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Friday 29 June 2018

तेरे जुमले से काश ! इनका घर संवर जाता...

       तुम नेता नहीं देवता जो कहलाते

 
 अपने देश में यदि राजनैतिक जुमले की बात करें, तो उसके केंद्र में गरीबी ही रही है, जातीय - मजहब और मंडल कमंडल की सियासत से पहले भी एवं बाद में भी । "गरीबी हटाओ देश बचाओ " का नारा 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी का और " अच्छे दिन आने वाले हैं " यह जुमला 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी का रहा है। पर हम निम्न मध्यवर्गीय लोगों के जीवन स्तर में इतने वर्षों में क्या तनिक भी सुधार हुआ है ? ईमानदारी से सत्ताधारी दल के नये-पुराने नेता बस इतना बता दें!
      जहां तक मेरा अनुभव है, तो एक गरीब मजदूर से अधिक  कष्टकारी और कुंठित जीवन शिक्षित निम्न- मध्यवर्गीय लोगोंं का है। श्रमिकों को तो यह गरीबी मानसिक वेदना इसलिए उतनी नहीं देती कि उनकी सोच लगभग मेरे जैसी ही है कि चलो भाई क्या किया जाए , अपने पास कोई महाविद्यालय की डिग्री तो है नहीं कि जेंटलमैन कहला सकूं। तो फिर मेहनत मजदूरी से जो मिल गया, उसी से गुजारा कर लिया जाए । परंतु वे शिक्षित लोग , जिनकी अनेक ख्वाहिशें रहीं युवा काल में, अब साहब की जगह पांच- छह हजार पगार पाने वाले नौकर बन कर रह गये हैं । उनकी स्थिति देख कर मुझे सिहरन सी हो जाती है कि यदि मैंने विवाह किया होता कहीं, तो क्या होता ? किराये पर कमरे की व्यवस्था, बच्चों की शिक्षा,दवा - इलाज, पर्व -त्योहार, मांगलिक कार्यक्रम और फिर श्रीमती जी को खुश करने के लिये भी तो खास अवसर  पर उन्हें  कुछ तो तोहफा देना होता ही। यह तो ऊपरी खर्च है,  अभी भोजन की व्यवस्था बाकी है। जब मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव आया युवाकाल में, तो मैंने कितनी ही बार जेब टटोला था। वहां हमारे अखबार के दफ्तर में भी सम्पादक जी ने एक बार टोक ही दिया था कि शशि वैसे तो तुम्हारा निजी मामला है, पर मेरी मानों तो शादी कर लो। यहां भी मित्र गण मेरा उपहास इसीलिये किया करते थें। परंतु न कभी हमारे संपादक ने यह सोचा और न ही इन साथियों ने की  कि प्रेस से तब मुझे तीन हजार रुपया प्रति माह वेतन ही मिलता था। उसमें से आधा तब कमरे का किराया ही हो जाता न। उपदेश देना एवं उपहास उड़ाना तो बड़ा आसान सा कार्य है।
   फिर भी मुझे अपने लिये कोई दुख नहीं है, क्यों कि ईमानदार कहलाने के लिये मैं स्वयं ही घर आयी लक्ष्मी और भावी गृहलक्ष्मी को ठुकरा दिया था। यह जानते हुये कि जिले स्तर की पत्रकारिता में धन की जरुरत जुगाड़ से ही पूरी की जा सकती है। यह समाज, सरकार और संस्थान वाह ! वाह !! कहने के अतिरिक्त हम जैसों की कोई आर्थिक मदद नहीं करेगा। ये तो हमारा साथ संकटकाल में भी नहीं देते है। हां, घड़ियाली आंसू टपकाने वालों की कतारें जरुर कुछ लम्बी हो जाएंगी। .   
        खैर छोड़े बात उन गरीबों की कर रहा हूं जो शिक्षित है। तो सबसे पहले मुझे अपने ही बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं। जब घर पर अपना विद्यालय नहीं खुला था। तब पापा एक निजी स्कूल में पढ़ाते थें । बाद में वहां का प्रबंध तंत्र पर एक दबंग का कब्जा हो गया था। अध्यापकों को वेतन तक नहीं मिल पा रहा था। एक शिक्षित परिवार के लिये वह कितना कठिन दौर था। मम्मी- पापा और हम तीन भाई- बहन, पांच सदस्यों का खर्च कैसे चले ? हम सभी स्वाभिमानी भी थें। उपवास पसंद था, पर किसी को घर के अंदर की हालात की जानकारी नहीं हो पाती थी। तब 10 पैसे की बनी बनाई  सब्जी लेने के लिये मैं एक परिचय की बुआजी के पराठे की दुकान पर लुकछिप के देर शाम जाया करता था, क्यों कि रोटी के अतिरिक्त और कुछ बनना सम्भव नहीं था। मम्मी जानती थीं कि दिन भर परिश्रम करने के बावजूद यदि पापा को सब्जी- रोटी भी न मिली, तो अगले दिन वे पुनः श्रम कैसे करेंगे। एक बार तो मम्मी ने बक्से भर गुलसन नंदा के अपने तमाम  उपन्यास इसलिए बेच दिये थें, ताकि हम सभी दीपावली मना सकें  और फिर होली पर कीमती साड़ियों को भी पड़ोसियों के हवाले कर दिया , जिससे कुछ पैसे मिल जाएं और हम बच्चों के लिये नये कपड़े ना सही मिठाई बनाने की सामग्री ही आ जाये । मेरी स्मृतियों में तो मौसी जी का दर्द से भरा वह चेहरा भी सामने आ जाता है, जब यही गरीबी बार बार उनके किसी न किसी आभूषण को निगल जाया करती थी। मौसा जी दो विषयों में पोस्टग्रेजुएट थें। उनके पिता जी की सर्राफा की बड़ी सी दुकान, बड़े भाई बैंक में प्रबंधक, एक भाई होम्योपैथिक चिकित्सक, एक अन्य की मोटर साइकिल पार्ट्स की बड़ी सी दुकान, फिर भी उच्चशिक्षा प्राप्त हर संस्कारों से युक्त मेरे मौसा जी बेरोजगारी का दंश झेलते ही रहें, सड़क दुर्घटना में मृत्यु से पूर्व तक। इसके बावजूद अपनी इकलौती पुत्री का दाखिला मुजफ्फरपुर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में करवाया था। मैं जब वहां था, तो कभी उसे गोद में उठा कर , तो कभी हाथ पकड़ कर स्कूल छोड़ने जाया करता था। उस विपत्तिकाल में भी मौसी जी अपने अमीर रिश्तेदारों के यहां पड़ने वाले मांगलिक कार्यक्रमों में महंगे उपहार की व्यवस्था किसी तरह से कर ही लिया करती थीं। दरवाजे पर जो पर्दा टंगा रहता था, उसके अंदर की हलचल हम सभी के अतिरिक्त परिवार का कोई अन्य सदस्य नहीं जान पाता था। आज भी इसीलिए मौसी जी का सभी जगह बहुत सम्मान है।
        अब तो आप कुछ- कुछ समझ ही सकते हैं कि एक निम्न मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार बेरोजगारी का दंश किस तरह से झेल रहा है। और हमारे ये राजनेता सियासत की बिसात पर हमें झूठे हसीन सपने दिखला रहे हैं।

(शशि) चित्र गुगल से साभार

Thursday 28 June 2018

कबीर की वाणी है हमारा आत्मबल



  महान समाज सुधारक संत कबीर को लेकर मेरा अपना चिंतन है। कबीर की वाणी में मुझे बचपन से ही आकर्षण रहा है । जब छोटा था, तो विषम आर्थिक परिस्थितियों में पापा (पिता जी)  अकसर ही कहा करते थें -

" रुखा सुखा खाई के ठंडा पानी पी।
देख पराई चुपड़ी मत ललचाओ जी।।"

  जिसे सुन हम सभी अपनी सारी तकलीफों और शिकायतों को भुलाकर कर बिन मुस्कुराये रह नहीं पाते थें।

   और अब जब मैं किसी को इसलिए दुखी देखता हूं कि उसे कहीं से न्याय नहीं मिल पा रहा होता है । जिससे अपने इस शोषण से वह व्यथित हो रहा होता है , तो उसे सांत्वना देने के प्रयास कहा करता हूं-

 "दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय।
बिन सांस की चाम से, लोह भसम होई जाय।।"

  यह उस संत की वाणी है,  जिसने 15 वीं शताब्दी में एक जनक्रांति ला दी थी । और आज 21 वीं सदी में भी उतनी ही प्रासंगिक है। मैंने स्वयं अपने आहत मन को अनेकों बार यही कह सांत्वना दिया है। कहना नहीं होगा कि परिणाम भी मेरे अनुकूल रहा। यहां पत्रकारिता में आज मैं इसी लिये ढ़ाई दशकों से डटा हुआ हूं। जो मुझे बाहर करना चाहते थें, वे स्वयं नेपथ्य में हैं। मेरा सदैव से यह चिन्तन रहा है कि गरीब और ईमानदार व्यक्ति को पीड़ा न दिया जाए। इनके विरुद्ध षड़यंत्र न हो और न ही इनके हक अधिकार पर डाका डाला जाए। फिर भी दर्प से भरे सामर्थ्यवान लोग कबीर की चेतावनी की अनदेखी करते रहते हैं। मैं सिर्फ दो बातें उनसे कहना चाहता हूं। गरीब व्यक्ति को भूल कर भी न सताया करों और एक निर्बल व्यक्ति की आह से भी खतरनाक एक ईमानदार  व्यक्ति की बददुआ होती है, क्यों कि वह अपना सर्वस्व दावं पर लगा चुका होता है, इस संकल्प के लिये। वैसे, मैं कोई उपदेशक तो हूं नहीं ,जो ज्ञान बांटता फिरूं , भले ही स्वयं अंधकार में पड़ा रहूं। पहले क्या किया , वह और बात है, पर अब अपनी कथनी करनी में बिल्कुल भी अंतर नहीं रखना चाहता हूं। भले ही पत्रकार हूं, परंतु पला-बढ़ा एक निम्न मध्यवर्ग में ही हूं । जब कोलकाता में बाबा- मां के यहां था तो , वह दूसरी बात थी। वहां , मेरी हर अभिलाषा पलक झपकते ही पूरी हो जाती थी। फिर जब मीरजापुर आया तो संघर्ष की प्रतिमूर्ति बनने को विवश था। किसी तरह से समर्थ जन अमानुष बन निर्बल लोगों का शोषण कर रहे हैं, इसकी प्रथम अनुभूति भी इसी मीरजापुर में मुझे हुई। एक कड़ुवा सत्य तो यह भी है कि मैं स्वयं भी उन मूक बधिर लोगों से ही एक हूं, जिसने अपने हक अधिकार के लिये कभी भी जुबां नहीं खोली। नियति के समक्ष समर्पण के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी तो नहीं होता है मनुष्य के पास। बस ऐसा ही कह देते हैं निर्बल जन ! पर कबीर ने ऐसा किया क्या ? इसलिये मैं इस लंबी बीमारी(ज्वर) में भी अपने कर्म का त्याग नहीं कर पाता हूं। मुझे कोलकाता में अपने बचपन का वह दिन याद हो आता है। जब सुबह लम्बे समय से अस्वस्थ मेरी मां (नानी) ट्रांजिस्टर जैसे ही खोलती थीं । वंदेमातरम के बाद कबीर वाणी ही सुनने को मिलती थी। मैं बाहर सीढ़ी पर बैठा पढ़ रहा होता था पर कान रेडियो की ओर रहता था ।  तब भी कबीर के इस दोहे में

" माटी कहे कुम्हार से , तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी  तोय ।। "

  तब मेरा जितना आकर्षक था , आज कहीं अधिक है। इसी के बल पर तो मैं करीब दो दशक अपने पुराने बुखार को बराबर  चुनौती दिये जा रहा हूं। सुबह 5 से 7 बजे दो घंटे साइकिल प्रतिदिन चलाता हूं और साथ ही चार घंटे तक समाचार भी मोबाइल पर ही रोजाना टाइप करता हूं। फिर भोजन बनाना आदि भी अनेक कार्य तो रहता ही है।
     हां, जब यह देख लिया हूं कि अखबार में स्वतंत्र लेखन नहीं कर सकता हूं। किसी जनप्रतिनिधि के प्रेसवार्ता के प्रकाशन के लिये पहले विज्ञापन चाहिए। तो मैंने इस नये प्लेटफार्म का चयन किया है। लेकिन, अन्याय के समक्ष समर्पण करना मेरी आदत नही हैं। सच कहूं, तो ब्लॉग लेखन से मेरी नई पहचान बनी है।
   यहां मैं कबीर की उस वाणी पर खरा उतरने की मंशा रखता हूं कि

 "कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सब की खैर।
   ना  काहू  से दोस्ती , न  काहू  से  बैर ।।"

निष्पक्ष भाव का होना जीवन में इसलिये आवश्यक है कि हम  स्वयं को भी टटोल सकें। जब यह मित्र और शत्रु का द्वंद हमारे अंदर समाप्त हो जाएगा। तभी हमें इस सत्य का ज्ञान होगा -
  "बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।"
शशि
चित्रः गुगल से साभार

Tuesday 26 June 2018

बिना कोई पदचिह्न छोड़े यूं कैसे चला जाऊं...



 

