंतु उलटे वह मुझसे सवाल कर रहा है कि क्यों इतना बड़ा हो गया तू कि तेरे अपने और जो तेरे सपने थें, सभी दूर चले गये। देख तो वह हावड़ा ब्रिज तूझे ही पुकार रहा है। उस शाम तू यही पर तो खड़ा था न। किस तरह से मचलता था , घोष दादू का हाथ थामे पैदल ही उस पार हावड़ा स्टेशन तक जाने के लिये।
     खैर , अब बिस्तरे पर जा रहा हूँ, मन को यह तसल्ली देते हुये सोने का प्रयत्न करता हूँ। बेवजह परेशान करती हैं ये यादें.. कभी हर्ष तो कभी दर्द , इन गीतों की तरह ही..

सपने सुहाने लड़कपन के मेरे नैनों में डोले बहार बनके..
        या फिर इस..
जो चला गया उसे भूल जा वो न सुन सकेगा तेरी सदा ..

   वैसे, तो ढ़ाई दशक से यह जो मेरा कर्मक्षेत्र है, जहाँ
 मैं कर्म पुरुष बना,  स्वालम्बी बना, पत्रकार बना, पहचान बनी, धन, उत्तम भोजन और परनिंदा से मुक्त हुआ। जहाँ अभिव्यक्ति का सामर्थ्य भी प्राप्त हुआ , यह तपोभूमि विंध्यक्षेत्र भी भगवती विंध्यवासिनी का महा शक्ति पीठ है। महा त्रिकोण क्षेत्र में आदिशक्ति यहाँ तीन स्वरूपों में विराजमान हैं। महाकाली ,महासरस्वती एवं महा लक्ष्मी , जिनका सम्बंध हम मनुष्यों के तन, मन और धन से है।
 पूरे नवरात्र यहाँ बड़ा मेला लगता है। कोई पच्चीस लाख दर्शनार्थी आते हैं यहाँ...

  मेरा चिन्तन है कि इन्हीं जगतजननी की प्रतिविम्ब है नारी । यदि इनसे कुछ प्राप्त करना है तो बालक बन जाओ ...त्रिदेवों को ही लें, जो दूषित उद्देश्य से गये थें ऋषि पत्नी सती अनसूया के आश्रम । वहाँ उनका उद्देश्य पूर्ण  हुआ अवश्य ,किन्तु बालक बन कर । यूँ भी कह लें कि अनसूया की सकरात्मक उर्जा के समक्ष त्रिदेवों का नकारात्मक उद्देश्य बौना पड़ गया ..? माँ के अन्नपूर्णा स्वरुप को लें अब , जिनके समक्ष औघड़ दानी बाबा विश्वनाथ स्वयं याचक के रुप में उपस्थित हैं। माँ का प्रेम देखें की जो भी है उनका , वह सब कुछ महादेव को समर्पित कर दिया। पत्नी की सम्पत्ति को अधिकार से नहीं, वरन् उसमें प्रेम जागृत कर प्राप्त करें हम। हाँ , और यदि नारी क्रोधित हो, तब भी बालक बन जाए । भगवान शिव ने यही तो किया था एक बार , मासूम बालक बन रुदन करने लगे, उधर अनियंत्रित महाकाली ने जैसे ही शिव के उस बाल स्वरूप को देखा, उनमें वात्सल्य प्रेम उमड़ पड़ा, रौद्र रुप शांत हो गया। एक प्रसंग पंचवटी का यह भी है कि आसुरी शक्तियों का विनाश करने से पूर्व भगवान राम ने स्वयं अपने हाथों से पुष्प आभूषण बना माता सीता का श्रृंगार और प्रतीक पूजन किया था, शक्ति अर्जन के लिये...
 आप भी चिन्तन करें कि स्त्री के विविध रुपों में कौन श्रेष्ठ है.? मुझे तो माँ का वात्सल्य से भरा वह आंचल आज भी याद है।
 मेरी दुनिया है माँ  तेरे आंचल में
शीतल चाय जो दुख के जंगल में
ओ मैने आँसू भी दिये
पर तू रोई ना
ओ मेरी निंदिया के लिये
बरसों सोयी ना..

