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Friday 19 October 2018

है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर...

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मैं और मेरी तन्हाई के किस्से ताउम्र चलते रहेंगे , जब तक जिगर का यह जख्म विस्फोट कर ऊर्जा न बन जाए , प्रकाश बन अनंत में न समा जाए।
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(बातेंःकुछ अपनी, कुछ जग की)

कल  सुबह अचानक फोन आया ..अंकल!  महिला अस्पताल में पापा ने आपको बुलाया है... दीदी को पापा- मम्मी लेकर गये है...।
    पता चला कि उनकी बिटिया को प्रसव पीड़ा शुरू है। बड़ी पुत्री की पहली डिलेवरी रही , अतः माता- पिता ने सोचा कि गांव के ससुराल से बेहतर सुविधा वे यहाँ मायके में उपलब्ध करवा सकते हैं। पर सरकारी अस्पताल का हाल जगजाहिर है ही, परम स्वतंत्र हैं  यहाँ के मसीहा..।
       यदि बेहतर उपचार चाहिए तो पैसा या फिर जुगाड़ होना ही चाहिए, अन्यथा फिर...?  खैर , नगर विधायक प्रतिनिधि चंद्रांशु गोयल ने सहयोग किया। हमारे पत्रकार साथी सुमित गर्ग भी आ गये। हमें पत्रकार जान डाक्टर और नर्स ने अच्छे व्यवहार का प्रदर्शन किया और भाई साहब नाना बन गये। यह  शुभ समाचार उन्होंने सबसे पहले मुझे ही फोन पर दी।

       ढ़ाई दशकों की पत्रकारिता के इस सफर में इसी सवाल का जवाब तो तलाश रहा हूँ मैं कि कलयुग के ये भगवान  , ये मसीहा, ये रहनुमा , ये माननीय, ये नौकरशाह  अपने पथ से विचलित क्यों हो गये और जनसेवक की जगह दौलत पुत्र क्यों हो जाते है.. ? सरकारी वेतन, बंगला और गाड़ी सारी सुख सुविधा इन्हें मिलती है फिर भी...।
      अभी पिछले ही महीने की तो बात है , सूबे के एक ताकतवर  मंत्री , जिनकों अपने इस जनपद में विकास की गति को बढ़ाने, जनहित के मुद्दों पर अफसरों की क्लास लेने और साथ ही सरकार की छवि निखारने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, ने इसी महिला चिकित्सालय का निरीक्षण किया। मरीज और उनके तीमारदारों से यहाँ की खामियाँ पूछी, सुविधा शुल्क लिये जाने की शिकायत आई। जिस पर भड़के मंत्री ने आरोपियों को जेल भेजने की बात तक कह दी ,अपने चादर से अधिक पांव बढ़ा कर...। सप्ताह, पखवाड़ा और माह बीत गये , क्यों कोई कार्रवाई नहींं हुई ...?
   इन राजनेताओं की घुड़की का कितना प्रभाव पड़ता है, जनता भी इसे अब समझने लगी है। नयी सड़क गड्ढ़े वाली पर फिसल कर बाइक सवार पिता ने अपने जिगर के टूकड़े को खो दिया। फिर इस भ्रष्टाचार पर किसी माननीय की आँखें नम नहीं हुई, न ही ठेकेदार कठघरे में खड़ा हुआ...?
   याद रखें , राजनेताओं से यह डगर एक दिन जब यही सवाल करता है, तो वे स्वयं जनता की अदालत के कठघरे में होते हैं...।

   बहरहाल, मुझे इस बात की खुशी हुई कि किसी के लिये कम से कम पत्रकार होने के कारण एक नेक कार्य तो कर पाया  मैं...

    नहीं तो दिन अपना खबरों की दुनिया में बितता है और रात दर्द भरी तन्हाई में.. ।  सप्ताह में सातों दिन शाम की रोटी मिलेगी ही, इसकी भी गारंटी नहीं है। मन उदास रहा, बुखार रहा अथवा आलस्य ने घेर लिया, तो पतंजलि के आटे वाले बिस्किट- पानी से ही काम चल जाता है, पर्व पर भी..। भले ही यह शरीर परिस्थितिजन्य किसी तपस्वी सा दुर्बल होता जा रहा हो, फिर भी न मुझे इसकी परवाह है और न कोई है ऐसा इर्द-गिर्द जो तनिक प्रेम जता ठीक समय दो जून की रोटी देता..! हाँ सुबह दलिया अवश्य बना-खा के समाचार संकलन को निकलता हूँ। ऐसे में कभी मेरे पड़ोस में किराएदार रहें ये इस दम्पति से जान पहचान हो गयी थी।
     अन्यथा हम बंजारों का इस दुनियाँ के मेले में कैसा रिश्ता- नाता ..?  जब भी इस रात की तन्हाई में किसी अपने को और अपनी मंजिल को तलाशता हूं, तो इस नगमे के सिवा और कुछ न हाथ लगता है..
एक राह रुक गयी तो और जुड़ गयी
मैं मुड़ा तो साथ-साथ राह मुड़ गयी
हवा के परों पर मेरा आशियाना
मुसाफिर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना..