 
    " भैया आपका स्किन( त्वचा) छोड़ रहा है " अभी पिछले ही दिनों प्रिय रामेश्वरम ने मुझसे कहा था। यह बता ही चुका हूं कि जब मीरजापुर आया था, तो उनके परिवार ने ही मुझे शरण ही नहीं स्नेह भी दिया था। सो, मेरे प्रति उनकी यह चिन्ता स्वाभाविक है। परंतु शरीर और बीमारी को  लेकर ऐसी चेतावनी से मुझे अब तनिक भी घबड़ाहट नहीं होती है। अतः मैंने भी प्रतिउत्तर में कह दिया कि अब तो सब कुछ समेट ही रहा हूं। इसे अन्यथा न लें ! समेटने का अभिप्राय मेरा यह है कि संसार के इस बाजार से निकल एकांत की ओर बढ़ रहा हूं। जहां  शांति है और मृत्युभय भी नहीं। करीब तीन दशक में चंद दिनों को छोड़ इस अकेलेपन ने मुझे असहनीय वेदना दी है। अजीब सी छटपटाहट और घबड़ाहट थी उस अकेलेपन में । आसपास किसी अपने को व्याकुलता से तलाशती रहीं तब मेरी ये निगाहें , कोई हमदर्द नहीं दिखा फिर भी , वह नगमा है न कि  "अब तक जो भी दोस्त मिले बेवफा मिले। " हां ,अब  उस अकेलापन से निकल एकांत यात्रा की ओर बढ़ रहा हूं। एकांत में न दर्पण मुझे भयभीत करेगा, न ही कोई स्नेह से यह कहेगा कि कितने दुर्बल होते जा रहे हो। भोजन एवं वस्त्र का लोभ भी कहां होता है इस एकांत में, फिर भी तेज में वृद्धि निश्चित होती है। इसी एकांत में ही तो  सृजन होता है। जहां सिद्धार्थ बुद्ध बन जाते हैं और शिव समाधि लगा महादेव । जीवन क्षणभंगुर है, सो जाहिर है कि यह पथिक भी चाहता है कि अपना कोई पदचिह्न वह इस संसार में छोड़ ही जाए। मित्रों यह जो पत्रकारिता है न , मेरी स्थाई पहचान नहीं है। बड़े पत्रकारों की गुमनाम जिंदगी मैंने इसी छोटे से मीरजापुर में देखी है। ऐसे बुझे दीपक की तरह मैं प्रस्थान करना नहीं चाहता, इसीलिये प्रयास है मेरा कि इस एकांत में कुछ तो सृजन कर जाऊं, ताकि यह ग्लानि न होने लगे कि आया था तो मुट्ठी बंधी थी और अब हाथ पसारे जा रहा हूं।निश्चित ही हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने अनमोल जीवन में संघर्ष भरी वह आखरी बाजी जीतें, जहां अकसर लोग हार जाते हैं। जैसे किसी क्रिकेट मैच में हार रही टीम का खिलाड़ी आखिरी गेंद को बाउंड्री से बाहर भेज विजय पताका फहरा देता है। मेरी भी कोशिश है कि नियति संग जो मुकाबला चल रहा है , उस संघर्ष भरे जीवन के पिच पर नियति के हाथों बोल्ट होने से पहले ही गेंद को बाउंड्री से उस पार कर दूं। मेरे समझ से हर किसी को इसे गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए कि  अपने जीवन की फिनिशिंग किस तरह से की जाए । बचपन से लेकर प्रौढावस्था तक हम सभी नियति के समक्ष नतमस्तक है। लेकिन, इस एकांत यात्रा में अब मेरे पास एक अवसर है कि गेंद को बाउंड्री पार करवा , हारा हुआ मैच अपने नाम कर सकूं। अमूमन लोग यह नहीं सोचते कि जीवन के इस मैच में आखिरी गेंद पर उन्हें कुछ करना है। पूछने पर यही कहेंगे कि अभी तो बच्चों की शादी की है, नाती- पोते संग खेलना है , फिर उनका भी विवाह करना हैं और परनाना- परदादा बनना है। जब छोटा था, तो दादी कहती थीं  कि तुम्हारे विवाह और फिर वंशवृद्धि के बाद वे भी परदादी बन जाएंगी। तब स्वर्गारोहण के लिये सोने की सीढ़ी लग जाएगी। पहले के लोगों की ऐसी ख्वाहिश थी। पर मेरा कहां कोई वंश रहेगा।  फिर भी मुझे अपना विकेट फेंक कर नहीं जाना है, इस दुनिया से। राजनीतिक से जुड़ी सुर्खियों के लेखन से पत्रकारिता में मुझे यहां अलग पहचान निश्चित मिली है। फिर भी ब्लॉग लेखन में मेरा विषय सियासत नहीं रहा। मैं एक आम आदमी के संघर्ष को प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरे पास तो किसी महाविद्यालय की डिग्री तक नहीं है। पर मां सरस्वती ने जिन पर कृपा की है, उनसे बस इतना कहना चाहूंगा कि अपनी रचना को कल्पना लोक में न लेते जाएं, छोटे पर्दे के किसी धारावाहिक की तरह। उंगली पकड़ हमें धरातल पर भी  चलना सिखाये वे।
   विषय बोझिल होता जा रहा है, सो  आये यह प्यारा सा समर्पण गीत गुनगुनाए अपने प्रिय के लिये-

हो मिल जाएं इस तरह ...
दो लहरें जिस तरह...
कभी हो ना जुदा
हां ये वादा रहा
(शशि)
 चित्रः गुगल से साभार

Saturday 23 June 2018

बीमार तन- मन को जब गुरु ने दिया आत्मानुभूति का मंत्र



   
       चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम
 
          जीवन में कष्ट हमें नई शिक्षा, नई चुनौती और नई मंजिल देता है। सो, अवसाद में आत्महत्या कर जीवन के वरदान को इतनी आसानी से हमें नष्ट नहीं करना चाहिए। जिसे हम अपना समझते हो, उसके बिछुड़ने अथवा उसके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी नहीं। इन विपरित परिस्थितियों का सामना करना ही हमारा पुरुषार्थ है। हां, यदि ऐसी स्थिति में कोई सच्चा पथ प्रदर्शक मिल जाए, तो पथिक की राह आसान हो जाती है, अन्यथा तो अपना दीपक हमें अतंतः स्वयं ही बनना है।  मैं बात अपनी उन दिनों की कर रहा हूं , जब वर्ष 1999 में असाध्य मलेरिया ज्वर ने जबरन मुझसे मित्रता कर ली थी और दवा लेने के कुछ माह बाद फिर से वदन में भारी पीड़ा होने लगती थी, जब भी दर्पण में देखता था तो मेरे सुंदर स्वस्थ्य शरीर की जगह एक श्याम वर्ण का थका हारा , दुर्बलकाय , कांति हीन युवक उसमें दिखता था। कतिपय लोग तरह तरह की चर्चाएं मेरी बीमारी को लेकर करने लगे थें। सिर में और कमर के ऊपर असहनीय दर्द से मैं बिल्कुल बेचैन था । फिर भी रंगमंच पर सुबह से रात तक चार शो उसी तरह से करना पड़ता था। उस समय तो मैं इस स्थिति में भी नहीं था कि बिना श्रम किये दवा, आवास और भोजन की व्यवस्था कर सकूं। इस स्थिति में घर भी वापस नहीं लौटना चाहता था। वहां मेरा था भी कौन ? सारे संबंध समाप्त होने पर ही तो अनजान डगर पर निकला था। स्वाभिमानी था और हूं, इसीलिये किसी के समक्ष हाथ फैलाने का सवाल ही नहीं। नहीं तो मेरे जैसे कुछ पहचान वाले पत्रकार के लिये जुगाड़ से धन की व्यवस्था करना इतना कठिन कार्य भी नहीं था तब।ऐसे में एक ही मार्ग शेष बचा दिख रहा था, वह इस जीवन का अंत ,  ऐसी परिस्थिति दो बार ही उत्पन्न हुई हैं,  मेरे जीवनकाल में । वैसे, तो आज भी हल्का बुखार मुझे बना रहता है, स्वस्थ तन भी पुनः नहीं प्राप्त कर सका , लेकिन  शरीर, स्वास्थ्य, धन,भोजन अथवा अपने किसे मित के प्रति मोह नहीं है, इन दिनों मुझे , क्यों नहीं है इस पर  चर्चा बाद में करुंगा। अभी तो उस भयानक शारिरिक पीड़ा का उल्लेख्य कर रहा हूं। तब हमारे सब से घनिष्ठ मित्र रहें डा० योगश सर्राफा भी हार गये थें।एलोपैथी, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयों के साथ योग का सहारा भी लिया। योग एवं आसन तो मैं काफी पहले से ही करता था। परंतु सभी से मोहभंग हो गया था , इस कष्ट में। उस स्थिति में मेरे सबसे करीब जो रहें , वे हमारे गुरु जी पं० रामचंद्र तिवारी। लोभ मुक्त पत्रकारिता मैंने उन्हीं से सीखी है और भी बहुत कुछ उनसे जानना था, परंतु असमय ही कैंसर से उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें हम बाबू जी ही कहते थें। जब उन्होंने देखा कि मैं ठीक नहीं हो रहा हूं, असहनीय कष्ट में हूं , आत्मबल क्षीण होता जा रहा है और सम्भव है कि इस अवसाद में कोई अप्रिय कदम उठा सकता हूं। तो उन्होंने मुझे इससे मुक्त करने के लिये जबर्दस्त उर्जा से भरा 6 श्लोक  दिया। मुझे संस्कृत तो आती नहीं है। अतः एक कागज पर उन श्लोकों के साथ उसका अर्थ भी लिख कर दिया। फिर एक कैसेट भी दिया , जिसमें  आदि शंकराचार्य  द्वारा लिखित इन श्लोक चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम का शास्त्रीय संगीत में गायन था। जिसे आत्मषट्कम /निर्वाणषटकम्  के रुप में जाना जाता है।

मनोबुध्यहंकार चित्तानि नाहं ,
न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राण नेत्रे ,
न च व्योमभूूमिर्न तेजो न वायु :
चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम...

इन छंदों को पढ़ना, समझना सचमुच आत्मानुभूति के लिये मेरी समझ से आवश्यक है। परंतु बाद के कुछ वर्षों में न जाने क्यों मैं इससे दूर हो गया था, अन्यथा जीवन में पुनः कष्ट आता ही क्यों ? फिलहाल, अब मैं स्वयं को उर्जा , आत्मविश्वास एवं चेतना से लबरेज करने के लिये इन श्लोकों को जरूर सुबह साइकिल से अपने नियमित कर्मपथ पर भ्रमण करते हुये सुनता हूं और स्वयं में परिवर्तन भी महसूस कर रहा हूं। इन श्लोकों ने जीवन रक्षा में मेरी तब भी सहायता की थी एवं पुनः मैं एक बड़े परिवर्तन की राह पर हूं। अवसाद से मुक्ति के लिये मेरी समझ से तो इससे उत्तम श्लोक और कोई नहीं है। काश! मैंने गणित के सवालों में समय व्यर्थ करने की जगह संस्कृत का अध्ययन किया होता, तो आज इन श्लोकों के गायन से कितना आनंदित होता, फिर भी मोबाइल और ईयरफोन मेरी इस आवश्यकता की कुछ तो पूर्ति कर ही देते हैं। आज मैं समझ चुका हूं कि महल और मिट्टी दोनों का अस्तित्व एक ही है, तब नियति पर विलाप क्यों करूँ। और यह भी जान ही लिया हूं कि अधूरेपन का सदुपयोग करना ही जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी है।
(शशि)
चित्र साभारः गुगल

Friday 22 June 2018

दिखावे के लिये नहीं करूंगा योग


 मुझे शिव की समाधि, बुद्ध की खोज,गांधी की अहिंसा चाहिए

   आज अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की धूम रही। सुबह दैनिक क्रिया सम्पन्न कर जब पौने पांच बजे  निकला , तो सड़कों पर लोगों की कुछ अधिक चहल- पहल दिखी। समझ गया कि ये सभी योग प्रेमी हैं। सो, करो योग रहो निरोग की अलख वे जगा रहे हैं। पर इन दिनों अपना योग तो कुछ और ही है। समझ लें कि यह एक तरह का कठिन तप है। सुख- दुख, मान- अपमान जैसे विरोधी भावों में एक समान रहना, चार सूखी रोटी को ही अपना पकवान समझ लेना, दूसरों के वैभव की चकाचौंध में मन को स्थिर रखना , प्रलोभन की हर सामग्री से चित्त को मुक्त रखना , अपनी झूठी प्रतिष्ठा के लिये सत्य का त्याग न करना और भी बहुत कुछ  करने का प्रयत्न ....।  योगेश्वर कृष्ण के अनुसार यही तो योग है। हां, उसे प्राणायाम और योगाभ्यास से जोड़ दिया गया है।  तन पर मन और कर्म का प्रभाव तय है।
                मुझे दूसरों के ऐश्वर्य को देख अपनी दीनता पर क्षोभ क्यों नहीं होता है, जानते हैं ? बस एक छोटा सा प्रयोग मैंने किया है, वह है अपने से नीचे के तबके के लोगों के बीच से गुजरना और उन्हें सम्मान देना। इसका प्रत्यक्ष लाभ मुझे यह मिलता है कि ऐसे लोग मुझे देखते ही बड़े अदब से हाथ उठा स्नेह प्रदर्शन करते रहते हैं। ऐसा कर वे सभी मुझे एक विशिष्ट व्यक्ति का दर्जा ही दे देते हैं। फिर भला मैं क्यों किसी को हाकिम हुजूर कह सलाम करूं। अब चाहे वह धनकुबेर हो, बड़ा नेता अथवा अधिकारी ही क्यों न हो, उनके प्रति जो शिष्टाचार है, उससे अधिक नतमस्तक मैं इनमें से किसी के समक्ष नहीं होता। पत्रकार हूं, तो इन ढ़ाई दशक में न जाने कितने ही मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों, बड़े नेताओं से पत्रकार वार्ता की है। सबसे बड़े सिने स्टार और उद्योगपति भी यहां आये विंध्यवासिनी धाम में, तब भी अन्य कुछ साथी मित्रों की तरह इनके साथ अपनी तरफ से संयुक्त फोटोग्राफी की उत्सुकता कभी नहीं दिखलाई मैंने। बस अपना जो मुख्य कार्य था समाचार संकलन, ध्यान उसी पर केंद्रित रखा। सच कहूं तो साधारण वर्ग के लोगों ने  मुझे वह ऊंचाई दी है, जहां पहुंच कर मैंने देखा कि अमीर लोग भी मेरा सम्मान करने लगे हैं। इसीलिए आज एक पत्रकार अथवा एक समाचारपत्र विक्रेता के रुप में मेरी पहचान नहीं है यहां। यदि ऐसा होता तो सांध्यकालीन अखबार कोई अगले दिन सुबह सहर्ष भला क्यों लेता। प्रातः कालीन समाचार पत्रों में वैसे भी पाठकों को लेकर आपस में तनातनी रहती है। परंतु किसी ने भी मेरा पेपर बंद नहीं किया। यह मेरे लोभ रहित कर्मयोग का स्वतः मिला फल है कि सभी पाठकों का मुझे इस तरह से स्नेह मिल रहा है। हां,कर्मयोग के आगे मुझे  अपने योग में शिव की समाधि चाहिए, बुद्ध की खोज चाहिए, गांधी की अहिंसा चाहिए।  मुझे योग का बाजार नहीं चाहिए, मुझे मोक्ष भी नहीं चाहिए ।  मैं उस स्थिति की अनुभूति चाहता हूं, जिसकी प्राप्ति के बाद आदि शंकराचार्य  ने कहा था-

 न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव  मात्सर्यभावः
न धर्मों न  चार्थो न कामो न मोक्षः
 चिदानंद रुपः शिवोहम् शिवोहम्।

 जीवन की इस आखिरी बाजी को मुझे हर प्रयत्न कर जीतना ही है। सो, तन- मन के मैल को स्वच्छ करने में जुटा हूं। यह मेरा अपना स्वच्छता अभियान है। दिखावे के लिये न तो योग करूंगा ,ना ही हाथ में झांडू लूंगा।

शशि 21/6/ 2018

Wednesday 20 June 2018

स्मृतियों के अटूट बंधन में है जीवन की राह




सारा प्यार तुम्हारा,
 मैंने बांध लिया है आंचल में।
तेरे नये रूप की नई अदा,
हम देखा करेंगे पल पल में।
 
    सच बताऊं मैं आपकों कि मुझे इस तरह के गीत इसलिये भाते हैं, क्यों कि अपनों की स्मृतियों को ये ताजगी देते हैं। हमारी भावनाओं , सम्वेदनाओं और मानव प्रेम के लिये सिर्फ वैराग्य की कामना से मन बोझिल हो जाएगा। सतनाम का जाप और इन कर्णप्रिय गीतों का कर्मफल मेरी दृष्टि में भिन्न नहीं है।हां, मन के भाव समय-समय पर भिन्न अवश्य होते हैं। प्रेम और करुणा ही जीवन है। यही हमारी जीवन शक्ति है। यदि ऐसे गीतों का मुझे सहारा नहीं मिला होता, तो जिन परिस्थितियों से मैं गुजरा हूं और आज जिस चिन्ता मुक्त जीवन की ओर अग्रसर हूं, तब वह व्याकुलता मुझे जीवन मुक्त करने की राह पर ले ही गयी होती। परंतु इन गीतों में मुझे अपनों का प्यार समाहित दिखा। मां, बाबा, दादी, मौसी और भी कुछ ऐसे लोग जो जाने-अनजाने मेरे जीवन में आये, उन स्मृतियों का अटूट बंधन मेरा जीवन रक्षक बन गया। आज मुसाफिरखाने में एक पथिक के रुप में मैं जिस वैराग्य की अनुभूति कर रहा हूं। स्वाथ्य, धन और भोजन तीनों के ही लोभ से बिल्कुल मुक्त हूं।  मेरे व्याकुल मन को तब ज्ञान की भाषा समझ में नहीं आयी थी। सो, अपने इस वेदना में अपनों को ढूंढने के लिये इन गीतों का सहारा लिया। जिसमें सफल हुआ। अन्यथा एक गृहस्थ नामी कथावाचन द्वारा खुदकुशी करने का प्रकरण हमारे सामने हैं। हमने ऐसा तो नहीं पढ़ा कभी कि कृष्ण के विरह में गोपियों ने प्राण त्याग दिये हो, क्योंकि कृष्ण संग स्मृतियों का अटूट बंधन जो था उनका। जीवन में एक ऐसा मंच हम जरुर तैयार रखें, जहां अपनों के वियोग के बावजूद हम उस पर नृत्य कर सकें, रुदन कर सकें। ये गीत और ब्लॉग लेखन दोनों ही मेरे नीरस जीवन में अमृत कलश की तरह है। बेशक यह ब्लॉग मैं अपने लिये लिख रहा हूं और मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या सोच रहे हैं। मैं यहां बिल्कुल खुले मन से लिखता हूं। इसके लिये कुशल लेखक होना आवश्यक नहीं है। हां, शब्दों में भाव होना चाहिए। ताकि हम जब भी अपनी इस डायरी के पन्नों में अपनी तस्वीर देखें, तो दर्पण की तरह हो, न की उसमें कोई बनावटीपन हो, हां एक मुस्कान अवश्य हो। बस आज इतनी सी बात कहनी है। अब अपनी गीतों की नगरी में वापस लौट रहा हूं, शुभ रात्रि।

 मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है
सूरज न बन पाए तो, बन के दीपक जलता चल
फूल मिले या अंगारे, सच की राहों पे चलता चल ...(शशि)

Tuesday 19 June 2018

दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन





 न जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ
  अचानक  ये   मन
  किसी के जाने के बाद ,करें फिर उसकी याद
  छोटी   छोटी   सी  बात ...

