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Saturday 6 June 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल -3[ अंतिम भाग]

(जीवन की पाठशाला से)
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       लॉकडाउन -5 ने मुझे लगभग तीन दशक पश्चात यहाँ मीरजापुर में पुनः 'अनलॉक' होने का   स्वर्णिम अवसर दिया है। मैं ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर भी वर्षों से प्रातः भ्रमण का आनंद नहीं उठा पाया रहा था, क्योंकि अपनी संघर्ष सहचरी साइकिल संग अख़बार वितरण के लिए निकलना होता था।
इससे पूर्व 22 वर्षों तक जब रात्रि में समाचारपत्र वितरित करता था, तब भी सुबह होते ही समाचार संकलन की चिन्ता सताने लगती थी,किन्तु लोकबंदी के करीब दो महीने पश्चात एक जून को प्रातः साढ़े चार बजे जैसे ही होटल का मुख्यद्वार खोला, वहाँ खड़ी मेरी साइकिल ने आवाज़ लगाई -" मित्र, आज अकेले ही यात्रा पर,क्या मुझसे नाराज़ हो ? " 
    वे स्नेहीजन जो संघर्ष के साथी रहे हो ,उनके प्रति कृतज्ञता तो पशु भी व्यक्त करते हैं,फ़िर मैं मानव होकर अपनी साइकिल का उपकार कैसे भूल सकता हूँ, इसलिये मैंने उससे कहा - 
" अरी पगली, ऐसा कुछ नहीं है। इस रंग बदलती दुनिया में एक तू ही तो है,जिसने कभी मेरे साथ छल नहीं किया है, लेकिन उम्र के ढलान पर तुझे भी विश्राम की आवश्यकता है। बहुत हो गया यह काम-वाम, अब हम दोनों अपनी मौज़ के लिए साथ निकलेंगे। "
      मित्रता तभी निभती है जब प्रेम दोनों तरफ़ से हो। साइकिल यदि मेरे संघर्ष में सहायिका रही है,तो मैंने भी इसके सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया है। बड़े से बड़े राजनेताओं से लेकर अफ़सर और उद्योगपतियों तक की पत्रकार वार्ता और पार्टियों में मैं इस पर सवार हो कर गर्व से मस्तक ऊँचा किये जाता रहा हूँ। जहाँ कीमती कार और मोटर साइकिलें खड़ी रहती हैं, उन्हीं के मध्य मेरी साइकिल भी विराजमान रहती है। 
    जो संघर्ष के साथी हो,ऐसे सच्चे हितैषी के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचे, यह हमारा दायित्व है। इसके लिए मैंने कई बार मोटरसाइकिल के प्रलोभन को ठुकराया है,क्योंकि मुझे कभी यह ग्लानि नहीं हुई कि मैं साइकिल वाला पत्रकार हूँ और वे बाइक -मोटर वाले। जिसके पास ईमानदारी का धन होता है, वह अपने संतोष से सम्राट बना रहता है, न कि अभिलाषाओं से दरिद्र,इसीलिये धनी और निर्धन के प्रश्न पर मेरे साथ कभी भेदभाव नहीं हुआ। क्या ये "साइकिल वाले " राजनेता भी ऐसा ही कर रहे हैं ? यहाँ तो मैंने देखा है कि कार वाले बड़े पदाधिकारी हैं और साइकिल वाले दरी बिछा रहे हैं। इनके मध्य स्वामी और दास जैसा संबंध है।
     विडंबना यह भी देखें कि विश्व साइकिल दिवस पर देश की सबसे पुरानी साइकिल कंपनी एटलस के प्लांट पर फ़ैक्ट्री बंद करने का नोटिस लग गया। कोरोना के दंश का सीधा प्रभाव  इस कंपनी और उसके कर्मचारियों पर पड़ा है।
    अनेक राजनेता, समाज सेवक, पर्यावरणविद , कवि और लेखक इस दिन साइकिल की उपयोगिता पर अनेक लच्छेदार बातें करते हैं, किन्तु इनमें से कितने साइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इनके लिए साइकिल यात्रा एक फ़ैशन शो से अधिक कुछ भी नहीं है। कैसा आश्चर्य है कि साइकिल समाज के एक बड़े वर्ग की आवश्यकता है, पहचान है, लोकबंदी में इसने कितने ही श्रमिकों को उनके गाँव सुरक्षित पहुँचाया है,किन्तु आज़ यह उनका सम्मान नहीं बन सकी है ! 
     हाँ, यदि राजनेता ,अभिनेता और संपन्न लोग अपनी महंगी मोटर गाड़ी की तरह साइकिल की सवारी करने लगें, तो अवश्य ही यह सर्वसमाज के लिए शानदार सवारी बन सकती है। परंतु ध्यान रहे कि वह लखटकिया बाइसिकल न हो, जिसे सामान्य जन क्रय ही नहीं कर सके।
    हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी को सम्मान दिलवाने के लिए पहले स्वयं उसे धारण किया था, ताकि भारत की ग़रीब जनता खादी से निर्मित वस्त्र पहन कर हीनभावना से ग्रसित न हो। और अब क्या हो रहा है खादी अमीरों की शान है और ग़रीब उससे वंचित हो गये हैं।  
बापू के साबरमती आश्रम में विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति भी चरखा चलाते हैं । और विडंबना देखें कि गांधी आश्रम के नाम से खुले किसी भी वस्त्रालय में खादी की एक सदरी का मूल्य तीन हजार से कम नहीं है। खादी आम आदमी से दूर ख़ास आदमी की पोशाक बन कर रह गयी है। यदि साइकिल के साथ भी ऐसा ही कुछ करना हो, तो उचित यही है कि ये भलेमानुष इसकी सवारी नहीं करें ।  इसे गांधीवाद और समाजवाद नहीं कहते हैं। यह तो सामंतवाद है। ग़रीबोंं की वस्तुओं पर डाका डालना है।
     किसी  विशेष अवसर पर गांधी टोपी तो अनेक भद्रजन सिर पर रख लेते हैं, परंतु समाज पर प्रभाव रखने वाले विशिष्ट लोग क्या कभी टेलीविज़न स्क्रीन पर ऐसे किसी सस्ते उत्पाद का प्रचार-प्रसार करते दिखते हैं, जो स्वास्थयवर्धक हो और जनसामान्य तक उसकी पहुँच हो ? तब गांधी जी के चरखे की याद उन्हें क्यों नहीं रहती है ?
        मैं इन दिनों सुबह ज़िंदगी की आपाधापी से दूर ऐसे ही विचारों में खोया कदमों से सड़कों को नापते रहता हूँ। सच में इस लोकबंदी ने मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। मौसम कैसा भी हो नियमित अख़बार लाना और उसे पाठकों तक पहुँचाया, अब मैं इस बंधन से मुक्त हूँ। एक जून से सुबह जो भी प्रतियाँ बंडल में प्राप्त होती हैं,उन्हें प्रातःभ्रमण का आनंद उठाते हुये चुनिंदा पाठकों तक पहुँचा देता हूँ। किसी प्रकार का तनाव नहीं है। मैं आज़ाद हूँ। अपनी खोई हुई वह मुस्कुराहट वापस चाहता हूँ,जिसे कोलकाता के हावड़ा ब्रिज अथवा कालिम्पोंग में छोड़ आया हूँ। बचपन में घोष दादू की उँगली थामे  हावड़ा बृज का भ्रमण किया करता था। वो मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत शाम थी और युवावस्था में  कालिम्पोंग की वादियों में सुबह का सैर भला कैसे भूल सकता हूँ। मार्ग में लकड़ी से निर्मित छोटी-छोटी दुकानों पर मोमोज़- ब्लैक टी(काली चाय) आदि लेकर बैठी सरल स्वभाव की नेपाली युवतियाँ मिलती थीं। मैं तो बस एक बड़ा सा सेब लेता था। वहाँ यही मेरा एकमात्र जेबख़र्च था। तब मेरे इस मुस्कान में दर्द नहीं होता था, किन्तु इसके पश्चात यहाँ मीरजापुर में जब भी मुस्कुराया हूँ, दर्द छिपा कर । इसमें आनंद नहीं है , फ़िर भी मैं इसे अनुचित नहीं मानता, क्योंकि वह कहते हैं न-

रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।

सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय ।।

   हमारी व्यथा कथा सुनकर सहानुभूति के दो शब्द कहने वाले सच्चे हितैषी हो,यह आवश्यक नहीं है। ग़ैरों के तनिक से स्नेह रूपी आँच में हम  भावनाओं में बह कर मोम सा पिघल जाए और  अवसर पाकर वे हमारा तिरस्कार करें , फ़िर तो हमारी वेदना असीमित हो सकती है। ब्लॉग पर सक्रिय होने के पश्चात यह एक और सबक़ मुझे सीखने को मिला है। 

     मन की यह शिथिलता बाहरी कष्ट से कहीं अधिक प्रभाव दिखलाती है। ऐसे में मनुष्य को स्फूर्ति के लिए अपनी दिनचर्या में वह कार्य भी सम्मिलित करना चाहिए, जिससे उसे आनंद की अनुभूति हो। जब मैं बनारस में अपनों के स्नेह, शिक्षा और व्यवसाय से वंचित हो गया,तो उदासी भरे उन दिनों में  कंपनी गार्डेन से मित्रता कर ली थी। इस सुदंर वाटिका में प्रातः भ्रमण किया करता था। वहाँ बुजुर्ग आपस में जो ज्ञानवर्धक संवाद करते थे,वह मेरे अवसाद का शमन करता था। 
 और यहाँ अब मैं अपने विचारों को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ। यही मेरी औषधि है। आज सन्त कवि कबीरदास की जयंती है। आत्मबोध के लिए इनके इस संदेश पर मनन आवश्यक है --

  " मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,मैं तो तेरे पास में।"


   अर्थात  स्वयं के भीतर विद्यमान प्रकाश के स्त्रोत और शांति की अनुभूति से ही दुःख और अज्ञानता पर विजय संभव है ।

       और रही साइकिल संग मेरी मित्रता,तो जीवन के संध्याकाल में ही सहचरी की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। इसने न सिर्फ़ मेरे पैरों को वरन् मस्तिष्क को भी क्रियाशील रखा है। जो ईमानदारी की झंकार मेरी वाणी में, वह भी इसी से है। यदि साइकिल का त्याग कर मैंने मोटरसाइकिल की सवारी की होती, तो आज़ पुनः भूख से संघर्ष कर रहा होता अथवा भ्रष्टतंत्र के हाथों की कठपुतली बना फिरता। अथक परिश्रम से अर्जित जो कुछ भी धन मैंने संचित कर रखा है, वह बाइक की उदरपूर्ति में ख़र्च हो गया होता।

          - व्याकुल पथिक