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Sunday 22 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
 
22/4/18

      हम सभी के पास हर परिस्थितियों में खुश रहने का विकल्प है। अब मुझे ही लें, अवस्था के साथ थकान और काम दोनों ही बढ़ता जा रहा है। सो, रात्रि में अखबार बांटते हुये, जब कभी पांव डगमगाने लगते हैं और साइकिल अनियंत्रित सी होती प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति में विचलित मन को समझने के लिये मैंने एक आसान सा सही तरीका ढ़ूंढ़ निकाला है। इस परिस्थिति में मैं जब भी अपनी तूलना एक वृद्ध रिक्शा अथवा सगड़ी चालक से करने की कोशिश करता हूं, तो पलड़ा उसका ही वजनी होता है।
    क्या कभी आपने महसूस किया है कि पापी पेट के लिये वह कितना संघर्ष करता है। सड़क पर जब भी चढ़ाई की स्थिति होती है, तो रिक्शे के पैडल पर किस तरह से उसके पांव जमे होते है, फिर भी बात नहीं बनी तब नीचे उतर वह धीरे धीरे धैर्य से अपने पूरे सामर्थ्य को एकत्र कर चढ़ान पार करता है। ऐसे में मेरी स्थिति अब भी उस बूढ़े रिक्शेवाले से बेहतर है न!  फिर मैंने अपनी शर्तों पर जीवन जीना पसंद किया हूं। पत्रकारिता में भले ही भोजन की तलाश में आया, लेकिन इस पेशे में आकर कभी भी इतना ग्रहण नहीं किया कि अपच हो जाए। तो फिर आप सोच रहे होंगे न कि इस पथिक की व्याकुलता क्या है। मेरे ब्लॉग में मेरी लेखनी से ऐसा आपकों लग रहा होगा कि मैं अत्यधिक कष्ट में हूं, एकाकी हूं और परिस्थितियों का सताया हुआ हूं। मैं इसे छिपाने की कोशिश भी नहीं करता। फिर भी बड़ा सच यह है कि मैं स्वाभिमानी हूं, असत्य लेखन नहीं करता और किसी का चरण चुम्बन पत्रकारिता में पसंद नहीं करता हूं। इसलिए अपने मजबूती के साथ अपने कर्मपथ पर डटा हुआ हूं। मुझे यह जो पीड़ा है, वह अपने ही पेशे से जुड़े उन लोगों से है, जो स्वयं को चौथा स्तम्भ कहते हैं , पर जब कोई सच्चा पहरुआ सामने आता है, तो एकजुट होकर कौओं की भाषा बोलने लगते हैं ! आज शाम की ही बात बताऊं, आंख की जांच करवाने एक  नेत्र चिकित्सक के यहां गया था। वार्तालाप के क्रम में उनके जुबां से भी यही निकल पड़ा कि आप पत्रकारों की स्थिति भी अब ना ...  दरअसल धनलोलुपता पत्रकारिता पर भारी पड़ती जा रही है। अनाड़ी रिपोर्टर ही पत्रकार बन बैठा है। जिसकी निगाहें सदैव जुगाड़ की तलाश में व्याकुल रहती है। यही मेरी पीड़ा का विषय है कि इस भीड़ से बचने के लिये हमारे जैसे पत्रकार कहां जाए। उनका और हमारा रंगमंच तो एक ही है न ...
    अभी पिछले ही दिनों एक युवा प्रतिभावान पत्रकार ने मुझे काफी  निराशा किया है। कहां तो वे कह रहें थें कि शशि भैया मैं आपकी तरह पत्रकारिता करना चाहता हूं और एक छोटा सा ऑफर आया नहीं कि पत्रकारिता का सारा नैतिक ज्ञान ताक पर धरा रह गया। अब उनकी पहचान एक जनप्रतिनिधि के मीडिया कर्मी के रुप में हो गई है। यदि पत्रकारिता पर राजनीति का ठप्पा एक बार लग गया, तो फिर लाख कोशिश कर लें आपको अपनी वह पुरानी पहचान नहीं मिल सकती है और निष्पक्ष पत्रकार तो बिल्कुल ही नहीं कहलाएंगे। इसलिए मैंने ऐसे कितने ही प्रलोभन ठुकरा दिये, ढाई दशक के इस सफर में, नहीं तो यह लक्ष्मिनिया मुझ पर भी प्रसन्न रहती। हो सकता था तब गृह लक्ष्मी की प्राप्ति भी हो जाती और घर गृहस्थी बस जाती। लेकिन मैंने बड़े बड़े पत्रकारों की स्थिति देखी है कि उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा घड़ियाल की तरह उनकी कलम को किस तरह से निगल गई। इसीलिए मैं सदैव ही एक पहचान की बात करता रहा हूं। (शशि)

क्रमशः