         मेरी लिये अश्वनी भाई के ऐसे गीतों का गुलदस्ता खासा मायने रखता है। फादर डे पर ब्लॉग पर कुछ वरिष्ठ साथियों की कविताएं पढ़ रहा था। कितने श्रद्धा भाव से लिखी गयी थीं, वे चंद पंक्ति। मन बोझिल सा हो गया । पुत्र होने का जब कोई फर्ज अपना पूरा किया होता, तब न नमन करता मैं भी ! अन्यथा चित्र पर माला पहनाने का क्या मतलब है। बाबा(नाना) और पापा( पिता जी) दोनों में से किसी के अंतिम संस्कार तक में मैं मौजूद नहीं रहा। यहां पश्चाताप की दो बूंदों से काम नहीं चलेगा। नियति की विडंबनाओं से मैं यह पूछ भी तो नहीं सकता कि तुम्हें मैं ही इतना प्रिय क्यों हूं कि जब भी मुस्कुराने की बारी आती है, आंखें भर आती हैं। ढ़ाई दशक तक पता नहीं सुबह से लेकर रात तक ये चार शो वाले रंगमंच का चयन मैंने कैसे और किस विवशता में कर लिया था कि अपनों से दूर बहुत दूर होता चला गया। यदि अब यह कहूं कि दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन, तो स्मृतियों के अतिरिक्त और क्या शेष है मेरे पास । हां , आप ऐसी गलती कभी मत करना अपना कर्म क्षेत्र चयन करते समय, अपनों के लिय वक्त जरूर रखना । मैं तो अपने पागल मन को यूं समझा लेता हूं -
 ऐ मेरे उदास मन
चल दोनों कहीं दूर चले
मेरे हमदम तेरी मंजिल
ये नहीं ये नहीं कोई और है...

पर इसके लिये भी काफी अभ्यास करना पड़ा है मुझे । अब भी मैं  विवाह- बारात जैसे मांगलिक समारोह की चकाचौंध भरी दुनिया में इन पच्चीस वर्ष बाद कदम रखने में असहज महसूस करता हूं। मैं एकांत चाहता हूं , इस दुनिया से मेरा अब ऐसा क्या रिश्ता ? पर जो शुभचिंतक हैं न, वे मेरी मनोस्थिति को कहां समझ पाते हैं। सो, उनके आनंद के लिये जाना तो पड़ेगा ही।
  वैसे, इस बार फादर डे पर अपनी वेदना से कहीं अधिक व्याकुलता अगले दिन एक दुखद घटना को लेकर हुई मुझे। हमारे जैसे किसी भी सम्वेदनशील इंसान की जुबां पर सिर्फ एक ही शब्द रहा कि बच्चे किस दबाव में इतना बड़ा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। जो उनके माता पिता को ताउम्र सालता रहेगा। घटना यह है कि नगर के एक प्रमुख चिकित्सक की सत्तरह वर्षीया पुत्री का शव फादर डे के अगली सुबह उसके कमरे में पंखा से लटका मिला। छोटी सी बात थी मृत छात्रा को चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी प्रतियोगी परीक्षा में कम अंक मिल रहे थें। नामी चिकित्सक हैं, सो उनके पास हर वैभव मौजूद रहा। फिर भी उनके भव्य बगले में मातम बन मौत ने पांव रख ही दिया। पिता ने अपनी दोनों ही पुत्रियों को शहर के सबसे बड़े कानवेंट स्कूल में पढ़ाया था। जरूर तमन्ना अभिभावकों की भी होगी कि उनकी बिटिया भी डाक्टर बन नाम रौशन करे।  ऐसी ही महत्वाकांक्षा  किशोर मन पर भारी पड़ती है कभी कभी । परीक्षा में असफल होने के बाद वह टूटती रही होगी। उसकी मनोस्थिति को कोई समझ नहीं पाया होगा। परिणाम सामने हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ प्रदेश उपाध्यक्ष भगवती प्रसाद चौधरी जिनका इस डाक्टर परिवार से घरेलू संबंध हैं, जो अच्छे चिंतक भी हैं, वे चकित से थें कि बच्ची ने इतना बड़ा दुस्साहसिक कदम किस तरह से उठा लिया । दुपट्टे को पंखा में फंसाने के बाद कुर्सी को पांव से धक्का देने की हिम्मत वह आखिर किस प्रकार जुटा पाई। यह चिन्तन का बड़ा विषय है, हम सभी के लिये। बड़ों का तनावग्रस्त हो अप्रिय कदम उठाना समझ में आता है। लेकिन ,बच्चों पर इतना अधिक उनके कैरियर का दबाव ? कहां जा रहे हैं हम मित्रों इस भौतिक युग में, विचार किया आपने। क्या कभी अपने बच्चों से पूछा कि वे क्या चाहते हैं। मैं तो अपना किशोरावस्था याद कर सहम उठता हूं। कोलकाता में 6 की परीक्षा पास कर वाराणसी जब आया था, तो सीधे कक्षा 8 की बोर्ड की परीक्षा में बैठा दिया गया था। फिर नौ में साइंस का स्टूडेंट हो गया। जो लड़का सदैव अपने परिश्रम के  बल पर कक्षा में अव्वल रहा हो। उसे दो दर्जा  ऊपर की पढ़ाई तनिक भी समझ में नहीं आ रही थी। फिर भी अपने सम्मान के लिये दिन भर और देर रात भी गणित का सवाल हल करता रहा। सो,गणित में भले ही मुझे हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा में 100 में से 98 अंक मिल गया, परंतु ना जाने किस कारण परिवार से दूरियां बढ़ती ही गयी,  मैं घर छोड़ कोलकाता बाबा के पास होते हुये मुजफ्फरपुर मौसी के घर जा पहुंचा।वे सारे स्वप्न जो मुझसे  जुड़े थें अभिभावकों के वे बिखर गये। आज भी व्याकुल पथिक बना मंजिल तलाश रहा हूं। कहने का बस इतना तात्पर्य है कि अपने बच्चों की मनोदशा को हमें समझना होगा, क्यों कि वे अपनी नहीं अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षा के शिकार हैं। उन्हें भारतीय और आयातित संस्कृति के मध्य फंस कर अकेले ही द्वंद करने के लिये छोड़ दिया गया है। कसूरवार कौन है हम या ये नादान बच्चे ...शशि

Sunday 17 June 2018

उम्र भर दोस्त लेकिन साथ चलते हैं...




   अश्वनी भाई ने आज बारिश के इस सुहावने मौसम में किशोर दा का एक खूबसूरत  गीत भेजा है । बोल हैं  -

  दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं।
दौलत और जवानी, इक दिन खो जाती है
सच कहता हूं सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है
उम्र भर दोस्त लेकिन साथ चलते हैं

   सो,पहले मैं सोचता था कि यह बुखार भी न जाने क्या बला है। सूखी हड्डियों को कब से चूसे जा रहा हैं। धीरे - धीरे दो दशक होने को है, इससे जान पहचना हुये और अब हम दोनों की लगता है कि उम्र भर की यारी हो गयी है। मेरे स्वस्थ शरीर पर इसका  श्याम रंग कब का चढ़ चुका है और वजन वर्ष 1999 में जो दस किलो घटा ,तो वहीं पर स्थिर है। दुनिया की किसी औषधि का प्रभाव अब हमारी दोस्ती पर पड़ने वाला नहीं है। आज सायं यहां खुबसूरत मुसाफिरखाने में बिल्कुल एकांत में बारिश का लुफ्त उठा रहा हूं। सुबह जब दो घंटे साइकिल से अखबार संग लिये नगर भ्रमण कर लौटा था, तो ज्वर का प्रभाव पुनः बढ़ गया था। आखिर , मेरा हमदर्द जो ठहरा वह। सो, पर्व हो या अवकाश का दिन, प्रेम प्रदर्शन का यह उसका अपना तरीका है। अन्यथा अब तक जो भी मिलें, वे राह बदल लिये। दोपहर बाद अभी को दवा लेकर  उठा हूं। आज रविवार है, इस दिन मैं अपने बार में कुछ लिखा करता हूं। अतीत की यादें ही शेष बची हैं, पत्रकारिता में मन जो नहीं लगता है। फिर भी किसी तरह से अखबार में अपना मीरजापुर कालम भरे रहता हूं। मित्रों को मेरी खबरें पसंद है, तो यह उनका बड़प्पन है। एक बात साफ कर दूं कि यहां जो भी मेरा पेपर लेते हैं, वे मेरे पाठक नहीं हैं। वे सभी स्नेह रखते हैं मुझसे और यह नहीं चाहते कि मैं मीरजापुर छोड़ कर चला जाऊं, इसलिये ही अखबार लेते हैं। हमारे मित्र घनश्याम भैया का यह विशेष अनुरोध रहा कि मैं अपने बारे में कुछ लिखूं, ताकि जब ना रहूं, तो वह समाज के लिये वह मेरी एक पहचान हो। सच कहूं, तो मैंने अपने इस लम्बे संघर्ष से ऐसा कोई अमृत कलश नहीं पाया है कि उसे मिसाल के रुप में प्रस्तुत कर सकूं, फिर भी कल ईद पर जब भाकपा माले के बड़े नेता यूं कहें कि उसके " थिंक टैंक " टीम के सदस्य   कामरेड सलीम भाई के घर गया, तो उन्होंने दिल्ली से आयीं आम आदमी पार्टी की एक वरिष्ठ नेत्री से मेरी पहचना यह कह कर कराई कि ये शशि जी हैं, बेहद ईमानदार पत्रकार, जो ढ़ाई दशक से साइकिल से चल कर समाचार संकल्प, लेखन,अखबार लाने से लेकर वितरण सभी करते हैं। कभी प्रशासन के दबाव में झुके नहीं भले ही मुकदमा झेल रहे हैं। तो समझ ले मित्रों कि किसी महाविद्यालय की डिग्री न रखने वाले व्यक्ति के लिये इतना पहचान बनाना भी कम नहीं है। आज मेरी बात मैं और मेरे साथी इस बुखार की है। जीवन में किसी न किसी का साथ होना चाहिए, सो वह अपना फर्ज निभा रहा हैं। यह वर्ष 1999 की बात रही, जब जब पहली बार मुझे इस तरह से सर्दी जुकाम ने जकड़ा था। मेरे प्रति स्नेह रखने वाले मित्र डा० योगेश सर्राफा ने जब देखा कि होम्योपैथी की उनकी हर दवा नाकाम हो रही हैं, तो पीछे मोहल्ले के एक चिकित्सक के पास ले गये थें। रक्त परीक्षण में ना जाने क्या चूक हुई कि लम्बे समय तक टायफाइड की अंग्रेजी दवा चलती रही और मेरी स्थिति दिन प्रतिदिन गंभीर होती ही गयी। जिस पर एक और डाक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर कहां कि तुम्हें मलेरिया है। दवा दी तो मैं ठीक हो गया। कुछ माह बाद फिर से वही ज्वर पीड़ा। तब से दिल्ली  से लेकर वाराणसी तक की दवा कर चुका हूं। मलेरिया विभाग की टीम लखनऊ से आयी थी। तमाम कोशिश उसका भी व्यर्थ रहा। बीएचयू के एक बड़े डाक्टर ने नींद की दवा लिख दी थी। आयुर्वेदिक दवाओं पर भी लाख रुपये के आस पास तो जरूर खर्च किया हूं, तमाम महंगे भस्म दिये गये थें। हां, अब एक काढ़ा लेता हूं और वर्षों से मलेरिया की फिर कोई अंग्रेजी दवा नहीं ली है। कितने ही वर्षों से यह काढ़ा ही मेरा उपचार है । बुखार अधिक होने पर अंग्रेजी दवा ले लेता हूं । ठंडे जल में स्नान करने में मैं असमर्थ हूं। फिर भी कुदरत का यह करिश्मा देखें कि मैं सुबह से रात तक अपने दिनचर्या में व्यस्त रहता हूं। मेरे मुखमंडल पर आपकों कभी भी बीमारी की पीड़ा नहीं दिखेगी। और दिखेंगी भी कैसे , इस एकाकी जीवन में किसी ने कहा तो सही कि ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...(शशि)
चित्र गुगल से साभार

Saturday 16 June 2018

ईद तो तेरी भी थी, उन्हें यूं मिटा के क्या मिला




 


   रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद आज ईद एक बार फिर आई है। अपना जो शहर है , वह वैसे ही गंगा जमुनी तहजीब के लिये सरनाम है। हां, कुछ सियासत कभी कभार घुस जाती है, नहीं तो भाईचारे की महक हममें कायम है। ईदगाह यानी की शहर के इमामबाड़े  मुहल्ले में खासी रौनक है । सुबह से ही तरह तरह की खाद्य सामग्रियों की दुकानें सजी हैं। बच्चों की निगाहें खिलौनों पर और याचकों की ईदगाह पर आने वालों के बटुए पर थीं।  परंतु मेरी नजरें कुछ और ही ढूंढ रही थी। बचपन में मुंशी प्रेमचंद की मशहूर कहानी ईदगाह पढ़ी थी। सो , इतने बड़े मेले में मासूम बच्चा हामिद और उसकी दादी अमीना को ये आंखें खोज रही थीं। चहुंओर नजर दौड़ाया था फिर भी हामिद तो नहीं मिला , लेकिन अमीना एक नहीं अनेक दिखीं। महंगाई के बोझ तले क्या हिन्दू, क्या मुसलमान निम्न मध्यवर्गीय परिवार दबता जा रहा है। अच्छे दिन का हसीन ख्वाब कांटा बन आम आदमी को चुभन दे रहा है। सो, अमीना के अनेक रुप दिखे यहां, पर बहुरुपिया मत समझ लेना इन्हें भाईजान । अब तो कपड़े भी हर नमाजियों के पास नये नहीं थें। फिर भी मासूम हामिद की मुस्कान के लिये  हर मूमकिन कोशिश परिजनों ने की थी। कालीन- दरी का कारोबार ठंडा पड़ने से बेरोजगारी और जोरों पर है। फिर भी  हजारों ऐसे बुनकरों की रोटी पर चोट करके भी रहनुमा खिलखिला रहे हैं।ःः   एक पत्रकार हूं, सो आज मेरा भी जरा डाइट कार्यक्रम रहता है। ईद की नमाज खत्म होते ही  कामरेड सलीम भाई , छोटे भाई , हाशिम चचा के दरवाजे पर दस्तक देना तो तय है। हालांकि इसकी नौबत नहीं आती, मेहमानों के स्वागत में वे पहले से जो तैयार है। सलीम भाई की दूध, केशर और चिरौंजी वाली सेवई लाजवाब होता है।पिछली ईद तक तो अपने चुन्ना भाई हैं न कंतित से अशोक भैया के हाथों टिफिन भर सेवई और दहीबड़ा भेजा करते थें।पर अब ठिकाना बदल दिया हूं। घर- परिवार जो नही है , सो मुसाफिरखाने अपना नया आशियाना है।हम यतीमों का और भला कहां ठिकाना है। फिर भी खुशनसीब हूं कि इतने दोस्त मिले हैं। जरा सी देर हुई नहीं कि छोटे भाई का संदेशा आ जाता है कि कब आ रहे हो भाई। मेराज भाई हो या इमरान मियां सभी अपने मित्र बंधु हैं।आज बुखार ज्यादा हैं पर दवाइयां ले रखी है। सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य कारणों से मैं छोला दहीबड़ा नहीं खा सकता हूं।फिर भी कुछ तो लेना ही है न। ईदगाह पर रमजान के नमाज का दृश्य कितना अद्भुत रहता है, जब एक साथ हजारों सिर सिजदे में झूकते हैं। गजब का अनुशासन दिखता है। अल्लाह के दरबार में कोई अमरी न गरीब है, जो जैसे आया नमाज स्थल पर पीछे की कतारों में खड़े होता चला गया यहां। वैसे भी मुझे अजान की आवाज बेहद सुकून देती हैं, ठीक उसी तरह जब किसी मंदिर में आरती के समय घंटा घड़ियाल बजा करता है। सारी चिन्ताएं मानो कुछ देर के लिये चिन्तन में बदल जाती है। लेकिन , इस बार मन कुछ व्याकुल है। सोच रहा हूं कि उस जवान के परिजनों पर क्या बीत रही होगी, जिसे अगवा कर मारा गया है। अब यहां कौन सी मजहब की दीवार है।  ईद की छुट्टी ले वह घर को निकला था, परंतु आतंकवादियों ने उसे जीवन से ही  मुक्त कर दिया । जरा भी नहीं सोचा कि त्योहार पर किस-किस का कलेजा नहीं फटेगा उसके घर पर। यह कैसा तुम्हारा
जहां है। कल हम कहां और तुम कहां, फिर भी मारकाट मचा है। कोई तीन दशक पूर्व जब कालिंपोंग में रहता था, तब गोरखालैंड आंदोलन का रक्तपात देखा था। जिस कमरे में मेरा बसेरा था। उसके ऊपर कत्ल हुआ था। यहां पत्रकारिता में आया तो कुछ ही वर्षों बाद नक्सलियों के पदचाप से जिले का एक हिस्सा दहला था। वर्ष 2001 में मार्च का वह महीना था। रात में होलिका दहन के साथ हर किसी को रंग से सराबोर होना था, पर उसी दिन यहां भवानीपुर गांव में 16 लाशें एक साथ पड़ी थींं। जिसमें एक किशोर का भी शव था। पुलिस इन सभी को नक्सली बता रही थी। लेकिन, वहां मौजूद ग्रामीण महिलाओं की भीड़ कुछ और दास्तां कह रही थी। उस रात जीवन में पहली बार गोलियों से छलनी मृत पड़े इतने इंसानों को देखा था। जब किशोर था तो बनारस में वह खौफनाक दंगा भी देखा था। हिन्दू मुस्लिमों के धर्म से जुड़े जयकारे न जाने क्यों पल भर में साम्प्रदायिक हो जाते थें। आतंकवादी, नक्सली, अलगाववादी सबकी एक ही कहानी है कि यह धरती हमारी है, या फिर हक- अधिकारी की लड़ाई है। दहशतगर्दों को न त्योहार से मतलब है , न ही पुत्र को कंधा देते पिता से या फिर पिता को मुखाग्नि देते उस मासूम से। पल भर में चूड़ियां तोड़ देते हैं वे दुल्हनों की , बोलों बूढ़ी मां का कोख उजाड़ कर तुम्हें क्या मिला। मेरी तरह तुम यतीम तो हो नहीं , मां और बीवी तुम्हारी
राह देख रही होगी। पत्नी ना सही तो भी किसी अपने पर प्यार जरूर आया होगा। देखों तुमनें जिस पत्रकार सुजात बुखारी को मारा है। जनाजे में उमड़ी भीड़ देखी क्या उनके। अमरत्व की यहीं निशानी है। जवान जो मरा है । भारत माता के लिये शहीद हुआ है।  पर तुम्हारी लाशों को तुम्हारा मुल्क क्या देगा । फिर सबकों क्यों विरह वेदना दे रहे हो।  ईद तो तेरी भी थी, यूं इन्हें मिटा के तुम्हें क्या मिला। फिर कैसे मनाऊं ईद बोलो, जब पड़ोस में कोई सिसक रहा है।

शशि

Thursday 14 June 2018

हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें किया क्या है अर्पण


   


      आज सुबह  निकला तो हृदय को छूने वाले कर्णप्रिय भजन की यह पंक्ति " हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें क्या किया है अर्पण"  मेरे मन की वेदना से अनेकों सवाल करते मिली। सचमुच मैं बिल्कुल स्तब्ध सा रह गया कि आखिर क्या संदेश छिपा है, इस प्रार्थना गीत में !  स्वयं को एक बार फिर से टटोलने लगा मैं । अपनों से क्या मिला, समाज ने क्या दिया , यह उलाहना दे मन किस तरह से करुण क्रंदन करता आ रहा है ,  जाने कितने ही वर्षों से। मां के गुजरने के बाद कभी आंचल की छांव की चाहत, तो कभी घर-आंगन को अपनी किलकारियों से सराबोर करने वाले मासूम चेहरों की कल्पना , जिस सुख से मैं इस धरा पर मानव तन पा कर भी वंचित ही रह गया। या फिर स्वस्थ शरीर खोने की पीड़ा जैसी व्याकुलता से आंखें ना मालूम कितनी बार भर आई होंगी। क्या यही वेदना मेरी नियति है ? मैं ही एक इकलौता इंसान हूं, जो उस दयालु परमात्मा की कृपा से वंचित हूं। ऐसे अनेकों सवाल न जाने कब से मन को आहत करते रहे हैं। मैं एक कूपमंडूक सा उसी में उलझा पड़ा सिसकता रहा अब तक। क्या बताऊं दूर ना सही अपनों की ओर भी निगाहें नहीं डाली मैंने। वाराणसी में मेरे घर से ताऊ जी का मकान बहुत दूर नहीं है। वे मेरे  सगे ताऊ जी नहीं , मेरी दादी की बड़ी बहन के पुत्र हैं। फिर भी स्नेह मुझ पर उनका सदैव रहा है। यदि मैं कभी बनारस जाता भी हूं, तो कैंट से प्रेस के दफ्तर और फिर वहां से अपने मित्र कंपनी गार्डन को निहारते हुये सीधे ताऊ जी के घर ही जाता हूं। काफी बड़ा बंगाल है शहर में उनका। एक महाविद्यालय में विधि संकाय के विभागध्यक्ष रहें वे। सम्मान में बड़े-छोटे सभी उन्हें वकील साहब कहते हैं। तीन पुत्रियों के जन्म के काफी दिनों बाद पूजा पाठ से एक पुत्र धन की प्राप्ति हुई थी। सबके दुलारे विक्की बाबू जब छोटे थें, तो मेरे पापा के विद्यालय में ही पढ़ते थें। इकलौता संतान, पर  बेहद आज्ञाकारी था वह। जब किशोरावस्था समाप्ति की ओर थी,  एक दिन घर पर ही हुई एक दुर्घटना से ताऊ और ताई जी के आंखों का तारा , बुढ़ापे का सहारा अप्रत्याशित तरीक़े से छीन लिया गया । उसकी मौत ने सभी को स्तब्ध कर दिया था।नियति ने एक और छल किया । कुछ वर्षों बाद उनकी छोटी पुत्री जो तीनों बहनों में सबसे चंचल, हंसमुख एवं गृहकार्य में दक्ष थी, को ना मालूम किस बीमारी ने डस लिया कि शरीर का रंग काला पड़ता गया, वजन बिल्कुल ही गिर गया। इसके बावजूद भी उसने जीवन के लिये काफी संघर्ष किया। परास्नातक की शिक्षा दिलवाने के लिये ताऊ जी ने उसके लिये स्कूटी खरीदी थी। परंतु वह भी अपने भाई की राह पर बढ़ चली। आज जब मुझे इन दोनों छोटे-भाई बहन की याद रुला दे रही है कि किस तरह से मैं जब कभी मीरजापुर से वाराणसी उनके घर जाता था ,तो वे शशि भैया फालसा का शर्बत लें, यह खा लें न ? ताई जी की तरह ही इन सभी बच्चों का स्वभाव था। बड़ी दो पुत्रियों का विवाह हो गया और इन दोनों बच्चों को वे खो दिये। आप समझ सकते है कि उनपर क्या बीती होगी।       
              लेकिन, इस नियति को किस तरह से पराजित किया जाता है, इसे मैंने यहीं पर देखा है। कुछ महीने पूर्व संगीतमय देवी भागवत के आयोजन पर जब ताऊ जी के बुलावे पर मैं बनारस गया था।  वहां एक सुखद अनुभूति से मन प्रफुल्लित हो गया था । परिवार के तमाम सदस्य कथा सुनने जुटे हुये थें और इसी दौरान मुख्य यजमान की भूमिका में  बैंठी ताई जी भावमय मुद्रा में हाथ ऊपर किये नृत्य कर रही थीं। ताऊ जी बताते हैं कि तुम्हारी ताई जी को काफी मुश्किल से पुनःइस स्थिति में वापस ला पाया हूं । यह अंधकार से प्रकाश की ओर उनका कठिन सफर है। अब ताई जी मुझसे  बराबर यह कहती हैं कि पप्पी तुम एक बार तिरुपति वैंकटेश्वर बाला जी का दर्शन कर आओ, देखों अपना ही जिद्द ना करों। तुम भी स्वयं में परिवर्तन देख पाओगे। पर सिर झुकाये उनकी आज्ञा का निरंतर उलंघन करते आ रहा हूं। मुझे अपनी इन दो बूंद आंसुओं  में ईश दर्शन जो करना है।

शशि

(चित्र गुगल से साभार )
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मित्रों, विशेष यह कहना है कि अब मुझे भी कुछ पढ़ना हैं। अतः सप्ताह में हर दूसरे दिन ही हमारी मुलाकात होगी।
आप सभी का स्नेह मिल रहा है, इसके लिये आभार पुनः व्यक्त कर रहा हूं। हां , अपने 94 फॉलोवर का यह विश्वास  कभी नहीं टूटने दूंगा कि सपना नहीं बेचता मैं, हकीकत मेरी कहानी है। इस ब्लॉग को अस्तित्व में लाने के लिये मैं सदैव रेणु दी का आभारी हूं।
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Wednesday 13 June 2018

सबको सन्मति दे भगवान, कोई नीच ना कोई महान

               चित्र गुगल से साभार
       
          हम साथ- साथ रहते हैं, हंसते -बोलते हैं और अगले ही क्षण जातीय, मजहबी और राजनीति के दलदल में जा फंसते हैं। जबकि हम प्रबुद्ध नागरिक हैं ,फिर भी ऐसा कर बैठते हैं कि अपने क्षणिक आत्मसंतुष्टि के लिये औरों को आहत कर देते हैं। आज सुबह मेरी इच्छा थी कि इस मीरजापुर- भदोही क्षेत्र से सांसद रहीं पूर्व दस्यु सुंदरी स्वर्गीय फूलन देवी के बारे में ब्लॉग पर कुछ लिखूंगा। वे भले ही एक डैकत रहीं, परंतु मुझे एक पत्रकार की जगह एक सम्वेदनशील इंसान वे समझती थीं। उन्हें विश्वास था कि मैं उनकी भी भावनाओं को समझूंगा, न कि सिर्फ बेहमई कांड की खलनायिका। औरों के साथ उनका व्यवहार जैसा हो मुझे नहीं पता। हां, मैं जब भी उनसे मिला वे खुले दिल से  अपनी बातें रखती थीं। अब आज इसपर चर्चा नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि दोपहर बाद एक ऐसा अनावश्यक विवाद हमारे व्हाट्सअप ग्रुप के कारण उठ खड़ा हुआ, जिससे मन भी बेहद आहत है। मेरी इस मानसिक वेदना को वहीं समझ सकेगा, जो राजनीति से ऊपर हो, क्यों कि स्थिति यह है कि नेता तो राजनीति करते ही हैं, प्रबुद्ध वर्ग से लेकर आम जनता यहां तक मीडिया में भी दलगत राजनीति की उबाल है। हम पत्रकार आखिर ऐसा क्यों करते हैं नहीं समझ पाता। मुझे आज अपने व्हाट्सअप ग्रुप को लेकर जिस कष्ट की अनुभूति हो रही है, उसे स्पष्ट रूप से बता भी नहीं सकता । सभी मेरे ही मित्र- बंधु हैं। दुख- दर्द के साथी हैं। लेकिन , फिर भी एक राजनैतिक समाचार के पोस्ट होते ही भूचाल सा आ गया ग्रुप में। इतने वर्षों से ग्रुप चला रहा हूं मैं ,ऐसी अप्रिय स्थिति तो कभी नहीं आई। ग्रुप में विभिन्न दलों के  जनप्रतिनिधि, राजनेता, शिक्षक, चिकित्सक, व्यवसायी से लेकर आमलोग हैं। ठसाठस भरा है यह ग्रुप। ये सभी मुझपर विश्वास  करते हैं कि शशि भाई निष्पक्ष हैं, तो मैंने भी खुल्लमखुल्ला खुल्ला सभी से बोल रखा है कि न मैं हिन्दू हूं  ना मुस्लमान, बस इंसान बनने की शक्ति दो मुझे मेरे दोस्तों। मैं किसी राजनैतिक दल के दर्पण में अपना प्रतिबिंब नहीं देखना चाहता हूं। कोई बहरा हो तो भोंपू लगा कर कहूं। जिस गली- चौराहे पर चाहों मैं इस बात पर यकीन दिलाने के लिये अपनी नुमाइश लगा सकता हूं। परंतु हाथ जोड़ कर पुनः प्रार्थना करता हूं कि जिस ग्रुप का सृजन मैंने आपस में भाईचारा कायम करने के लिये किया था, उसे बदनाम मत करों मेरे साथियों। आज जो हुआ इस दर्द को मुझे दुबारा न दो। कामरेड सलीम भाई से कोई ढाई दशक मेरा पुराना संबंध रहा है। लेकिन, वे रुठ कर ग्रुप से चल दियें। आखिर जाति, मजहब और राजनीति की यह बड़ी खाई कब तक हमें आपस में एक दूसरे से दूर रखेगी। यह "साम्प्रदायिक " और "सेकुलर" शब्द क्या इंसानियत से भी ऊंचा है या हम बिल्कुल बावले हो गये हैं। टेलीविजन खोलते ही जिस भी चैनल पर जाएं डिबेट के नाम नेताओं का एक दूसरे के प्रति जहर उगलना समाज के पूरे वातावरण को विषाक्त किये हुये है और आज यही तो मेरे उस व्हाट्सअप ग्रुप में भी हो गया, जिसका सृजन मैंने कितने ही परिश्रम से किया है। हमारे प्रिय मित्र देवमणि त्रिपाठी यहां से गोंडा चले गये, फिर भी खबर लगातार पोस्ट करते हैं अन्य सदस्य भी कहीं भी कोई घटना उनके संज्ञान में आई नहीं  कि तुरंत बतलाते हैं। ग्रुप का हर सदस्य मुझे प्रिय है। किसी को यदि मैं निकालता हूं, तो उसकी जो पीड़ा मुझे होती है आप नहीं समझेंगे। ये जो ग्रुप हैं न मित्रों यह मेरा परिवार है। क्या हुआ जो गृहस्थ आश्रम वाला घर-संसार मेरे पास नहीं है। यहां तो एक नहीं अनेक मित्र मेरे संकट में दौड़े आते हैं। मैं इसे बिखरने नहीं देना चाहता हूं। सो, मित्रों इस सार्वजनिक घर में राजनीतिक न करें। बस इतना कहूंगा बंधुओं..
       ये तेरा घर ये मेरा घर , ये घर बहुत हसीन है।

Tuesday 12 June 2018

एक और युवा क्रांति के लिये करें सृजन


   
       पिछले पोस्ट में बात पुलिस विभाग की कर रहा था। प्रशासनिक महके में मैं सबसे करीब इसी के रहा हूं। आज में पुलिस आफिस भले ही यदा- कदा जाता हूं। लेकिन मेरे एक व्हाट्सअप ग्रुप में सवा सौ के करीब इसी विभाग के लोग जुड़े हैं। इनमें से कुछ दरोगा, सिपाही और इंस्पेक्टर ऐसे भी हैं, जिनके स्नेह और सहयोग के कारण यह ग्रुप अपडेट बना रहता है। हां, अफसरों से मैं कुछ अधिक उम्मीद नहीं करता हूं, उस मुकदमे से मुझे यह सबक तो मिला ही कि इनके पास बैठ कर अथवा इनके लिये अत्यधिक लिखना पढना, अपने कलम का अपमान करना है। सो, इन सभी से जब भी भेंट होती है, मैं तुरंत प्रणाम कर पिछली सीट पर जा बैठता हूं। नहीं तो एक दौर वह भी था कि मैं और कुछ एसपी साथ- साथ चाय-जलपान करते थें। एएसपी जो थें वे तो छोड़ते ही नहीं थें। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था। सो, दूर दराज की घटनाओं की जानकारी सबसे अधिक एएसपी से मिलती थी मुझे। कुछ सिपाही मुझ पर इतना भरोसा करते थें कि विभाग ऐसी कोई भी खबर नहीं रहती थी , जो मुझे नहीं मिलती थी। जैसे ही कप्तान की बड़ी पेशी में जाता था सभी हर्षित हो उठते थें। वे जानते थें कि शशि भाई कुछ भी इधर- उधर नहीं करेंगे। अखिलेश सिंह हो या प्रदीप सिंह और भी बहुत से पुलिस मित्र मेरी कोई खबर छूटने नहीं देते थें। वरिष्ठ अधिकारियों को बड़ा आश्चर्य होता था कि इसका तो कोई कार्यालय नहीं है, क्षेत्रीय प्रतिनिधि भी नहीं है, टेलीफोन नहीं है, साइकिल से चलता है, फिर कहां से सटीक खबर वह भी सबसे पहले पाता है। बाद में हेरोइन के ठिकानों की खबर छापने को लेकर एक अधिकारी से मेरी उन्हीं के कार्यालय में बहस भी हुई थी। ये साहब नंबर दो की कुर्सी पर जरुर थें, परंतु हम पत्रकारों को दबा कर रखना चाहते थें। लेकिन, जब मैं उन्हें उनकी सर्किल के हेरोइन(घातक मादक द्रव्य) बिक्री के ठिकानों का नाम बताना शुरु किया, तो लगे पसीना पोंछने । वे षड़यंत्रकारी अधिकारी थें, सो यहीं से मेरी घेराबंदी शुरू हो गयी थी। एक मित्र सिपाही से धीरे से बताया कि आपका मोबाइल सर्विलांस पर लगाया जा रहा है। ताकि पता चल सके कि इतनी सटीक जानकारी कौन दे रहा है। अब आप देख लें खाकी वाले ऐसे अफसरों की मानसिकता, मैं तो जनहित में इतना खतरा मोल लेकर तमाम हेरोइन बिक्री केंद्रों का हाल खबर दे रहा था । जनता पीठ थपथपा रही थी मेरी और वो मुझे फंसाने का षड़यंत्र रच रहे थें।  तकलीफ इस बात की है कि यदि मैं ऐसी खबर इन इन धंधेबाजों को ब्लैकमेल कर धन उगाही के लिये लिखा होता, तो आप मुझे जो सजा देते , तनिक भी कष्ट नहीं होता। परंतु समाजहित में मैं इतना संघर्ष कर रहा था,इन ठिकानों से मिलने वाले पैसों को ठुकरा रहा था और आप पहरूयें मेरी ही कलम को मरोड़े जा रहे थें।  पर वह जवानी ही क्या कि बिना पंजा मिलाये ही हार स्वीकार कर ले। वैसे, भी बचपन से ही समर्पण मेरे शब्दकोश में नहीं है। भाजपा के पहचान वाले नेता रामदुलार चौधरी से पूछ लें कि सबरी से लेकर भैंसहिया टोला, आवास- विकास कालोनी, जीआईसी के बगल में, विंध्याचल, कदमतर से लेकर औराई थाने के समीप संचालित हेरोइनबाजों के अड्डों पर मैंने कितनी तगड़ी रिपोर्टिंग की थी। गांडीव का महत्व तब इसलिये और था कि वाराणसी में बैठे आईजी जोन उसे पढ़ा करते थें, सो जोन की बैठक में वे कप्तान से पूछ भी लेते थें अथवा पेपर कटिंग आ जाती थी।
     हेरोइन जैसे धीमे जहर के विरुद्ध युवा काल में मेरे द्वारा अखबार के माध्यम से इस अंदाज में मोर्चा खोलने के पीछे कुछ मार्मिक प्रसंग रहा। मेरा भावुक हृदय युवाओं की यह बर्बादी नहीं देख पाता था। जब हाईस्कूल में था, तो स्मैक से जुड़ा एक टीवी सिरियल देखा था। यहां विंध्याचल में एक प्रतिष्ठित तीर्थ पुरोहित के प्रतिभावान पुत्र को मैंने इस नशे का शिकार होते देखा था। जो अब नहीं है इस दुनिया में इसी के कारण । जब मैं मीरजापुर आया था, तो एक नवरात्र पर मेरे प्रेस के प्रमुख लोग दर्शन करने विंध्यवासिनी धाम आये थें। तब उसी युवा तीर्थ पुरोहित ने उन्हें भव्य दर्शन पूजन करवाया था। बाद में अपनी व्यवहार कुशलता से पार्षद  भी बन गया वह। लेकिन, सब कुछ बिखर गया, इसी नशे से । बाद में उसकी सांसें भी थम गयी, पर उससे पहले मेरी कलम टूट गयी थी । अब वर्षों से हेरोइन और जुएं के अड्डे पर मैं कोई खबर नहीं लिखा हूं , इसलिए नहीं की डर गया हूं खाकी, खादी और मीडिया को नापाक करने वाले कुछ लोगों के गठजोड़ से ! वरन् इसलिए कि यह समझ चुका हो कि कोई युवा क्रांति ही इस भ्रष्ट व्यवस्था  के विरुद्ध निर्णायक जंग लड़ेगी। अतः हम कलमकारों को अपने विचारों से ऐसे वातावरण का सृजन करना होगा, ताकि जो मेरा एकल
मिशन था वह बहुतों का लक्ष्य हो जाए। फिर कौन दबाएगा हमारी कलम को, उस इंकलाब जिंदाबाद के समक्ष ?

(शशि)

Monday 11 June 2018

एसपी सावत के स्नेह से पुलिस विभाग में बढ़ी मेरी पहचान


     एक काफी पुराने मामले में कोर्ट में आज फिर तारीख लेने गया था। हम पत्रकारों के लिये एक चुनौती यह भी रहती है कि पता नहीं कौन हमारी लेखनी से नाराज हो जाए। विंध्याचल धाम में कालीखोह मंदिर में चोरी होने की खबर हिंदुस्तान समाचार पत्र में छपी थी और अगले अंक में गांडीव ने भी "नकली गहने" चोरी का समाचार प्रकाशित किया था। सो, पुलिस प्रशासन के द्वारा दोनों समाचार पत्रों के सम्पादक और हम प्रतिनिधियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवाया गया था। मामला न्यायालय में है।
         इस प्रकरण के बाद से न जाने मेरा मन क्यों भारी हो गया और तब से आज तक मैं वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से यदि प्रेस कांफ्रेंस न हो तो कम ही मुलाकात करता हूं। याद है आज भी मुझे कि इस जनपद में  वर्ष 1995 - 96 में एसपी एस एन सावत जैसे युवा अधिकारी भी रहें। वर्तमान में वे एडीजी इलाहाबाद हैं। चेहरे पर सदैव मुस्कान, वाणी में कनिष्ठ जनों के लिये भी सम्मान और सही- गलत की पहचान जितनी उनमें थी, फिर कोई ऐसा एसपी यहां मेरे सामने तो  नहीं आया। वैसे,  दो और युवा एसपी डा0 प्रीतिंदर सिंह और कलानिधि नैथानी की कार्यशैली मुझे काफी पसंद आई। दोनों ही ईमानदार आईपीएस हैं। फिर भी सावत साहब का कोई जोड़ नहीं है, मेरी निगाहों में। इंसाफ की गुहार लगाने वालों के प्रति उनकी जो न्याय करने की क्षमता रही और हम पत्रकारों ने यदि किसी घटना को पुलिस व्यवस्था के लिये चुनौती बताया, तो पेपर में वह कड़ुवी खबर पढ़ कर  वे तनिक भी बुरा नहीं मानते थें, वरन् हमसे ही समाधान पूछ बैठते थें। अपनी बात करुं, तो तब पत्रकारिता में एक- दो वर्ष ही तो हुये थे कदम रखे। इसी बीच मीरजापुर और भदोही जनपद की सीमा टेढ़वा पर हत्या कर महिलाओं का शव फेंकने की तीन घटनाएं हो गयीं, तो मैंने खबर लिख दी कि शव को ठिकाने लगाने का अपराधियों का पसंदीदा स्थल बना टेढ़वा। सावत साहब ने खबर पढ़ी और कहा तुम्हारा कहना भी सही है। जिस पर मैंने कहा कि पुलिस नहीं रहती वहां, जबकि चील्ह और औराई थाने की सीमा है। उन्होंने तत्काल टेढ़वा पर थाने से दो सिपाहियों की ड्यूटी लगा दी और लाशों का मिलना भी बंद हो गया। अब पुलिस चौकी है वहां। शास्त्रीपुल से एसपी बंगाल काफी दूर था, फिर भी मैं साइकिल से उनसे मिलने अथवा अखबार देने जाता था। यह देख उन्होंने कहा कि पेपर मैं मंगा लिया करुंगा, किसी थाने या चौकी पर रख दिया करें। यहीं से गांडीव पुलिस विभाग के लिये महत्वपूर्ण अखबार हो गया। कनिष्ठ अधिकारी समझ गये थें कि साहब उसे पढ़ते हैं। फिर क्या था मेरी पकड़ भी पुलिस विभाग में हो गयी। एएसपी, सीओ, थानाध्यक्ष सभी मेरा सम्मान करने लगें। जिसका श्रेय मैं तब अपने प्रेस में विशेष प्रतिनिधि रहें  चित्रांशी अंकल को देना चाहता हूं। सावत साहब अकसर ही यह पूछ लेते थें कि कैसे आये हो साइकिल न ? वह भी इतनी दूर मेरे बंगले ! एक क्षेत्राधिकारी ने बाद में बताया था कि साहब को बिल्कुल अच्छा नहीं लगाता कि अन्य पत्रकार स्कूटर और मोटर साइकिल से आते जाते हैं, लेकिन आप इतनी दूर साइकिल से। तो मैंने मजबूरी अपनी बता दी कि भाईसाहब ईमानदारी के पैसे से सवारी बदल नहीं सकता मैं, आप सभी ने मेरे लिये इतना सोचा यह क्या कम है। आज भी कुछ माननीय और बड़े व्यवसायी , जो मेरी ईमानदारी के कारण मुझसे स्नेह करते हैं, वे बराबर कहते रहते हैं कि बहुत हो गया शशि जी अब हमलोग आपको साइकिल से नहीं चलने देंगे। वैसे, भी तो आपका स्वास्थ्य  खराब रहता है। लेकिन, मैं हूं कि मुस्कुरा कर उनके आग्रह को टालता आ रहा हूं, इतने वर्षों से। क्या करूं मित्रों , अपनी तो साइकिल ही हवाई जहाज है।उस समय टेलीफोन ड्यूटी पर दो युवा आरक्षी प्रमोद कुमार सिंह और श्रवण कुमार सिंह थें , आज दोनों ही दरोगा हैं। प्रमोद सिंह की बड़ी बिटिया तो डाक्टर बन गयी है। साबत साहब के बाद शैलेन्द्र प्रताप सिंह, बद्री प्रताप सिंह सहित कुछ और पुलिस कप्तान भी मेरी ईमानदारी और मेरी लेखनी दोनों को पसंद करते थें। अपर पुलिस अधीक्षकों से पर्याप्त सहयोग और समाचार मिल जाता था।  लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार हमें कैसे ढलना है, इसका प्रथम उपदेश तब मुझे एक कोतवाल ने दिया था। जिन्होंने मुझे बताया था कि शशि जी आप युवा हैं अभी ,इसीलिये नहीं समझ रहे हैं  कि हम पुलिस वाले जनसेवा नहीं नौकरी करने यहां आये हैं। और सचमुच जमाने भर की ठोकर खाने के बाद अब मुझे उक्त पुलिस अधिकारी को धन्यवाद देने का मन करता है, क्यों कि लगातार  हेरोइन और जुएं पर खबर लिखने के कारण ही मेरी  इस तरह से घेराबंदी हुई थी। संकट में न संस्थान काम आया और न ही यह समाज जिसके लिये हम जमाने से भिड़ते हैं।

शशि

Sunday 10 June 2018

न छांव की तलाश ,न ठोकरों का भय है

 
 न छांव की तलाश ,न ठोकरों का भय है
पथिक मैं उस राह का ,जहां त्याग ही कर्म है
 वेदनाओं की बलिवेदी ही , यहां मेरा धन है
नश्वरता की छांव और वैराग्य अपना अंबर है
प्रेम कलश फूट चुका,व्याकुल नहीं हृदय है
पथिक मैं उस राह का, जहां त्याग ही धर्म है