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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https://youtu.be/EgojT8gjwOs

Friday 5 October 2018

इस्तीफा जो नज़ीर न बना ..


( बातें,  कुछ अपनी- कुछ जग की )
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   सोच रहा हूँ कि जिस नज़ीर की बात उस समय शीर्ष पर स्थित राजनेता कर रहे थें। उनके उस चिन्तन का क्या हश्र हुआ ,इस आधुनिक भारत में ..?  क्या आज शीर्ष पर बैठें राजनेता, अधिकारी से लेकर परिवार का मुखिया तक किसी भी मामले में नैतिक आधार पर अपनी जिम्मेदारी तय करने को तैयार है ...?
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    आज तबीयत काफी भारी है । यूँ समझ लें  कि बड़ी कठिनाई से अपने अखबार से जुड़े कार्य कर पाया हूँ। फिर भी शाम ढलते ही व्याकुल मन विश्राम की जगह चिन्तन में खो गया है, अपने- पराये को लेकर...
  है न यह एक गीत -

आते जाते खूब्सूरत आवारा सड़कों पे
 कभी कभी इत्तेफ़ाक़ से
कितने अंजान लोग मिल जाते हैं
 उन में से कुछ लोग भूल जाते हैं
कुछ याद रह जाते हैं...

      यह जीवन मेरे लिये यादों का घरौंदा है।  गृहस्थ जीवन के सुख-दुख और किसी अपने के होने की अनुभूति हमारे जैसे यतीम भला क्या जाने.. हम किसी को अधिकार के साथ  पुकार भला कैसे सकते हैं..
  हाँ , इस तन्हा लम्बे सफर में  कुछ अंजान लोग मुझे भी मिले हैं,पर वे अपने तो नहीं होते न ..?
    यतीमों की व्याकुलता का मोल गैरों की भावनात्मक सहानुभूति के चंद शब्द से भला कितना हो सकता है । उसे तो किसी ठोस आश्रय की तलाश रहती है।  हाँ , कभी -कभी भ्रम में ऐसे निराश्रित लोग सराय को अपना आशियाना समझ लेते हैं। फिर जब कभी उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि आप हमारे हैं कौन ..?  बस यहीं उनके जीवन में वह दर्दनाक मोड़ आ जाता है कि उस दुर्घटना के बाद वह अपाहिज से हो जाते हैं । टूट जाते हैं ,बिखर जाते हैं ,फिर भी जब उससे कहा जाय कि सामान्य जीवन जीते क्यों नहीं आप ..
     भले ही स्नेह में ही किसी ने कहा हो,  पता नहीं क्यों भावुक मन यह कैसा सवाल कर उठता है कि देखों न स्वयं तो मक्खन टोस्ट खाये वे और हमसे कहते हैं कि सूखी रोटी पर रहो , यह नज़ीर तो नहीं है न  ? ऐसे प्रिय वचन भी तब कष्टकारी क्यों हो जाते हैं  .. ?? बड़ी विचित्र स्थिति होती है, ऐसे सम्वेदनशील एकाकी इंसान की ।
    मेरा मानना है कि अपने- पराये में दिग्भ्रमित ऐसे पथिक को चाहिए कि राह में मिलते अंजान लोगों का हँस कर अभिवादन करते हुये आगे बढ़ता ही जाए। अन्य कोई विकल्प नहीं शेष है उसके पास, अन्यथा बेवजह ठोकर खाते रहेगा, बार- बार उसे लगेगा कि वह बेगाना है । फिर क्या होगा ...  दो बातें  ...
  पहला ऐसा इंसान हँसता खिलखिलाता रहता है, परंतु एक जोकर ( विदूषक) की तरह । दूसरा ऐसे में उसका वैराग्य भाव जागृत हो उसे  राह दिखला सकता है। हाँ , सार्थक पक्ष यह रहता है कि उसकी सृजनात्मक क्षमता में अप्रत्याशित वृद्धि होती है, ऐसी अनुभूति है मेरी ... यदि आपकों कुछ भी कहना है, लिखना है, तो पहले स्वयं नज़ीर बनना होगा , अपने लिये मार्ग तलाशना होगा, तब जाकर आपकी वाणी  एवं लेखनी में उर्जा प्रजवलित होगी। धैर्य रख के यह चिन्तन करना होगा कि निर्रथक हँसी-ठहाके में दिन गुजारने वाले अपनी क्या कोई नज़ीर छोड़  सकते हैं।  जबकि एकांत में चिन्तन करने वाले अकसर समाज के लिये चिराग बन जाते हैं। जो हर परिस्थितियों में रह कर विरक्त है, वही नर है। जिस तरह से मेरे इर्द गिर्द चाहे जितने भी पकवान हों, पर मेरी दृष्टि सिर्फ चार सूखी रोटियों पर ही होती है..
    कुछ का मानना है कि ब्लॉग पर ऐसा कुछ न लिखा करो कि तुम बावले कहलाओ, परंतु मेरा अपना मत है कि खुलकर लिखें, खुल कर रोये और अपना भेद छिपाने वाले ऐसे लोगों की सोच पर हँसे...
  अपना मन हल्का करने के लिये ही न हम धर्मस्थलों पर जाते हैं। एकांत में ईश्वर के समक्ष अपनी गुनाहों को कबूल करते हैं। लेकिन फिर भी चेहरे पर नकाब लगा समाज में महान बनने का दिखावा करते हैं.. याद रखें यह कोई नज़ीर नहीं है । यह छल हमें मुक्त न होने देगा इस जीवन से ...


