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Saturday 2 June 2018

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे...

 
     मदर इंडिया फिल्म का एक प्यारा सा गीत है..

 दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे
/ रंग जीवन में नया लायो रे...

       आज सुबह चार बजे जब मैं उठा और स्नान कर पौने पांच बजे अखबार का बंडल लेने मुकेरी बाजार चौराहे पर पहुंचा, तो सारे अवसाद से मुक्त था। इन पच्चीस वर्षों में खुले वातावरण में सुबह को उगते मासूम से उस लाल सूरज को कहां देख पाया था। जिससे मैं काशी के गंगा घाट पर हर सुबह आंखें मिला कर बातें किया करता था। पर अब मैं वह सब कर सकता हूं। सुबह दो घंट साइकिल चलाना कोई खराब नहीं लग रहा था, बल्कि इस दुर्बल शरीर में कुछ स्फूर्ति ही आ गयी ,ताजी हवा लगने से। अनेक स्नेही पाठकों ने कह रखा है कि शशि भाई चिन्ता ना करें, पेपर सुबह ही डाल दिया करें। ग्राहक और हॉकर वाला उनका - मेरा संबंध नहीं है और ना ही एक पत्रकार जैसा ही। सो, सुबह अखबार बांटने में बड़ा ही आनंद आ रहा था, ऐसा लगा कि चिन्ता से मुक्त हो चिन्तन  की ओर बढ़ रहा हूं। पैसा और भोजन यह दोनों मेरे लिये प्रधान कभी नहीं रहा। आज ही कोर्ट में तारीख के कारण दोपहर में प्याज- रोटी ही नसीब में था। सब्जी बनाने का समय नहीं मिला, क्यों कि बड़े भैया आशीष बुधिया जी का आग्रह था कि होटल गैलेक्सी में आयोजित कालीन और दरी निर्यातकों की मीटिंग में आना है। जलपान तो वहां भी बढ़िया था, पर मैंने आजीवन बढ़िया भोजन न करने का कठोर संकल्प ले रखा है, इस वर्ष से। सो ,एक बर्फी खा कर ठंडा पानी पी लिया और चाय पी कर जो बिस्तरे पर आ गिरा, तो नींद ऐसी लगी कि रात्रि में भी कुछ खाने की व्यवस्था नहीं कर सका..
       मेरे जीवन संघर्ष का सबसे कठिन और लम्बा दौर सचमुच यूं समाप्त हो गया है। अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। अब देखें न आज थकान के कारण देर शाम आंखें लग गयी थीं और अचनाक रात्रि के साढ़े नौ बजे  हड़बड़ा कर उठ बैठा। ऐसा लगा कि देर तो नहीं हो गयी , पेपर लेने शास्त्रीपुल पर जान में...मोबाइल के स्क्रीन पर नजर दौड़ाई घंटी तो नहीं बजी तो,  अनिल ने बस नंबर बताने के लिये फोन तो नहीं किया था। अकसर ऐसा होता है जब बीच में निंद्रा भंग हो जाती है तो अपने याददाश्त को न जाने क्या हो जाता है। खैर याद आयी कि मैंने ही तो उसे कह दिया था कि तुम्हें भी देर शाम तक वाराणसी कैंट डिपो में बस तलाशने की अब जरूरत नहीं है। अखबार वाली जीप से रात में बंडल लगा दिया करों। सो, फिर कुछ देर के लिये सो गया। ऐसी आजादी कहां मिली थी इन पच्चीस वर्षों में.. अखबार का बंडल लेने के लिये मैंने करीब बीस वर्ष औराई चौराहे पर घंटों खड़े रह कर गुजारा है और साढ़े तीन वर्ष शास्त्रीपुल पर .. शेष डेढ़ वर्ष तक मीरजापुर से वाराणसी प्रतिदिन आता जाता था। बंडल ना छुटने पाए , यह एक ऐसा जुनून था कि तेज बारिश में भी छाता से सिर ढके औराई चौराहे पर बस को निहारता रहता था। कितनी ही सड़क दुर्घटना वहां चौराहे पर मेरी आंखों के सामने हुये जिनमें भाजपा के तीन जिले के संगठन के मंत्री की मौत को तो आज तक मैं भूला नहीं हूं। मुझे बसों के पीछे पागलों की तरह भागता देख वहां जो मित्र बंधु थें , वे गुस्से में कहां करते थें कि तुम्हारी भी समाधि एक दिन जरूर औराई चौराहे पर बनेगी। वह दिन आ भी जाता, पर मैं सौभाग्यशाली रहा और बचता रहा! सबसे अधिक परेशानी सावन माह में हुआ करती थी। जब जीटी रोड की एक तरफ की सड़क कांवड़ियों के हवाले कर दी जाती थीं। ऐसे में बसें काफी विलंब से आती थीं। बाद में मीरजापुर जब बंडल लेने लगा, तो वर्तमान सरकार में ट्रैफिक जाम की स्थिति इतनी भयावह हो गयी थी कि पेपर 9 से 10 बजे के बीच आने लगा था। रात्रि के साढ़े 11 तक बज जाते थें पाठकों के दरवाजे-दरवाजे अखबार पहुंचाते हुये। इसी विलंब के कारण मेरे पास जो अन्य लड़के पेपर बांटने वाले थें , काम छोड़ चले गये। एक युवक ने जो सदैव मुझसे पांच हजार के आस पास एडवांस भी लिये रहता था, ने पैसा वापस करने की जगह यह ताना मारा था कि आपको तो परिवार है नहीं, इसलिए रात सड़कों पर घुमते रहते हैं। लेकिन, मेरी पत्नी मेरा इंतजार कर रही है भोजन पर। मैं कितने ही पैसे इसी तरह से लड़कों को एडवांस देकर गंवाए हैं, ताकि अखबार रात्रि साढ़े 9 बजे तक विंध्यवासिनी धाम से लेकर नगर में चहुंओर दिखता रहे। इन 25 वर्षों में चाहे कुछ भी हो जाए, सारे संबंध टूट जाये, बुखार से शरीर तपता हो, मार्ग जाम के कारण तीन-चार किलोमीटर भी पैदल चलना हो, बंडल लेकर ही औराई से लौटता था। यह मेरा अपना संघर्ष था संस्थान से तनिक भी सहानुभूति नहीं मिली थी कभी ! जब बीमार था , चादर लपेट कर भी औराई चौराहे जाया करता था, तब भी किसी ने यह नहीं कहा कि अच्छा किसी से बंडल भेज रहा हूं मीरजापुर ...वहीं मैं बावला बड़े अखबारों के बुलावे पर भी उनके दफ्तर में नौकरी करने गया नहीं। जबकि अच्छा वेतन भी मिल रहा था। राजनीति और क्राइम की खबरों को लेकर मेरी सराहना होती थी। पर मैं था कि पागलों की तरह रात के अंधेरे में भी गांडीव लिये गली-गली साइकिल दौड़ाये ही जा रहा था। क्यों कि बंधुओं यह मेरे लिये एक निर्जीव पेपर नहीं है...मैंने इस पौधे को यहां बड़ा करने के लिये अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण 25 वर्ष यूं ही गंवा दिया ! मुझे इसका तनिक भी दुख नहीं है। क्यों कि जब बेघर था ,तो मेरी क्षुधा को इसी ने शांत की थी।
(शशि)