                 पत्रकार हूं, सो इतना तो जानता ही हूं कि कविता का इस तरह से उपहास नहीं करना चाहिए मुझे, फिर भी मन की भावनाओं का विस्फोटक कहीं तो होना है ।
   हां, अब अपनी जीवन यात्रा को मुजफ्फरपुर में स्टोर बाबू की नौकरी से आगे बढाता हूं। वैसे तो सच बताऊं  दास्यभाव मुझे कभी स्वीकार नहीं था। सो, नौकरी कहीं करने की इच्छा नहीं थी। आज भी इन पच्चीस वर्षों में मैं संस्थान का नौकर तो नहीं ही हूं, वरन् अपने अखबार का यहां मीरजापुर जिला प्रतिनिधि हूं। अब हममें से कुछ पत्रकार ब्यूरोचीफ भी स्वयं को बताया करते हैं, परंतु मैं गर्व से स्वयं को हॉकर पत्रकार कहता हूं। दोनों में से किसी भी पहचान के साथ अन्याय नहीं करना चाहता हूं। रोटी की तलाश में मुजफ्फरपुर से कलिंपोंग होते हुये वापस वाराणसी आकर जब गांडीव समाचारपत्र के कार्यालय पहुंचा और पूज्य सरदार मंजीत सिंह जो तब प्रसार विभाग में वहां प्रबंधक थें, ने मुझे मीरजापुर का दायित्व सौंपा, तब भी वह नौकरी नहीं थी। बाद में भी बड़े अखबारों के कार्यालय से बुलावा आने पर मैं वहां नौकरी करने नहीं गया।, नहीं तो आज अच्छा वेतन पाता। लेकिन क्या बताऊं मेरी यह जिद्द ही था कि ना भाई ना, नौकरी और मैं करुं, बिल्कुल नहीं। करीब तीन वर्ष पूर्व तक एक जनपद से दूसरे जिले जा कर 22 वर्षों तक अखबार का बंडल लाना, फिर रात्रि में अखबार वितरण और सुबह उठते ही ताजी खबरों का पुनः संकलन 17- 18 घंटे की ड्यूटी तो प्रतिदिन देता ही था। समझ में नहीं आता कि मैं भी कितना विचित्र इंसान था कि 10-11 घंटे की नौकरी बड़े अखबारों में थी ,फिर भी करने से कतराता रहा। वहां, वेतन भी कुछ ठीक मिलता एवं साप्ताहिक अवकाश अलग से था ही। परंतु गांडीव में मेरी लेखनी स्वतंत्र थी, मेरे विचार स्वतंत्र थें और सबसे बड़ी बात मेरी पहचान स्वयं की अपनी थी। संस्थान की ओर से विज्ञापन का ही तब ना कोई दबाव था। सो, मेरा यह रंगमंच मेरे विचारों के अनुकूल था। यह वेदनाओं का दौर तब शुरू हुआ , जब अपनों के दुख- सुख से दूर हो चला। रंगमंच पर मेरा चारों शो फिक्स था। सुबह के समय समाचार लेखन फिर दोपहर तक समाचार संकलन, दोपहर बाद समयाभाव में किसी भी तरह से क्षुधा शांत कर अपरान्ह ठीक चार बजे शास्त्रीपुल पर औराई जाने के लिये बस की तलाश शुरू करना और देर रात अखबार बांट कर खाली होना। हां, जब संस्थान की स्थिति बेहतर थी, तो मेरे पास अखबार बांटने के लिये चार लड़के होते थें। ग्राहकों को दुकान बंद होने से पहले गांडीव मिल जाया करता था। उस दौर में सुबह के तीन प्रमुख समाचार पत्रों की तरह ही मेरे गांडीव का भी यहां सम्मान था। फिर कुछ हजार रुपये की नौकरी के लिये मैं अपनी यह पहचान क्यों खोता, आप ही बताएं न ? पर आज इसीलिये साथी मित्र मुझे बेवकूफ कहते हैं। वे कहते हैं कि डूबती नांव की यदि तुम्हें तनिक भी पहचान होती, तो आज खुशहाल घर गृहस्थी होती तुम्हारी। मित्रों के इस कटाक्ष का मेरे पास कोई प्रतिउत्तर नहीं है। सो, सिर झुका अपनी पराजय स्वीकार कर चुका हूं। फिर भी नौकरी मुझे स्वीकार नहीं है । पहचान बनने पर छोटे अखबारों का सम्वाददाता होने के बावजूद भी धन कमाने का आसान तरीका उस दौर में था। पर क्या कहूं मास्टर साहब का जो लड़का था। ईमानदारी की राह अभिभावकों ने बताई थी सो...
 सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी ।
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी।

(शशि)

Saturday 9 June 2018

यह जो तुम्हारा छल है !



 

 
      मौत का यह तरीका मुझे बिल्कुल नापसंद है। यह भी कोई बात हुई कि सीधे आकर गटक गयी। शत्रु को भी एक अवसर मृत्युदंड से पूर्व अंतिम इच्छा बताने का मिलता है। यहां हम तुम्हारे कोप से बचने के लिये देवी देवता को मनाते रहे हैं ,  ग्रहों की शांति के लिये क्या-क्या नहीं करते हैं और तुम हो की हम इंसान की जिंदगी का सारा गणित  बिगाड़ जाती हो। अरे निर्मोही , जीवन के लिये संघर्ष का एक तो अवसर  दिया होता ।  तनिक भी नहीं सोचा तुमने  कितने श्रम से हमने अपने जीवन का आशियना बुना है । बीवी, बच्चों और यार दोस्तों से हमारा नाता जुड़ा है। हाय ! यह कैसा घोर अन्याय है हम प्राणियों के संग तुम्हारा ! अभी कल की ही तो बात है सुबह पेपर लेकर निकला था, तभी गिरधर चौराहे पर विनोद ऊमर से यह सुन करेंट सा झटका लगा था कि अपने गोवर्धन भैया नहीं रहें। मैं स्तब्ध सा रह गया था, क्यों कि मेरा ब्लॉग उन्होंने उस दिन भी पढ़ा था । जिस रात वे बिन बताएं सबसे नाता तोड़ चले थें। ब्लॉग का शीर्षक था आनंद की खोज ...और वे स्वयं ही खो गये थें। क्या पूरी हुई खोज उनकी, या यूं ही छोड़ हम सबको चले गये हैं ..
       क्या बताऊं मैं जब मीरजापुर आया था। मुझसे पेपर लेने वालों में वे पहली कतार में खड़े थें, लिया ही नहीं साथ चल औरों को भी गांडीव का ग्राहक बनवाया था। तभी से मेरा उनका एक अनजान सा रिश्ता था। और फिर मैं जब असाध्य मलेरिया से पीड़ित हुआ था , तो भी मेरे गिरे मनोबल को उन्होंने यह कह कर उठाया था कि अब तो बिल्कुल ठीक हो भाई , क्या लोगे चाय-नमकीन । व्यवसायी थें वे और घर पर विद्यालय भी चलता है। स्वाभिमानी इतने थें कि कांग्रेस की राजनीति मे यहां के आंका के चौखट पर नतमस्तक होते उन्हें किसी ने नहीं देखा है । उनकी अपनी कांग्रेसी गद्दी थी, छोटी थी या बड़ी थी। हां, पार्टी में पक्षपात जब अधिक होता था, तो मुझसे उम्मीद उनको होता था कि शशि है, तो मेरा भी कुछ लिख पढ़ देगा जरूर।  सो, अभी तो और लड़ाई थी, लेकिन उस रात घर अपनी जीवनसंगिनी के समक्ष ही बेचैन निगाहों से चल दिये। पिछले माह भी एक और जान पहचान के व्यापारी ने इसी बेचैनी में ट्रेन में अपने युवा पुत्र के कंधे पर सिर क्या रखा बदन ठंडा पड़ गया था। बच्चे ने पिता की ऐसी मौत की भला कहां कभी कल्पना की थी ।  ऐसा पहले कभी- कभी होता था, पर अब रोज होता है। ऐसी पहली मौत मैंने अपने आंखों से कोई 22 वर्ष पूर्व देखी थी, जब पत्रकार चाचा के घर एक अधेड़ व्यापारी आया था। देर शाम बिस्तरे पर चंद मिनटों में ही वह ठंडा पड़ गया था।  न कोई बीमारी, ना ही दुर्घटना और समय से पूर्व यूं चल देना।  मौत के इस अजब ढ़ंग से मन विकल हो जाता है। तो मेरी चुनौती स्वीकार करों हे मौत की रानी ! माना कि मैं तुम्हें हरा नहीं पाऊंगा, पर तुमसे आंखें ना चुराऊंगा । पथिक हूं और मुसाफिरखाना अभी ठिकाना है आओ संग चले
पिय के घर  जाना है।

(शशि)

चित्र साभार गुगल से

Friday 8 June 2018

वफादारों की टोली से कुछ हमें भी कहना है...



     इन दिनों सुबह अखबार बांटना  सच बताऊं तो एक बहाना है। न पैसे की जरुरत है मुझे, ना ही काम की, अब तो बिल्कुल मस्त फकीर हूं साहेब के दरबार में ! सुबह पौने पांच बजे निकलता हूं, तो ताजी हवा भी मिल जाती है और कुछ स्नेहीजनों संग राम- राम भी। कल की बात लें  वफादारों की पूरी फौज ही मिल गयी थी। बुंदलखंडी के अपने मंगलदास चाचा हैं न , जब उनकों अखबार दिया तो देखा उनके चेहर पर कुछ उदासी थी। पता चला जनसंघ के गढ़ में चौपाल लगा , पर नहीं बुलावा आया था। जिन्दगी बीत गयी बस्ता ढोते, पार्टी के लिये जेल जाने की बात याद हो आई थी। वफादारी का क्या यही मोल कि एक आवाज तक किसी ने नहीं लगायी थी । निष्ठावान भगवा ध्वज रक्षक होने का दर्द पिछली सरकार में उन्होंने खूब सहा है। वेदना उन्हें कहीं अधिक इस बात की थी कि जो गैर थें , वे खास हो गये और अपने पराये। आगे रतनगंज में सुबह की चाय पीने को राजकुमार जायसवाल ने आवाज लगायी, दुआ सलाम के दौरान चेहरा उनका भी मुर्झाया मिला। पूछा तो पता चला कि आंका के प्रति वफादारी का रोग अब सत्ता परिवर्तन के बाद उनके पेट पर लात मार रहा है। खुशमिजाज राजकुमार भैया को राजनीति की यह पहेली सताये जा रही थी। वापस मुसाफिरखाने को लौटा , तो घनश्यामदास मोदनवाल मिल गये। मेरे सबसे अजीज मित्रों में से हैं। चाय तो मैं उनकी दुकान पर ही मेरी सुबह शाम की होती है । समझ ले कि छोटे से कुल्हड़ में लबालब " चाह" जो भरी होती है। सो, बिना यहां सलामी लिये मन नहीं मानता है। अपने समाज के कर्तव्यनिष्ठ अक्खड़ कार्यकर्ता हैं। पता चला की वफादारी के सवाल पर अपने घनश्याम भैया भी अनमने से हैं। न सेवा के पुरस्कार की चाहत  है , न ही मंच पर नेतागिरी करना उन्हें भाता है, फिर भी भैया जी क्यों उदास है। बात यहां भी समाज के रहनुमाओं से वही है कि...

          गै़रों पे करम, अपनों पे सितम,
         ऐ जान ए व़फा ये जुल्म न कर
          रहने दे अभी थोड़ा सा भरम...

    पुलिस विभाग में भी मेरे कुछ जाबांज साथी हैं, जो अपनी वर्दी के प्रति निष्ठा रखते हैं , फिर भी विभागीय ट्रांसफर पोस्टिंग चाहे जितनी हो, वे बेचारे नेपथ्य में हैंं। कारण या तो सत्ता की जाति के नहीं हैं वो या फिर जुगाड़ तंत्र से अनजान है। सबकी वफादारी की राम कहानी फटाफट सुना दी , अब अपनी पत्रकार बिरादरी का हाल भी सुनाता हूं जनाब! तो समझ लें आप यह कि हम वे बेजुबां प्राणी है कि सुबह से रात तक खबरों की गठरी ढोते हैं और जैसे ही जवानी ढली नहीं कि फुटपाथ पर होते हैं।  एक नामी अखबार के फोटोग्राफर स्वर्गीय अशोक भारती की याद हो आई है। एक जमाना था कि कलमकारों को जाने ना जाने अफसर और नेता , पर भारती भैया से सलामी  सभी लेता था।  सिर पर हैट, कंधे से पैंट में फंसा बेल्ट , जेब में टाफी ऐसी कहां इस जिले में पहचान हुई फिर किसी प्रेस छायाकार की। पर हाय ! वफादारी का क्या परिणाम मिला। जेब खाली और वनवास मिला। समय से पहले ही वृद्ध हो गये हम सबके भारती अंकल। बाहरी दुनिया से दूर घर के एकांतवास में स्मृतियों के दिवास्वप्न में खोये एक दिन अल्लाह को प्यारे हो गये हमारेअंकल !

 सो, वफादारों की टोली से बस यही कहना  है कि निष्ठा एक खिलौना है और यह भी ...

मन रे ! तू काहे ना धीर धरे
वो निर्मोही मोह ना जाने जिनका मोह करे

(शशि)

Thursday 7 June 2018

इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास...





     
     निःसन्देह ब्लॉग लेखन का मेरे व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव दिख रहा है। जो भी मैंने लिखा था, वह आज मुझे ही नसीहत दे रहा है । देखो रंग मत बदलों मेरे यार ! कल तो आत्मबोध कर रहे थें और आज तनिक सी बात पर यूं क्यों उद्वेलित हुये जा रहे हो । अंदर की ये आवाज अब कुछ तो साफ सुनाई पड़ती है। यहां मेरे भी कुछ मित्रों का कहना है कि दिन भर समाचार तलाशते तुम अपनी बातें ना कर पाते थें। सो, मन हल्का करने का यह अच्छा ठिकाना है। सो, एक बात तो साफ कर दूं कि आत्मावलोकन ही मेरे ब्लॉग लेखन का मकसद है।
          अब देखेंं न कल रात और आज सुबह भी दो बार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं कि यदि पूर्व की स्थिति में होता, तो मन को अति आघात पहुंचना निश्चित था। परंतु अब किसी के द्वारा किया कटाक्ष भी कबीर की वाणी लगती है। अपना कर्मक्षेत्र ही ऐसा है कि जाने अनजाने में मित्र भी शत्रु बन जाता हैंं।  इसका मतलब यह तो नहीं की हम भी तलवार भांजने लगे। विनम्रता ही हमारी पहचान है, पूर्व में लिखी बातें यह हर वक्त याद दिलाती हैं। गलतियों को बतलाती हैं और नेकी की राह दिखलाती हैं। सो, आज जो कुछ हुआ, उसे लेकर मन नहीं तनिक मलीन हुआ। ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि यह सुधार मुझमें जारी रहे। पत्रकारिता छोड़ते समय न रहे किसी से दुश्मनी बस यारी हमारी रहे। भूख, गरीबी, बेरोजगारी, बेगारी, बदहाली पर तो कब का नियंत्रण पाया हूं। अब वाणी संयम की जब बार है। कल रात से आज सुबह जो दो कड़ी परीक्षा देनी पड़ी है, उम्मीद यही है कि पास जरुर उसमें हुआ हूं।  मान-अपमान  से जब तक ऊपर नहीं उठेगा हमारा मन , तब तक यह व्याकुलता जारी है , यह हमें और आपको भी पता है।  फिर भी आज अपने में इस परिवर्तन पर मन ही मन आनंदित हूं। हां, मानव अभी मुझे बनना है ! एक बात बताऊं, कम्पनी गार्डन में भी कभी "मानव जी"  मिला करते थें। मैं निठल्ला उस समय उनकी कविताओं का मोल ना समझ सका था। वे पांखड से दूर बेहद ही सज्जन इंसान थें । बुजुर्ग थें और हाई ब्लडप्रेशर के शिकार थें। काशी की धरती थी,  सो कर्मकांडी उन्हें खिसियाते थें। फिर भी बीड़ी के धुएं में मानव जी की कड़क आवाज दूर तक उनकी मौजूदगी का एहसास दिलाती थी। सत्य को भला कौन दबा सकता है, मुझे बार बार वे सिखलाते थें। आज अचानक आंखें नम हो आयी हैं। काश ! कुछ दिन और उनके समीप गुजारा होता, संसार के इस भुलभुलैया से कब का मोक्ष पाया होता।  बस इस प्यारी सी प्रार्थना...

             "इतनी शक्ति हमें देना दाता
           मन का विश्वास कमजोर हो ना
            हम चले नेक रस्ते पे हमसे
             भूलकर भी कोई भूल हो न"

  के साथ आप सभी को शुभरात्रि कहता हूं।

(शशि)
       चित्र गुगल से साभार

Wednesday 6 June 2018

आनंद की खोज मेरी जब हुई पूरी !