     नियति का यह कठोर दंड मेरे लिये जेल के उस तन्हाई वाले बैरक की तरह है ,जहाँ कुख्यात कैदियों को रखा जाता है...।
    इस खूबसूरत दुनिया के पिंजरे में तन्हा कैद अनंत को निहार रहा हूँ , फड़फड़ाते हुये ... ऐसे पर्व पर मुक्त होने की चाहत लिये...।
  देखें ना ऐसी कैदियों के भी अपने हैं, जो माह- पखवाड़े,  रविवार को अन्यथा पर्व पर तो निश्चित ही जेल पर आ उनसे मुलाकात कर जाया करते हैं.. दाना - पानी कुछ दे जाया करते हैं.. उनके भी सपने अभी शेष हैं... । यहाँ अपने इस बंद कमरे में भला कौन आएगा , क्यों आएगा और  कैसे आ आएगा...।
  अतः अब तो पर्वों का भी पता, सड़कों पर बढ़ी चहल-पहल से ही चलता है मुझे.. जब सभी अपने परिजनों संग खुशियाँ मना रहे होंगे ... तब यह तन्हाई मुझे एहसास कराती है कि कोई त्योहार है आज, इसीलिये सभी व्यस्त हैं ...  फिर मुझे कौन पूछेगा और क्यों ..?
   खैर मैं और मेरी तन्हाई के किस्से ताउम्र चलते रहेंगे , जब तक जिगर का यह जख्म विस्फोट कर ऊर्जा न बन जाए, प्रकाश बन अनंत में न समा जाए...।
    इस तन्हाई को मैं नकारात्मक शक्ति मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हूँ, यह मेरी चिन्तन शक्ति है..।
     अपनी वेदना को, अपने रूदन को, अपने एकांत को चरम तक पहुँचाने का प्रयास हमें करना होगा,  वैराग्य से नीचे इस जीवन के उलझे मार्ग में हम जैसों के लिये कोई सुख नहीं है, जो अन्य तृष्णा है भी, वह छलावा है, अवरोध है...। यह विजयादशमी पर्व फिर से मुझे इस सत्य को अवगत करा गया.. ।
 यदि हम जैसे लोग गृहस्थ जनों जैसे आनंद की कल्पना करेंगे तो, बार - बार फिसल कर हाथ- पांव चोटिल करते रहेंगे, फिर कौन मरहम पट्टी  करेगा इस मासूम से मन का...
  दिल अपना और दर्द पराया , यदि जब कभी ऐसी स्थिति बने भी तो उसे जनकल्याण को समर्पित कर दें , यही वैराग्य है, सन्यास है..
 मेरा अपना मानना है कि जब तक आत्मज्ञान विकसित नहीं होता  सकारात्मकता की बातें इंद्रजाल जैसी ही लगती हैं, हम जैसों को , भले ही ज्ञान के बाजार में सकारात्मकता सुपर माडल हो...
  साथियों .. !   बुद्ध, भृतहरि,तुलसी और विवेकानंद  जैसे महापुरुषों ने भी  अपनी वेदना को चरम पर पहुँचाने की कोशिश की है, तभी उस ज्ञान प्रकाश को वे प्राप्त कर सके हैं।
   किसी भी तरह की लज्जा की अनुभूति नहीं करों बंधु मेरे, क्यों कि यही रूदन हमें वैराग्य एवं मोक्ष प्रदान करेगा..
  नवजात शिशु ने यदि माँ के गर्भ के बाहर आने पर रूदन नहीं किया तो , क्या उसका जीवन सम्भव है...?
 वहीं, उसके रूदन करते ही इस धरती पर उसके आगमन के स्वागत में खड़े वे अजनबी लोग, जिनसे प्रथम बार उसका संबंध तय हुआ है, देखो न वे आपस में किस तरह से शुभकामनाएं देने लगते हैं।
   संत कबीर ने कितनी अद्भुत बात कही है...

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये |
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ||

  हमारे तपोभूमि विंध्य क्षेत्र में ऐसे भी साधक नवरात्र पर्व पर आते रहे हैं, जो किसी एकांत स्थल पर किसी आसन में बैठ माँ भगवती के ध्यान में अनंत को निहारते रहते थें और उनके नेत्रों से निरंतर अश्रु टपकते रहते थें। सच तो यह है कि रूदन से नवीन स्फूर्ति, उत्साह और शांति की अनुभूति होती है।  स्मृति एवं वियोग में ही नहीं इष्ट की चाहत में भी हम सिसकते हैं...
 यह सौभाग्य हर किसी को प्राप्त नहीं है। इसमें दिखावट और बनावट जो नहीं है।
  हाँ , यह सत्य है कि जब लौकिक प्रेम से हम वंचित रह जाते हैं, तो अलौकिक सुख की ओर आकृष्ट होते हैं और जबतक इसकी अनुभूति नहीं होती, तबतक रंगीन दुनिया दर्द देती ही रहती है ।  मैं तो ऐसे गीतों के सहारे ऐसे विशेष पर्व पर तन्हाई दूर करने का प्रयत्न करता रहा हूँ..
 
जिन्दगी को बहुत प्यार हमने दिया
मौत से भी मोहब्बत निभायेंगे हम
रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेंगे हम
जायेंगे पर किधर है किसे ये खबर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र...

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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