  इस प्रार्थना के साथ ..

तुम्हीं हो माता, पिता तुम्ही हो,
तुम्ही हो बंधु सखा तुम्ही हो
तुम्ही हो साथी तुम्ही सहारे,
कोई न अपना सिवा तुम्हारे ..

 आत्मबल को विकसित करते हुये ,  हम यतीमों को अपना सामाजिक दायित्व निभाते रहना चाहिए।
  वैसे तो, ब्लॉग को मैं परनिन्दा से दूर ही रखना चाहता हूँ । फिर भी एक पत्रकार हूँ , तो मुझे ऐसे महान राष्ट्र नायक एवं सादगी पसंद महापुरुषों को श्रद्धा सुमन अपनी लेखनी के माध्यम से अर्पित करनी ही चाहिये, ऐसी प्रबल इच्छा हुई  2 अक्टूबर को मन में ..
   
      राष्ट्र के सादगी पसंद दो कर्मयोगियों की जयंती चहुंओर मनायी गयी । राष्टपिता महात्मा गांधी जिन्होंने गुलामी की जंजीरों से देश को मुक्त कराया और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, जिन्होंने जय जवान जय किसान का उद्घोष किया। भारत को खाद्यान्न के मामले में स्वालंबी बनाया।
    बापू पर तो हर कोई लिख रहा है, मैं तो शास्त्री जी के उस त्यागपत्र पर चिंतन कर रहा हूँ, जो उन्होंने नेहरू जी की सरकार में रेलमंत्री रहते अपने पद से तब दिया था, जब रेल दुर्घटना हुई थी। वर्ष 1956 में महबूबनगर रेल हादसे में 112 लोगों की मौत हुई थी। इस पर शास्त्री जी ने इस्तीफा दे दिया। इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार नहीं किया। तीन महीने बाद ही अरियालूर रेल दुर्घटना में 114 लोग मारे गए। उन्होंने फिर इस्तीफा दे दिया। तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उस त्यागपत्र को स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वे यह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि यह एक नज़ीर बने, इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं।
    अब सोच रहा हूँ कि जिस नज़ीर की बात उस समय शीर्ष पर स्थित राजनेता कर रहे थें। उनके उस चिन्ता एवं चिन्तन का क्या हश्र हुआ ,इस आधुनिक भारत में ..? शीर्ष पर बैठें राजनेता, अधिकारी से लेकर परिवार का मुखिया तक किसी भी मामले में नैतिक आधार पर अपनी जिम्मेदारी तय करने को तैयार है ? जनप्रतिनिधि, अधिकारी, पत्रकार, वह हर प्रबुद्ध वर्ग , जो इस समाज से जुड़ा है.. यह नैतिक त्यागपत्र सबके लिये है। आपकों बताऊँ , मैं जिस मीरजापुर जनपद से हूँ , यहाँ एक सियासी जुमला मशहूर है , " नयी सड़क गड्ढ़े वाली  "।