   
    आनंद क्या है , कैसा है और कहां है ... हर इंसान को इसकी तलाश रही है। धन से जब वह नहीं प्राप्त होता तो धर्मग्रंथों में हम उसे ढ़ूढ़ने लगते हैं। पुकारते है हम उसे आनंद ओ आनंद ! तुम कहां हो भाई... फिर भी वह हमारे पास नहीं आता। मृगमरीचिका सा हमें दौड़ाता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा हर धर्म स्थलों की दौड़ लगाते हैं हम । कबीर की अमर  वाणी को भी अजमाते हैं हम, "  मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में।"
    फिर भी यह आनंद है कि सुनता ही नहीं, मानो  मूक बधिर और नेत्रहीन हो गया है वह !  या जानबूझ कर पास आने से मटियाता है ।  व्याकुल पथिक शीर्षक से इस ब्लॉग के सृजन का मकसद भी तो मेरा यही है। अपनी बातें इससे साझा जो कर सकूं।  इस वर्ष 17 मार्च से इस पर जो कुछ लिख रहा हूं, उसे जब तब उलट पलट कर देख भी रहा हूं। कभी - कभी सोचता हूं कि ऐसा क्यों लिख दिया मैंने । मन की वेदनाओं को जब इतने वर्षों तक दबाये- छुपाये रहा हूं , तो अचानक कौन सी व्याकुल आ पड़ी कि यह पथिक यूं ही पिघलता सा  गया था। कभी - कभी तो लगता है कि यह क्या बकवास लिख रहा हूं। खुद ही अपनी जगहंसाई का जरिया यूं क्यों सृजन कर कर रहा हूं। हिन्दी तक शुद्ध लिखने आती नहीं महाशय को और प्रवचन कर रहा हूं। मित्रों यह मन भी न... क्या कहूं अब इसे ?  हां, एक कार्य अच्छा यह हुआ है कि रात की अंधेरी गलियों से निकल कर जबसे सुबह का सूरज देख रहा हूं। अभी कल ही की तो बात है , आनंद सामने खुद- ब -खुद यूं ही खड़ा था। सुबह के पांच बज रहे थें, जब मैं अखबार बांटते हुये एक पार्क की ओर बढ़ा था। देखा एक प्रौढ़ दम्पति एक दूसरे का हाथ थामें बच्चों सा खिलखिला रहा था। न यौवन ढलने का गम , ना ही बुढ़ापे का भय... वह तो बस आनंद की प्रतिमूर्ति ही मुझे दिखा था। साइकिल से पीछा करते मैं अपलक उन्हें निहारे जा रहा था। कारण मेरा मार्ग भी वही था , जिधर उन्हें जाना था। देखा, तभी एक मंदिर पर महिला के पांव ठहर जाते हैं। दुपट्टे को सिर पर किसी दुल्हन की तरह वह सवारती  है , साथ ही हमसफर को भी नयनों से इशारा करती है। दोनों वहां सिर झुकाते हैं, मानों एक दूसरे की सलामती चाहते हैं। और फिर उसी अंदाज में खिलखिलाकर कर मुस्कुराते हैं। घर से पार्क तक का उनका यह सुहावना सफर शायद हर सुबह ऐसा ही होता होगा। फिर किसी और आनंद की क्या है जरुरत इन्हें। हां,  दुआएं इतनी  हमारी भी है, यूं ही गुनगुनाते रहें,  यह जो जोड़ी प्यारी सी है...
 
     हमसफर मेरे हमसफर, पंख तुम परवाज़ हम
    जिंदगी का साज़ हो तुम, साज़ की आवाज हम।

( शशि )
चित्र गुगल से साभार

Tuesday 5 June 2018

पथिक ! किस छांव की अब तुझे तलाश...


  केंद्रीय राज्यमंत्री ,भारत सरकार व मीरजापुर सांसद अनुप्रिया पटेल एवं जिलाधिकारी अनुराग पटेल पौधा लगाते
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   स्टोर बाबू की चाकरी ने मेरे कल्पनाओं के पंख कब के कतर दिये है। सो, मुझे सपना बेचना आता नहीं। ज्ञान गंगा के लिये व्हाट्सअप ग्रुप वैसे ही पटे हैं। मैं तो बस वहींं लिखता हूं, जो सहा हूंं और देखता हूं। देखें न आज एक बार फिर विश्व पर्यावरण दिवस का शोर चहुंओर मचा है , पर मेरा मित्र कम्पनी गार्डेन अपने सिकुड़ते अस्तित्व पर सिसक रहा है । आग उगल रहे सूर्य की तेज किरणों से बचने के लिये हर राहगीर पेड़ की छांव तलाश रहा है। पर वृक्ष हैं कहां मेरे भाई , जो उसके नीचे तनिक ठहर अपने तन की तपिश को शांत कर  पाओगे।यातायात सुगम बनाने के लिये जिन मार्गों पर फोरलेन  सड़कें बन रही हैं, वहां उनके दोनों किनारे लगे हजारों वृक्षों को चंद घंटों में काट धाराशायी कर दिया गया है। जो सैकड़ों वर्ष से खड़े थें। हम मुनष्यों को आम, अमरुद और जामुन देते थें। जो फलदार नहीं भी थें , वे भी हमें छांव तो निश्चित ही देते थें। हमारे ही जीवन रक्षा के लिये भूगर्भ जलस्तर को बढ़ा रहे थें। फिर भी हम मनुष्यों ने उन्हें असमय मौत दे दी क्यों ...स्वयं के विकास के नाम पर यह कैसी हमारी कृतघ्नता है। जरा भी नहीं विचार किया किसी ने कि जब फोरलेन सड़क की प्लानिंग बनी थी तो फिर इन वृक्षों को काटने से पहले नये पौधों को क्यों नहीं लगे थें। शास्त्रीपुल पर बसों की प्रतीक्षा करने वाले यात्रियों से पूछे इन वृक्षों के कटने का दर्द, तेज धूप में झुलसते व्याकुल हुआ जा रहा है उनका तन- मन । इस ओर सड़क तक नहीं बनी है अभी , अतिक्रमण दूर तक दुकानदारों ने कर रखा है। लेकिन , करीब दो वर्ष पूर्व सबसे पहले वृक्षों का गर्दन ही रेता है यहां हमने । इंसान की इनसे ऐसी क्या दुश्मनी थी कि एक पेड़ भी नहीं छोड़ा है। मैंनें जिन दो वृक्षों के नीचे औराई के लिये बस की प्रतीक्षा में दो दशक गुजारे थें। वे भी नहीं रहे यहां, पथिक किस छांव को अब तलाशोगे । हैं अब तो धुआं उगलते अनगिनत विशालकाय वाहन यहांऔर एक यात्री शेड जो सांसद ने लगवाया है।  कोई बाईस वर्ष इस मीरजापुर- औराई मार्ग पर सफर रही हमारी। बस से सड़क किनारे दोनों और हरे-भरे वृक्ष मन को कितना आनंदित किये हुये थें । यदि ट्रैफिक लोड के कारण जब कभी जाम लगता था। हम यात्री इन वृक्षों के नीचे ही तो शरण लेते थें। याद है मुझे जाम लगने पर माधोसिंह से औराई कितनी ही बार इन वृक्षों की छांव तले ही मैं पैदल चला था। नहीं तो अंगारे बरसाता यह सूर्य का तेज मृत्यु का देव बना खड़ा था। हाय ! जीवनदाता वृक्ष पर इतना अत्याचार  कर, फिर विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधे लगाने का स्वांग क्यों। कहीं माननीय, तो कहीं पत्रकार व सामाजिक संगठन ताम झाम से फरसा चला पौधे लगा रहे हैं। फोटो  खिंचवाने की होड़ यहां भी उनमें लगी है । सोशल मीडिया का नेटवर्क सुबह से ही ओवरलोड है। उधर अपना विंध्य पर्वत पुकार रहा है, कोई हमारे नंगे बदन का फोटो भी तो लो ना भाई। दशकों से अवैध खनन ने मेरी भी हरियाली छीनी है। मुझे पत्थर का ढ़ांचा इन्हीं लोगों ने बना खड़ा किया है। अनगिनत वृक्षों को विस्फोट के धमाके में दफन कर मेरा कलेजा अनेको बार फटा है। फिर आज के दिन चंद पौधे लगा इन्हें दी जा रही यह कैसी श्रद्धांजलि है । यह कैसा ढ़ोग है , कुछ तो बोलों बंधुओं ! जो जेठ की दुपहिया में तुम ये पौधे लगा रहे हो...
(शशि)

Monday 4 June 2018

निकम्मा नहीं साहब स्टोर बाबू कहो..



     जब तक आश्रम में था या उससे पूर्व कलिंपोंग में भोजन और वस्त्र की व्यवस्था हो जाती थी, सो चिंता काहे की.. तब भी मेरी यही दो जरुरतें थीं  और आज फिर से उसी राह पर  हूं । यूं समझ लें कि इस महंगाई के हिसाब से बेरोजगार ही हूं। संस्थान ने बीते होली पर जब मुझे विज्ञापन मिला , तो उसमें से अपना हिसाब रख लेने को कहा गया था । पर भूख तो हर रोज लगती है न साहब , पैसे की जरूरत भी हर माह होती है ! मैं तो किसी विभाग से पत्रकार के नाम पर धन उगाही भी नहीं करता हूं। फिर भी बंधुओं मैं खुशकिस्मत हूं कि इन 24-25 वर्षों में अपनी सारी भौतिक इच्छाओं को दबा कुछ पैसे इसी संकट काल के लिये एकत्र किये हैं, ताकि किसी के सामने हाथ फैलाना न पड़े। और ऐसा मुझे विश्वास है कि अपने स्वाभिमान की बलि मैं कतई नहीं चढ़ने दूंगा..
     बात यदि अपनी पहली नौकरी की करूं, तो आश्रम छोड़ने के बाद सीधे मुजफ्फरपुर मौसी जी के घर एक बार फिर जा पहुंचा। वह मेरा तीसरी बार मुजफ्फरपुर जाना हुआ था। पहली बार मां - बाबा संग कोलकाता से कुछ दिनों के लिये गया था। दूसरी बार हाईस्कूल करने के बाद घर से संबंध बिगड़ने पर चला गया। तब मौसा जी का मोटर पार्ट्स और मैकेनिक की दुकान थी। लेकिन, तीसरी बार जब गया तब परिस्थितियां विपरीत थी। मौसा जी अपने पिता जी के सर्राफा दुकान में ड्यूटी देते थें। हालांकि मौसी जी मेरा बहुत ख्याल रखती थी। जब छोटा था, तभी से ही वे मुझे अपना ही पुत्र समझती है। उनकी पुत्री यानी मेरी बहन स्वीट तो मुझसे साढ़े बारह वर्ष छोटी है। इसीलिये तो कहता हूं कि नियति का यह कैसा खेल है कि तीन -तीन मां के होने के बावजूद मैं एक बंजारा हू... खैर, मुजफ्फरपुर में इस बार मैं किसी पर बोझ नहीं बनने की सोच रखी थी। युवा जो हो गया था, कहीं यहां भी लोग वही निठल्ला न कहने लगें मुझे । सवाल यह उठा कि मेरे पास कोई डिग्री तो थी नहीं कि उन दिनों बिहार जैसे पिछड़े प्रांत में मुझे अच्छी प्राइवेट नौकरी मिल जाती। बनारस में मास्टर साहब का लड़का और कोलकाता में बाबा मां के दुलारा , यही मेरी पहचान थी। एक बैंक में बड़ी मौसी जी कार्यरत थीं। बैंक प्रबंधक रहें बड़े मौसा जी के आकस्मिक निधन के बाद उन्हें नौकरी मिल गयी थी। उनका मुझपर काफी स्नेह रहा। सो, एक बड़े थ्रेसर कम्पनी में काम मिल गया। फैक्ट्री के मालिक ने मुझे स्टोर सम्हालने की जिम्मेदारी दी थी। मैं काफी सहमा हुआ था, स्वयं पर ग्लानि भी हो रही थी कि कहां तो ख्वाहिश इंजीनियर बनने की थी और अब यह स्टोर बाबू का काम.. वो गाना याद है न आपको..

जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर , कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं..

   सो ,चल पड़ा काम पर।तब मैं साइकिल तक ठीक से नहीं चला पाता था। अतः मौसा जी एक  छोटी साइकिल ले आये। यहां से बाद में मुझे दूर सुनसान इलाके में फेक्ट्री पर पोस्ट कर दिया गया। साइकिल से जाने में एक घंटा और वापसी में भी इतना ही समय लग जाता था। यूं कहें कि सुबह सात बजे निकला तो रात्रि साढ़े नौ -दस बजे वापसी होने लगी थी। थ्रेसर मशीन का सीजन जो था। मालिक समझ गये थें कि मैं अच्छे परिवार का हूं और बेहद ईमानदार भी, इसलिये स्टोर से बिना मेरी अनुमति के कोई कुछ नहीं लेता था। यहां तक कि मालिक ने स्टोर रजिस्टर भी देखना बंद कर दिया था। कोई कुछ कहता, तो सीधे कहते कि  लड़के से पूछों।  मालिक का मुझमें यह विश्वास देख वरिष्ठ कर्मचारियों का ईष्या करना स्वभाविक है।सो, एक शाम न जाने क्यों मालिक ने मुझे अपशब्द कह दिया, इसके बाद वे मुझे वापस काम पर बुलाने आये थें , बड़ी मौसी जी से अनुरोध करते रहें, पर मैं फिर नहीं गया वहां...
    बिना किसी डिग्री के कुशल स्टोर बाबू बनने की वह मेरी पहली पहचान थी , जिसे मैंने अपनी ईमानदारी, परिश्रम और काम के प्रति समर्पण से बनाई थी।
      बंधुओं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हम किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बना सकते हैं। मुजफ्फरपुर आकर मैंने यही सीखा । अपनों द्वारा निठल्ला कहलाने के कलंक से यहां मुक्त जो हो गया...
  (शशि)

Sunday 3 June 2018

बेरोजगारी का दर्द देख नम हो आती हैं आंखें



         जैसे ही हम छात्र जीवन से गुजरते हुये यौवनावस्था में प्रवेश करते हैं और यदि हम उद्यमी अथवा बड़े राजनेता के लाडले नहीं हैं,तो हमारी पहली चुनौती नौकरी ही होती है। सरकारी नौकरी मिलनी लाटरी लगनी जैसी ही तो होती है। यह एक बड़ा जुआं है। हर मेधावी बच्चों को पता है कि  10 अंकों के इस खेल में खुलेगा सिर्फ एक ही अंक। वहीं हमारी जनसंख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है।  यदि बच्चे ने मेहनत से तैयारी की और दुर्भाग्य से वह असफल रहा, नौकरी नहीं मिली तो वह टूट जाता है। प्राइवेट सेक्टर में आकर्षक नौकरियां हैं जरुर , परंतु तैयारी तो कुछ और पर चल रही थी ,उस सरकारी नौकरी न पाने वाले नौजवान की। बेरोजगारी की स्थिति में वह मजबूरन प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर लेता है, पर एक वेदना उसके चेहरे पर साफ झलकती है। अब देखे न प्राइमरी पाठशाला में सिर्फ हाजिरी लगा गुरु जी जितनी मोटी रकम सरकार से पाते हैं,प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाला अध्यापक तमाम योग्यता रखने के बावजूद अत्यधिक श्रम कर भी सरकारी सहायक अध्यापक का एक चौथाई वेतन तक नहीं पाता। तो फिर उसका कुंठित होना स्वाभाविक है। हम जिस पिछड़े शहर मीरजापुर में रहते हैं। वहां वहां निजी विद्यालय के शिक्षक हो या फिर किसी प्रतिष्ठान में काम करने वाले कर्मचारी अमूमन पांच हजार वेतन ही प्रतिमाह पाते हैं। ये सभी पढ़े लिखे युवक युवतियां हैं। बताए घर गृहस्थी कैसे चलेगी इनकी। किराये पर ढ़ाई हजार रुपये से नीचे कोई कमरा ही नहीं मिलता। यह सोच कर भयभीत हो जाता हूं कि यदि संग बीवी-बच्चे होते, तो साढ़े चार हजार रुपये के पगार  (अब तो उसका भी ठिकाना नहीं है) में क्या करता मैं ? इस ईमानदारी  और स्वाभिमान  की रक्षा कैसे करता ! पत्नी भी कहीं यह न कह बैठती की तेरी दो टकियां दी नौकरी वे मेरा लाखों का सावन जाये...
    अभी तो मुसाफिर की तरह रात कट जाती है। इन पच्चीस वर्षों में कोई घर ठिकाना नहीं है, यहां मेरा। अपने अखबार का भी मैं एक चलता फिरता दफ्तर हूं। एक पत्रकार हूं, सो हर पर्व त्योहार पर जब भी रिपोर्टिंग करने निकलता हूं तो निम्न मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की व्याकुलता देख आंखें मेरी भी नम हो जाती हैं । रमजान के बाद में अभी ईद पर्व आएगा। किसी गरीब मुस्लिम इलाके में यह पूछने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूं कि भाई जान कैसी तैयारी चल रही है। सुबह मुस्लिम इलाके में एक प्रतिष्ठित दरी निर्यातक के भव्य बंगले पर पेपर देने गया, तो देखा कि सामने एक खंडहरनुमा मकान के बारजे पर एक वृद्ध बुनकर दम्पति दरी की काती सुलझा रहे थें और एक दूसरे को हाथ के पंखे से हवा भी कर रहे थें। यह सुखद दृश्य को  मैं अपलक निहारता रहा। सोचा चलो इस गरीबी में एक तो अच्छाई है कि आपसी प्रेम सम्बंध को वह और प्रगाढ़ कर देती है। मन में भावना जगी कि इस वृद्ध बुनकर दम्पति का एक फोटो ले लूं, फिर ठिठक इसलिये गया कि कहीं वे बुरा न मान लें। क्यों कि गरीबों की निगाहों में हम मीडिया कर्मी झूठ की राह पर हैं । इसीलिए कभी मजबूरी में ही मेरी जुबां से यह निकलता है कि पत्रकार हूं भाई ...मुस्लिम परिवार में आज भी महिलाएं बीड़ी बना अपने बच्चों के पेट की ज्वाला शांत करती हैं। तमाम तरह की बीमारियों ने कुपोषण के कारण इन्हें घेर रखा है। जब से जीएसटी का हल्ला बोल हुआ है, कालीन और दरी के धंधे पर अच्छे दिन की ख्वाहिश का ग्रहण लगा हुआ है। कल ही तो मिर्जापुर दरी एवं मैन्युफैक्चर एसोसिएशन की बैठक हुई थी। जिसमें बताया गया जीएसटी रिफंड की भारी समस्या से निर्यातकों की पूंजी का एक बड़ा हिस्सा सरकार के पास फंसा है। जिससे 48 फीसदी बुनकरों का पलायन हो गया है। चुनाव में तो हमारे रहनुमाओं ने सीना चौड़ा कर नौकरी देनी की बात कही थी, पर यह उल्टी बयार कैसे चल पड़ी...
  पढ़ेलिखे बेरोजगार नौजवानों की टोली जरायम की दुनिया  में इंट्री मारे जा रही हैं। बस चंद रुपयों के लिये ये बड़े बड़े अपराध कर बैठ रहे हैं। काश ! इनके पास नौकरी होती..तो पापा का नाम यूं ना बदनाम करते। बेरोजगारी का जख्म आज भी इस उम्र में भी मुझे अतीत से जुड़ी कड़ुवी स्मृतियों को ताजा किये रहती है।

(शशि)

Saturday 2 June 2018

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे...

 
     मदर इंडिया फिल्म का एक प्यारा सा गीत है..

 दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे
/ रंग जीवन में नया लायो रे...

       आज सुबह चार बजे जब मैं उठा और स्नान कर पौने पांच बजे अखबार का बंडल लेने मुकेरी बाजार चौराहे पर पहुंचा, तो सारे अवसाद से मुक्त था। इन पच्चीस वर्षों में खुले वातावरण में सुबह को उगते मासूम से उस लाल सूरज को कहां देख पाया था। जिससे मैं काशी के गंगा घाट पर हर सुबह आंखें मिला कर बातें किया करता था। पर अब मैं वह सब कर सकता हूं। सुबह दो घंट साइकिल चलाना कोई खराब नहीं लग रहा था, बल्कि इस दुर्बल शरीर में कुछ स्फूर्ति ही आ गयी ,ताजी हवा लगने से। अनेक स्नेही पाठकों ने कह रखा है कि शशि भाई चिन्ता ना करें, पेपर सुबह ही डाल दिया करें। ग्राहक और हॉकर वाला उनका - मेरा संबंध नहीं है और ना ही एक पत्रकार जैसा ही। सो, सुबह अखबार बांटने में बड़ा ही आनंद आ रहा था, ऐसा लगा कि चिन्ता से मुक्त हो चिन्तन  की ओर बढ़ रहा हूं। पैसा और भोजन यह दोनों मेरे लिये प्रधान कभी नहीं रहा। आज ही कोर्ट में तारीख के कारण दोपहर में प्याज- रोटी ही नसीब में था। सब्जी बनाने का समय नहीं मिला, क्यों कि बड़े भैया आशीष बुधिया जी का आग्रह था कि होटल गैलेक्सी में आयोजित कालीन और दरी निर्यातकों की मीटिंग में आना है। जलपान तो वहां भी बढ़िया था, पर मैंने आजीवन बढ़िया भोजन न करने का कठोर संकल्प ले रखा है, इस वर्ष से। सो ,एक बर्फी खा कर ठंडा पानी पी लिया और चाय पी कर जो बिस्तरे पर आ गिरा, तो नींद ऐसी लगी कि रात्रि में भी कुछ खाने की व्यवस्था नहीं कर सका..
       मेरे जीवन संघर्ष का सबसे कठिन और लम्बा दौर सचमुच यूं समाप्त हो गया है। अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। अब देखें न आज थकान के कारण देर शाम आंखें लग गयी थीं और अचनाक रात्रि के साढ़े नौ बजे  हड़बड़ा कर उठ बैठा। ऐसा लगा कि देर तो नहीं हो गयी , पेपर लेने शास्त्रीपुल पर जान में...मोबाइल के स्क्रीन पर नजर दौड़ाई घंटी तो नहीं बजी तो,  अनिल ने बस नंबर बताने के लिये फोन तो नहीं किया था। अकसर ऐसा होता है जब बीच में निंद्रा भंग हो जाती है तो अपने याददाश्त को न जाने क्या हो जाता है। खैर याद आयी कि मैंने ही तो उसे कह दिया था कि तुम्हें भी देर शाम तक वाराणसी कैंट डिपो में बस तलाशने की अब जरूरत नहीं है। अखबार वाली जीप से रात में बंडल लगा दिया करों। सो, फिर कुछ देर के लिये सो गया। ऐसी आजादी कहां मिली थी इन पच्चीस वर्षों में.. अखबार का बंडल लेने के लिये मैंने करीब बीस वर्ष औराई चौराहे पर घंटों खड़े रह कर गुजारा है और साढ़े तीन वर्ष शास्त्रीपुल पर .. शेष डेढ़ वर्ष तक मीरजापुर से वाराणसी प्रतिदिन आता जाता था। बंडल ना छुटने पाए , यह एक ऐसा जुनून था कि तेज बारिश में भी छाता से सिर ढके औराई चौराहे पर बस को निहारता रहता था। कितनी ही सड़क दुर्घटना वहां चौराहे पर मेरी आंखों के सामने हुये जिनमें भाजपा के तीन जिले के संगठन के मंत्री की मौत को तो आज तक मैं भूला नहीं हूं। मुझे बसों के पीछे पागलों की तरह भागता देख वहां जो मित्र बंधु थें , वे गुस्से में कहां करते थें कि तुम्हारी भी समाधि एक दिन जरूर औराई चौराहे पर बनेगी। वह दिन आ भी जाता, पर मैं सौभाग्यशाली रहा और बचता रहा! सबसे अधिक परेशानी सावन माह में हुआ करती थी। जब जीटी रोड की एक तरफ की सड़क कांवड़ियों के हवाले कर दी जाती थीं। ऐसे में बसें काफी विलंब से आती थीं। बाद में मीरजापुर जब बंडल लेने लगा, तो वर्तमान सरकार में ट्रैफिक जाम की स्थिति इतनी भयावह हो गयी थी कि पेपर 9 से 10 बजे के बीच आने लगा था। रात्रि के साढ़े 11 तक बज जाते थें पाठकों के दरवाजे-दरवाजे अखबार पहुंचाते हुये। इसी विलंब के कारण मेरे पास जो अन्य लड़के पेपर बांटने वाले थें , काम छोड़ चले गये। एक युवक ने जो सदैव मुझसे पांच हजार के आस पास एडवांस भी लिये रहता था, ने पैसा वापस करने की जगह यह ताना मारा था कि आपको तो परिवार है नहीं, इसलिए रात सड़कों पर घुमते रहते हैं। लेकिन, मेरी पत्नी मेरा इंतजार कर रही है भोजन पर। मैं कितने ही पैसे इसी तरह से लड़कों को एडवांस देकर गंवाए हैं, ताकि अखबार रात्रि साढ़े 9 बजे तक विंध्यवासिनी धाम से लेकर नगर में चहुंओर दिखता रहे। इन 25 वर्षों में चाहे कुछ भी हो जाए, सारे संबंध टूट जाये, बुखार से शरीर तपता हो, मार्ग जाम के कारण तीन-चार किलोमीटर भी पैदल चलना हो, बंडल लेकर ही औराई से लौटता था। यह मेरा अपना संघर्ष था संस्थान से तनिक भी सहानुभूति नहीं मिली थी कभी ! जब बीमार था , चादर लपेट कर भी औराई चौराहे जाया करता था, तब भी किसी ने यह नहीं कहा कि अच्छा किसी से बंडल भेज रहा हूं मीरजापुर ...वहीं मैं बावला बड़े अखबारों के बुलावे पर भी उनके दफ्तर में नौकरी करने गया नहीं। जबकि अच्छा वेतन भी मिल रहा था। राजनीति और क्राइम की खबरों को लेकर मेरी सराहना होती थी। पर मैं था कि पागलों की तरह रात के अंधेरे में भी गांडीव लिये गली-गली साइकिल दौड़ाये ही जा रहा था। क्यों कि बंधुओं यह मेरे लिये एक निर्जीव पेपर नहीं है...मैंने इस पौधे को यहां बड़ा करने के लिये अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण 25 वर्ष यूं ही गंवा दिया ! मुझे इसका तनिक भी दुख नहीं है। क्यों कि जब बेघर था ,तो मेरी क्षुधा को इसी ने शांत की थी।
(शशि)

Friday 1 June 2018

अंधेरी गलियों में अब ना रखूंगा कदम...



कोई ढ़ाई दशक लम्बा कठिन संघर्ष इस मई माह के आखिरी दिन  बिखर सा गया। पाठकों के लिये यह संदेश व्हाट्स अप ग्रुप में टाइप करते समय मेरी उंगलियां कुछ कांप सी रही थीं। फिर भी मजबूर था। सारे रास्ते बंद हो चुके थें।  मैंने यह लिखा था कल ही तो...
             *मित्रों/ अग्रजों सहित स्नेही सभी पाठकों को बताना चाहता हूं कि रात्रि में वाराणसी से बस नहीं मिल रही है, यदि मिल भी रही है तो भारी जाम लगा रहता है, ऐसे में बिगड़ते स्वास्थ्य और जो इस असम्वेदनशील सरकार का रवैया है(जिसका परिणाम , चुनाव में आप सभी देख रहे हैं) , इन्हीं कारणों से अब रात्रि में अखबार वितरण कर पाने में असमर्थ हूं। ढ़ाई दशक तक आपकी सेवा देर रात तक पेपर बांट कर की है। लेकिन, इस सरकार और उसके रहनुमाओं में अब सम्वेदनाओं का कोई स्थान नहीं है। सो, अब सुबह ही पेपर पहुंचा पाऊंगा। जिनका सहयोग और आशीर्वाद मुझ हॉकर पत्रकार को मिलेगा। उनकी सेवा जारी  रहेगी और जो पाठक अखबार बंद करना चाहें, तो साहब कल तक बता दें। बड़ी कृपा होगी।*

      सत्ताधारी इन रहनुमाओं से मैंने एक आखिरी गुहार 25 मई को यहां तुलसी भवन में तब लगाई थी...

   जब भाजपा के चार वर्ष पूरा होने के अवसर पर एक पत्रकार वार्ता में पार्टी के प्रदेश संगठन के मंत्री मोदी सरकार की  उपलब्धियां  गिनवा रहे थें । मैंने मंत्री जी से कहा था कि
कैंट वाराणसी से फ्लाईओवर हादसे के बाद से बस देर शाम नहीं मिल रही है। अवरुद्घ मार्ग कब खुलेगा। जिस पर ,संगठन मंत्री का कहना रहा कि धैर्य रखें रुड़की से इंजीनियरों की टीम आयेगी , जांच के पश्चात मलबा हटा रास्ता खोल दिया जाएगा। समझ में नहीं आता कि रुड़की अमेरिका में है क्या कि पखवाड़े भर से ऊपर इस हादसे को हो गया और रास्ता बंद है ।
    अंततः मुझे वह अप्रिय निर्णय लेना ही पड़ा, जिसे मैं पिछले वर्ष से ही टालता आ रहा था। मीरजापुर आने के बाद से जो मेरी पहली पहचान थी, मेरी तपस्या थी और जिसके कारण मैं श्रेष्ठता का अनुभव कर गौरवान्वित महसूस करता था, जिसे अभी मैं खोना बिल्कुल भी नहीं चाहता था, भले ही स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था... जी हां यह मेरी दीवानगी ही थी कि रात्रि में 11 बजे तक पेपर बांटने वाला इकलौता हॉकर था , अपने पेशे के प्रति इस मोहब्बत का विवशता में परित्याग करते समय मेरी मनोदशा कैसी है, उसे आपको कैसे समझाऊं...शायद  इसीलिये बड़े बुजुर्ग सदैव कहा करते थें कि यौवन के ढलान पर हमसफर का होना जरुरी है। ताकि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में अवसाद से बचने के लिये किसी के आंचल का सहारा मिल सके। खैर , जब मेरा अस्तित्व ही एक बंजारे में तब्दील हो गया , तो फिर इस व्याकुलता, इस वेदना ,इस व्यथा पर नियंत्रण पा ही लूंगा , हां अभी पीड़ा में हूं। हुआ यूं कि 31 मई  को देर शाम शास्त्री पुल पर अखबार का बंटल लेने कोई पखवारे भर बाद खड़ा था। सोचा था कि यदि नौ बजे भी पेपर लेकर बस आ जाती ,तो कम से कम स्नेही पाठकों से दुआ सलाम हो जाता। पच्चीस वर्षों से हर संबंधों को तोड़ कर यही तो एक रिश्ता ग्राहक और मेरा बचा था...
      बस और बंडल का पुल पर बेसब्री के साथ बस की प्रतीक्षा में खड़ा था। घड़ी ने रात्रि के 10 बजने का संदेश दे दिया था ...कब बस आती और कब पेपर बांटता। पहले  9 बजे तक पेपर बांट कर खाली हो जाता था और  अब 10 बजे बंटल ही मिलना कठिन था ।  समय से अखबार आने से ही तो समाचार लेखन की सार्थकता हैं न। पर ऐसा हो नहीं रहा था.. और मुझे कहना ही पड़ा...
" तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद "

(शशि)