    कितने ही करोड़ की लागत से सड़कें बन रही हैं और छह माह भी नहीं गुजर पाता कि धूल उड़ाती इन नवनिर्मित सड़कों का नामकरण नयी सड़क गड्ढे वाली हो जाता है।  कहाँ तो हमारे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गड्ढ़ा मुक्त सड़क की बात कही थी, किन्तु पिछली अखलेश सरकार से भी बुरा हाल है, इन सभी सड़कों का..
   किसी भी मंत्री, स्थानीय जनप्रतिनिधि  या फिर अधिकारी ने यह प्रयास नहीं किया कि स्थलीय निरीक्षण करे वह। इनमें इतना आत्मबल नहीं है , जो ऐसा करें वे। अतः नैतिक जिम्मेदारी और नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र ऐसे शब्द राजनीति के भेंट चढ़ गये हैं, इस अर्थ युग में। बचा कुछ भी नहीं.. ?
     एक पैमाना होना चाहिए शीर्ष पर बैठे राजनेताओं का ,अधिकारियों का ,समाज और घर के मुखिया का जनप्रतिनिधियों का कि यदि किसी भी कार्य में घोर अनियमितता की शिकायत सामने आयी, तो उन्हें अपने अंतरात्मा की आवाज सुनकर उस घोटाले, भ्रष्टाचार और लापरवाही के लिये स्वयं की भी जिम्मेदारी तय करें, न कि नीचे वाली कुर्सी पर बैठे किसी शख्स की बलि चढ़ाना चाहता है । इन दिनों जिले में क्या हो रहा है, नवनिर्मित सारी  सड़कें टूटती जा रही हैं। नयी सड़क गड्ढ़े वाली का यह शोर अखिलेश की सरकार से भी कहीं ज्यादा योगी आदित्यनाथ के शासन काल में हैं। लेकिन, जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि अथवा अधिकारी ने इसकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली। कार्यदायी संस्था को काली सूची में डालने की कार्रवाई सुनिश्चित नहीं की। अपने दायित्व ( पद/ कुर्सी ) का भी त्याग नहीं किया, तो फिर कैसा नज़ीर। क्यों याद रखे लोग आपकों ..
      एक बात और जब भी इस चकाचौंध भरी दुनिया में मैं व्याकुलता का अनुभव करता हूँ  ,स्वयं को शास्त्री जी के दर्पण के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ, क्यों की यह एक नज़ीर है।
    उनकी सादगी को नमन करता हूँ , एक उर्जा मुझमें समाहित होती दिखती है। वह है सादगी की, ईमानदारी की, कर्मठता की ,नैतिक कर्तव्य की और उस नैतिक त्यागपत्र की भी।
   बापू के प्रिय इस भजन के साथ आज की अपनी बात को विराम देता हूँ...

 वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे,
पर दु:खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे ॥

      बापू की लंगोटी और शास्त्री जी की सादगी निश्चित ही मेरे लिये एक नज़ीर है।


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (इस्तीफा जो नज़ीर न बना... ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |